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________________ ६४ ] श्री अमितगति श्रावकाचार सम्यग्दर्शनादिकके प्रयोग करि विना स्थिति पूरी भये ही अनेक समयप्रबद्ध एकैं काल खिर सो अविपाक निर्जरा है, इहां जीवकें रागादिकके अभावतें आगामी कर्म न बन्धे है तातें मोक्षहीकी करनेवाली है ऐसा जानना ।। ६५।। वितप्यमानस्तपसा शरीरी, शुद्धिम् । पुराकृतानामुपयाति निधायमानः कनकोपलः किं, सप्ताचिषा शुद्ध यति व श्मलेभ्यः ॥ ६६ ॥ अर्थ - तप करितप्तायमान जीव है सो पूर्वकृत कर्मनकी शुद्धिताक प्राप्त होय है, जैसे अग्नि करि धम्या भया सुवर्णका पाषाण सो मलनितें कहा शुद्ध न होय ? होय ही है ॥ ६६ ॥ विनिहत्य घातिकर्म केवलं, स्वीकरोति भुवनावभासकम् । चेतनः सकललोकसम्मतं, ध्वांतराशिमिव भास्करो दिनम् ॥६७॥ अर्थ - चेतन आत्मा है सो घातिकर्मनिकौं नाशकरि लोकका प्रकाशक अर समस्त लोककरि मान्या ऐसा जो केवलज्ञान, ताहि अङ्गीकार करे है । जैसे अन्धकारके समूहकौं नाशकरि सूर्य दिनक अङ्गीकार करै तैसें ॥६७॥ निर्मूलकाषं स निकृष्य कल्मषं, प्रयाति सिद्धि कृतकर्मनिर्जरः । विनिर्म ध्यानसमृद्ध पावके, निवेश्य दग्ध्वाऽखि नबन्धकारणम् ॥६६॥ अर्थ - विशेषकर निर्मल ध्यान जो शुक्ल ध्यान सो ही भया वृद्धि कौं प्राप्त अग्नि, ताविषै प्रवेश कराय समस्त बन्धके कारण निकौं
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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