Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अनन्तभागोऽपि न तन्निगद्यते, निरेनसः सिद्धिसुखस्य सूरिभिः ॥७१॥
अर्थ-तीन लोकविष सुरेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र अर अन्य जे विषयभोगसहित हैं तिनका जौ उत्कृष्ट सुख है सो सूख कर्मरहित जो सिद्धात्मा ताके मुक्तिसुखके अनन्तवें भाग भी आचार्यनिकरि नहीं कहिए है ।
भावार्थ-तीन लोकके भोगनिका सुख एकठा करिये सो सिद्ध सुखके अनन्तवें भाग नाहीं ऐसा जानना, भोगनिका सुख तो आकुलतामय है अर सिद्धसुख है सो निराकुल है, तातें इन सुखनिको एक जाति नाहीं, परन्तु निराकूल सूख तौ संसारकी दृष्टिमें आवै नाहों अर ताकै सिद्धपद उत्कृष्ट बताया जाइए तातै उपचारतें भोगनका सुख सिद्धनका सुखतें अनन्तवें भाग भी नाहीं ऐसा जानना ॥७१॥
ऐसे मोक्षतत्वका वर्णन किया। इहां प्रयोजन ऐसा है कि चैतन्य लक्षण आपकौं जाने चेतनारहित समस्त देहादि परद्रव्यनिमें अहंकार ममकार त्यागना योग्य है, अर रागादिक आस्रव है तिनतें दुःख अवस्था स्वरूप बन्ध होय है, सो तिनकौं अहित जानि जैसे आस्रव बन्ध न होय तैसें प्रवतना योग्य है, अर वैराग्य भावना संवर है, तापूर्वक कर्मनका एकदेश नाश होना सो निर्जरा है इनकौं हितरूप जानि संवर निर्जराके कारणनि में प्रवत्ति करना योग्य है, अर सकल कर्मनितै रहित ज्ञानानन्दमयी जो आत्मा की अवस्था सो मोक्ष है आत्माका परमहित है ताहिके अथि अन्य समस्त वांछा त्यागि यत्न करना यह ही सर्व तत्व कथनका प्रयोजन है ऐसा निश्चय करना।
इमे पदार्थाः कथिता महर्षिभिर्यथायथं सप्त निवेशिताः हृदि । विनिर्मलां तत्वचि वितन्वते,
जिनोपदेशा इव पापहारिणीं ॥७२॥ पर्थ-महाऋषीनकरि कहे जे सप्त पदार्थ ते यथायोग्य हृदयविव