Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
चतुर्थ परिच्छेद
नामूर्त्त: सर्वथा युक्तः, कर्मबन्धप्रसंगतः । नभसो न ह्यमूर्त्तस्य, कर्मलेपो विलोक्यते ॥ ४४ ॥
[ ८७
अर्थ - सर्वथा आत्मा अमूर्तिक कहना युक्त नांही, जातैं कर्मबन्धका प्रसंग आ है । बहुरि अमूर्तीक आकाशकै कर्मनिका लेप न है विलोकिए है ।
मावार्थ - आकाशवत् सर्वथा संसारी जीव मुक्त होय तो जैसैं आकाशकै कर्मलेप नांही तस आत्मा के भी कर्मबन्ध न ठहरै तातैं सर्वथा अमूर्त मानना मिथ्या है ॥४४॥
स यतो बन्धतो भिन्नो, भिन्नो लक्षणतः पुनः । अमूर्तता ततस्तस्य, सर्वथा नोपपद्यते ॥४५॥
अर्थ - जातें सा आत्मा बन्धतें कथंचित् अभिन्न है बहिर लक्षण करि भिन्न है तातें तिस आत्माकै सर्वथा अमूर्त्तपना नांही सिद्ध होय है ।
भावार्थ - बन्धका लक्षण जड़ता है आत्माका लक्षण चैतन्य है ऐसे लक्षण भेद करि आत्मा अर बन्ध भिन्न है तथापि बन्ध दृष्टि करि अभिन्न है जाते बन्धका निमित्त पाय आत्मा के क्रिया होय है अर आत्माका निमित्त पाप बन्ध का परिणमन होय है, ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध देखिए है, तातैं सर्वथा संसारी जीव को अमूर्त्त मानना योग्य नांही ॥४५ ॥
निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः । कर्त्ता भोक्ता गुणी सूक्ष्मो, ज्ञाता द्रष्टा तनुप्रमा ॥ ४६ ॥
अर्थ - तातें जीव है सो बाधारहित है, इस विशेषण करि शून्यवाद का निराकरण किया, बहुरि स्थिति उत्पत्ति विनाश स्वरूप है ।
भावार्थ - क्रमभावी पूर्व पर्यायका नाश होय है उत्तर पर्याय उपजै है भावी पर्याय करि स्थिर है ऐसें युगपत तीनों ही धर्म करि युक्त है, इस ही विशेषण करि सर्वथा नित्य कूटस्थ कहनेवालोंका निराकरण किया । बहुरि निश्चय करि चैतन्य भावनिका व्यवहार करि पुद्गल कर्मनिका कर्त्ता