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________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १०१ अर्थ – जो गौ भ्रष्टा खाय है अर प्राणीनिकौं खुरसींगनिकरि हन है सो ऐसी पशु अज्ञान गौ कैसें वन्दनेयोग्य अर अपने पुत्रसें काम से वे है, होय ॥६३॥ चेदुग्धदानतो वंद्या, महषी किं न वन्द्यते । विशेषो दृश्यते नास्यां, महिषीतो मयाधिकः ॥ ६४ ॥ - बहुरि वह कहै जो गौ दुग्ध देय है तातें वन्दनेयोग्य है तो महिषी क्यों न वंदिए, जाते इसके महिषीतें अधिक विशेष मो करिन देखिए है, दुग्ध देने मैं दोनों समान हैं ॥६४॥ या तीर्थ मुनिदेवानां सर्वेषामाश्रयः सदा । , दुह्यते हन्यते सा गौमूं दैविक्रीयते कथम् ॥ ६५ ॥ अर्थ - जो गौ तीर्थ मुनि देवनिका सबनिका सदा आश्रय सो गौ मूढनि करि कैसे पीडिए है अर हानिए है अर वेचिए है, तातें गौकौं पूजना मिथ्या है || ६ || आगे और भी कहै हैं मुशलं बेहली चुल्ली, पिप्पलश्चंपकोजलम् । देवा यैरभिधीयन्ते वर्ण्यन्ते तैः परेऽत्रके ॥ ६६ ॥ अर्थ – मूसल देहली चूल्हा पीपल चम्पा जल इनकौं जिनकरि देव afहिए है तिनकरि इहां कौन वर्जिए है । भावार्थ- जो मूसलादिक जड अर पापके कारण जिनविषै देवपना का लेश भी नांही तिनकौं भी पूजै है तो वे और कौंनकों न पूजै है ? सर्वकौं ही पूज है ॥६६॥ आगें अधिकारकौं संकोचे है इत्थं विविच्य परिमुच्य कुदेववर्ग, गृह्णांति यो जिनपत भजते स तत्त्वम् । गृह्णांति यः शुभमतिः परिमुच्य काचं चिन्तामणि स लभते खलु किं न सौख्यम् ॥७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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