Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय परिच्छेद
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निवर्तमानं जिननाथवर्त्मनो, निपीड्यमानं विविधैः परीषहैः । विलोक्य यस्तत्र करोति निश्चलं,
निरुच्यतेऽसौ स्थितिकारकोत्तमः॥७॥ अर्थ-जो नानाप्रकार परोषहनि करि पीडित भया सन्ता जिननाथके मार्ग” चिगते पुरुषकौं देख करि तिस जिनमार्ग विर्षे निश्चल करै सो यह स्थिति करनेवाला उत्तम कहिए है ।।
भावार्थ-जिन धर्मरौं वा आत्मस्वरूप” आपकौं वा परकौं चिगतेकौं स्थिर करना स्थितिकरण अंग कह्या है ।।७८॥
करोति संघे बहुधोपसर्ग, रुपद्र ते धर्मधियाऽनपेक्षः । चतुर्विधे व्यापृतिमुज्ज्वला यो,
वात्सल्यकारी स मतः सुहृष्टिः ॥७॥ प्रर्थ-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका ऐसे च्यार प्रकार संघकों बहुत प्रकार उपसर्ग करि पीड़ित भये सन्ते जो वांछारहित धर्मबुद्धि करि निर्मल वैयावृत्त्याचार कर है सो सम्यग्दृष्टि वात्सल्य करनेवाला कहा है।
___ भावार्थ-जिन धर्मीन विर्षे वा आत्मस्वरूपविर्षे अति प्रीति करना सो वात्सल्य अंग जानना ॥७९॥
निरस्तदोषे जिननाथशासने, प्रभावना यो विदधाति शक्तितः। तपोदयाज्ञानमहोत्सवादिभिः,
प्रभावकोऽसौ गदितः सुदर्शनः ॥५०॥ प्रर्ष-दूरि भये हैं रागादिक दोष जाके ऐसा जो जिननाय का शासन ताविर्षे जो शक्तिसारू तप, दया, ज्ञान, महोत्सव इत्यादिकनि करि प्रभाव