Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१५६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
मित्रानुराग कहिए, बहुरि पहले भोगे सुखनिका चितवन करणा सो सुखशंसा कहिए । यह संन्यास विर्षे अतीचारनिका जो पंचक ताहि जान्या है जानिवे योग्य जिननैं ऐसे अहंतादिक हैं ते कहैं है ॥१६॥
आगें सम्यग्दर्शनके अतीचार कहैं हैं -
शंकाकांक्षा निदा परशंसासंस्तवा मला पंच । परिहर्तव्याः सद्भिः सम्यक्तविशोधिमिः सततम् ॥१६॥
अर्थ-जिन वचनमें शंका करणी, वा भोगनिकी वांछा करणी, वा धर्मात्मानमैं निंदा करणी ग्लानि करणी, मिथ्यादृष्टिनकी प्रशंसा करणी, स्तुति करणी; ये पांच अतीचार हैं ते सम्यक्त विशोधन करनेवाले जे सत्पुरुष तिन करि निरंतर त्यागना योग्य हैं ॥१६॥
आगें अतीचारनके कथनकौं संकोचै हैसप्तति परिपहंति मलानामेवमुत्तमधियो ब्रतशुद्धयै । श्रावका जगति ये शुभचित्तास्ते भवंति भुवनोत्तमनाथा॥१७॥
अर्थ-या प्रकार लोकमैं उत्तमबुद्धि श्रावक हैं जे अतिचारनिकी सप्तति कहिए सत्तरका समूह ताहि त्यागें हैं ते शुभचित लोकके उत्तम नाथ होय हैं ॥१७॥
आणु शल्यनिका निषेध करै हैंनिदानमायाविपरीतहष्टी राचपंक्तोरिष दुःखकीः । ये वर्जय तेसुखभागिनस्ते, निःशल्यता शर्मकरी हि लोके ॥१८॥
अर्थ-जे पुरुष वाननकी पंक्ति समान दुःख करनेवालो जो भोगनिकी वांछारूप निदान अर कुटिल भावरूप माया अर विपरीत दृष्टि कहिए मिथ्यादृष्टि इन तीनोंको त्यागे हैं ते सुखके भोगनेवाले हैं, जाते लोक विर्षे निःशल्यपना सुखकारी है ऐसा जानना ॥१८॥
यस्यास्ति शल्य हृदये विधेय, वतानि नश्यत्यखिलानि तस्य ।