Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचम परिच्छेद
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भावार्थ--दिनमैं भोजन धर्मरूप है अर रात्रि भोजन पापरूप हैं जैसे प्रकाश अर अन्धकार समान कदाच नाही ॥५३॥
रात्रिभोजनमधिश्रयन्ति ये, धर्मबुद्धिमधिकृत्य दुधियः । ते क्षिपन्ति पविवह्निमण्डलं, .
वृक्षपद्धतिविवृद्धये ध्रुवम् ॥५४॥ अर्थ-जे धर्मबुद्धि करि रात्रि भोजनकौं सेवन कर हैं ते निश्चय करि वृक्षनिकी पद्धति की वृद्धि के अर्थ वज्राग्निके समूहकौं खेपे हैं। .
भावार्थ-कोई मिथ्यादृष्टि दिनमैं व्रत कर है रात्रि विष भोजन कर है ताकू कह्या है--जैसे अग्नितें कोई प्रकार वृक्षनिकौं वृद्धि न होय तसे रात्रि भोजन विर्षे कोई प्रकार धर्म नाही, अधर्म ही है ऐस जानना ॥५४॥
ये विधृत्य सकलं विनं क्षुधां, भुजते सुकृतकांक्षया निशि । ते विवृध्य फलशालिनी लतां,
भस्मयन्ति फलकांक्षया पुनः ॥५५॥ अर्थ-जे जीव पुण्यकी वांछा करि सर्वदिन क्षुधाकौं धारि रात्रिविर्षे भोजन कर है ते फल करि शोभित लताकौं बठाय फेर फल की वांछा करि भस्म करै हैं ॥५५॥
ये सदापि घटिकाद्वयं विधा, कुर्वते दिनमुखांतयोव॒धाः । भोजनस्य नियमं विधीयते,
मासि तैः स्फुटमुपोषितद्वयम् ॥५६॥ - अर्थ जे पण्डित पुरुष सदा ही दिनके आदि अर अन्त विर्षे दोयस घड़ी भोजनका नियम कर हैं तिन करि प्रगटपर्ने एक मासमैं दोय उपवा करिए है।