Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थ परिच्छेद
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अर्थ-बहुरि वह कहै है जो वेदकौं कर्ता काहूकै स्मरण नाहीं तातें वेद अकृत्रिम है । ताकू आचार्य कहै है जो ऐसा नाहीं जातें अनेक करे पदार्थनिविष भी कर्ता स्मरण न कीजिए है, अथवा ताके कर्ताके स्मरणतें वेद कृत्रिम युक्त है।
भावार्थ-कोई कहै वेदके कर्त्ताको याद नाहीं तातें अकृत्रिम है, तकू कह्या है । जो ऐसे तो पुराने मन्दिर वा करे भए मोती इत्यादिकका भी कर्ताकी याद नाहीं ते भो अकृत्रिम ठहरै। बहुरि वेदके तौ कर्ता भी ब्रह्मादिक कहे हैं तातें भी कृत्रिम वेद ठहरै । तातें अकृत्रिम वेद कहना मिथ्या है ॥६॥
हिंसादिवादकत्वेन, न वेदो धर्मकांक्षिभिः । वृकोपदेशवन्ननं, प्रमाणीक्रियते बुधैः ।। ६६॥
अर्थ-धर्मके वांछक पंडितनि करि हिंसादिकके उपदेशपनें जो खारपट ताके उपदेशकी ज्यौं वेद हे सो प्रमाण करना योग्य नाहीं ॥६६॥
वीतरागश्च सर्वज्ञो, जिन एवावशिष्यते । अपरेषाम रोषाणां, रागद्वेषादिष्टितः ॥७० ।
अर्थ-वीतराग अर सर्वज्ञ ऐसा जिनेन्द्र ही एक न्यारा कीजिए है जातें और सर्वनिकै रागद्वेषादि दीस है ॥७०॥
न विरागा न सर्वज्ञा, ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । रागद्वषमदनोधलोभमोहादियोगतः ॥७१॥
अर्थ-ब्रह्मा विष्णु महेश्वर हैं ते न वैरागी हैं न मर्वज्ञ हैं, जाते रग द्वष मद क्रोध लोभ मोह इत्यादिक सहित हैं तातें ॥७१॥
रागवन्तो न सर्वज्ञा, यथा प्रकृतिमानवाः । रागवन्तश्च ते सर्वे, न सर्वज्ञास्ततः स्फुटम् ॥७२॥
अर्थ-रागसहित हैं सर्वज्ञ नाहीं जैसे संसारी मनुष्य हैं तैसे बहुरि जे ब्रह्मादिक हैं ते सर्व रागसहित हैं याते ते प्रगटपर्ने सर्वज्ञ नांही ॥७२॥