Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार -
प्रमाणके अगोचर है । बहुरि जो प्रमाणमैं न आवै सो वस्तु नाहीं, तातै कर्म नाहीं है ॥५२॥ बहुरि फेर कहैं हैं
सत्त्वेऽपि कतुन सुखादिकार्य, तस्यास्ति शक्तिर्गतचेतनत्वात् । प्रवर्तमानाः स्वयमेव दृष्टाः,
विचेतनाः कापि मया न कार्ये ॥५३ अर्थ-जीवविर्षे सुखादि कार्यके दूर करनेकी ता कर्मके शक्ति नाही, जातें कर्मके अचेतपना है । मैंने कोई कार्य विष अचेतन पदार्थकौं स्वयमेव प्रवर्तते न देखे ।
भावार्थ--जीवकै सूख ज्ञानादि घात करनेकौं कर्म समर्थ नाहीं जात आप अचेतन है। लोकमें अचेतन पदार्थ कार्य करते न देखे हैं, ऐसा तानं कर्मका अभाव साध्या ॥५३॥ अब आचार्य कहैं हैं
एषा महामो चवश्यर्न, युज्यते गीरभिधीयवाना। प्रमाणमस्माकमवध्यमानं,
यतोऽस्य सिद्धावनुमानमस्ति ॥५४॥ अर्थ-महा मोहरूप पिशाचके वशीभूत जे मिथ्यादृष्टि तिनकरि कही यह वाणी युक्त नाहीं, जातें इस कर्मकी सिद्धि विष हमारा अबाधित अनुमान प्रमाण है ॥५४॥
सो ही अनुमान दिखावे हैं-- · रागद्वेषमदमत्सरशोकक्रोधलोभभयमन्मथ मोहाः ।। सर्वजन्तुनिवतैरनुभूताः, कर्मणा किमु भवन्ति विनते ॥५५।।
अर्थ-सर्व जीविनिके समूहनि करि अनुभव किए ऐसे जे रागद्वेष, मद, मत्सर, शोक, क्रोध, लोभ, भय, काम, मोह इत्यादि विकार भाव हैं ते कर्म विना ये कैसे होय।।
भावार्थ-संसारी जीवनिकै कर्म बन्धै है जाते कर्मनिके उदयका कार्य जोरागादि भाव हैं ते सर्व जीवनि करि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करि