Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचम परिच्छेद
मन्दिरं न विदता निषेव्यते, तीव्रदृष्टिविषपन्न
गाकुलम् ॥२६॥
अर्थ-हित के हरने वाले पुरुष करि या प्रकार मांसकौं दूषित जान करि सदा त्याग करिए है । इहां दृष्टांत कहैं हैं -- जानता जो पुरुष ताकरि तीव्र दृष्टि विष सर्वकरि व्याकुल जो घर सो न सेईए है ||२६||
ऐसें मांस का निषेष किया, आगे मधुका निषेध करें हैंमाक्षिकं विविध जन्तुघातजं, खादयन्ति बहुदुःखकारि ये । स्वल्पजन्तुविनिपातिभिः समास्ते
कथमत्र ख। दिकैः ।।२७।'
भवन्ति
अर्थ - जे पुरुष नानाप्रकार जीवनकै घाततें उपज्या अर महादु:ख का देनेवाला ऐसा जो मधु ताहि खाय है ते थोड़े जोवनके घातक जे खटीक तिनकरि समान कैसे होय हैं ।
जानना ||२७||
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भावार्थ - मधु खानेवाला खटीकतें भी महापापी है ऐसा
ग्रामसप्तकविदाहरेपसा, तुल्यता न मधुभक्षिरेपसः । तुल्य मंजनजलेन कुत्रचिनिम्नगापतिजलं न जायते ॥ २८ ॥ - सात ग्रामके जलावने के पाप करि मधुभक्षक के पाप की समानता नाही, जातें अंजलिके जल करि समुद्रका जल असंख्यात गुण है तैंसें सात ग्रामके दाहके पाप भी असंख्यातगुणा पाप मधु भक्षण करनेमें बताया है ||२८||
अर्थ:
म्लेच्छ लोक मुख लालयाविलं, मद्यमांसचितभाजनास्थितम्
सारघं गतघृणस्य _खादतः, कीदृशं भवति शौचमुच्यताम् ॥२६॥