Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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१०८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
घातयन्ति भवभागिनस्तके,
खादकेन न विनास्ति घातकः ॥१६॥ अर्थ-जे अपने बलके पुष्ट करनेवाले दुष्टचित्त मांसकौं भखें हैं ते जीवनकौं घातें हैं जातें खानेवाले विना घातनेवाला नांही है।
भावार्थ-कोउ कहै मांस खानेमें तो हिंसा नाही ताको कह्या है । जो मांस खावै है सो अवश्य हिंसा करै है ॥१६॥
हन्ति खादति पणायते पलं, मन्यते दिशतिसंस्कारोति यः । यान्ति ते षडपि दुर्गति स्फुटं,
न स्थितिः खलु परत्र पापिनाम् ॥१७॥ अर्थ-जो मांसकौं हनें है जीव मारे है अर खाद्य है, बेचे है, भला माने हैं, उपदेश करै है, संस्करोति कहिए मांसका वा मांस भक्षीनका संस्कार करै है। ते पूर्वोक्त छह प्रकारके जीव परजन्मविर्षे दुर्गतिकौं प्राप्त होय है. जातें पापीनकी निश्चयकरि स्थिरता नाही ॥१७॥
अत्ति यः कृमिकुलाकुलं पलं, पूयशोणितवसादिमिश्रितम् । तस्य किंचन न सारमेयतः, शुद्धबुद्धिभिरवेक्ष्यतेऽतरम् ॥१८॥
प्रर्थ-जो पुरुष लटनके समूहकरि भर्या अर दुर्गन्ध रुधिर वसा आदि करि मिश्रित ऐसा जो मांस ताहि भखै है ताकै स्वानतें किछू अन्तर शुद्धबुद्धिनकरि न देखिए है।
भावार्थ-मांस खाय है सो कुत्ता समान है किछ विशेष नांहो, जातें वह भी निन्द्य वस्तु खाय हैं अर यह भी निन्द्य वस्तु खाय है; ग्लानि दोऊनिकै नांहीं ॥१८॥
मामिषासनपरस्य सर्वथा, विद्यते न करुणा शरीरिणः । पापमर्जति तया विना परंः वंभ्रमीति भवसागरे ततः ॥१६॥