Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचम परिच्छेद
[१०६
अर्थ-मांसके खाने विषं तत्पर जो पुरुष ताकें जीवकी करुणा सर्वथा न होय है। वहरि ता दया विना बड़ा पाप उपजावै है ता पापते अतिशयकरि संसारसमुद्रवि भ्रमैं है ॥१६॥ नास्ति दूषणमिहामिषाशने, यह षीक वशगैनिगद्यते । व्याघ्रशूकरकिरातधीवरा, स्तैनिकृष्टहृदयगुरुकृताः ॥२०॥
अर्थ-जिन इन्द्रियनके आधीन भये पुरुषनि करि "मांसभक्षणविर्षे दूषण नाही' ऐसा कहिये है तिन नीचचित्तनकरि व्याघ्र शूकर भील ढीमर है ते गुरुकी ज्यों करे।
भावार्थ-जे मांस भक्षणकौं निर्दोष बतावै हैं तो तिनके मांसभक्षी सिंहादिक पूज्य ठहरै । तातें मांसभक्षण सर्वथा भला नाहीं ॥२०॥
मांसवल्भन निविष्ट चेतसः, संतिपूजिततमा नरा यदि । गूथमूतकृतदेहपुष्टयः,
शूकरा न नितरां तदा कथम् ॥२१॥ अर्थ-मांसके भक्षणविर्षे लगाया है चित्त जिननें ऐसे पुरुष जो पूजने योग्य होय तो विष्टा अर मूत्र करि करी है देहपुष्टि जिननें ऐसे शूकर पूज्य कैसे न होय ॥२१॥ भक्षयंति पलमस्तचेतनाः, सप्तधातुमयदेहसम्भवम् । यद्वदंति च शुचित्वमात्मनः, कि विडंवनमतः परं बुधाः ? ॥२२ ।
अर्थ-जो बुद्धिरहित सप्तधातुमय देहतै उपज्या जो मांस ताहिखाय है अर आत्माकै पवित्रपना कहै है सो हे पंडित हो ! यासिवाय और विडंबना कहां है ? अपि तु या सिवाय और विडम्बना नांही है ॥२२॥
भुजते पलमघौधकारि--थे, ते व्रजन्ति भवदुःखमूजितम् ।