Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 111
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गवसणा- व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा। आव. १८५ | गहणकप्पा-सुत्तं अत्थं उभयं वा गेण्हतेण नन्दी. १८७। गवेषणा-प्रार्थना। सूत्र०७२। अदिढे गवेषणा | भत्तिबहमाणा अब्भुट्ठाणाइविणओ पयुंजियव्वो। निशी० थुभि-याइचिंधेहिं गवेसणा। निशी. १९९ अ। १४६ अ। गवेसति- गवेषयति। आव. २००६ गहणगुण- ग्रहणं-औदारिकशरीरादितया ग्राह्यता गवेसमाणे- गवेषयन-व्यतिरेकधर्मपर्यायलोचनतः इन्द्रिय-ग्राह्यता व वर्णादिमत्वात् बहुजनस्य। ज्ञाता०८११ परस्परसम्बन्धलक्षणं वा तदगणो धर्मो यस्य स तथा। गव्व- गर्वः-अभियोगः। आव० ७७२। गर्व-शौण्डीर्यम्। स्था०३३४ भग. १७२। गहणजाय- यानि पुनद्रव्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि गह- ग्रहः-उत्क्षेपः प्रारम्भरसविशेषः। दशवै०८८1 भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कलीविवरप्रविष्टानि गहगज्जिय- ग्रहगर्जितं-ग्रहचारहेतुकं गर्जितम्। जीवा० गृह्यन्ते तानि चानन्त-प्रदेशिकानि, द्रव्यतः २८२। ग्रहसञ्चलादौ गर्जितं-स्तनितं ग्रहगर्जितम्। भग. क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढानि, कालत १९६| एकदवित्र्यादियावदसङ्ख्येयसमयस्थितिकानि, भावतो गहजुद्धं- ग्रहयुद्धं-यदेको ग्रहोऽन्यस्य ग्रहस्य मध्येन स्पर्श-वन्ति, तानि चैवं भूतानि ग्रहणजातमित्युच्यन्ते। याति। जीवा. २८२। आचा० ३८५ गहण- गुविलं। दशवै० १२० नन्दी० ४२। गहनं गहणविद्ग्ग- एगजातीयअणेगजाईयरुक्खाउलं सङ्कुलम्। आव० ५६७। वननिकुञ्जः। दशवै० २२९ बृह० | गहणविदुग्गं। निशी० ७० आ। सूत्र० ३०७। गहनविदुर्गः९ अ। अपूर्वस्य ग्रहणं ग्रहणम्। व्यव० ३७६ अ। गहनः- पर्वतैक-देशावस्थितवृक्षवल्ल्यादिसमुदायः। भग० ९२ गपिलः। उत्त०२९० गहणा- गह्वरा। आव०५९६। दोषविशेषः। निशी० २७२ वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदायः। भग० ९२१ सर्वांगीणं | कराभ्यामादानम्। बृह. २३० अ| गहनं-वृक्ष-गह्वरम्। | गहणाई- ग्रहणादयः-ग्रहणबन्धनताडनादयः दोषाः। विपा०६२। धवादिवृक्षैः कटिसंस्थानीयम्। सूत्र० ८९। पिण्ड० १६ गहवरम्। प्रश्न. ३९। गहनमिव गहनं दुर्लक्ष्यान्तस्त- गहणागरिस- एकस्मिन्नेव भवे ऐापथिककर्मपदगलानां त्त्वत्त्वात्। प्रथम अधर्मद्वारस्य विंशतितमं नाम। | ग्रहण-रूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षः। भग० ३८६) प्रश्न. २७। चद्सुरुवरागो गहणं भण्णति। निशी. ७० गहणी- ग्रहणी। आव०६४४| गदाशयः। औप०१६। प्रश्न आ। गृह्यत इति ग्रहणम्। प्रज्ञा० २६२। ग्रहणकम्। ८२। ग्रहणी-गुदाशयः। जम्बू० ११७ प्रश्न. ३० सम्ब-न्धनम्। जीवा०४४२॥ गहदंडा-दण्डा इव दण्डाः-तिर्यगायताः श्रेणयः सूत्रादेस्तत्प्रथमतया आदानम्। आव. २६७। ग्रहाणांमङ्ग-लादीनां त्रिचतरादिनां दण्डा ग्रहदण्डाः। भाषाद्रव्याणां कामयोगेन यत् ग्रहणम्। दशवै. २०८१ भग. १९५ सर्वाङ्गिकं तु ग्रहणम्। स्था० ३२७। ग्रहणं ग्रहस्य गहदंडो-दण्डाकार व्यवस्थितो ग्रहो ग्रहदण्डः। जीवा. वस्तुनः परिच्छेदः। अनुयो० २१६। गृहस्थस्य ૨૮રા. गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं, यस्मात्प्रदेशागण्डकं गृण्हाति | गहन- महाटवी। वनम्। सूत्र. २४५। गह्वरम्। ओघ० १८१, तं प्रदेशम्। ओघ० १६६। गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं । १६० शरावसंप्टम्। ओघ० १३९। निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्रं वा। | गहभिण्णं- ग्रहभिन्नं-मज्झेण जस्स गहो गतो तं आचा० ३८२ आक्षेपकम्। उत्त०६३०| गृह्यत इति गहभिण्णं। निशी० ९९ अ। ग्रहणं ग्राह्यम्। आव० ६३०| स्वीकरणम्। उत्त०७११। | गहभिन्नं- यस्य मध्येन ग्रहोऽगमत् तत् ग्रहभिन्नम्। ज्ञानम्। उत्त. ५०३। ग्रहणं-परस्परेण सम्ब-न्धनम्। व्यव० ६२। जीवेन वा औदारिकादिभिः प्रकारैर्ग्रहणम्। भग० १४८५ | गहमुसलं- ग्रहमुशलम्। जीवा० २८२। गृहमुशलं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [111] "आगम-सागर-कोषः" [२]

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