Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
४४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
तत्र क्षताष्ट कर्माणः, प्राप्ताष्टगुणसंपदः । त्रिलोकवेदिनो मुक्ता, स्त्रि तो काग्रनिवासिनः ॥३॥ अनंतरेषदूनांगसमानाकृतयः स्थिराः । आत्मनोनजनाभ्या , भाविनं कालमासते ॥४॥
अर्थ-तहां नष्ट भये हैं अष्ट कर्म जिनके अर प्राप्त भई है अष्टगण रूप सम्पदा जिनके, बहरि तीन लाकके जाननेवाले अर द्रव्यभावकर्मनितें मुक्त भए, बहुरि तीन लोकके उपरि बसनेवाले ॥३॥
बहुरि अन्तका किंचित् ऊन अंग प्रमाण है प्रदेशनिकी आकृति जिनकी, अर स्थिर हैं कम्परहित हैं, बहुरि आत्मज्ञानी जननि करि पूजनीक, ऐसे श्री सिद्धभगवान आगामी अनन्तकाल तिष्ठे हैं ॥४॥
संसारिणो द्विधा जोवाः, स्थावराः कथितास्त्रसाः । द्वितीयेऽपि प्रजायन्ते, पूर्णपूर्णतयाद्विधा ॥५॥
अर्थ-संसारी जीव स्थावरअर त्रस ऐसौं दोय प्रकार कहे हैं, तिन स्थावर अर त्रसनि विष भी पर्याप्त अपर्याप्तनें करि दोयप्रकार हैं ॥५॥
पाहारविग्रहाक्षाऽऽनवचोमानसलक्षणम् । पर्याप्तीनां मतं षट्कं, पूर्णापूर्णत्वकारणम् ॥६॥
अर्थ-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छास, वचन और मन ये हैं लक्षण जाके ऐसा जो पर्याप्तिनिका षटक सो पर्याप्त अपर्याप्तपञका कारण कह्या है।
भावार्थ-अपने योग्य पर्याप्ति की जाकै पूर्णता है सो पर्याप्त जीव कहिये, जाकै पूर्णता नाहीं सौ अपर्याप्त कहिये ॥६॥ . चतस्रः पंच षट् ज्ञेयास्तेषां, पर्याप्तयोंऽगिनाम् ।
एकाक्षविकलाक्षाणां, पंचाक्षाणां यथाक्रमम् ॥७॥
अर्थ-तिन पर्याप्ति सहित एकद्रिय विकलेंद्रिय पंचेन्द्रिय जीवनिक' चार, पांच, छह पर्याप्ति यथाक्रम जाननी।