Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम परिच्छेद
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इत्यादि मिथ्यात्वमनेकभेदं, यथार्थतत्वप्रतिपत्तिसूदि । विवर्जनीयं त्रिविधेन सद्भिर्जनं घ्रते रयिनमवाश्रभिः ॥६५॥
अर्थ-संतन करि इत्यादिक मिथ्यात्व नानाप्रकार यथार्थ तत्वज्ञानका नाश करनेवाला है सो मन वचन काय करि त्यागना योग्य है । कैसे हैं सत्पुरुष जिन भगवानके व्रतकौं रत्नकी ज्यौं सेव हैं ॥६५॥
आगें एकादश प्रतिमानका वर्णन करें हैंएकादशोक्ता विदितार्थतत्त्वैरुपासकाचारविविभेदाः । पवित्रमारोढुमनन्यलभ्य सोपानमार्गा इव सिद्धिसौधम् ॥६६॥
अर्थ-जाने हैं पदार्थनि के स्वरूप जिननें ऐसे अहंतादिकनि करि श्रावकके आचारकी विधिके भेद ग्यारह कहै हैं, ते भेद पवित्र मोक्ष महलके चढनेकौं सिवाणके मार्ग समान हैं, कैसा है मोक्ष महल अन्य सामान्य जनकरि नाहीं पावने योग्य है, ऐसा जानना ॥६६॥ आगें ग्यारह प्रतिमानमैं प्रथम दर्शन प्रतिमाकौं कहै हैं
यो निर्मलां दृष्टिमनन्यचित्तः, पवित्रवृत्तामिव हारयष्टिम् । गुणाव नद्धां हृदये निधत्ते,
स दर्शनी धन्यतमोऽभ्यधायि ॥६७॥ ___ अर्थ नाहीं है और ठिकाने चित्त जाका ऐसा जो पुरुष पवित्र अर गोल हारकी लडी समान निर्मल दृष्टिकौं हृदयमैं धारै है। सो दर्शनसहित पुरुष अतिशय करि धन्य कह्या है। कैसी है हारकी लड़ी गुण जे डोर तिन करि बन्धी है, अर निर्मल दृष्टि वात्सल्य आदि गुण कर वन्धी है ऐसा जानना ॥६७॥ आगें व्रत प्रतिमाकौं कहै हैं
विभूषणानीव दधाति धीरो, व्रतानि यः सर्वसुखाकराणि । प्राकष्टुमीशानि पवित्रलक्ष्मी, तं वर्णयन्ते अतिनं वरिष्ठाः ॥६॥