SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय परिच्छेद [६५ जलायकरि करी है कर्म की निर्जरा जानै ऐसा जो आत्मा सो कल्मष ज्यो समस्त कर्म ताहि निर्मूल जैसे होय तसै उखाडकरि मोक्ष अवस्थाकौं प्राप्त होय है ॥६॥ निसर्गतो गच्छति लोकमस्तकं, कर्मक्षयानन्तरमेव चेतनः । धर्मास्तिकायेन समीरतोऽनघं, समीरणेनैव रजश्चयः क्षणात् ॥६६॥ अर्थ-कर्मक्षयके अनन्तर ही धर्मास्तिकाय करि प्रेर्या आत्मा क्षणमात्रमें निर्मल होय लोकके मस्तक परि गमन करै है। जैसैं पवन करि उडाया रजका समूह ऊपरकौं जाय तैसें । भावार्थ-आत्माका उर्द्ध गमन स्वभाव है, कर्म नष्ट भये निज स्वभाव प्रगट है ताकरि धर्मास्तिकायके सहायतै लोकके शिखर तांई धर्मास्तिकाय है तहां तांई जाय तिष्ठ है ताके प्रभावतें न जाय है। इहां धर्मास्तिकाय करि प्रेरणा गमनका सहकारीपना ही जानना जाते धर्मद्रव्य किछ जबरीसौं न चलावै है, स्वयमेव चलतेनकौं सहकारी कारण है ऐसा जानना ॥६६॥ निरस्तदेहो गुरुदुःखपीडितां, विलोकमानो निखिलां जगत्त्रयीम्। स भाविनं तिष्ठति कालमुज्ज्वलो, निराकुलानन्तसुखाब्धिमध्यगः ॥७॥ अर्थ-त्याग किया है शरीर जानै ऐसा सो सिद्धात्मा महादुःख करि षीड़ित जो जगत की त्रयी कहिये तीन लोक ताहि विलोकता सन्ता आगामी काल तिष्ठ है, कैसा है। सो आत्मा, द्रव्य भावक मरहित उज्ज्वल है अर निराकुल अनन्त सुखसमुद्रके मध्य प्राप्त है ॥७०॥ यदस्ति सौख्यं भुवनत्रये परं, सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रभोगिनाम् ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy