Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम परच्छेद
[१६५
यो घातकत्वादि निदानमज्ञः करोति कृत्वा चरणं विचित्रं । हि वयित्वा फलदानदक्ष,
स नन्दनं भस्मयते वराकः ॥४४॥ अर्थ-जो नाना प्रकार चारित्र्यकौं करकै अर अज्ञानी धातकपना आदिका निदान करै है सो बावरा पुरुष फल देने में प्रवीण ऐसा जो नन्दन वन ताहि बढ़ाय करि भस्म करै है।
भावार्थ-जो चारित्रधारी द्वीपायनकी ज्यौं मारने आदिका निदान करै है सो चरित्रका नाश करै है, अनन्त संसारी होय है ऐसा जानना ॥४४॥
यः संयमं दुष्करमादधानो, भोगादिकांक्षां वितनोति मूढः । कंठे शिलामेष निधा य गुर्वी,
विगाहते तोयमलभ्य मध्यम् ॥४५॥ अर्थ-जो मूढ दुःखकर संयमकौं धारता संता भोगादिककी वांछाकौं विस्तारै है सो कंट विर्षे बड़ी शिलाकौं धारिक नाहीं मिलने योग्य है मध्य जाका ऐसा औंडा जलकौं अवगाहै है ॥४५॥
त्रिधा विधेयं न निदानमित्थं, विज्ञाय दोषं चरणं चरद्भिः । अपथ्यसेवां रचयंति सन्तो ,
विज्ञातदोषा न कृतौषधेच्छाः ॥४६॥ अर्थ-अणुव्रतादिरूप चारित्रकौं आचरन करते जे पुरुष तिनकरि या प्रकार निदानके दोषकौं जानिकै निदान है सो मन वचन काय करि करना योग्य नाहीं। जैसे करी औषधकी इच्छा जिननें अर जान्या है अपथ्यका दोष जिननें ऐसे सज्जन हैं ते अपथ्यका सेवन न करें हैं।
भावार्थ-संसार रोगकी औषध चारित्र है अर निदान संसार रोग बढ़ानेवाला कुपथ्य है । जे चास्त्रिधार हैं अर निदानकों बुरा जानें हैंनिदान न करें हैं, ऐसा जानना ॥४६॥