Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचम परिच्छेद
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घोरदुःखदमवेत्य कोविदा, वर्जयन्ति मधु शर्मकांक्षिणः । कुत्र तापकमवत्य पावकं,
गृह्यते शिशिरलोलमानसाः ॥३३॥ अर्थ-सुख के वांछक पंडित जन हैं ते घोर दुःखदायक जानि मधुकौं त्याग कर है। ताका दृष्टांत कहै हैं-शीतलपनेंमैं है लालसा जिनकै ऐसे पुरुष हैं ते अग्निकौं तापकरि जानकरि कहा ग्रहण करै है, नहीं करै
ऐसे मधुका निषेध किया, आगे नवनीतका निषेध करै है;
संसजन्ति विविधाः शरीरिणो, यह सूक्ष्मतनवो । निरन्तराः। तद्ददाति नवनीतमंगिनां,
पापतो न परमत्र सेवितम् ॥३४॥ अर्थ-जा विष सूक्ष्म हैं शरीर जिनके ऐसे नाना प्रकार जीव हैं ते निरन्तर उपज है सो लणी घी सेया सन्ता जीवनिकौं सो पाप देय है, जा पापते लोक विर्षे और पाप नाही ॥३४॥ चित्रजीवगणसूदनास्पदं, यविलोक्य नवनीतमद्यते । तेषु संयमलवो न विद्यते, धर्मसाधन परायणा कुतः ॥३५॥
मर्म-जिन पुरुषनि करि नाना प्रकार जीवनिके समूहके विनाशका ठिकाणा देख करि लौणी खाय है तिन पुरुषनि विर्षे संयम का अंश भी नांही है, धर्मसाधन विर्षे तत्परता काहेते होय ? नाही होय ॥३५॥
यन्मुहूर्त युगतः परः सदा, मूर्च्छति प्रचुरजीवराशिभिः । तभिलंति नवनीतमत्र ये, ते व्रजन्ति खलु को गति मृताः ॥३६॥