Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीय परिच्छेद
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कारुण्य कहिये दयाभाव, ए हैं प्रगट लक्षण जाका सो सराग सम्यक्त्व पंडितनिकरि जानना। बहुरि उपेक्षा जो वीतरागता, सो है लक्षण जाका ऐसा दूसरा वीतराग सम्यक्त्व जानना ॥६६॥
निसर्गाधिगमौ हेतू, तस्य बाझाबुदाहृतौ ।
लब्धिः कर्मशमादीनामन्तरंगो विधीयते ॥६७॥
अर्थ-ता सम्यक्त्वके निसर्ग कहिए स्वभाव, अधिगम कहिए उपदेश पावना ये दोऊ बाह्य कारण कहे हैं, अर कर्मनिके उपशमादिकनिकी जो प्राप्ति सो अन्तरंग कारण कहिये हैं ॥६७।।
सम्यक्त्वाध्युषिते जीवे, नाज्ञानं व्यवतिष्ठते । भास्वता भासिते देशे, तमसः कीदृशी स्थितिः ॥६॥
मर्थ- सम्यक्त्वकरि सहित जीव विर्षे अज्ञान न तिष्ठै हैं, जैसे सूर्यकरि प्रकाशित क्षेत्रवि अन्धकार स्थिति कैसी ?
__ भावार्थ-जैसें सूर्यके प्रकाश होते अन्धकार न होय तैसें सम्यक्त्व होत अज्ञान न होय है ॥३८॥ न दुःखबीजं शुभदर्शनक्षिती, कदाचन क्षिप्तमपि प्ररोहति । सदाप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं, कुदर्शने तद्विपरीतमीक्ष्यते ॥६६॥
अर्थ-सम्यग्दर्शनरूप पृथ्वी विर्षे दुःखका बीज बोया भी कदाचित् न उग है बहुरि विना बौया भी उत्तम सुख का बीज सदा उगै है। बहुरि मिथ्यादर्शन विर्षे सो विपरीत देखिये है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके कोई दुःख का कारण पाप कर्म बंध्या होय तो सोभी सुखका कारण होय परिणमै है ऐसा जानना ॥६६॥
सम्यक्त्वमेघः कुशलांबुबन्दितं, निरन्तरं वर्षति धौतकल्मषः । मिथ्यात्वमेधो व्यसनांबुनिदितं, जनावनौ क्षालितपुण्यसंचयः ॥७०॥