Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम परिच्छेद
[१६७
अर्थ-माया है सो मैत्री कहिए प्रीति ताका नाश कर है अर अप्रीतिकौं विस्तारै है, पापकौं विस्तारै है अर धर्मका विध्वंस कर है, दुःखकौं पुष्ट करै है अर सुखका अभाव करै है । बहुरि सो माया कौन निंदने योग्य है ताहि न करै है, सर्व ही करै है ॥५०॥
ऐसे मायाका वर्णन किया। आगें मिथ्यात्व शल्यका बर्णन करै हैं ;
न बुध्यते तत्त्वमतत्वमंगी, विमोह्यमानो रभसेन येन । त्यति मिथ्यात्वविषं पटिष्ठाः,
सदा विभेदं बहुदुःखदायि ॥५१॥ अर्थ-जिस मिथ्यात्वविष करि जबरदस्ती अचेत भया संता जीव है सो तत्व अतत्वकौं न जानै है तिस बहुत भेदरूप मिथ्यात्व विषकों पंडित जन हैं ते त्यागें हैं । कैसा है मिथ्यात्व विष बहुत दुःखका देनेवाला है, ऐसा जानना ॥५१॥ आगें मिथ्यात्वके अभिप्रायका वर्णन करें हैं
वदन्ति केचित् सुखदुःखहेतुर्न, विद्यते कर्मशरीरभाजाम् । मानस्य तस्मिन्निखिलस्य
हानेर्मानव्यपेतस्य न चास्ति सिद्धिः ॥५२॥ अर्थ-कोई कहै है-जीवनिकै सुख दुःखका कारण कम नाहीं है, जाते तिस कर्म बिर्षे समस्त प्रमाणनिकी हानि है । बहुरि प्रमाण रहितकी सिद्धि नाहीं।
भावार्थ-कोई कहैं हैं सुख दुःखका कारण कर्म नाहीं तातें कर्म इन्द्रियनिके गोचर नाहीं अर ताका लिंग कोऊ दीस नाहीं बहुरि कर्म-समान और पदार्थ दीसें नाहीं, बहुरि कर्म विना न होय ऐसे पदार्थकी अप्राप्ति है, बहुरि हमारे आगममें भी कर्मका अभाव कह्या है; ऐसे सर्व