Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१३२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार |
त्रियतां मा मृत जीवः प्रमादबहुलस्य निश्चिता हिंसा । प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमादहीनस्य सा नास्ति ।। २५ ।।
अर्थ - जीव मरो चाहै न मरो तीव्र प्रमाद सहित जीवकै निश्चय रूप हिंसा है, बहुरि प्राणनिका नाश होतें भी प्रमाद रहितकै सो हिंसा नाहीं है ।
भावार्थ - हिंसाका मूल कारण प्रमाद है ताके होतैं वाह्य प्राणव्यपरोपण होते वा न होतें हिंसा अवश्य होय है, अर ता विना अप्रमत्त मुनीराजकै अवश्यतै प्राणव्यपरोपण होतें भी हिंसा नाहीं कही है ।। २५ ।।
यो नित्योsपरिणामी तस्य, न जीवस्य जायते हिंसा ।
न हि शक्यते निहंतु,
अर्थ - जो नित्य परिणाम रहित कूटस्थ है ताकै जीवकी हिंसा न होय है, जातें, कोऊ करि कदाचित् आकाश हनिवेकू समर्थ न जिए हैं ।
केनापि कदाचनाकाशम् ॥ २६ ॥
भावार्थ - जो सर्वथा नित्य कूटस्थ आत्माकौं मानें है ताके हिंसाका जानना न ह्य तब ताका त्याग भी न होय है, तातैं नित्यपनेका एकांत मिथ्या दिखाया है ॥ २६॥
क्षणिको यो व्ययमानः क्रियमाणा तस्य निष्प. ला हिंसा ।
चलमानाः पवमानो न,
चाल्यमानः फलं कुरुते ॥ २७ ॥
अर्थ - जो क्षणिक नाश होता सन्ता जीव है ताकी करी भई, हिंसा निष्फल है । जैसैं चालता जो पवन सो चलता सन्ता फलकौं न करें है तैसें ।
भावार्थ - जे जीवकौं क्षणिक मान हैं तिनकै क्षण क्षण आपहीका नाश भया ताकी हिंसा निष्फल भई जैसे पवन आपही चालें सो चलाया सन्ता फल कहा करै तातें क्षणिक मानना भी मिथ्या हैं ।। २७ ।।