Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीय परिच्छेद
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लब्धा मुहूर्तमपि ये परिवर्जयन्ते, सम्यक्त्वरत्नमनवद्यपदप्रदायि । भ्राम्यन्ति तेऽपि न चिरं भववारिराशौ,
तद्विभ्रतां चिरतरं किमिहास्ति वाच्यम् ॥८६॥ अर्थ-पापरहित पद का देनेवाला जो सम्यक्त्वरत्न ताहि एक मुहूर्त भी पापकरि जो त्याग है ते पुरुष भो संसार-समुद्रविर्षे बहुत काल नहीं भ्रमै है तो इहां तौ सम्यग्दर्शनकौं धारते पुरुषनिके कहा अतिशयकरि बहुत भ्रमण कहना योग्य है ?
भावार्थ-एक मुहूर्त भी सम्यग्दर्शन ग्रहण हो जाय तो संसार उत्कृष्ट किंचिदून अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तनमात्र रहि जाय तो अनन्तान्तकाल अपेक्षा थोड़ा ही कहिये। बहरि जो सम्यग्दर्शनतें नहीं छटै क्षायिक सम्य-.. ग्दृष्टि होय सो बहुत कैसैं भ्रमैं ? याकै तो अतिनिकट संसार है ऐसा इहां आशय जानना ॥८६॥
पापं यजितमनेकभवदुरन्तैः, सम्यक्त्वमेतदखिलं सहसा हिनस्ति । भस्मीकरोति सहसा तृणकाष्ठराशि,
किं नोजितोज्व लशिखो दहनः समृद्धम् ॥७॥ अर्थ-जो पाप दूर है अन्त जिनका ऐसे अनेक भवनिकरि उपाा सो इस समस्त पापकौं सम्यक्त्व शीघ्र ही नाश करें है। इहां दृष्टांत कहैं हैं-बड़ी उज्ज्वल है शिखा जाकी ऐसा जो अग्नि सो वृद्धिकौं प्राप्त होता जो तण अर काष्ठनका समूह ताहि शोघ्र हो कहा भस्म न करै है ? करै ही है ॥८७॥
नवं भवस्थितिवेदिनि जीवे, दर्शनशालिनि तिष्ठति दुःखम् ।। कुत्र हिमस्थितिरस्ति हि देशे, ग्रीष्मदिवाकरदीधितिदीप्ते ॥