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________________ तृतीय परिच्छेद |६० निवर्तमानं जिननाथवर्त्मनो, निपीड्यमानं विविधैः परीषहैः । विलोक्य यस्तत्र करोति निश्चलं, निरुच्यतेऽसौ स्थितिकारकोत्तमः॥७॥ अर्थ-जो नानाप्रकार परोषहनि करि पीडित भया सन्ता जिननाथके मार्ग” चिगते पुरुषकौं देख करि तिस जिनमार्ग विर्षे निश्चल करै सो यह स्थिति करनेवाला उत्तम कहिए है ।। भावार्थ-जिन धर्मरौं वा आत्मस्वरूप” आपकौं वा परकौं चिगतेकौं स्थिर करना स्थितिकरण अंग कह्या है ।।७८॥ करोति संघे बहुधोपसर्ग, रुपद्र ते धर्मधियाऽनपेक्षः । चतुर्विधे व्यापृतिमुज्ज्वला यो, वात्सल्यकारी स मतः सुहृष्टिः ॥७॥ प्रर्थ-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका ऐसे च्यार प्रकार संघकों बहुत प्रकार उपसर्ग करि पीड़ित भये सन्ते जो वांछारहित धर्मबुद्धि करि निर्मल वैयावृत्त्याचार कर है सो सम्यग्दृष्टि वात्सल्य करनेवाला कहा है। ___ भावार्थ-जिन धर्मीन विर्षे वा आत्मस्वरूपविर्षे अति प्रीति करना सो वात्सल्य अंग जानना ॥७९॥ निरस्तदोषे जिननाथशासने, प्रभावना यो विदधाति शक्तितः। तपोदयाज्ञानमहोत्सवादिभिः, प्रभावकोऽसौ गदितः सुदर्शनः ॥५०॥ प्रर्ष-दूरि भये हैं रागादिक दोष जाके ऐसा जो जिननाय का शासन ताविर्षे जो शक्तिसारू तप, दया, ज्ञान, महोत्सव इत्यादिकनि करि प्रभाव
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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