Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम परिच्छेद
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उच्चत्वनीच त्वविकल्प एष, विकल्प्यमानः सुखदुःखकारी। उच्चत्वनीचत्वमयी न योनिर्ददाति
दुःखानि सुखानि जातु ॥३८॥ अर्थ-ऊँचा है सो भी आपको नीचा देखता सन्ता कहा नीचके घोर दुःखकौं न प्राप्त होय है, होय ही है। बहुरि नीचा है सो भी आपको ऊँचा देखता संता कहा ऊँचा पुरुषके सुखकौं न पावै है, पावै ही है ॥६७॥ यह ऊँचपना नीचपनाका विकल्प है सो कल्प्या भया संता दुःख करने वाला है। बहुरि ऊँचपना नीचपना मयी जाति है सो सुखनिकौं वा दुःखनिकों कदाचित् न देय है ॥३८॥
भावार्थ-कोऊ पुरुष और नतें आप बड़ा है सो आपते बडेको देखि आपको दुखी मान है । बहरि कोई पुरुष और नितें छोटा है सो भी आपतें छोटेनिकौं देखि आपको बडा मान सुख मानै है। तातें मोही जीवको मिथ्या मानने में सुख दुःख है किछु बाह्य जाति आदि सुख दुःखका कारन नाहीं। ऐसा जानि जात्यादिकका गर्व न करना ऐसा इहां प्रयोजन जानना ॥३७-३८॥
हिनस्ति धर्म लभते न सौख्यं, कुबुद्धि रुच्चत्वनिदानकारी। उपति कष्टं सिकतानिपीडी,
पलं न किंचिज्जननिन्दनीयः ॥३६॥ अर्थ-ॐचपनेका निदान करने वाला कुबुद्धि पुरुष है सो धर्मका नाश करै है अर सुखकौं न पावै है । इहां दृष्टांत कहै हैं, जैसे लोक विष निंदनीक मूर्ख पुरुष वालू रेतका पेलनेवाला कष्टकौं प्राप्त होय है अर किछु फलकौं नहीं प्राप्त होय है तैसें ।
भावार्थ-निदान करे सुख न मिले है, जातें सुख तो पुण्योदयके आधीन हैं, अर पुण्यके आशयतै पुण्य होय नाहों तातें जैसे बाल रेत पेले किछु तेल न कढै उलटा कष्ट होय है तैसा निदान भी जानना ॥३९।।