Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - जो लूणी दोय मुहूर्त पाछें प्रचुर जीवनिके समूहनि करि मूच्छित होय है सन्मूर्च्छन जीव जा विषै सो लुणी इहां जे खाय है ते मरे भए निश्चय करि कौन गतिकौं जाय हैं, तिनकी कहा गति होय है जैसी आचार्यनें आशंका कर है ।
भावार्थ - इहां दोय मुहूर्त लुणी की मर्यादा कही सो तपावनेको अपेक्षा है, किछू खाने की अपेक्षा न कही है, जातैं रागादिकके कारनपनेतें खाना तौ प्रकार योग्य नाही ऐसा जानना ॥ ३६ ॥
ये जिनेन्द्रवचनानुसारिणो, घोरजन्मवनपातभीरवः । तैश्चतुष्टयमिदं विनिदितं जीवितावधि विमुच्यते त्रिधाः ॥ ३७॥
अर्थ - जे जीव संसार वनके पाततैं भयभीत हैं अर जिनेन्द्रके वचनके अनुसारा है तिन करि निन्दनीक मद्य मांस मधु लोणी ये चार हैं ते जीवन पर्यंत मन, वचन काय करि त्यागिए है || ३७॥
मद्यमांसनवनीत सारधं, यैश्चतश्कमिदमद्यते सदा । गृद्धिरागवध संग हकं, तैश्चतुर्गतिभवो विगाह्यते ॥ ३८ ॥
अर्थ -- जिन करि अति आसक्तता राग हिंसा के संगके बढ़ावनेवाले मद्य मांस मधु लौणी ए च्यार सदा खाइए हैं तिन करि चतुर्गति संसार अवगाहिए है ( भ्रमिए है ) ।
निषेवतेऽधमो,
यः सुरादिषु निद्यमेकमपि
लोलमानसः ।
सोऽपि
जन्मजलधावताडयते,
कथ्यते किमिह सर्वभक्षिणः ॥ ३६ ॥
अर्थ - जो चञ्चल चित्त नीच पुरुष मदिरादिकनिविषे निन्दनीक एककौं भी सेवन करे सो भी संसार समुद्र विषै भ्रमण करें है, तो इहां सर्व के खानेवाले की कहा कहिए ॥ ३६ ॥
ऐसें मदिरादिक च्यार महाविकृतिका निषेध करे है;
यत्र राक्षसपिशाचसंचरो, यत्र जन्तुनिवहो न दृश्यते । यत्र मुक्तमपि वस्तु भक्ष्यते, यत्र धारतिमिरं विजृंभते ॥ ४० ॥