Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय परिच्छेद
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यहु आस्रव है । शब्दशास्त्रविषै निपुण पुरुषकरि जाकरि कर्म आस्रवें सो आस्रव है ऐसा कह्या है ||३८||
शुभाशुभस्य विज्ञेयस्तत्रांन्योन्यस्य कर्मणः । कारणस्यानुरूपं हि कार्य जगति जायते ॥ ३६ ॥
अर्थ - तहां शुभयोग शुभकर्मका कारण जानना अर अशुभयोग अशुभ कर्मका; जातैं लोकविषै कारण के अनुरूप कार्य होय है ||३६||
संसारकारणं कर्म, सकषायेण गृह्यते । येनान्यथा कषायेण, कषायस्तेन वर्ज्यते ॥४०॥
अर्थ - जा कारणकरि कषायसहित जो जीव ताकरि संसारका कारण कर्म ग्रहण करिये है अर कषायरहितकरि संसार का कारण कर्म ग्रहण न करिये है ता कारण कषाय त्यागिए है ।
भावार्थ - -सांपरायिक आस्रव तौ सकषाय जीवकै होय है अर ईर्यापथिक आस्रव कषाय रहित एकादशमादि गुनस्थान निविष होय है सो केवल योगकृत है तातैं संसार का कारण नाहीं ऐसा जानना ॥ ४० ॥
ज्ञाताज्ञातामन्दमन्दादिभावैश्चित्रैश्चित्रं
जयन्ते कर्मजालं ।
नाचित्रत्वे कारणस्येह कार्य, fafafeचत्रं दृश्यते जायमानं ॥४१॥
अर्थ-ज्ञातभाव अज्ञातभाव तीव्रभाव मन्दभाव आदि शब्दकरि अधिकरण अर वीर्य इन प्रकारनि करि नानाप्रकार कर्मजाल उपजाइए है लोकविषै कारणके नानाप्रकारपना न होतें नानाप्रकार कार्य किछू उपज्या न देखिए है ।
भावार्थ - यह प्राणी हिंसनायोग्य है ऐसा जानकरि हिंसा में प्रवर्त्तना इत्यादि ज्ञातभाव है, बहुरि प्रमादतें वा मदतें विना जाने हिंसादिकमें प्रवर्त्तना सो अज्ञातभाव है, तीव्र क्रोधादिक के उदयतें होय सो तीव्रभाव है, मन्दक्रोधादिकके उदयतें होय सो मंदभाव है, बहुरि जाकै विषै हिंसादिक आधाररूप कीजिए सो अधिकरण कहिए बहुरि द्रव्यकी ज्यो निजसामर्थ्य