Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
पंचम परिच्छेद
[११७
ते विधूय लघु मोहतामसं,
सम्भवन्ति सहसा महोदयाः ॥४८॥ अर्थ--जे पुरुष निर्ग्रन्थ गुरु का अर्हन्त देवका पूजन करके निर्मल दिवस विर्षे निराकूल भये सन्ते भोजन करैं हैं ते शीघ्र मोह अन्धकारकौं नाश करि सहसा महान् उदयरूप होय हैं, केवलज्ञानकौं पावें हैं ॥४८॥
यो विमुच्य निशि भोजनं त्रिधा, सर्वदापि विदधाति वासरे । तस्य याति जननार्द्ध मंचितं,
भुक्तिवजितमपास्तरेपसः ॥४६॥ अर्थ-जो पुरुष मन वचन काय करि सदा रात्रि विषै भोजन त्याग करि दिन विर्षे भोजन करै है तिस पापरहित पुरुषका भुक्ति रहित उपवास रूप आधा जन्म व्यतीत होय है .।४६॥
यो निवृत्तिमविधाय वल्भनं, वासरेषु वितनोति मूढधीः । तस्य किंचन न विद्यते फलं,
भाषिन न विना फलन्तराम् ॥५०॥ अर्थ--जो मूढ बुद्धि पुरुष दिननि विर्षे निवृत्ति जो व्रत ताहि न करि रात्रि विर्षे भोजन करै है ताकै किछु फल न होय है, जातें जिनभाषित विना अतिशय करि फल न होय है।
भावार्थ-कोऊ कहै कि दिन विर्षे भोजन न करना अर रात्रि विर्षे करना यह भी व्रत है ताकू कहा है कि ऐसा मार्ग नांहीं, जातें रात्रि भोजन विर्षे द्रव्यभाव हिंसाकी विशेषतातें ऐसे व्रततै किछु फल नाही, पाप ही होय है । जैसे कोऊ अन्न छोड़ करि मांस भक्षण कर तैसे ऐसा व्रत पापहीके अर्थ जानना ॥५०॥
ये व्यवस्थितमहःसु सर्वदा, शर्वरीषु रचयन्ति भोजनम् ।