Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-२)
[Type text]
१५२
७६१। कारणपुव्वगो। नि० ७९ अ। समाचारः। प्रश्न | कप्पद्वितो-आयरियाण पदाण्पालगो। निशी० ३०७ १०६। अध्वकल्पः। बृह. १२२ आ। समाचारो विकल्पो कप्पट्ठिया-श्रेष्ठिवधूः। स्था० २६६। वा। प्रश्न. १५७ कल्पशा-स्त्रोक्तसाधुसमाचारः। बृह. पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नाः । बृह० १२५। २४६ आ। औपम्यं, सामर्थ्य, वर्णना, छेदनं, करणं, कप्पट्ठी-सेज्जायरधूया। निशी. ७७ आ। तरुणी। बृह. अधिवासश्च। आव. ५०० अध्व-कल्पः। निशी. ४० अ। ७९ आ। आव. ३२४। योग्यः । दशवै.६।
कप्पडप्पहारो- कर्पटप्रहारः। तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रम्। भग० ११४। कल्पः- लकुटाकारवलितचीवरैस्ताडनम्। प्रश्न ५६| यज्जिनकल्पिका अनवस्तृता रात्रावुत्कुटुकास्थिष्ठन्ति | कप्पडिओ-कार्पटिकाः। ओघ० ८९। सम० ३८1 कार्पटिएष कल्पः। यत्कारणे समापतिते अज्झुषिराणि
कः-ब्रह्मदत्तसेवकः। आव० ३४१। स्वप्नेदृष्टान्तः। (अशुषि-राणि) तृणानि गृह्णन्ति एष कल्पः। व्यव०
आव० ३४३॥ २८७ अ। कल्पः-सदृशः। उत्त० ४६५। समाचारी। व्यव० कप्पडिगो-कार्पटिकः। आव० ३८४१ १३६ आ। कल्पाध्ययनम्। व्यव० ४२० । सामर्थ्य कप्पडितो- ब्रह्मदत्तसेवकः। उत्त० १४५ वर्णनायां च, छेदने करणे तथा। औपम्ये चाऽधिवासे च, | कप्पडिय-कार्पटिकः। आव. १९११ दशवै. ५५ दुर्बलः। कल्पशब्दं विदेर्बुधाः ||१|| बृह० ३। जिणकप्पियाण | आव० ८१४। भिक्षाचराणां सार्थः। बृह. १२५ अ। अत्थरणव-ज्जो कप्पो। जिणकप्प-थेरकप्पिएस् कप्पडिया-भिक्खायरा। निशी. ३७ अ। निशी. १८६अ। कज्जेसु अञ्झुसिरगहणे कप्पो भवति। निशी. १६१ आ। | कर्पटैश्चरन्तीति कार्पटिकाः। वा-कपटचारिणः। ज्ञाता० ८,६४,००,००, ००० वर्षात्मकः कालः। आचा० १७ वैमानिकदेवाऽऽवा-साभिधायकः। भग० ९१देवलोकः। । कप्पणं-कल्पना-रचना। जम्बू. २१२ भग० २२१। स्वकार्यकरणसमर्थो वस्तुरूपः। भग० २६९। कप्पणसत्थयं- शस्त्रविशेषः। निशी. १८ आ। छेदः। उत्त०६३८ उपधिः। दशवै० २५० पिण्ड०७२। कप्पणा-कल्पना क्लृप्तिभेदः। औप०६२। कप्पइ-कल्पते। युज्यते। आचा० ४७। कल्प्यते-वर्तते। कप्पणाविगप्पा-कल्पनाविकल्पाः कृतिभेदाः। भग०
आचा० १४१। कल्पते-युज्जते। उपा०१३ कल्पते- ३१७ प्रभवति, पौनःपुन्येनोत्पदयते। आचा० १४१।
कप्पणि-कल्पनी-कर्तिकाविशेषः। प्रश्न. २११ कल्पन्यः कप्पओ- कल्पकः। कपिलब्राह्मणपुत्रः। आव०६९१| कृपाण्यः। जम्बू० २०६। कल्प्यते छिद्यते यया सा कप्पकरण-कल्पकरणम्। भाजनस्य
कल्पनी शस्त्रविशेषः। आचा०६११ धावनविधिलक्षणम्। बृह० २५८ आ। निशी० २८ आ। कप्पणिज्जं-कल्पनीयं-उदगमादिदोषपरिवर्जितम्। कप्पकार-कल्पकराः। विधिकारिणः, परिकर्मकारिणः। आव०८३७| शस्त्रविशेषः। आव०६५० जम्बू० २४२।
कप्पति-कल्पते-युज्यते। प्रश्न. १२४१ कप्पट-कल्पस्थः। समयपरिभाषया बालक उच्यते। बृह. | कप्पतित्पे- पात्रक्षालनादौ। गच्छा० १४५ आ।
कप्पपालो-कल्पपालः। जम्बू. १०० कप्पडओ- बालकः। पिण्ड० ९२
कप्पय-कल्प एव कल्पकः-छंदः खण्डं कर्परमिति। उपा० कप्पट्ठग-बालः। निशी० ११९आ। बालकः। व्यव० ८ अ।
२०१ कल्पस्थकाः-बालाः। व्यव० ११६ अ।
कप्पयति-कल्पयति-छिनत्ति। निशी. १९० अ। कप्पटगरूय-कल्पस्थकरूपः। शिशः। आव०६३९। कप्पर-कर्परम्। आव०६२०, ६२२, ३५२। कवालं निशी. कप्पट्टिता-जिणकप्पिया। निशी. २६ आ।
१०६ अ। कपालम्। बृह. ६८आ। कर्परः। आव०१०३, कप्पद्विता-कल्पशास्त्रोक्तसाधसमाचारे स्थितिः
४१२। अवस्थानं कल्पस्य मर्यादा। बृह. २५१ अ।
कप्परुक्ख
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[22]
"आगम-सागर-कोषः" [२]

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