Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार -
प्रर्थ-जो तपस्वीनके मलिन शरीरकू देख तथा अति कठिन जिनेन्द्रभाषित धर्मकौं देखि निंदाकौं नाहीं विस्तार है सो जीव विचिकित्सारहित अतिशयकरि धन्य कहिए है ।
भावार्थ-तपस्वीन के मलिन शरीरकू देखिकैं तथा अनशनादि घोर तप देखकरि ग्लानि नहीं करनी सो निर्विचिकित्सानाम सम्यक्त्व का अंग जानना ॥७॥
देवधर्मसमयेषु मूढता, यस्य नास्ति हृदये कदाचन । चित्रदोषकलितेषु सन्मतेः,
सोच्यते स्फुटममूढदृष्टिकः ॥७६॥ प्रर्थ-नाना प्रकार दोषन करि व्याप्त जे देव अर धर्म अर समय कहिए सर्व मत इन विष सुबुद्धिके हृदय विष कदाचित् मूढ़ता कहिये मूर्खता नहीं है सो अमूढदृष्टि कहिए हैं ।
__ भावार्थ-देवपर्नेकी आभास धरें ऐसे हरिहरादिक अर धर्माभास यज्ञादिक अर समयाभास वैष्णवमत आदिक इन विर्षे ये भी देवादिक हैं ऐसी मूढ़ताका अभाव सो अमूढदृष्टि जानना ॥७६॥
यो निरीक्ष्य यति नोकवूषणं, कर्मपाकजनितं विशुद्धधीः । सर्वथाप्यवति धर्मबुद्धितः,
कोविदास्तमुपगृहकं विदुः ॥७७॥ प्रथं-जो निर्मल बुद्धि पुरुष कर्मके उदयकरि उपज्या ज्यो यतिजननिका दूषण ताहि देख करि धर्मबुद्धिते सर्व प्रकार गोप है ताहि पंडितजन उपगूहन कहैं हैं।
भावार्थ-जो परके दोष वा अपने गुण ढांकना सो उपगृहन अंग जानना तथा इस ही अंगका नाम उपवृहण भी कहा है तहां 'आत्मशक्तिका पुष्ट करना' अर्थ ग्रहण किया है ॥७७॥ . .