Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार - ..
न निव्या परनारी, मदानलतापितैरपि त्रेधा । क्षुत्क्षामैरपि पुरुषैर्न, भक्षणीयं परोत्सृष्टम ।। ६५ ॥
अर्थ-काम अग्नि करि तप्तायमान जीवनि करि भी मन वचन काय करि परस्त्री सेवना योग्य नाही, जैसे क्षुधा करि दुर्बल चतुर पुरुषनि करि भी पराई औठ खाना योग्य नाही तैसें ॥ ६५ ॥ विषवल्लीमित्र हित्वा, पररामां सर्वथा त्रिधा दूरम् । सन्तोषः कर्त्तव्यः स्वकलत्रेणैव बुद्धिमता ॥ ६६ ॥
प्रार्थ-परस्त्रीकौं विषवेलकी ज्यौं सर्वथा मन वचनकाय करि दूर त्यागकें बुद्धिमान पुरुष करि अपनी स्त्री करि ही सन्तोष करना योग्य
नाशयत्या सेवंते भार्यां, स्वमपि मनोभवाकुलिताः । वन्हिशिखाप्याशक्या, शीतातैः सेविता दहति ॥ ६७ ॥
अर्थ-कामकरि व्याकुल भए संतै आशक्ति जो गृद्ध ता करि अपनी भार्याकौं भी न सेवे है जैसे शीतकरि पीडित पुरुषनि करि भी आशक्ति कर सेई भई अग्निी की शिखा है सो कहा न दहै है ? दहै ही है ॥ ६७ ॥ दृष्टा स्पृष्टा श्लिष्टा दृष्टिविया, याऽहिमूत्तिरिव हति । तां पररामां भव्यो मनसापि, न सेवते जातु ॥ ६८ ॥
अर्थ-ज्यों परस्त्री देखी वा स्पर्शी वा आलिंगी सन्ती दृष्टिविणे सर्प की मूर्तिकी ज्यों हन है तिस परस्त्रीकौं भव्यजीव है सो मन करि भी कदाच न सेवे है ॥ ६८ ॥
दीप्ताकारा तप्ता स्पृष्टा, दहति पावकशिखेव । मारयति योपभुक्ता, प्ररूढविषविटपिशाखेव ॥ ६६ ॥
अर्थ-जो परस्त्री दीप्त है आकार जाका अर तप्तायमान सो स्पर्शी भई अग्निकी शिखाकी ज्यों दहै है, अर जो भोगी भई फैल रही विषवृक्ष की शाखाकी ज्यों मारे है ॥ ६६ ॥