Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
फलनिकौं खाय हैं ते घोर दुःखरूप नरकवासकौं प्राप्त होय है, अथवा निर्दय जीवनि करि कहा दुःख न पाइए है, सर्व ही पाइए है ।।७१।। अघप्रदायोनि विचित्य धर्मधीरुदुंबराणां, न फलानि वल्भते । विधातुमिष्टे सुखदे प्रयोजने, करोति कस्तद्विपरीतमुत्तमः ॥७२॥
अर्थ-धर्मबुद्धी पुरुष है सो उदम्बरनिके फलनिकौं पापके देनेवाले जानि नहीं खाय है, जातै सुखदायक कार्य करनेकौं इष्ट होतसन्तै कौन उत्तम पुरुष है सो तातै विपरीत करै है, अपितु नाहीं कर है ।।७२॥
आदावन्ते स्फुटमिह गुणा निर्मला धारणीयाः, पापध्वंसि व्रतमपमलं कुर्वता श्रावकीयम् । कुर्त शक्यं स्थिरगुरुतरं मंदिरं गर्त पूरं, न स्थेयोभिई ढतस्मृते निर्मितं ग्रावजालैः ॥७३॥
अर्थ-पापका नाश करनेवाला श्रावक सम्बन्धी निर्मल व्रतकौं करता जो पुरुष ता करि आदि अन्त विष प्रगटपनें इहां निर्मल गुण धारणा योग्य है। इहां दृष्टांत कहै है-जैसे अत्यंत थिर जे पत्थरनके समूह तिनकरि दृढ़ किया जो गर्त पूर कहिए नींव ताविना स्थिर अर अतिभारी मंदिर करनेकौं समर्थ नाहीं तैसैं ।
भावार्थ-जैसे दृढ़ मूल बिना निश्चल मंदिर न होय है तैसे पंच उदम्बर तीन मकारके त्यागरूप मूलगुण बिना निर्मल व्रत न होय है तातें आदितै लगाय अन्त पर्यंत प्रथम मूलगुण धारणा योग्य है ॥७३॥
दातुं दक्षः सुरतरुरिव प्रार्थनीयं जनानां, चित्त येषामोति गुणकणो निश्चलत्वं वित्ति । भुक्त्वा सौख्यं भुवनमहितं चितितावाप्तभोगं, ते निर्वाधाममितगतयः श्रेयसी यांति लक्ष्मीम् ।।७४।।
अर्थ-जीवनिकौं वांछित देनेकौं कल्पवृक्षसमान प्रवीण ऐसा यह गुणनिका समूह जिनके चित्त विर्षे निश्चलपनेकौं धार हैं ते पुरुष चिंतत