Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
सम्यग्दर्शनादिकके प्रयोग करि विना स्थिति पूरी भये ही अनेक समयप्रबद्ध एकैं काल खिर सो अविपाक निर्जरा है, इहां जीवकें रागादिकके अभावतें आगामी कर्म न बन्धे है तातें मोक्षहीकी करनेवाली है ऐसा जानना ।। ६५।।
वितप्यमानस्तपसा
शरीरी,
शुद्धिम् ।
पुराकृतानामुपयाति निधायमानः कनकोपलः किं,
सप्ताचिषा शुद्ध यति व श्मलेभ्यः ॥ ६६ ॥
अर्थ - तप करितप्तायमान जीव है सो पूर्वकृत कर्मनकी शुद्धिताक प्राप्त होय है, जैसे अग्नि करि धम्या भया सुवर्णका पाषाण सो मलनितें कहा शुद्ध न होय ? होय ही है ॥ ६६ ॥
विनिहत्य
घातिकर्म
केवलं,
स्वीकरोति भुवनावभासकम् ।
चेतनः
सकललोकसम्मतं,
ध्वांतराशिमिव भास्करो दिनम् ॥६७॥
अर्थ - चेतन आत्मा है सो घातिकर्मनिकौं नाशकरि लोकका प्रकाशक अर समस्त लोककरि मान्या ऐसा जो केवलज्ञान, ताहि अङ्गीकार करे है । जैसे अन्धकारके समूहकौं नाशकरि सूर्य दिनक अङ्गीकार करै तैसें ॥६७॥
निर्मूलकाषं स निकृष्य कल्मषं, प्रयाति सिद्धि कृतकर्मनिर्जरः ।
विनिर्म ध्यानसमृद्ध पावके, निवेश्य दग्ध्वाऽखि नबन्धकारणम् ॥६६॥
अर्थ - विशेषकर निर्मल ध्यान जो शुक्ल ध्यान सो ही भया वृद्धि कौं प्राप्त अग्नि, ताविषै प्रवेश कराय समस्त बन्धके कारण निकौं