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________________ १६८] श्री अमितगति श्रावकाचार - प्रमाणके अगोचर है । बहुरि जो प्रमाणमैं न आवै सो वस्तु नाहीं, तातै कर्म नाहीं है ॥५२॥ बहुरि फेर कहैं हैं सत्त्वेऽपि कतुन सुखादिकार्य, तस्यास्ति शक्तिर्गतचेतनत्वात् । प्रवर्तमानाः स्वयमेव दृष्टाः, विचेतनाः कापि मया न कार्ये ॥५३ अर्थ-जीवविर्षे सुखादि कार्यके दूर करनेकी ता कर्मके शक्ति नाही, जातें कर्मके अचेतपना है । मैंने कोई कार्य विष अचेतन पदार्थकौं स्वयमेव प्रवर्तते न देखे । भावार्थ--जीवकै सूख ज्ञानादि घात करनेकौं कर्म समर्थ नाहीं जात आप अचेतन है। लोकमें अचेतन पदार्थ कार्य करते न देखे हैं, ऐसा तानं कर्मका अभाव साध्या ॥५३॥ अब आचार्य कहैं हैं एषा महामो चवश्यर्न, युज्यते गीरभिधीयवाना। प्रमाणमस्माकमवध्यमानं, यतोऽस्य सिद्धावनुमानमस्ति ॥५४॥ अर्थ-महा मोहरूप पिशाचके वशीभूत जे मिथ्यादृष्टि तिनकरि कही यह वाणी युक्त नाहीं, जातें इस कर्मकी सिद्धि विष हमारा अबाधित अनुमान प्रमाण है ॥५४॥ सो ही अनुमान दिखावे हैं-- · रागद्वेषमदमत्सरशोकक्रोधलोभभयमन्मथ मोहाः ।। सर्वजन्तुनिवतैरनुभूताः, कर्मणा किमु भवन्ति विनते ॥५५।। अर्थ-सर्व जीविनिके समूहनि करि अनुभव किए ऐसे जे रागद्वेष, मद, मत्सर, शोक, क्रोध, लोभ, भय, काम, मोह इत्यादि विकार भाव हैं ते कर्म विना ये कैसे होय।। भावार्थ-संसारी जीवनिकै कर्म बन्धै है जाते कर्मनिके उदयका कार्य जोरागादि भाव हैं ते सर्व जीवनि करि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करि
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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