Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थ परिच्छेद
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बुद्धि मंद्ध तुकं विश्व, कार्यत्वात्कलशादिवत् । बुद्धिमांस्तस्य यः कर्ता, कथ्यते स महेश्वरः ॥७७॥ न विना शंभुना नून, देहद्र मनगादयः । कुलालेनेव जायन्ते, विचित्राः कलशादयः ॥७॥ ततोऽस्ति जगतः कर्ता, विश्वदृश्वा महेश्वरः । वचनं युज्यते नेदं, चित्यमानं विचक्षणः ॥७॥ अर्थ-विश्व है सो बुद्धिमान है हेतु (कारण) जाका ऐसा है ।
भावार्थ-बुद्धिमान के निमित्ततें उपज्या है, जातै लोकके कार्यपना है, जो जो कार्य है सो सो बुद्धिमानके निमित्तत्तै उपजै है जैसे घटादिक । बहुरि ता लोकका जो बुद्धिमान कर्ता है सो महेश्वर कहिए है ॥७७॥
जैसे कुम्हार विना विचित्र घटादिक न उपजै तैसे ईश्वर बिना शरीर वृक्ष पर्वत इत्यादिक है ते निश्चय करि न उपजै है ॥७॥ __तातै जगतका कर्ता सर्वदर्शी महेश्वर है। अब ताकू आचार्य कहै है-यह वचन पंडितनिकरि विचाप्या भया युक्त न होय है ॥६६॥
सो ही कहैं हैं--- कार्य त्वादित्यय हेतुस्तस्य साधयते यथा । बुद्धिमत्त्वं तथा तस्य, देहवत्वमपि ध्रुवम् ॥२०॥ नाशरीरी मया रष्टः, कुम्भकारः क्वचित् यतः । कुलालस्तस्य दृष्टांतस्ततो ब्रूते स्देहताम् ॥८१॥ सदेहस्य च कर्तृत्वे, सोऽस्मदादिसमो यतः । दृश्यतां प्रतिपद्यत, कुम्भकारादिवत्ततः ॥१२॥ भुवनं क्रियते तेन, विनोपकरणः कथम् । कृत्वा निवेश्यते कुत्र, निरालम्बे बिहायसि ॥३॥