Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय परिच्छेद
अर्थ-धर्म अधर्मं काल आकाश ये च्यार द्रव्य अमूर्त कहिये वर्ण गंध रस स्पर्श रहित अर निःक्रिय कहिए प्रदेशनिके चलिवेकरि रहित जिनदेवनि करि कहे हैं । बहुरि इहां रूप गन्ध रस स्पर्श शब्दवान हैं ते पुद्गल हैं, रूप गन्ध रस स्पर्श है जातें सदा अनुयायी है अर शब्द है सो पर्याय है जातें पुद्नलस्कंधनितैं कदाचित उपजै है । इहां शब्द कहनें करि बंध, सूक्ष्म, स्थूल संस्थान भेद तम छाया आतप उद्योत ए सर्व पुद्गलक पर्याय जान लेना ॥ ३० ॥
लोकraint स्थितं व्याप्य, व्योमानंतप्रदेशकम् । लोकालोकौ
लोकाकाशं स्थितौ व्याप्य, धर्माधर्मौ समं ततः ॥ ३१ ॥
अर्थ – लोक अलोक दोउनिकों व्याप्त करि अनंत हैं ऐसा आकाश अवस्थित है । बहुरि लोकाकाशकौं सर्व तरफ धर्मद्रव्य अर अधर्मद्रव्य तिष्ठ है ||३२||
[ ५१
प्रदेश जाक व्याप्त करि
धर्माधकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशकाः । अनंतानंतमानास्ते, पुद्गलानामुदाहृताः ॥३२॥
अर्थ - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य अर एकजीवद्रव्य इनके असंख्याते प्रदेश हैं । बहुरि पुद्गलनिक प्रदेश अनंतानंन प्रमाण कहे हैं ॥ ३२ ॥
जीवानां पुद्गलानां च, गतिस्थितिविधायिनौ । धर्माद मतौ प्राज्ञैराकाशमव काशकृत् ॥३३॥
अर्थ - जीवनिकों तथा पुद्गलनिकौं गति अर स्थिति करावनेवाले धर्म अधर्मद्रव्य बुद्धिवाननि करि कहे हैं, अर आकाश है सो अवकाशका करने वाला कहिए देनेवाला है ।
भावार्थ – जेसें स्वयं चालते मच्छनकौं जल गमन सहकारी है, अर जैसे आप ही तिष्ठते पथिकनिकौं छाया तिष्ठने में सहकारी है तैसें गमन करते वा तिष्ठते जीव पुद्गलनिकौं धर्म अधर्म सहकारी हैं, कछु प्रेरणाकरि चलावते बैठावते नाहीं उदासीन कारण हैं । अर यद्यपि सर्वद्रव्यं अपने अपने स्वरूप में तिष्ठे हैं तथापि सर्व द्रव्यनिकौं अवकाश देना ये आकाशका गुण हैं ऐसा जानना ।।३३।।