Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थ परिच्छेद
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अर्थ – जो गौ भ्रष्टा खाय है अर प्राणीनिकौं खुरसींगनिकरि हन है सो ऐसी पशु अज्ञान गौ कैसें वन्दनेयोग्य
अर अपने पुत्रसें काम से वे है, होय ॥६३॥
चेदुग्धदानतो वंद्या, महषी किं न वन्द्यते ।
विशेषो दृश्यते नास्यां, महिषीतो मयाधिकः ॥ ६४ ॥
- बहुरि वह कहै जो गौ दुग्ध देय है तातें वन्दनेयोग्य है तो महिषी क्यों न वंदिए, जाते इसके महिषीतें अधिक विशेष मो करिन देखिए है, दुग्ध देने मैं दोनों समान हैं ॥६४॥
या तीर्थ मुनिदेवानां सर्वेषामाश्रयः सदा ।
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दुह्यते हन्यते सा गौमूं दैविक्रीयते कथम् ॥ ६५ ॥
अर्थ - जो गौ तीर्थ मुनि देवनिका सबनिका सदा आश्रय सो गौ मूढनि करि कैसे पीडिए है अर हानिए है अर वेचिए है, तातें गौकौं पूजना मिथ्या है || ६ ||
आगे और भी कहै हैं
मुशलं बेहली चुल्ली, पिप्पलश्चंपकोजलम् । देवा यैरभिधीयन्ते वर्ण्यन्ते तैः परेऽत्रके ॥ ६६ ॥
अर्थ – मूसल देहली चूल्हा पीपल चम्पा जल इनकौं जिनकरि देव afहिए है तिनकरि इहां कौन वर्जिए है ।
भावार्थ- जो मूसलादिक जड अर पापके कारण जिनविषै देवपना का लेश भी नांही तिनकौं भी पूजै है तो वे और कौंनकों न पूजै है ? सर्वकौं ही पूज है ॥६६॥
आगें अधिकारकौं संकोचे है
इत्थं विविच्य परिमुच्य कुदेववर्ग, गृह्णांति यो जिनपत भजते स तत्त्वम् । गृह्णांति यः शुभमतिः परिमुच्य काचं चिन्तामणि स लभते खलु किं न सौख्यम् ॥७॥