Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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षष्ठम परिच्छेद
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मोहयति झटिति चित्तं, निषेव्यमाना सुरेव या नितरां । या गलमालिगंती, निपीडयति गंडमालेव ॥ ७० ।।
अर्थ----जो परस्त्री सेई भई मदिराकी ज्यौं अतिशय करि जल्दी चित्तकौं मोहै है । बहरि जो गलेकौं आलिगन कत्ती लिपटी गंडमाला नाम रोग की ज्यों पीड़ा उपजावै है ।। ७० ॥ व्याघ्रीव याऽऽमिषाशा, विलोक्य रभसा जनं विनाशयति । पुरुषार्थपरैः सद्भिः परयोषा, सा त्रिधा त्याज्या ॥ ७१ ॥
अर्थ-जो परस्त्री मांसभखनी व्याघ्रीकी ज्यौं पुरुषकौं देख करि जबर्दस्ती विनाश करै हैं सो ८ रस्त्री पुरुषार्थ मैं तत्पर जे सन्तपुरुष तिनकरि मन वचन कायतें त्यागनी योग्य है ॥ ७१ ॥ मलिनयति कुलद्वितयं दीपशिखेवोज्वलापि मलजननी । पापोपयुज्यमाना परवनिता तापने निपुणा ॥ ७२ ॥
पर्थ-जो परस्त्री दीप की लोय समान उज्ज्वल भी मैल की उपजावने वाली है, वह कज्जल उपजावै है यह रागद्वेष उपजावै है बहुरि पापिनी उपज्यमाना कहिये संयोगकौं प्राप्त करी संताप करने विौं प्रवीण है ॥ ७२ ॥
ऐसे परस्त्रीत्याग अणुव्रतका वर्णन किया । आरौं परिग्रहप्रमाण नामा अणुव्रतकौं कहैं है
वास्तु क्षेत्रं धनं धान्यं दासीदासं चतुष्पदं भांडं । परिमेयं कर्त्तव्यं सर्व संतोषकुशलेन ॥ ७३ ॥
अर्थ- संतोषविष प्रवीण जो पुरुष ताकरि वास्तु कहिए हाट हवेली क्षेत्र कहिए खेती का क्षेत्र धन कहिए सुवर्ण रूपादिक धान्य कहिए चावल गेहँ आदिक बहरि दासी दास आदि द्विपद अर चतुष्पद कहिये घोड़ा गौ इत्यादिक भांड कहिए बासन वस्त्रादिक इन सबका परिमाण करना योग्य है।