Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थ परिच्छेद
[७७
अर्ण-मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ ऐसी यह जीवनिकै प्रगट बाधारहित प्रत्यक्ष प्रतीत है सो आत्मा विना न होय है ॥११॥
__ आगें जैसे आपके शरीरमें आत्मा है तैसें परशरीरमें परके आत्माकौं सिद्ध करै हैं
स्वसंवेदनतः सिद्ध, निजे वपुषि चेतने । शरीरे परकीयेऽपि, संसिद्ध यत्यनुमानतः॥१२॥
प्रर्थ-स्वसंवेदनतें अपने शरीरमें चेतनकी सिद्धि होतसंतें परके शरीरमें अनुमानतें चैतन्य सिद्धि होय है ॥१२॥
आगे ता अनुमानकौं दिखावे हैंपरस्य जायते देहे, स्वकीय इव सर्वथा । चेतनो बुद्धिपूर्वस्य, व्यापारस्योपलब्धितः ॥१३॥
मर्थ-परके देहविर्षे चैतन्य निश्चयतै बुद्ध होय है, जातें बुद्धिपूर्वक व्यापारकी उपलब्धि है। जैसे अपने देहविर्षे बुद्धिपूर्वक व्यापार होय तैसें, यहु दृष्टांत है ॥१३॥
जन्मपंचत्वयोरस्ति, न पूर्वपरयोरयम् । नैषा गीयुज्यते तत्र, सिद्धत्वादनुमानतः ॥१४॥
अर्थ-बहुरि जन्ममरणके पहले अर पीछे यह आत्मा नहीं है ऐसी वाणी युक्त नांही जातें तहां अनुमानतें सिद्धिपना है ।
भावार्थ-जन्म मरणके पहले पीछे आत्मा सिद्ध है ॥१४॥ सोही कहैं हैंचैतन्यमादिमं ननमन्य चैतन्यपूर्वकम् । चैतन्यत्वाद्यथा मध्यमंत्यमन्यस्य कारणम् ॥१५॥
अर्थ-आदिका चैतन्य है सो निश्चयकरि अन्य चैतन्यपूर्वक है, जातें चैतन्यपना है जैसे अन्यका कारण मध्यका चैतन्य अर अन्तका चैतन्य है तैसे।