Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - जीवकी मनुष्यादि नवीन पर्याय उपजै हैं सो जीवद्रव्य अगली पर्याय छोड़कर नवीन धारण करें है सर्वथा असत् न उपजै है, जातें चेतनपना हैं यह हेतु है; जैसे मध्यका चैतन्य वा अन्तका चैतन्य प्रत्यक्ष अन्य चैतन्यपूर्वक हैं तैसे यह दृष्टांत है । इहां प्रयोजन ऐसा है जो अगले पर्याय अपेक्षा पहला पर्याय कारण है अर पहले पर्याय अपेक्षा सो ही कार्यरूप है, अर द्रव्यदृष्टि करि सर्व एक ही वस्तु है न्यारा नाहीं । ऐसें स्याद्वाद समझे यथार्थ ज्ञान होय है ॥ १५ ॥
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आगे इस ही अर्थकौं पुष्ट करें हैं
तत्रैव वासरे जातः, पूर्वकेणात्मना विना । प्रशिक्षितः कथं वालो, मुखमर्ययति स्तने ॥१६॥
अर्थ - पूर्व आत्मा विना नवीन ही आत्मा होय तौं तिस ही दिन विषे भयो जो बालक सो विना सिखाया स्तन विषै मुख कैसे लगावै है ।
भावार्थ - जो प्रथम आत्मा न होय अर नवीन ही उपज्या होय तो उपज्या सन्ता ही बालक दूध कैसे चूखने लगी जाय हैं तातें मनुष्यादि पर्याय नवीन उपजै है । जीवद्रव्य तो अनादिनिधन ही है ऐसा निश्चय करना ।। १६ ।।
मूतेभ्योऽचेतनेभ्योऽयं, चेतनो जायते कथम् ।
विभिन्न जातितः कार्य, जायमानं न दृश्यते ॥१७॥
अर्थ - अचेतन जे पृथ्वी आदि भूत तिनतें चेतन कैसें उपजे है, जातें भिन्न जातितैं कार्य उपज्या न देखिए है ।
भावार्थ - जैसे माटीतें स्वजातीय घटतौ उपजे है परन्तु विजातीय जो घट सो उपज्या है नदेखिये तैसें अचेतन पृथ्वी आदितैं अचेतन शरीरादि तौ उपजै परन्तु चेतन जीव कैसे उपजै तातैं जीवकौं भूतजनित कहना मिथ्या है ॥ १७॥
आगें दोय पक्ष पूछकर जीवकै भूतजनितपनकौं निराकरण करें