Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 117
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ग्लानभक्तम्। ज्ञाता०५२ औप० १०१। ग्लानो उत्त० ६६४। गृहवासं-गृहावस्थानम्। उत्त० ६६४। रोगोपशान्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद् दीयते तत्। गिहापत्तणं- गृहेष्वागमनं गहापतनम। जीवा० ३४४ स्था०४६० गिहाययणं- गृहेषु तेषामायातनं गमनं गृहायतनम्। गिलायं- ग्लानं-पर्युषितम्। बृह. ३१२ आ। जीवा० २७९। गिलायंति- ग्लायन्ति-श्राम्यन्ति। स्था० १३५ गिहि- गृही-भद्रकः। ओघ० ५७, १०५ असंयतः। दशवै. गिलासणिं-भस्मको व्याधिः। आचा. २३५। २३६। सकलत्रः। दशवै० २६० गिलासिणि-रोगविशेषः। निशी. १४८ अ। गिहिचेतियं-पडिमा। निशी० ६९ आ। गिल्लि- वाहनविशेषः। उत्त०४३८ भग० २३७। हस्तिन | गिहिजोग-गृहियोगः-गृहसम्बन्धं तद्वालग्रहणादिरूपः उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव। अनुयो० १५९। | गृहि-व्यापारो वा प्रारम्भरूपः। दशवै० २३१। गिहीहिं समं जीवा० २८१। पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता डोलिका। जम्बू० १२३ जोगं-संसग्गि, गिहिकम्मं जोगो वा। दशवै. १२२१ गिल्ली- पुरुषद्वयोक्षिप्ता झोल्लिका। सूत्र० ३३०। भग० | गिहिणिसेज्जा-पलयंकादी। निशी०६५। રરછ| गिहिधम्म- गृहस्थधर्म श्रेयानित्याभिसंधाय गिल्लीओ-हस्तिन् उपरि कोल्लराकाराः। भग० ५४७। तद्यथोक्तचारिणो गृहिधर्माः। अनुयो० २५। गृहिधर्म गिहंतरं-गिहं चेव अंतरं गिह। दशवै० ५१। एव श्रेयानित्यभिसन्धेर्दैगिहतरनिसिज्जा- गृहान्तरनिषद्या-गृहमेव गृहान्तरं वातिथिदानादिरूपगृहस्थधर्मानुगताः। औप० ९। गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्। दशवै० ११७ गृहिधर्मा-गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धाय गिह- गृह-पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयः। दशवै० २७३। गृह- | तद्यथोक्तकारी। ज्ञाता० १९५५ शरणं, लयनम्। जीवा० २६९। सकुड्डंगिह। निशी० २६५ | गिहिभायणं- गृहिभाजनं स्थाल्यादिः। सम० ३६| अ। वणरायमंडियं भवणं तं चेव वणविवज्जियं गिह।। गिहिमत्तो-घंटीकरगादि। निशी०६४ आ। गृहिमात्रंनिशी० ७० अ। गृहं-अस्मदगृहकल्पम्। जीवा० २७९| गृहस्थभाजनम्। दशवै. १९७५ गृहं-अपवरकादिमात्रम्। स्था० २९४१ अवस्थित | गिही- गृद्धि-अभिष्वङ्गलक्षणा। आव०६५८१ अधाभद्रकः। प्रसादरूपम्। उत्त० ३६८1 गृह-सामान्यवेश्म। उत्त. निशी. १४७ अ। રૂ૦૮|| गिहेलुगं- गिहेलुकः-उम्बरः। आचा० ३९७। गिहकम्म- गृहनिष्पत्त्यर्थं कर्म गृहकर्म गीअं– गीतिका-पूर्वार्द्धसद्दशाऽपरार्धलक्षणा आर्या। जम्बू. इष्टकामृदानयानादि। उत्त०६६५ १६८५ गिहत्थ- गृहस्थः-गृहलिंगे तिष्ठतीति गृहस्थः। व्यव० । | गीई-गीतेन सूत्रेण केवलेन कम्यक् पठितेन २७। गीतमस्यास्तीति गीति। बृह० ११२। गिहत्थसंसहूं- गृहस्थसंसृष्टम्। आव० ८५४। गीतत्थो- गृहीतार्थ। निशी० ७९ आ। गिहदुवारं- अग्गदारं पावेसितं तं गिहदुवारं भण्णति। गीतयशसः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० निशी. १९२ अ। गीतरतयः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७०| गिहमुहं-अग्गिमालिंदयो छद्दारुआलिंदो एतभ दो वि गीतरती- गन्धर्वेन्द्रः। उत्त० ४२५। स्था० ८५। गिहमुहं । निशी० ११२। गीतिया- गीतिका-गानविशेषः। आ० ५५७। गिहवइ- गृहपतिः धनाधिपः। आव० २९४| गृहपतिः गीय-गीतं-स्वरग्रामानगतगीतिकानिबद्धम्, शब्दितम्। अवग्रहे तृतीयो भेदः। आचा०४०२। गृहपतिः उत्त० २८७ गीतं-गानमात्रम्। भग० ३२३। ज्ञाता० ३८५ सामान्यमण्डलाधि-पतिः। बृह. १०८ अ। रागगी-त्यादिकम्। जम्बू० ३९| गिहवती-शय्यादाता। स्था० ३४० गीयजसे-गीतयशः-उत्तरनिकाये अष्टमो व्यन्तरेन्द्रः। गिहवास- गृहमेव वा पारवश्यहेत्तया पाशः गृहपाशः। भग. १५८१ स्था० ८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [117] "आगम-सागर-कोषः" [२]

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