Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - हिंसक जीवन की हिंसा करने वाले नैं उनके सुख में विघ्न कर्या सोई हिंसा भई, धर्म काहेका; ऐसा जानना ॥ ३७ ॥
यस्माद्गच्छंति गति निहता, गुरुदुःखसंकटां हित्राः । तस्माद्दुःखं ददतः पापं, न भवति कथं घोरम् ॥ ३८ ॥
अर्थ-जाते हिंसक हैं ते मारे भये महादुःखका हे संकट जा विषै सी गतिकौं जाय हैं तातें दुःख देने वाले बारपाकैसैं न
भया ॥ ३८ ॥
आगे दुःखी जीवनकी हिंसा का निषेध करे :
दुःखवतां भवति वधे धर्मों नेदमपि युज्यते वक्तम् । मरणे नरके दुःखं घोरतरं वार्यते केन ॥ ३६ ॥ अर्थ – दुःखी जीवनी के घात विषै धर्म होय है ऐसा भी कहना योग्य नाहीं, जातें तरण होतसंतें नरक विषै अत्यन्त घोर दुःख कौन करि निवारिए है । भावार्थ- कोई कहै कि दुःखी जीवनिकी हिंसा मैं धर्म होय है जातैं वो वाका दुःख दूर भया ताकू कह्या है - यह जीव मरकै नरक गया तहां महा दुःख कैसें निवारैगा तातैं अधिक दुःख देनेतैं पाप ही है धर्म नाहीं ॥ ३६ ॥
सुखितानामपि घाते पापप्रतिषेधने परो धर्मः । जीवस्य जायमाने निषेधितुं शक्यते केन ॥ ४०॥
- कोऊ कहै कि, सुखी जीवन के घात विषै भी विषय सुखरूप पाप का निषेध होतें बड़ा धर्म है, ताकू कह्या है - ऐसा नाहीं, जातें जीवनि के उपजते संतें पाप निषेधनेकौं कौन करि समर्थ हूजिए है ।
भावार्थ - वह जीव अन्यत्र उपजैगा तहां पाप करैगा तातें उल्टा सिवाय पाप करवाने मैं धर्म नाही, पाप ही है ॥ ४० ॥
पौर्वापर्यविद्ध' सम्यक्तमहीध्रपाटने वज्रम् ।
इत्थं विचार्य सद्भिः परवचनं सर्वथा हेयम् ॥ ४१ ॥
अर्थ - पंडितनि करि या प्रकार विचारकै पूर्वापर विरुद्ध अर