Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रधानं यदि कर्माणि, विधते मुंचते यदि । किमात्माऽनर्थकः सांख्यैः, कल्प्यते मम कथ्यताम् ॥३५॥
अर्थ-जो प्रधान कर्मनिकौं करै है अर त्यागें है, बन्ध मोक्ष प्रधानकै होय है, तो सांख्यमतवालेनि करि निष्प्रयोजन आत्मा क्यों कपिए है ? तो मोफू कहिए ॥३५॥
न ज्ञान भात्रतो मोक्षस्तस्य जातूपपद्यते । भैषज्यज्ञानमात्रेण न व्याधिः क्वापि नश्यति ॥३६॥ .
अर्थ-सांख्यमती कहै है द्वै तरूप भ्रम करि भया जो बन्ध सो अद्वैत के ज्ञान मात्र करि नसि जाय है, ताकौं आचार्य को -तिस सांख्यके ज्ञान भावतें मोक्ष कदाचित् न प्राप्त होय है जैसे औषधिके ज्ञान करि रोग कहूँ नहीं विनर्स है।
भावार्थ-जैसे औषधिका जानना अर प्रतीति अर आचरण तीनौं ही भावनि करि रोग विनसै है सुखो होय है, अर केवल जानना वा केवल प्रतीति करना वा केवल आचरण करना इन न्यारे न्यारेनि करि रोग न विनसै है सुखी न होय है तैसें ज्ञान दर्शन चारित्र तोनौंकी एकता करि बंध नसि मोक्ष होय है ज्ञानादिक न्यारे न्यारेन करि बन्ध नमि मोक्ष न होय है ऐसा निश्चय करना ॥४६॥
आगें ज्ञानकौं प्रधानका धर्म माने हैं ताका निवेदन कर हैं:अचेतनस्य न ज्ञानं, प्रधानस्य प्रवर्तते। स्तम्भकुम्भादयो दृष्टा, न क्वापि ज्ञान योगिनः ॥३७॥
अर्थ-अचेतन प्रधानकै ज्ञान नाही प्रवतॆ है, जातै स्तम्भ घट इत्यादि अचेतन पदार्थ हैं ते ज्ञानसहित कहूँ भो न देखे ॥३७॥
फेर कहैं हैं;उक्त्वा स्वयमकरिं, भोक्तारं चेतनम् पुनः । भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम् ॥३८॥ .