Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
Catalog link: https://jainqq.org/explore/016134/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो REMEIN LITERALLIT IMITERREN TIED REE.. IMARINEERINEERIERRITORIES ALLIERELLERS OXXXOXOXOXO T REEEEEELINEERIAL IIIIIIIIIIIIIIRLD HEREIIIIIIIIIIEIRL IIIIIIIIIIIIII. TETTERLETIMIL TITT RRIERRRRENT HTTEEHEET CORRIEREILL +-LIM IIIIIIIIIMIRENIMIREER आगम-सागर-कोष: [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज ILLIAT RINTT+ NEELA HTTA HI... TTERLA TLEMIIIIRL S XOXON RIIIIIIR SERIENNEL TTTTTTA E AAAYARLAR. +-- HIMNEER VIIIIIINEMA TIGIRREEL. TERRIEWARA REMIER CELLETITITTET ALLLLLLLLLLLLLL VILLLLLLLLLLLLLLERRI THERELLA TIMILLER MATTER TILLLLLLL LLLLLLLLLLLIERRENT IITTTTTTTT IIIIIIIIIIII ALLLLLLL WITTERLELLA RELIERRIERRIERRIER MERIEWERRIERRRRRRRRRRRIA IIIIIIIIIIIIIIEILLER T REE. C CRET 4RELIATI HILITIES HLEELI ALLLLLLLLLLLLLLLLLLLL ALLLLLLLLLLLLLLLLLLLLERS NAVVVXOXOXOXOX. St IIIIIIIIIIII LEEIR AAVAANWARXXNXXX LEELINEERIA TIMONITIME. ITTERTILLLLLLLED REILEELATERIA (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) ____कोष-रचयिता XOXO मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि XXXXXXX XXXXXXX AAAAAVAVANAVAAAAAAAOOOXOXOXOXOXOXXX. KXXXAAAAAAAAAAYOOOXOXOXOXOXOXXXXXXXXXXXXXAAAAAAA SXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXOXOXOORAN OYAWWWWXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX. XXXXXXXXXXXA NAXXXXXXXXXXXOXOXOXOXOXOXOXOMANWWWXXXXXXXX Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] नमो नमो निम्मलदसणस्स - पूज्य आनन्द-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो नमः आगम-सागर-कोष:-२ [मूल शब्दसंकलनकर्ता:- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी ..पूज्यपाद आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज.. प्राकृत-संस्कृत-शब्द एव तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्री दीपरत्नसागरजी महाराज - M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुतमहर्षि 12/11/2018 सोमवार, २०७५. कारतक सुद ५: Type Setting: - आशुतोष प्रिन्टर्स, जेतपुर Mobile: 9925146223 It's a Net publication of "jainelibrary.org? [North America] मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [2] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] "आगम-सागर-कोष:” विषयक किञ्चित् स्पष्टीकरण पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबने अपने युगमे आगमो के बहोत से शब्दो एवं उन की व्याखाओ का चयन किया था, किन्तु ईसे शब्दकोष के रुपमे संकलन और मुद्रण पूज्य आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजी आदिने करवाया | ईस कोष का नाम 'अल्प-परिचित-सैद्धान्ति-शब्दकोष:' रक्खा. परन्तु इसमे शब्दार्थ भी है, बहोत स्थान पर शब्दो की आगमिक व्याख्याए भी है और शब्दो के बीच अनेक स्थान पर खास नाम भी है | पूज्य गच्छाधिपति आचार्य सूर्योदयसागरसूरिजी कि सूचना एवं उनसे हुए विचार-विमर्श अनुसार हमने ईस 'कोष' के अध्ययनमे देखा की -कई जगह पर सिर्फ शब्द है, कई जगह शब्द और संदर्भ है मगर अर्थ नहि है, कई जगह पर संदर्भ के नाम है मगर पृष्ठांक नहि है तो कहीं कहीं शब्दो के अ-कारादि क्रममे गलति दिखी है | ऐसी अनेक मर्यादाओ का उल्लेख स्वयम् आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजीने 'अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष' भाग -१ मे किया है | हमने ईस कोष की रचना करते वक्त सिर्फ पूज्यपाद आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराज दवारा संचित शब्दो एवं व्याख्याओ को ध्यानमे ले कर ईस 'कोष' की रचना की है | रचना करते वक्त विशेषावश्यकभाष्य, उपदेशमाला, तत्त्वार्थसूत्र और पउमचरियं के शब्द निकाल कर सिर्फ आगमो के शब्दो को हि स्थान दिया है । अनेक स्थानो पर प्रत्यय या विभक्ति को हटा कर 'शब्दकोष' के नियमानुसार मूल शब्द रख दिये है, परिणाम स्वरुप जहा जहा समान शब्द प्राप्त हए, उन शब्दो को एकसाथ रख कर उन के संदर्भ वहि नीचे जोड दिये है, कहीं कहीं एक हि शब्द की व्याख्या से पता चलता है की ये शब्द भले एक है मगर 'अर्थ' कि द्रष्टि से वे शब्द भिन्न भिन्न है, तो उन शब्दो को अलग अलग भी कर दिया है | जहा प्राकृत और संस्कृत दोनो शब्द है, वहा प्राकृत शब्द को पीछे से आगे ले कर बोल्ड टाईपमे रक्खे है | ऐसे अनेक परिवर्तन कर के कोष का उपोगिता मूल्य बढाकर हमने ईस कोष की रचना की है | हमने ईस 'कोष' का नाम "आगम-सागर-कोष:” पसंद किया है | यहा सिर्फ़ आगमिक शब्दो को हि स्थान दिया है इसिलिए 'आगम' शब्द पसंद किया, सागरजी महाराज दवारा शब्द संचित हुए इसिलिए 'सागर' शब्द लिया, ईस कोषमे शब्द, खासनाम और व्याखयाए तिनो का समावेश हुआ है इसिलिए शब्दकोष नाम कि जगह सिर्फ कोष [Dictionary] शब्द रक्खा है | ईस 'कोष' को हमने पांच भागोमे प्रगट किया है, करीब 1200 पृष्ठोमें रहे हए ईस ग्रन्थमे 41,000से ज्यादा शब्दो [+नामो+धातु का समावेश हुआ है | अनेक शब्दो की व्याख्याए भी है और इन शब्दो या व्याख्याओ के आगमसंदर्भ भी दिये है | इस के साथ हम एक मर्यादा का भी स्वीकार कर लेते है- इस कोष के मूल संपादनमे बहोत से शब्द और अनेक व्याख्याए समाविष्ट नहीं हुई है, इसिलिए यहा पर भी अनेक शब्द और व्याख्याए छुट गए है | शब्दो और खास-नामो के लिए आप हमारा [१] आगम सद्दकोसो भाग १ से ४ और [२] आगम नाम एवं कहाकोसो देख शकते है, और व्याख्याओ के लिए हम भविष्यमें 'जैन आगम कोष:' बनाने का आयोजन कर रहे है | परमात्मा की कृपा हुइ तो मेरे पांच-सो नब्बे [590] प्रकाशनो की तरह 'जैन-आगम-कोष:' भी अवश्य आप के कर-कमलोमें समर्पित हो जायेगा | ...मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संक्षेप ०४ चतु. आतु महाप. भक्त. तन्दु संस्ता . गच्छा . गणि ०६ देवे. ३३ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) संक्षेप-सूचि, क्रम आगम का नाम संक्षेप क्रम आगम का नाम ०१ । आचाराङ्ग आचा. ।। २४ | चत:शरणप्रकीर्णक सूत्रकृताङ्ग सूत्र. | २५ | आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक ०३ स्थानाङ्ग स्था . २६ | महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक समवायाङ्ग सम. २७ भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक ०५ | भगवती(अङ्ग) भग. | २८ तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णक ज्ञाताधर्मकथाङग ज्ञाता. | २९ । संस्तारकप्रकीर्णक ०७ उपासकदशाङ्ग उपा. | गच्छाचारप्रकीर्णक अन्तकृद्दशाङ्ग अन्त. ३१ | गणिविदयाप्रकीर्णक | अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग अनुत्त 1 ३२ | देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णक १० | प्रश्नव्याकरणाङ्ग प्रश्न | मरणसमाधिप्रकीर्णक ११ विपाकश्रुताङ्ग विपा. | ३४ | निशीथछेदसूत्र १२ | औपपातिकोपाङ्ग औप. | ३५ बृहत्कल्पछेदसूत्र १३ | राजप्रश्नीयोपाग राज. | ३६ | व्यवहारछेदसूत्र १४ जीवाजीवाभिगमोपाङग जीवा. | ३७ | दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र १५ | प्रज्ञापनोपाङ्ग प्रज्ञा ३८ जीतकल्पछेदसत्र १६ | सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग सूर्यः ।। ३९ । महानिशीथछेदसूत्र १७ | चन्द्रप्रज्ञप्त्यपाङ्ग चन्द्र० ।। ४० आवश्यकमूलसूत्र १८ | | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्ग जम्बू० ।। ४१ ओघनियुक्तिमूलसूत्र | निरयावलियकोपाङ्ग निर. | ४१ पिण्डनियुक्तिमूलसूत्र कल्पवतन्सिकोपाङ्ग कल्प. | ४२ | दशवैकालिकमूलसूत्र पुष्पिकोपाङ्ग पुष्पि . | ४३ | उत्तराध्ययनमूलसूत्र २२ पुष्पचूलिकोपाङ्ग पुष्प० ।। ४४ | नन्दीचूलिकासूत्र | वृष्णिदशोपाङ्ग वृष्णि . | ४५ अनुयोगद्वारचूलिकासूत्र देशीय शब्द चूर्णि मरण. निशी बृह. व्यव० दशाश्रुः १९ कि जीत. महानि आव. ओघ. पिण्ड दशवै. उत्त नन्दी अनुओ० २० दे सूचना- [१] उपरोक्त ४५ आगमो के जो शब्द या व्याख्या संदर्भ ईस कोषमे शामिल किये है, उसमें ६ छेदसूत्रो और चन्द्रप्रज्ञप्ति के अलावा बाकी सभी आगमो श्री सागरानन्दरिजी महाराज संपादित प्रतो से है, चन्द्रप्रज्ञप्ति के संदर्भ सूर्यप्रज्ञप्ति अनुसार है, सिर्फ ६ सूत्र के संदर्भ हस्तपोथी से लिए है [२] यहां आगमो के जो संदर्भ दिये है, वे उन आगमो की प्रत या पोथी के पृष्ठ-अंक है | __ [३] हमारा प्रकाशन “सवृत्तिक आगम सुत्ताणि” भाग १ से ४० मे ये सभी आगम मुद्रित है। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] नमो नमो निम्मलदसणस्स लासो अन्नोन्नदंसणगहो। चि० ११ आ०| काङ्क्षाबाल ब्रह्मचारीश्री नेमिनाथाय नमः परद्रव्येच्छा, तृतीयाऽधर्मदवारस्य चतुर्विंशतितमं नाम। पूज्य-आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः प्रश्न. ४३। अन्यान्यादर्शनग्रहः। भग० ५२| गृद्धिः आसक्तिः । भग० ८९। दर्शनान्तरग्रहो गृद्धिर्वा। भग. ९७। ककारः अप्राप्ता-शंसा। भग० १७३। कंकटुकदेश्य-काङ्कटुकतुल्यः। आचा० २२२॥ सुगतादिप्रणीतदर्शनेष्वभिलाषः। आव०८१११ कंकडइयो-कण्टकितः। कृतकवचः। प्रश्न०४७ कंखापदोस- दर्शनान्तरग्रहरूपो गृद्धिरूपो वा प्रकृष्टो दोषः कंकडेओ-यस्य व्यवहारः काङ्कटकमाष इव न काङ्क्षाप्रदोषः, काङ्क्षाप्रद्वेषं वा रागद्वेषौ। भग० ९७। सिद्धिम्पयाति स काकट्कव्यवहारयोगात् काकटुकः। । कंखामोहणिज्ज-काङ्क्षामोहनीयम्। काङ्क्षाया मोहनीयं व्यव. २५५आ। मिथ्या-त्वमोहनीयमित्यर्थः। भग०५२। काक्षाकंकडुगो-काकट्कः । आव० ८५५) इदमित्थमित्थं च ममाध्येतमचितमित्यादिका वाञ्छा, कंकडो-कङ्कटः। कवचः। भग० ३२२, ४८१। जीवा. १९३। सैव मोहयतीति काक्षा-मोहनीयं कर्म जम्बू० ३७। आज०७७ अनभिग्रहिकमिथ्यात्वरूपम्। उत्त० ५८४] कंकणो-संज्ञाविशेषः। नि० च० ५५आ। कंखिए- काक्षितः, उत्तरलाभाकाङ्क्षावान्। भग० ११२। कंकतकी- फणिहः। 'कांसती ति लोके। अनयो० २४१ कंखिते-काक्षितः। मतान्तरमपि साध्वितिद्धिः। स्था० फणिहम्। सूत्र.११७ २४७। तत्फलाकाङ्क्षावान्। ज्ञाता०९५ मतान्तरस्यापि कंकतिका- 'कांसकी इति लोके। नन्दी० १५२॥ साधुत्वेन मन्ता। स्था० १७६| कंकदीवियो- वनजीवः। मरण| कंगु-धान्यविशेषः। भग०८०२। कङ्गवाः-पीततण्ड्लाः । कंकलोहकत्तिया-कड़कलोहकर्तरिका। शस्त्रविशेषः। जम्बू० १२४१ आव०६९० कंगुपलालं-रालओ। निशी० ६१ अ। कंका- लोमक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। कङ्काः-दीर्घपादाः। कंग-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। धान्यविशेषः। सूत्र० जम्बू. १७२ ३०९। कङ्गुः-उदकङ्गुः। दशवै० १९३। कङ्गुःकंकायः- शस्त्रविशेषः। स्था०४५६| कोद्रवौदनः। पिण्ड० १६८। बृहच्छिरा कंगू। निशी० १४४ कंकावंसे-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३ कंको-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। कड़कः-पक्षिविशेषः। कंगया- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२| जीवा० २७७। प्रश्न. २१। एतदभिधानाऽसिः। आव० ३७४। | कंचणं- काञ्चनकूट-सौमनसवक्षस्कारकूटनाम। जम्बू. पक्षिविशेषः। प्रश्न० ८२ स्था० २६४| जम्बू०११७। प्रश्न ८२ कंचणकोसी-काञ्चनकोशी-सुवर्णखोला। जम्बू. २६५ कंखंति-काङ्क्षन्ते प्राप्तं सद् विमोक्तुं नेच्छन्ति। औप० कंचणपव्वए- उत्तरकुरुष शीतानदी सम्बन्धिनां पञ्चानां २२१ नील-वदादिह्रदानां क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येक कंखणं-काङ्क्षणं-अपेक्षा। भग. ९३। पूर्वापरतटयोर्दश दश काञ्चनाभिधाना गिरयः। भग० कंखपओसे-काङ्क्षाप्रदोषः। भगवत्याः प्रथमशतके तृतीयोद्दे-शकः। काङ्क्षा कंचणपुर- काञ्चनपुरं कलिङ्गदेशे नगरम्। व्यव० ४१३। मिथ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्यदर्शन-ग्रहरूपो आ। का परं कलिङ्गजनपदे नगरम्। ओघ. २११ जीवपरिणामः। स एव प्रकृष्टो दोषो-जीवदूषणं काङ् क्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ द्रव्योत्सर्गे नगरम्। क्षाप्रदोषः। भग०६। इदमित्थं इत्थं च आव० ७१८१ करकण्डुराजधानीः। उत्त० ३०२। ममाध्येतुमचितमि-त्यादिका वाञ्छा। उत्त० ५८४| | कंचणपुरी-नगरविशेषः। निशी० ५५अ। कंखा-काक्षणं-अपेक्षा। भग. ९४। कंखणं कंखा अभि- | आ। ३४३॥ ६५५ कलिङ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [5] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कंचणमाला-कञ्चनमाला शिक्षायोग्यदृष्टान्ते कंठ-कण्ठः-गलः। उत्त० ३४९।। प्रद्योतराजपुत्र्या वासवदत्ताया दासी अम्बधात्री च।। कंठतो-सूत्रपदैः साक्षात्। बृह० २२६ अ। आव० ६७४। कंठमुरविं-कण्ठमुरवी, कण्ठासन्नं कंचणा-काञ्चनाः काञ्चनमयपर्वताः। प्रश्न. ९६) मृदङ्गाकारमाभरणम्। जम्बू० २७५ कंचणियं- रुद्राक्षकृता काञ्चनिका। भग. ११३। कंठलं-ग्रैवेयकम्। औप०५५ कंचणिया-काञ्चनिकां रुद्राक्षमय मालिकाः। औप० ९५ कंठविशुद्ध-कण्ठे यदि स्वरो वर्तितोऽस्फुटितश्च, ततः कंचिक्को- कञ्चित्कः, नपुसंकम्। बृह. १०२ आ। कण्ठ-विशुद्धम्। स्था० ३९६। जम्बू० ४० अनुयो० १३२ कंचिपुरी-नगरविशेषः। निशी. १३९ आ। कंठसद्द-कण्ठैकपार्श्वः कण्ठशब्द इति, कण्ठे कंची-काञ्ची कट्याभरणविशेषः। प्रश्न. १५९। परिवृत्त्येति। उत्त० ३५९। भूषणविधि-विशेषः। जीवा० २३९। | कंठसमद्दिठा-कण्ठसिद्धाः निगदसिद्धाः। आव० ७२७॥ कंचुइओ- कञ्चुकिनामान्तः पुरप्रयोजननिवेदकः कंठसुत्तं- कण्ठसूत्रं-गलावलम्बि सङ्कलकविशेषः। प्रतिहारो वा। ज्ञाता०४१। औप. ५५ भग०४५९। कंचुइज्जो–कञ्चुकी। आव० २२५१ कंठसुत्तग-कण्ठसूत्रम्। जम्बू० १०५। कञ्चुकः-संघात्यम्। दशवै० ८७। कञ्चुकः कंठाकंठियं-कण्ठे च कण्ठे च गृहीत्वा कृतं युद्धं छिन्नसन्धानो वस्त्रविशेषः। आचा० ८९। कण्ठाकण्ठि। ज्ञाता०८९। कंचुग- कञ्चुकं-अधःपरिधानं, पुरुषस्याधस्तनं स्यूतं कंठाणुवादिणीछाया- छायाविशेषः। सूर्य ९५ वस्त्रम्। आव० ४३४। ओघ० २०९। कंठिया-कण्ठिका, कण्ठः। गच्छा० कंचुय-कञ्चुकी-वारबाणः। अन्त०७। कञ्चुको कंठुग्गए-कण्ठश्चासावग्रकश्च-उत्कटः कण्ठोग्रकः, वारबाणः। भग०४६० कण्ठस्य वोग्रत्वं कण्ठोग्रत्वम्, कण्ठाद्वा यद् उद्गतम्कजिक-काजिक-सौवीरम्। पिण्ड० १६८१ उदगतिः स्वरोदगमलक्षणा क्रिया कण्ठोदगतः। स्था. कंजिगं-अवश्रावणम्। निशी० २०३ आ। ३९५ कंजिया-अवश्रावणम्। बृह. १२९ आ। निशी० ३२९ ।। | कंठोडविप्पमुक्कं- बालमूकभाषितवद् यद् अव्यक्तं (देशी) आरनालं। निशी० ४७ अ बृह. २५३ अ। भवती-त्यर्थः। अनुयो० १६॥ कंट- कण्टकः। निशी० ३२। कंड-काण्डम्-धनष्काण्डम्। आव०६१३। मण्डलाद् कंटइल्ल-कण्टकितो बदरीबब्बूलप्रभृतयः। व्यव० ६१ बृहत्तरं देशखण्डम्। आव० ६३६। काण्डम्-शरम्। आव. आ। कण्टकवान्। प्रश्न० २० ९३। रत्नकाण्डादि। अनुयो० १७१। मण्डलाद् बृहत्तरं कंटए- कण्टकः, गोत्रजवैरी। जम्बू. २७७। देशखण्डम्। बृह. १४९ आ। काण्डः-बाणः शरः। भग० कंटकादिप्रभवः-आगन्तको व्रणः। आव०७६५) १९४| काण्डं-धनः। दशवै०१०४१ भग० २९० काण्डंकंटगापह-कण्टकपथः कण्टकाश्च द्रव्यतो विशिष्टो भूभागः। जीवा०८९ काण्डं-विभागः दवितीयं बब्बूलकण्टकादयः, भावतस्तु चरकादिकुश्रुतयः काण्डं-विभागोऽष्टात्रिंशद् योजनसहस्राण्युच्चत्वेन तैराकुलः पन्थाः । उत्त० ३४० भवतीति। सम०६५ कंटय-कण्टकः-बाधकः-शत्रः। भग० १०१। कण्टकाः कंडए- कण्डकं-कालखण्डम्। भग. १७८ अवयवः। भग० दायादाः। स्था० ४६३। देशोपद्रवकारिणश्चरटाः कण्टकाः। ६१६। कण्डकः। आव० ४२७। राक्षसानां चैत्यवृक्षाः। स्था० राज०११। कण्टकः-प्रतिस्पर्द्धिगोत्रजः। औप०१२ ४४२। कण्टकः| जीवा० २८२ कंडक-तन्तः। नन्दी० १६५ आचा० १७२। प्रज्ञा० ५६१। कंटिया-कण्टिका-कण्टकशाखा। ब्रह. २५ अ। कण्टकः। ओघ. १३११ आव० १९५, ३४२ | कंडग-क्षतम्। निशी० ११८ आ। कण्डकं-समयपरि मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] भाषयाऽङ्गुलमात्रक्षेत्राऽसङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमा | कंडुसोल्लियं-कन्दूपक्वम्। औप० ९१। णा सङ्ख्या । पिण्ड० ३९। कंडू- कण्डूः-कण्डूतिः। उत्त० ७८। खर्जुः। ज्ञाता० १८१। सङ्ख्यातीतसंयमस्थानसम्दाय-रूपः। पिण्ड० ३८५ कन्दूः-नारकाणा पचनस्थानम्। आव०६५१| कण्डू:कंडच्छारिउ-ग्रामो, ग्रामाधिपतिर्देशो देशाधिपतिर्वा पाकस्थानम्। जीवा० १०५) लूम्पका वा। व्यव० २२३ आ। कंडूइअ-कण्डूयितं-खर्जुकरणम्। जम्बू. १७०| कंडपुंख- बाणपृष्ठः। आव०६९७ कंडूसंठिओ-कण्डूसंस्थितः-पाकस्थानसंस्थितः। कंडपोंखो-शरपुङ्खः। आव० ४२५) आवलिकाबाह्यस्य तृतीयं संस्थानम्। जीवा० १०४। कंडफल-शस्त्रविशेषः। व्यव० १७आ। कंडूसगपट्टओ-कंडूसगबंधो णाम जाहे रयहरणं कंडयं-अगुलाऽसंख्येयभागप्रदेशमानानि स्थानानि। तिभागपएसे खोमिएण उण्णिएणा वा चीरेणं वेढियं बृह. १५आ। भवति ताहे उण्णिदोरेण तिपासियं करेति, तं चीरं कंडरिए- कण्डरीकः-अलोभोदाहरणे साकेतनगरे कंड्सगपट्टओ भण्णति। निशी. २४६अ। युवराजः। आव०७०१ कंड्सगबंधो-खोहे रयहरणं तिभागपएसे खोमिएण कंडरिओ-कण्डरीकः-औत्पात्तिकीबुध्या दृष्टान्तः। उण्णिएण वा चीरेणं वेढियं भवतिण ताहे उण्णिदोरेण आव० ४२०| अहोरात्रेणाऽधोगामी। मरण तिपासियं करेति, तं चीरं कंडूसगबंधो। निशी० २४६ अ। कंडरिय- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४॥ कंडे- कण्डयन्ती। ओघ. १६५ कंडरीए-कण्करीकः-महापद्मराजस्य लघुसुतः। ज्ञाता० कंत-कान्तं कमनीयम्। ज्ञाता० १६७। २४३। उत्त० ३२६। पुण्डरिकिण्यां य्वराजः। आव. २८८ कंता-कान्ताः कमनीयशब्दाः। जम्बू. १४३। कंडरीक-असदनुष्ठानपरायणतयाऽशोभनत्वे उपमा। कंतारं-अध्वानं जत्थ भत्त-पाणं ण लब्भति। निशी. सदसद-नुष्ठानपरायणतया शोभनाऽशोभनत्वमवगम्य १०२। तदुपमयाऽन्य-दपि यच्छोभनं तत्। महाराजपुत्रः। सूत्र. कंतारभत्त-कान्तारभक्तं कान्तारं-अरण्यं तत्र २६८ नाम विशेषः। आचा० २४१। सूत्र. १९४१ देशीयः। भिक्षुकाणां निर्वाहणार्थं यत् संस्क्रियते तत् आचा० ११२ कान्तारभक्तम्। औप०१०१। कान्तारं-अरण्य, तत्र कंडा-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। काण्डं नाम भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यद विहितं भक्तं तत् विशिष्टपरिणा-मानुगतो विच्छेदः पर्वतक्षेत्रविभागः। कान्तारभक्तम्। भग० २३१। कान्तारं अरण्य, तत्र यद् जम्बू० ३७४। भिक्षुकार्थं संस्क्रियते तत् कान्तारभक्तम्। भग० ४६७) कंडितिया-अनुकम्पिता कण्डयन्तीति-तन्दुलादीन् कान्तारं-अटवी, तत्र भक्तं-भोजनं यत् साध्वाद्यर्थम्। उदख-लादौ क्षोदयन्तीति कण्डयन्तिका। ज्ञाता०११७ स्था० ४६० कंडिया- इह ये तण्डुलाः प्रथमतः साध्वर्थमुप्ताः, ततः । कंतारवित्ति-कान्तारवृत्तिः शणपल्ल्यादिवृत्तिः। आव० क्रमेण करटयो जाताः, ततः कण्डिताः। पिण्ड०६५) ८४४१ कंडिल्ला- गोत्रविशेषः। स्था० ३९० कंतारो-निर्जलः सभयस्त्राणरहितोऽरण्यप्रदेशः कान्तारः। कंडुइया- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ सूत्र० ३४१॥ कंडुइस्सामि-कण्डूयिष्ये। ज्ञाता०६५) कंति-कान्तिः। ज्ञाता० २२० कंडुयं- कन्दुकं नारकपचनार्थं भाजनविशेषः। सूत्र०१२५। | कंतिमइ- कान्तिमतिः, मायोदाहरणे कोशलपुरे कण्डू:-कण्डूति। ज्ञाता० ११३| कन्दुः–मण्डकादिपचन- | नन्दनेभ्यस्य दवितीया पत्री। आव० ३९४१ भाजनम्। विपा०४९। कंते- कान्तियोगात् कान्तः। स्था० ४२०| कान्तिमान्। कंडुलोहकुंभी-कन्दूलोहकुम्भी-नारकाणां हननस्थानम्। । सूर्य. २९२। घृतोदसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५५। आव०६५१| कमनीयः-सामान्यतोऽभिलषणीयः। प्रज्ञा० ४६३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कथए-कन्थकः प्रधानोऽश्व। उत्त० ३४८१ कंदप्पिआ-कान्दर्पिकाः। कामप्रधानकेलिकारिणः। कंथका-कन्थकाः अश्वविशेषाः। स्था० २४८१ जम्बू. २६४। कान्दर्पिकः। आव. २०५। कंथग-कन्थकः। जात्याश्वः। उत्त० ५०७ कंदप्पिया-कन्दर्पः परिहासः, स येषामस्ति तेन वा ये कंथरं-सकण्टकम्। आव०६७० चरन्ति ते कन्दर्पिकाः। कान्दर्पिका वाः। कंद-कन्दं मूलस्कन्धान्तरालवर्ति स्वावयवम्। उत्त. व्यवहारतश्चरणवन्त एव कन्दर्प-कौक्च्यादिकारकाः। २४। कन्दः-मूलनालमद्यवर्ती ग्रन्थिः । जम्बू० २८४। भग. ५० साधारण-बादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| कंदभोयणं-कन्दः सूरणादिः, तस्य भोजनं कन्दविशेषः। उत्त०६९११ वज्रकन्दादिः। दशवै० १९८१ कन्दभोजनम्। स्था०४६०| भग०४६७| मूलानामुपरि वृक्षावयव-विशेषः। औप०७ कंदमाण-शोकाद् महाध्वनि मुञ्चन्। ज्ञाता० १५९। मूलोपरिवर्ती। जीवा० १८७। स्कन्धा-धोभागरूपः। प्रश्न. | कंदमूले- कन्दमूलम्। प्रज्ञा० ३४१ १५२गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२। कन्दः-सूरणादिलक्षणः। | कंदरं-गिरिगुहा। आचा० ३६६ गिरिगुहा। निशी० ७० अ। दशवै० २७६। मूलानामुपरिवर्तनः कन्दः। जम्बू० २९। । कुहरम्। विपा० ५५ सूरणकन्दादिः। आचा० ३०० कंदरगिह-कन्दरगृहम्। गुहा। भग० २००| गिरिगुहा कंदणता- क्रन्दनता-महता शब्देन विरवणम्। स्था० गिरिक-न्दरं वा। स्था० २९४१ १८९| कंदरा-कन्दरा। दरी। प्रश्न. १२७। गुहा। ज्ञाता० ३३। कंदणया-महता शब्देन विरवणम्। भग. ९२६) कंदराणि-भूमिविवराणि। भग० ४८३। कंदणा-नष्टमृतादिषु कंदणा-मोहनोद्भवकारिका। निशी. | कंदर्प- रागसंयुक्तोऽसभ्यो वाक्प्रयोगो हास्यं च। तन्दु० ७१ आ। कंदप्प-कन्दर्पः-परिहासः। भग. ५० अतिकेलिः। भग. | कंदल-कन्दलानि-प्ररोहाः। ज्ञाता०२६। प्रत्यग्रलताः। १९८ ये कन्दर्पभावनाभावितत्वेन ज्ञाता० १६१| कान्दर्पिकदेवेषत्पन्नाः कन्दर्पशीला देवाः। भग० १९८१ कंदलगा- एकखुरविशेषः। प्रज्ञा० ४५। कन्दलकः-एककन्दर्पः-परिहासः। बृह० २१३। कन्दर्पः-कामः, | खुरश्चतुष्पदः। जीवा० ३८१ तद्धेतुर्विशिष्टो वाक्प्रयोगश्चः, रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रो | कंदली-कन्दली-कन्दविशेषः। उत्त०६९११ तक्कली। मोहोद्दीपको नर्मेत्यर्थः। आव० ८३० कामोद्दीपनं वचनं | आचा० ३४९। चेष्टा च। प्रज्ञा. ९६| जीवा० १७३। कान्दर्पिका कंदलीऊसयं-कन्दलीमध्यम्। आचा० ३४९। देवविशेषः, हास्यकारिणो भाण्डप्रायाः। प्रश्न. १२१। कंदलीकंदए-कन्दलीकन्दकः-वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा. कन्दर्पकथावान्। स्था० २७५ अट्टहासहसनम् ३७ अनिभृतालापाच, गुर्वादिनाऽपि सह कंदलीसीस-कन्दलीशीर्षम्-कन्दलीस्तबकः। आचा. निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपाः कामकथोपदेशप्रशंसाश्च। ३४९। उत्त०७० कामः, तद्धेतुर्विशिष्टो वाक्प्रयोगोऽपि कंदा-कन्दाः । प्रज्ञा० ३१ कन्दर्पः। उपा० १० कन्दर्प कामः तत्प्र-धानाः कंदाहारा-कन्दभोजिनस्तापसाः। निर०२५ षिङ्गप्राया देवविशेषः कन्दर्पा उच्यन्ते, तेषामियं कंदिय-क्रन्दितम्-आक्रन्दः। प्रश्न. १६०| वाणमन्तरकान्दप्पी। बृह. २१२ आ। विशेषः। प्रज्ञा० ९५ कंदप्पभावणा-कन्दर्पभावना। उत्त०७०७ कंदियसई- क्रन्दितशब्द कंदप्परई-कन्दर्परतिः-केलिप्रियः। ज्ञाता०६७। प्रोषितभर्तृकादिकृताऽऽक्रन्दरूपम्। उत्त० ४२५ कंदप्पा-अनेकक्रीडास अंदोलकादिप्पललिया घइणो इव | कंदिया-क्रन्दिताः-व्यन्तरनिकायानामपरिवर्तिनो अणेगसरीरकिरियाओ करेंता कंदप्पा। निशी. ९ । । व्यन्तर-जातिविशेषः। प्रश्न०६९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] कंदु - कन्दुः- लोही - ( लोहमयी) प्रश्न० १४ | कंदुकुम्भीपाकभाजनविशेषरूपा लोहादिमयी उत्त आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) ४५९। कंदुक्क कन्दुक:- साधारणवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ४०% कन्दुक्कः- वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७॥ कंदुसोल्लियं कन्दुपक्वम्। भग० ५१९। कंपणवाइओ कम्पनवातिकः कम्पनवायुरोगवान् । अनुत्त० ६। कंपिलपुरे - अम्बडपरिव्रजकस्थानम्। भग० ६४३ | कंपिल्ल काम्पिल्यम् - विमलनाथजन्मभूमिः । आव. १६० । जितशत्रुराजो राजधानी ज्ञात ०१४४ चित्रसम्भूतिभ्रमणस्थानम् । उत्त० ३७९ | पाञ्चालेषु आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० 991 नगरविशेषः । उत्त० ३२३ कंपिल्लः - अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य सप्तममध्ययनम् । अन्तः । काम्पिल्यःब्रह्मदत्तराज्या मलयवत्याः पिता । उत्त० ३७९ । काम्पिल्यम्-ब्रह्मदत्तराजधानी । आव० १६१ | हरिषेणराजधानी । आव० १६१। पञ्चालदेशे नगरम् । ब्रह्मराजधानी । उत्तः गण कंपिल्लपुर- काम्पिल्यपुरम् । पञ्चालेषु दुर्मुखराजधानी । उत्त० ३०३ खण्डरक्षाणां श्रमणोपासकानां स्थानम | आव० ३९७| ब्रह्मदत्तराजधानी निशी० ११३ आ काम्पि-ल्यपुरं-अम्बडपरिव्राजकस्थानम्। भग० ६५३ | द्रुपदराज्ञो राजधानी। ज्ञाता० २०७| नगरविशेषः । ज्ञाता० २५३| कंबलं- कम्बलः- उपकरणविशेषः । आव• ७९३] वासोविशेषः । प्रश्न० १३५ कम्बलमित्यनेन आविकः पात्रनियोगः कल्पश्च गृहयते । आचा० १३४ और्णिकं कल्पं पात्रनिर्योगं वा । आचा० २४० । वर्षाकल्पादि । दशवै० १९९| कंबल- कम्बलः–मथुरायां जिनदासस्य वृषभजीवः । बृह० १६० आ । नौरक्षकः । आव० १९७, १९९| कंबलकडे - कम्बलमेव । स्था० २७३ | कम्बलकटः । आव ० २८९ । कंबलकिड्ड ऊर्णमयं कम्बलं जीनादि । भग. ६२८ कंबलगाणि - वस्त्रविशेषः । आचा० ३९३ | कंबलरयणं- कम्बलरत्नम् उत्त० १०५५ कम्बलरत्नं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [9] [Type text] वस्त्र - विशेषः । व्यव० १९४अ पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं चक्रवर्तिरत्नम्। आचा० ३९२ कंबलसाडए - कम्बलरूपः शाटकः कम्बलशाटकः । प्रज्ञा० ३०६। कंबला - वस्त्रविशेषः । अनुयो० २५३| सास्ना विपा० ४९॥ कंबिया- कम्बिका आव• ४१७ कंबिका पुष्टका । जीवा. २३७| कंबिसंस्तारक- शय्यासंस्तारके द्वितीयो भेदः । व्यव० २८४ अ कंबुं विमानविशेषः । सम० २ कंबुग्गीयं विमानविशेषः समः २२ कंबुवरसरिसा कम्बुवरसदृशी-उन्नततया वलियोगेन च प्रधानशखसन्निभा जीवा० २७२॥ कंबुयं- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ | कंबोय- काम्बोज - कम्बोजदेशोद्भवोऽश्वः । उत्त० ३४८१ कंमं- आहाकम्मं । निशी० ९३अ । कंमंतसाला छुहादिया जत्थ विज्जति सा कम्मंतसाला गिहं वा । निशी. २६५अ कंमादि- कर्मादिना । स्था० ३३१| कंमिया कर्मणो जाता कर्मजा बुद्धेः तृतीयभेदः । आक - ४१४| कंमोवधी- पहाणा तीव्रकमदये वर्तमाना इत्यर्थः । निशी. २८९ अ कंस- कांस्यम्–कांस्यभाजनम्। उत्त० ३१६। अष्टाशीतिमहाग्रहेषु द्वाविशंतितमः । जम्बू० ५३५ | स्था० ७९ कंसम्-करोटकादि दशकै २०३१ कंसः कृष्णवैरी । प्रश्न. ७५% मथुरायां राजा दशकै ३६ कांस्य:द्रव्यमानविशेषः । उत्ता० ४८% कांस्यभाजनजातिः । जीवा० २८० जाता० ४९। त्रपुकः - तामसंयोगजम्। प्रश्न० १५२१ देवकीसुतघातको मथुराधिपतिः सूत्र ३०८1 कंसकारे अष्टादशश्रेणिषु चतुर्दशः । जम्बू० १९४॥ कंसणा - कंसनाभः । अष्टाशीतौ महाग्रहेषु त्रयोविंशतितमः । जम्बू. ५३५| कंसताला कंस्यतालाः । कंसालियाः । जीवा- ३६६| कंसपाए - कंसपात्रम्-तिलकादि। दश० २०३१ कंसवण्णाभे कंसवर्णाभः अष्टाशीतौ महाग्रहेषु चतुर्विंशतितमः । जम्बू. ४३५| *आगम - सागर- कोषः " [२] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कंसवण्णे-अष्टाशीतिमहाग्रहेषु त्रयोविंशतितमः स्था० | कओगो- छत्तो। निशी० २८४ अ। ७९| ककाणओ-मर्माणि। सूत्र० १३९। कंसवन्नाभे- अष्टाशीतिमहाग्रहेषु चतुर्विंशतितमः। स्था० | ककार-खकार-गकार-घकार-कार-प्रविभक्तिनामा७९| पञ्चदशो नाट्यविधिः। जीवा० २४७ कंसालिया-कांस्यतालाः। जीवा० ३६६। ककुयं- ककुदम्-अंसकूटम्। जम्बू० ५२९। कंसिकाः-लत्तिया-वादयविशेषः। स्था०६३। ककुष्ठा-तृतीयं क्षुद्रकुष्ठम्। प्रश्न० १६१| आचा० २३५। क-कः-आत्मा । भग० २६९। ककुहं- ककुदम्-स्कन्धशिखरम्। विपा० ४९। कइ-कति–कतिविधम्। भग० १४२ कियन्तः। अन्यो० | ककुहा- ककुदानि-निह्नानि। स्था० ३०४॥ २५९। क्वचित्-संयमस्थानावसरे कक्कं-कल्कम्-पापं माया वा। प्रश्न. २७। लोध्रादिद्रधर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ। दशवै. २८३। व्यसमुदायेन शरीरेद्वर्तनकम्। सूत्र. १८१। उव्वलणयं कइए-क्रयिकः-ग्राहकः। भग० २२९। द्रव्य-संयोगेन वा कक्कं। निशी. ११६आ। कल्कः-प्रसूकइखुत्तो-कतिकृत्वः-कियतो वारान्। उत्त. २३०| त्यादिषु रोगेषु क्षारपातनम्, अथवा आत्मनः शरीरस्य कइतवियं- कृत्रिमम्। आचा० १७८। देशतः सर्वतो वा लोध्रादिभिरुद्वर्तनम्। व्यव० १६३ अ। कइत्थो-कतिथः। आव. ५५९। कल्कः-चन्दकल्कादिः। दशवै० २०६। कल्कम्-मायाककइभाग-कतिभागः-कतिथो भागः। प्रज्ञा० ५०३। पटम्। सम०७१। हिंसादिरूपं पापम्। भग० ५७३। कर्कःकइया-क्रयिकाः। दशवै०६१| ब्रह्मदत्तस्य तृतीयः प्रासादः। उत्त० ३८५) कइयवं-कैतवम्। आव० ६३२। कक्कगुरुग-कल्कगुरुकम्-माया। प्रश्न. ३०| कइरसारए-करीरसारः। प्रज्ञा० ३६० कक्कणा-कल्कं-पापं माया वा तत्करणं कल्कना। प्रश्न. कइल्लए- कृते। बृह० ६२ अ। ३६ कइल्लिया- कृता। उत्त० ८६| कक्करणता-कर्करणता-शय्योपध्यादिदोषोद्भवनगर्भ कइवयं-कतिपयम्। आव. २९२ प्रलप-नम्। स्था० १४९। कइसिरं- कतिशिरः-कति शिरांसि तत्र भवन्ति। आव. कक्करणया-जो घडीजंतगं व वाहिज्जमाणं करगरेइ सा ५११। कक्करणया। दशवै० १५१ कउ- क्रतुशब्देनेह प्रतिमा-अभिग्रहविशेषः। उपा० २६। कक्कराइयं-कर्करायितम्-विषमा धर्मवती' इत्यादिकउओ-कायाको वेषपरावर्तकारी नटः। बृह. १२७ आ। शय्या-दोषोच्चारणम्। आव० ५७४। ककुदम्-स्कन्धदेशविशेषः। ज्ञाता०१६१| कक्करि-कर्करी-कलशो महाघटः, करकः, प्रतीतः, कउह- ककुदम्-स्कन्धासन्नोन्नतदेहावयवलक्षणम्। कर्करी-स एव विशेषः। जम्बू०१०१ अनुयो० १४३ प्रधानः। ज्ञाता० २३३। कक्करी-कर्करी-भाजनविधिविशेषः। जीवा० ३६६। कउही- ककुदम् कक्करे-कर्करः-कर्करायितकारी। उत्त०४८६| स्कन्धासन्नोन्नतदेहावयवलक्षणमस्यास्तीति कल्दी- कक्कस-कर्कशाम्-चर्विताक्षराम्। आचा० ३८८। जो वृषभः। अनुयो० १४३ सीउण्हकोसादिफासो सो सरीरं किसं कव्वई ति कए- कृतानि-भावितानि। बृह. १३३। कृते-अर्थाय। कक्कसो। दशवै० १२३। कर्कशाम्-कर्कशद्रव्योपमाम्दशवै०६५ अनिष्टा-मित्यर्थः। भग० २३१। रौद्रद्ःखम्। भग० ३०५१ कएण- कृते हेतोः। प्रश्न. १२० कर्कश-द्रव्यमिव कर्कशोऽनिष्ठ इत्यर्थः। भग० ४८४| कएणुय- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। कर्कशः-अतिदुस्सहः। जीवा० १०३। कर्कशाकएल्लओ-कृतः। आव० ३५९, ६६९। अतिशयोक्त्या मत्सर पूर्वा भाषा। दशवै० २१३। कओ- कृतः। विहितः। ज्ञाता०७०, १९२ कक्कावंस-वंशवृक्षविशेषः। भग०८०२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [10] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कक्केय-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५। भुविभागरूपो विजयः। जम्बू. ३४०| कक्को-सो दव्वसंजोगेण वा असंजोगेण वा भवति। दक्षिणकच्छार्धकूटम्। उत्तरकच्छार्धकूटम्। जम्बू० निशी. ११८आ। उव्वलयं अट्टगमादी। दशवै० १०१| ३४१। कच्छ-इहलोकगुणे देशविदेशः। आव० ८२४१ कक्कोडई-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ ऋषभदेवस्य पौत्रः। आव. १४३। क्षेमायां राजधान्यां कक्कोडए- चतुर्थोऽनुवेलन्धरनागराजः कच्छो नाम राजा चक्रवर्ती। जम्बू० ३४४। तस्यैवाऽऽवासपर्वतः। स्था० २२६। कर्कोटकः कच्छउडियो- गृहीतोभयमोट्टाकः। ब्रह. १९०आ। अनुवेलन्धरनागराजाऽऽवासभूतः। पर्वतः लवणसमुद्रे कच्छकरा-अष्टादशश्रेणिषु अष्टमी श्रेणिः। जम्बू. १९३। ऐशान्यां दिश्यस्ति, तन्निवासी नागराजः, वरुणस्य कच्छकूडे- कच्छकूटम्। जम्बू. ३४४। कच्छविजयाऽधिपुत्रस्थानीयदेवः। भग० १९९। प्रथमोऽनुवेलन्धर- पकूटम्। जम्बू. ३३७ नागराजः, तस्यैवाऽऽवासपर्वतश्च। जीवा० ३१३। कच्छकोह-कक्षाकोथः कक्षकोथो वा-कक्षाणांकक्कोलं-औषधिविशेषः। आव०८१११ शरीरावयव-विशेषाणां वनगहनानां वा कोथः-कुथितत्वं कक्कोलयं-स्वादिमे दृष्टान्तः। निशी० ६०अ। शटितं वा कक्षा-कोथः कक्षकोथो वा। भग० १९८१ कक्ख- कक्षा। जीवा० २७५। भुजमूलम्। प्रश्न० ८४ कच्छगावती-कच्छा एव कच्छकाः मालकाकच्छकादयः कक्खड-कर्कशम-कर्कशद्रव्यमिवाऽनिष्टम्। प्रश्न सन्त्यस्यामतिशायिन इति कच्छकावती, विजयनाम। १५६। रुक्षादिगुणसमन्वितम्। ओघ० ५० महा-विदेहे कच्छगावती नाम विजयः। जम्बू० ३४६। कर्कशद्रव्यमिवाऽनिष्टे-त्थर्यः। ज्ञाता०६८ निष्ठो स्था०८० बलवत्वात्। ज्ञाता०१६२। अवमौदर्यम्। बृह. १२७ आ। कच्छट-अन्ध्रदेशीयस्त्रीनेपथ्यविशेषः। आव० ५८११ पासहितेहिं विओसविज्ज-तिमाणा वि नोवसमंति। कच्छपुड-कच्छपुटः। व्यव० २०७आ। निशी० २१६ आ। कच्छपुडओ-कक्खपदेसे पुडा जस्स स कच्छपुडओ। कक्खडिया-करकडिया-करकटिका-निन्दयचीवरिका। निशी. १५८ अ। विपा०४७ कच्छभरिंगियं-कच्छपरिगितम्। येन कच्छपवद कक्खडो-तिव्वकम्मोदए वट्टमाणो। निशी० २७६ अ। रिङ्गन् वन्दते तत्। कृतिकर्मणि सप्तमदोषः। आव. कङ्कट-कवचः। भग० ३१८ १४३ कङ्कटुकरूपम्- कङ्कटकतुल्यम्। उत्त० ३४७। कच्छभा-कच्छपाः-कूर्माः। उत्त०६९९| आव. ५४३। कच्चगे- चडुगे। व्यव० ३०२ आ। कच्छपाः। प्रज्ञा०४३। राहो अष्टमं नाम। भग० ५७५ कच्चातणा- कात्यायनः-कौशिकगोत्रविशेषभूते पुरुषे, कच्छपः। सूर्य २८७। तदपत्यसंतानेषु च। स्था० ३९०| मांसकच्छपाऽस्थिकच्छपभेदभिन्नो जलजन्तुविशेषः। कच्चायण- कात्यायनम्-मूलगोत्रम्। जम्बू० ५००। प्रश्न कच्चायणसगोत्ते- कात्यायनसगोत्रम्-मूलनक्षत्रस्य कच्छभाणी-कच्छभानी-साधारणवनस्पतिविशेषः। गोत्रम्। सूर्य. १५० प्रज्ञा०४०। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कच्छ-कच्छः। नदीजलपरिवेष्टितो वृक्षादिमान् प्रदेशः। | कच्छभी-कच्छपी। भारती वीणा। जम्बू. १०१। कच्छभी। भग. ९२। सूत्र. ३०७। कच्छदेशः। जम्बू० २२० वाद्यविशेषः। प्रश्न. १५९। पुस्तकपञ्चके द्वितीयम्। कक्षाउरो-बन्धनम्। भग० ३१८ हृदयरज्जुः। भग० २१७ | निशी० १८१ । वादिन्त्रविशेषः। जीवा० २६६। चतुरंगुलो शरीराऽव-यवविशेषो वनगहनं वा। भग. १९८१ समूहः। | दीहो वा वृत्ताकृती। निशी०६१ ।। स्था०४०७| विजयविशेषः। प्रज्ञा०७३। श्रीऋषभस्वामिनो | कच्छभीए-कच्छपिका। उपकरणविशेषः। ज्ञाता० २२० महासामन्त-नाम। जम्ब० २५२ हृदयरज्जः। औप०६२ | कच्छवि-कच्छपी। पुस्तकपञ्चके द्वितीयम्, यद् अन्ते जम्बू. ५२८ कच्छो नाम चक्रवर्तिविजेतव्य तनक मध्य ०२३३। आव०६५२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [11] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कच्छवी-अन्ते तनुकं मध्ये पृथुलं पुस्तकम्। बृह० २१९ | पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३३५।। आ। कज्जलमाणं-भरिज्जमाणं। निशी० ६४ अ। कच्छा- बन्धविशेषः। सम० १२७ स्था० ८० कक्षा- | कज्जलायमाणं-प्लाव्यमानम्। आचा० ३७९) उरोबन्धनम्। विपा०४७। इक्खपदी। निशी. ७० कज्जलेइ-कज्जलमिति। कज्जलं-दीपशिखापतितम। कच्छाणि-कच्छाः। नद्यासन्ननिम्नप्रदेशा जम्बू० ३२ मूलकवालुकादिवा-टिका वा। आचा० ३८२ कज्जसेणे-तृतीयायामवसर्पिण्यां भारतवर्षे पञ्चमः कच्छावईए-कच्छा एव कच्छका-मालुकाकच्छादयः कुलकरः। सम० १५० सन्त्य-स्यामतिशायिन इति। जम्बू० ३४६। कज्जोयए-अष्टाशीत्यां पञ्चदशो महाग्रहः। स्था० ७८। कच्छावईकुडे- कच्छावतीकूटम्। महाविदेहस्य | कज्जोवए- कार्योपगः। अष्टाशीत्यां षोडशो महाग्रहः। पद्मकूटस्य चतुर्थं कूटम्। जम्बू० ३४६। जम्बू० ५३४१ कच्छु-पामा। व्यव० १९२ | निशी. १२७ आ। | कटक-गिरिपादः। दुर्गः। व्यव० ४२आ। सैन्यम्। कच्छुभरि-गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० २३॥ नन्दी०१६१। सैन्य किलिज्जं वा। प्रश्न.६। कच्छुल्ल-कण्डूमान्। विपा०७४। पामावान्। बृह. २२२। उपकरणभेदः। आचा०६० आ। कण्डूतिमान्। प्रश्न० १६१। कटकमद- कटकमर्दैन मारणमादिश्य। स्था० ४१२। कच्छुल्लणारए- एतन्नाम्ना तापसः। ज्ञाता० २२० कटकितः-काष्ठादिभिः कुड्यादौ संस्कृतः। आचा० ३६१। कच्छू-कच्छू:-पामणा(मा)। जीवा० २८४, ३०८ आव. कटादिकाराः- छर्विकाः। प्रज्ञा० ५८१ ३७८ पामा बृह. २२२ अ। जम्बू. १७०| निशी०६अ। कटासनम्-कटासनमित्येतस्माच्छय्येति। आचा० ३२० व्यव. १९२। कटाहक-पात्रविशेषः। आचा० ३४६। कच्छोटकः- चरकः। भग. ५० कटुः- रसस्य द्वितीयभेदः। प्रज्ञा०७४। कच्छोटग-कच्छोटकः। आव०४१३। कटुकाः-सुण्ठ्यादिवत्। उत्त० ६७७। कज्ज-असिवादियं कज्जं भण्णति। निशी. ४२ आ। कटुका-औषधिविशेषः। उत्त०६५३। अपवादकारणम्। अहवा कज्जति णाण-दंसण-चरणा। कट्टू-खण्डम्। अनुत्त०५ निशी. १२ आ। कार्यः कर्तव्यः समपस्थितः। आचा० कट्टर-तीमनोन्मिश्रवृतवटिकारूपो भोज्वविशेषः। पिण्ड. ११६। अशिवादिनिस्तरणलक्षणः प्रयोजनः। व्यव० ९ । १७ अ। गृहकरण-स्वजनसन्मानादिकृत्यः। भग० ७३१) कट्टरादिकम्- क्वथितम्। बृह. २३४ आ।। कज्जइ-फलं भवतीत्यर्थः। भग. ३७३। क्रियते-व्यथते।। कट्टारिगा-शस्त्रविशेषः। क्षुरिका। निशी. ३०४ आ। यथा शूलं क्रियते-व्यथते (पीडयति)। आव०४३३। कट्ट - कृत्वा। उत्त०७०६, २४९, २५३। कज्जकोडुवं-कुटुम्बे भवं कौटुम्ब-स्वराष्ट्रविषये कार्यम्।। | कट्ठ-काष्ठम्। फलकादि। प्रश्न० १६०| कष्ट-दुःखम्। जीवा. १६६| ज्ञाता० १६७। काष्ठम्। आचा० ३३। श्रीपादिफलकादि। कज्जति-क्रियते। (कर्मकर्तरि) भवति। स्था० २४७। दशवै० १९३। स्थूलमायतमेव। स्था० ४६६। कृट्टिमम्। कज्जत्थोकरटिकास्थानम्-स्थानविशेषः। ओघ० १६२ आव०७६७ कज्जमाणा- क्रियमाणा-ईर्यापथिकीक्रियायाः प्रथमो कट्ठकम्मंताणि-काष्ठकर्मगृहाणि। आचा० ३६६। भेदः। आव०६१५५ कट्ठकम्म-कोट्टिमादि। निशी०७१ अ। काष्ठकर्मकज्जलंगी-कज्जलाङ्गी। कज्जलगृहम्। ज्ञाता०६। काष्ठनिकुट्टितं रूपकम्। अनुयो० १२। कज्जल-कज्जलं। मषी। भग. १०| कृष्णवर्णपरिणतः। काष्ठकर्मप्रतिमास्त-म्भदवारशाखादि। आचा०६१| प्रज्ञा.१० कट्ठकम्माणि-काष्ठकर्माणि-रथादीनि। आचा०४१४। कज्जलप्पभा-कज्जलप्रभा। अपरदक्षिणस्यां दारुमयपुत्रिकादिनिर्मापणानि। ज्ञाता० १८०| मनि दीपरत्नसागरजी रचित [12] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) [Type text ) कट्ठकरणं- काष्ठकरणम् । क्षेत्रम् । आव० २२७| आचा० ४२४| कडुकारे - काष्ठकारः । शिल्पविशेषः । अनुयो० १४९ कणिप्फण्णं- काष्ठनिष्पन्नम्। मद्यविशेषः । आव ० ८५४| कङ्कपाउयारा- काष्ठपादुकाकाराः । प्रज्ञा० ५८ कपेज्जा- मुद्गादियुषो घृततलितततण्डुलपेया वा । उपा०३ | कट्ठमुद्दा काष्ठं-काष्ठमयः पुत्तलको न भाषते एवं सोऽपि मौनावलम्बी जातः । यद्वा मुखरन्ध्राच्छादकं काष्ठखण्डम, उभयपार्श्वच्छिद्रद्वयप्रेषितदवरकान्वितं मुखबन्धनं काष्ठामुद्रा निर० २७ कडुविरुढगो- काष्ठविरुद्धः । आव० ४१३५ कट्ठसगडिया- काष्ठानां शकटिका । गन्त्री । ज्ञाता० ७६ । कट्ठसेज्जा- काष्ठशय्या फलकादिशयनम् प्रश्न. १३७॥ कसेट्ठी- अर्थजातगृहणेऽयशः । बृह. १९१ अ कडहारा - त्रीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६९५५ प्रज्ञा० ४२॥ जीवा० ३२ कट्ठाओ - काष्ठात् - मध्यसारात् । प्रज्ञा० ३६ । कडावसेसो- काष्ठावशेषः । शुष्कवृक्षः। उत्त. ३०४१ कट्ठिया- काष्ठिकाः । औप० ६९ । को- काष्ठः-श्रेष्ठिविशेषः पारिणामिकीबुद्धी दृष्टान्तः । आव० ४२८ कडोले कृष्टः । हलविदारितः। पिण्ड० ८ कट्ठोल्लो– हलकृष्टो यः पृथिवीकायस्तत्क्षणादेव आर्द्र शुष्कश्च क्वचिन्मिश्रः पृथिवीकायः । ओध० १२९| कठिण - कठिनकम् । प्रश्न० १२८ | कडंगर- फलशून्यधान्यम् । स्था० ४१९| कड छावणधूणादियाण एवमादि कडं भण्णति । निशी० २३० आ। कृतम्-सिद्धम्-पूर्णम् । भग० ७४५ । भावितम्संस्कृतम्। भग० ६९१| कट:- विदलवंशादिमयः । सम० १२६| कृतः -निष्पादितः - राद्धः । पिण्ड० ६५ | निष्ठितभक्तः । ओघ० १८८ | निकाचितम्सर्वकरणायोग्यत्वेन व्यवस्था - पितम्। भग. १०१ चतुष्कम्। सूत्र॰ ६७। निकाचितम् -सकलकरणाऽयोग्त्वेन व्यवस्थापितम् । प्रज्ञा० ४०३| कृतम् आ० ४१३॥ कर्तु प्रारब्धम्। पिण्ड० ६३ | कटम् । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ओघ० १५३ | अनुयो० १५४| यत् पुनरुद्धरितं सत् शाल्योदनादिकं भिक्षाचरदानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत् । पिण्ड० ७७| निष्ठितम् पक्वम्। निशी० ९२अ । कटः - भोजन - विधिः । आव ० ८५९ | धन्नभायणा । निशी. १४७ | [13] कडइत्तओ कटकस्वामी आव० ५६०१ कडओ - कटकः । काशीजनपदाऽधिपः । उत्त० ३७७ ॥ कडकरणं- कटकरणम् । कटनिवर्त्तकं - चित्राकरमयोमयं पाइल्लगादि । उत्त० १९५ कृतकरणम् - मुद्रा बृह० ३२ कडक्ख- कटाक्षः- आविर्भावकः । जम्बू. ४२॥ कडक्खचिट्ठिएहि कटाक्षचेष्टितैः। - श्रृङ्गाराविर्भावकक्रियाविशेषः कटाक्षचेष्टितम्। जं० ५२ कडग- कटकः । नितम्बभागः। जम्बू० १९६। गिरिनितम्बः । जम्बू० २३७ आव० ५६०| कटकेवंशदलमयम्। अनुत्त॰ ६ । कलाचिकाऽऽभरणम् । प्रज्ञा० ८८ जीवा० १६२, २५३ | अनीकम् । उत्त० ४३८ भूषणविधिविशेषः । जीवा. २६८ आक• ७५६| कलाचिकाऽऽभरणविशेषः । भग० ४७७ | कटकानिकङ्कणविशेषाः । उपा० २६| पर्वतैकदेशाः । ज्ञाता० २६| गण्डशैलाः । जाता १०० कटक भित्तिप्रदेशः जम्बू० २३०] वलयाकारं हस्ता-भूषणम्। आव ७०२॥ कृतकः-अपेक्षितव्यापारः स्वभावनिष्पतौ भावः । सूत्र० २८३ । खंधावारो । निशी० ५अ | कडगतड- कटतटानि - वैभारगिरेरेकदेशतटानि । जाता० ३६| कडगमहं- कटकमर्दम् आव० ६३२ | कटकमद: पर राष्ट्रे स्कन्धावारकृतो जनविमर्दः बृह. वि० ४६ अ निशी. ४५ आ कडगमद्दो- पाककुम्भी । निशी॰ ६३२अ। पर विसयमाइणो, एस्सरण्णो अभिणिवेसेण अकारिणो वि गाग-रादिसव्वे विणासेइ ता एगेण कयमकज्जं सव्वे बालवादी जो जत्थ दीसइ सो तत्थ मारिज्जति एस कडगमद्दो सह तेण कारिणा मोत्तुं वा तं कारिं जो तस्सम आयरिओ गच्छो वा कुलं वा गणो वा तं वा वादेति निशी० प अ कडगाई- कैतवानि । बृह० ८८अ *आगम - सागर- कोषः " [२] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कडग्गिदाहणं-कटानां विदलवंशादिमयानामग्निः व्यव० १२३ । प्रत्युच्चारणे समर्थः कृतयोगी। निशी. कटाग्निः , तेन दाहनं कटाग्निदाहनम् कटेन ३२२ आ। चउत्थादितवे कतजोगा। निशी. २६ आ। परिवेष्टितस्य बाधनमित्यर्थः। सम० १२६। गीतार्थेत्यर्थः। वेयावच्चे वा जेणऽण्णतावि कडो जोगो कडच्छुत्ता-दी। निशी. २०२ आ। सो वा कडजोगी। निशी. २०१ आ। गार्हस्थ्ये येन कर्तनं कडच्छेअ-कटकच्छेदः। ओघ० १८७ कृतम्। बृह. ११६ आ। कृतयोगी-गीतार्थः। बह. १६५ कडच्छेज्जं-कटच्छेद्यम्। कटवत् क्रमच्छेद्यं वस्तु यत्र आ। विज्ञाने तत्तथा। इदं च व्यूतपटोद्वेष्टनादौ कडड-वनस्पतिविशेषः। भग०८०४। भोजनक्रियादौ चोपयोगि। जम्बू. १३९। कडणं-कटकमदः। बृह. १९ अ। कडच्छेज्ज-द्वासप्ततौ कलासु नवषष्टितमा कला। कडणा-ट्टिका। भग. ३७६| ज्ञाता०३६। कडतड-कटतटम्। गण्डतटम्। ज्ञाता०६९। कडजुम्म- कृतयुग्मः। यो हि राशिचतुष्काऽपहारेण | कडपल्ला-उद्धदरा, धन्नभायणा। निशी. १७ आ। अपह्रियमा–णश्चतुःपर्यवसितो भवति स कृतयुग्मः। | कडपूतना- व्यन्तरीविशेषः। विशे० १०१९। स्था० २३७, २३८१ कृतं-सिद्धं-पूर्णम्, ततः परस्य कडपूयणसिवो-कडपूतनाशिवः। दशवै०१०४। राशिसंज्ञान्तरस्याऽभावेन त्र्योजःप्रभृविवदपूर्ण यद् | कडपूयणा- कटपूतना। महावीर स्वामिन उपसर्गकृद् युग्मम्-समराशिविशेषस्तत् कृत-युग्मम्। भग० ७४४। व्यन्तरी। आव० २१०। कटपूतनातौजसि एकत्रिशत् कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः। सूर्यः | तपस्विनामवन्दनकारिका व्यन्तरी। दशवै० ३८1 १६७ कडपोत्ती- यदि कटोऽस्ति ततस्तमन्तराले ददति, अथ कडजुम्मकडजुम्मे- यो राशिः सामयिकेन | स नास्ति ततः पोत्तिं-चिलिमिनीं ददति। ओघ. ९२ चतुष्काऽपहारेणाऽ-पह्रियमाणश्चतुष्पर्यवसितो भवति, | कडभू-रुक्खो। निशी० पू० १२२ अ। अपहारसमया अपि चतु-ष्कापहारेण चतुष्पर्यवसिता एव; | कडय-कटकम्। ओघ०१८०| पर्वततटम्। ज्ञाता०६३। असौ राशिः कृतयुग्म-कृतयुग्म इत्यभिधीयते। भग० | कडयपल्ललं-कटकपल्वलम्। ९६४ पर्वततटव्यवस्थितजलाशय-विशेषः। ज्ञाता०६७। कडजुम्मकलियोगे- कृतयुग्मकल्योजे सप्तदशादयः। कडलां-आभरणविशेषः। कनकनिगडः-निगडाकारः भग० ९६४ पादा-भरणविशेषः। सौवर्णः सम्भाव्यते, लोके च कडजुम्मतेओगे- यो राशिः प्रतिसमयं 'कडलां' इति प्रसिद्धः। जम्बू. १०६। चतुष्कापहारेणाऽपह्रिय-माणस्त्रिपर्यवसान्ते भवति, कडवल्लो-सट्टती। निशी०५९ अ। तत्समयाश्चतुष्पर्यवसिता एवाऽसौ अपह्रियमाणापेक्षया | | कडवा-कराटिका। राज०५० त्र्योजः; अपहारसमयापेक्षया त् कृतयुग्म एव; इति कडवाई- कृतवादी। ईश्वरेण कृतोऽयं लोकः प्रधानादिकृतो कृतयुग्मत्र्योज इत्युच्यते। भग० ९६४। वा, यथा च ते प्रवादिन आत्मीयमात्मीयं कृतवादं कडजुम्मदावरजुम्मे- पूर्वोक्तराशिभेदसूत्राणि गृहीत्वोत्थिता-स्तथाकृतवादिनो भण्यन्ते। सूत्र. १२ तद्विवरणसूत्रेभ्यो-ऽवसेयानि। इह च सर्वत्रापि कडवाणि- इक्षुयोन्नलकादिदण्डकाः। आचा० ४११। अपहारकसमयापेक्षमाद्यं पदम्, अपह्रियमाणद्रव्यापेक्ष कडवालए-अजङ्गमत्वेन गृहपालकाः। बृह० १०५ अ० तु द्वितीयमिति। इह च तृतीयादारभ्यो-दाहरणानि कडसलागा-कटशलाका। आव० २२६) कृतयुग्मद्वापरे राशौ अष्टादशादयः। भग० ९६४१ कडसीस-कटशीर्ष। पलाशपत्रमयम्। बृह. २५३ अ। कडजोगिं- कृतो योगो-घटना ज्ञानदर्शनचारित्रैः सह येन | कडहू-वृक्षविशेषः। बृह. वि०२८ आ। स कृतयोगी-गीतार्थः। ओघ. ९८। कडा-पर्यायार्थतया प्रतिसमयमन्यथात्वाऽवाप्तेः कृताः। कडजोगी-कृतयोगी। सूत्रतोऽर्थतश्च छेदग्रन्थधरः। सम.१०९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [14] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कडाई-पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कतानि। | कइअ-कट्कं। आर्द्रकतीमनादि। दशवै० १८० भग०५६६। कडुए- कटुकः। रोगविशेषः। कट्कं नागरादि, तदिव यः स कडाईहिं- इह पदैकदेशात् पदसमदायो दृश्यस्ततः कटुकोऽनिष्ट एवेति। भग०४८४। वैषदद्यच्छेदनकृत् कृतयोग्या -दिभिः। कृता योगाः-प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा | कटुकः। स्था० २६। कटुकम्-अनिष्टम्। औप० ४२। भग० येषां सन्ति ते कृतयोगिनः। भग० १२७। कृतयोग्यादिभिः २३१॥ ज्ञाता०७७ कडुओ-अपराधापन्नस्य गोष्ठिकस्य यो कडाली-कटालिका। अश्वानां मुखसंयमनोपकरणविशेषो दण्डपरिच्छेदकारी स कटुको भण्यते । बृह. १९१| लोहमयः। अनुत्त०६। कटुकः-शीतातपरोगादि-दोषबलतया परिणामदारुणः। कडासणं- कटः-संस्तारः, आसनं-आसन्दकादिविष्टरम्। । सूर्य. १७२ आचा० १३४। कडुग-कटाहः। आव० १९८1 दोसावण्णस्स गोवियस्स कडाह- बहुपांशुलिकः। तन्दु० कटाहं-कच्छपपृष्ठं दंडपरिच्छेयकारी कडुगो भण्णति। निशी० १५८ आ। भाजनविशेषो वा। अनुत्त०६। कडुगतुंबिफलं-कटुकतुम्बीफलम्। प्रज्ञा० ३६४। कडाहसंठितो-कटाहसंस्थितः। आवलिकाबाह्यस्य कडुगतुंबी- कटुकतुम्बी। प्रज्ञा० ३६४॥ पञ्चमं संस्थानम्। जीवा० १०४१ कडुगफलविवागो-कटुकफलविपाकः। उत्त० ३०३। कडि-कटी। आचा० ३८। कटिः-मध्यभागः कटीरिव। कडुच्छिका- दीं। ओघ० १६९। जीवा. १८७ कडुच्छुअं-कडुच्छुकम्-धूपाधानकम्। जम्बू. १९३। कडिई-कृतयोगी। निशी० १०२ अ। कडुच्छुकं-दी। ओघ० १६१| कडिणा-वनस्पतिविशेषः। सूत्र० ३०७५ कडुच्छग-कइच्छुकः। तापसभिक्षामाजनविशेषः। आव. कडिपट्टइल्ल-कटिपट्टकवान्। उत्त० ९८१ ३५६। कडिपट्टए- करिपट्टकः। आव०६२६। कडुच्छुय-परिवेषणाद्यर्थो भाजनविशेषः। भग० २३८। कडिपट्टओ-कटिपट्टकः। उत्त० ९८अणच्छादनम्। बृह. कडुभंग-वेसणं हिंग-मरिचादि, कट्कं शण्ठ्यादिभाण्डं १०२। घटादि; इति कटुभाण्डम्। बृह. २७१ । कडिबंधणं-कटिबन्धनम्। चोलपट्टकः। आचा० २८७ कडुयं-कटकम्। दारुणम्। प्रश्न०१६। अनिष्टार्थम्। कडिय-शरीरमध्यभागो कटिः, ततोऽन्यस्यापि प्रश्न. ११९। लवणसमुद्रस्य उदके पञ्चमभेदः। जीवा. मध्यभागः कटिरिव कटिरिति। जम्बू. २८। कटः | ३७०| कटुकाम्-चित्तोवेगकारिणीम्। आचा० ३८८१ संजातोऽस्येति कटितः-कटान्तरेणोपरि आवृतः। जीवा० | कड्यदोद्धियं-कटकं दौग्धिकम्। भाषायां दूधी-कदूः १८७ नामक शाकविशेषः। आव०७२३। कड़ियड-कटितटम्। मध्यभागः। जीवा. १८७। कडुया-कटका। तीक्ष्णा। जीवा० ३५१ कडिल्ल-कटाहः। ओघ० ५०| गहनम्। बृह. १५६ आ। कडुहडं-निशी. २०२ आ। व्यव. १७५आ। उपकरणभेदः। दशवै०१९४१ मण्डका- कडेवरसेणि-कलेवरश्रेणिः। कलेवराणिदिपचनभाजनम्। उपा० २१। महागहनम्। व्यव० १७८१ एकेन्द्रियशरीराणि तन्मयत्वेन तेषां श्रेणिः कलेवरश्रेणिः कडिल्लकं- मन्मयं चनकादिभर्जनपात्रम्। पिण्ड० १६४। वंशादिविरचिता प्रासा-दादिष्वारोहणेतः। उत्त० ३४१५ कडिल्लगं- गहनम्। व्यव० २१७ कड्ढन्ति-निन्दयन्ति। आव० ३४३। कडिल्लदेसं-कडिल्लदेशः। गहनप्रदेशः। व्यव० २०५आ। | कइढिंति-कर्षयन्ति। उत्त.१४८१ कडु-कटुः। तीक्ष्णः। उत्त०६५३। कड्ढऊण-कर्षयित्वा। आव० २०५१ कडुअंफलं-कटुकफलम्। अशुभफलं कढिओ-क्षिप्तः। आव०४२५१ विपाकदारुणमित्यर्थः। द० १५६। कढिज्जमाणो-आकृष्यमाणः। प्रश्न०६२। 1741 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [15] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) कड्ढिय— कृष्टः। उत्त० २१५। उक्तम् । बृह० १४२अ कृष्टः - आकर्षितः । प्रश्न० २१ | कड्डेमि - क्वथयिष्यामि। आव० ३६९ | कड्ढोकड्ढाहिं- कर्षणापकर्षणैः परमाधार्मिककृतैः । उत्तः आगम-सागर-कोषः (भाग - २) ४५९। कढिअ- क्वथितः । निष्पक्वः । जम्बू० १०५ | कठिण कठिनम् । वंशकटादि आचा० ३७२१ तृणविशेषः । कणगखइयाणि कनकखचितानि । बृह० ५२आ | वंसो | निशी० १३४आ । कढिणियं - अतिशयेन घनम् । बृह० ५५ अ । कढियं क्वथितम्। जीवा• २७८ कढियाई क्वथितादयः क्वथितं तीमनादि तदादयः । पिण्ड- १६८८ कणं- शाल्यादेः । आचा० ३४९ ॥ कणः- तन्दुलः । उत्तः ४५ कणइरगुम्मा- कणवीरगुल्माः जम्बू• ९८८ कणइरा- कणयरा। अतिस्निग्धतया श्लक्ष्णश्लक्ष्णस्वेदकणा - कीर्णा । जीवा० २७६ । कण- पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । अष्टाशीत्यामष्टमो महाग्रहः । सूर्य • २९४१ जम्बू• ५३४१ स्था० ७८ कणओ- कनकः । श्लक्ष्णरेख प्रकाशरहितश्च । आव० ७५२ कणक- वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । बाणविशेषः । प्रश्न० २१| कनकः - बाणाः । सम० १५७ । कणकणए- अष्टाशीत्यां नवमो महाग्रहः । सूर्य २९५ | जम्बू ० ५३४ | स्था० ७८ कणकनिज्जुत्त- कनकनियुक्तानि। हेमखचितानि ज्ञाता० ५८ । कणकीटक:- निष्ठुरः कृमि । उत्त० ४५७१ कणकुंडगं- कणिककुण्डम् । कणिकाभिर्मिश्राः कुक्कुसाः । आचा० ३४९ | आव० ८१४ | कणग- कनकतिकलम्। भूषणविधिविशेषः । जीवा० २३९ ॥ कनकं देवकाञ्चनम्। आव० १८४ | कनके भवः कानकः । आव॰ २३१। कनकः बाणविशेषः । बृह० २३३ आ । कनकः बिन्दुः शालाका वा कनकं सुवर्णमेव औफ० ५२॥ तारकपातः । ओघ० २०१ । घृतवरद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५४॥ कनकं- पीतरूपः सुवर्णविशेषः । जम्बू• २३ धान्यम् । भग. ४७० कनक:रेखारहितः। व्यकः २५४ आ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) कणगकंताणि - कनककान्तीनि । कनकस्येव कान्तिर्येषां तानि । आचा० ३९४ | | कणगकूडे कनककूटम् । विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते पञ्चमकूटस्य नाम। जम्बू० ३५५ | कणगकेउ– कनककेतुः। अहिच्छत्रानगर्यां नृपतिः । ज्ञाता० १९३| हस्तिशीर्षनगरे नरपतिः । ज्ञाता० २२७ | कनकरसस्तबकाञ्चितानि । आचा० ३९४ | कणगखचितं- कणगसुत्तेण फुल्लिया जस्स पाडिया तं कणग-खचितं । निशी पप आ कणगखचियं कनकखचितम्। विच्छुरितम्। जीवा० २५३| कणगखलं - कनकखलम् । आश्रयपदम् । आव० १९५ । कणगजालं- कनकजालम् । भूषणविधिविशेषः । जीवा २६८ कणगज्झय- कनकध्वजः । कनकरथराजपुत्रः । आव ० ३७३। कनकध्वजः—कनकरथराजपुत्रः । ज्ञाता० १८९ | कणगणिगरमालिया कनकनिगरमालिका। भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९ | कणगणिगल - कणकनिगडः । निगडाकारः । पादाभरणविशेषः । सौवर्णः संभाव्यते । लोके च 'कडला ' इति प्रसिद्धः । जम्बू० १०६ । कणगणिज्जुत्त- कनकनियुक्तम् । कनकविच्छुरितं, कनकपट्टि-कासंवलितमित्यर्थः। जम्बू॰ ३७। कणगतिंदूसेणं– कनकतिन्दूषेण। स्वर्णकन्दुकेन। विपा० ८४ | कणगतिलक- कनकतिलकम् । ललाटाभरणम्। जम्बू०१०६। कणगनिगरणं कनकस्य निगरणं कनकनिगरणम्, गलितं कनकमिति भावः । जीवा० २६७ | कणगनिगल - कनकनिगलानि । निगडाकाराः सौवर्णपादाभ- रणविशेषः । औप. ५५५ कणगनिज्जुत्तं— कनकनियुक्तम्। कनकविच्छुरितम्। जीवा. १९२१ कणगपट्टे कणगेण जस्स पट्टा कता तं कणगपट्टे । मिगा । निशी २५५आ कणगपट्टाणि - कनकपट्टानि कृतकनकरसपट्टानि । [16] *आगम - सागर- कोषः " [२] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २३१॥ आचा०२९४१ कणगावलिवरमहावरो-कनकावलिवरमहावरः। कणगपट्ठा-कनकपृष्ठान्। कांश्चिदिति रूपकम्। ज्ञाता० कनकावलि-वरे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। कणगावलिवरावभासभद्दोकणगपिट्ठी- कनकपृष्ठिः। एतादृशो मृगः। ओघ. १५८ कनकावलिवरावभासमहाभद्रः। कनकावलिवरावभासे कणगपुरं- कनकपुरम्। प्रियचन्द्रराजधानी। विपा. ९५ दवीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। कणगप्पभा-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य कणगावलिवरावभासमहाभद्दोषोडशममध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। कनकावलिवरावभासमहाभद्रः। कनकावलिवरावभासे कणगप्पभो-कनकप्रभः। दवीपे अपरार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। घृतवरद्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५४। कणगावलिवरावभासमहावरोकणगफल्लियं-कणगेण जस्स फुल्लिताओ दिण्णाओ तं | कनकावलिवरावभासमहावरः। कनकावलिवरावभासे कणगफुल्लियं| निशी० २५५ अ। समद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। कणगफुसियाणि- कनकस्पृष्टानि। आचा० ३९४१ कणगावलिवरावभासवरो-कनकावलिवरावभासवरः। कणगरहे-कनकरथः। विजयपुरनगराधिपतिः। विपा० कनकावलिवरावभासे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा. ७५ तेतलिपुरनगरे राजा। ज्ञाता०१८४१ आव० ३७३। ३६९। कणगलता-चमरेन्द्रस्य सोमलोकपालस्य कणगावलिवरावभासो-कनकावलिवरावभासः। द्वितीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। द्वीपविशेषः। समुद्रविशेषश्च। जीवा० ३६८। कणगलया-चमरेन्द्रस्य सोमलोकपालस्य कणगावलिवरो-कनकावलिवरः। द्वीपविशेषः। दवितीयाऽग्रमहिषी। भग. ५०३। समुद्रविशेषश्च। जीवा० ३६८ कनकावलिसम्द्रे कणगवत्थु-कनकवस्तु। द्विपृष्ठवासुदेवनिदानभूमिः। । पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। आव० १६३ कणगावली-कनकावलिः। कनकमयमणिकमयो कणगसंताणे- कनकसन्तानकः। अष्टाशीत्यामेकादशो भूषणविशेषः। कल्पनया तदाकारं यत्तपस्तत्। महाग्रहः। सूर्य. २९४१ तपोविशेषः। औप० २९। तपोविशेषः। निशी. ३०६ आ। कणगसनामा-कनकेन सह एकदेशेन समानं नाम येषां ते कनकावली-कनक-मयमणिकरूप आभरणविशेषः। कनकसमाननामानः। सूर्य २९५) तपोविशेषश्च। अन्त०२७। कनकमणिमयी। जीवा. कणगा-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य पञ्चदशमध्ययनम्। २५३। कनकावलिः-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च। जीवा. ज्ञाता०२५२ चमरेन्द्रस्य सोमलोकपालस्य ३६८१ सुवण्णमणिएहिं कणगावली। निशी० २५४ आ। प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। भग०४०३। भीमस्य कणतो-कनकः। रेखारहितो ज्योतिष्पिण्डः। ओघ. २०५१ राक्षसेन्द्रस्य तृतीया-ऽग्रमहिषी। स्था० २०४१ भग. ५०४। | कणपूपलिय-कणपूपलिकाः, कणिकाभिर्मिश्राः पूपलिकाः चतुरिन्द्रियजीव-विशेषाः। प्रज्ञा० ४२। जीवा. ३२१ कणपूपलिकाः। आचा० ३४९। कणगा-सण्हरेहा पगासविरहिता य। निशी. आ। कणय- कणकाः, बाणविशेषः। जम्बू० २०६। कणगाणि- कनकानि। कनकरसच्चरितानि। आचा० प्रहरणविशेषः। निशी. १७ आ। ३९४१ कणयमूलं- कनकमूलम्। बिल्वमूलम्। उत्त० १४२। कणगावलि-कनकावली। सौवर्णमणिकमयी। भग० ४७७ | कणयर- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ कणगावलिभद्दो-कनकावलिभद्रः। कनकवलिद्वीपे पूर्वा- कणविताणए-कणवितानकः। अष्टाशीत्यां दशमो ‘धिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। महाग्रहः। सूर्य० २९५) जम्बू० ५३४। अष्टाशीत्यां दशमो कणगावलिमहाभद्दो-कनकावलिमहाभद्रः। महाग्रहः। स्था० ७८१ कनकावलिद्वीपेड-परार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९। कणवीर-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [17] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कणसंताणए-अष्टाशीत्यामेकादशो महाग्रहः। स्था० ७८१ कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा। सूर्य०४९। जम्बू०५३४१ कण्णकला-कर्णकला, कर्णः-कोटिभागः, कणिआरवणं- कर्णिकारवनम्। आव० १८६) तमधिकृत्याऽपरेषां मतेन कला-मात्रा। सूर्य 1 कणिक्क-धान्यविशेषः। आव. १०२। कणिक्कः। आव० कण्णगा-कन्यका, कन्या। आव०८६३। ८५५ कण्णगूधा-कण्णमलो। निशी. १९०आ। कणिक्कमच्छा-मत्स्यविशेषाः। जीवा० ३६ प्रज्ञा० ४४| कण्णचवेडयं-दण्डविशेषः। निशी० २९९ अ। कणिताररुक्खे-दिक्कुमाराणां चैत्यवृक्षः। स्था० ४८७। कण्णत्तिया-चर्मपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। जीवा०४१। कणिया-क्वणिता, काचिद वीणा। जम्बू. १०१। कण्णधार-कर्णधारः। आव० ३८७। कर्णधारः, निर्यामककणिक्का। आव० ८५५। तुसमुही। निशी० १९६अ। विशेषः। आव० ६०२ कणियारय-कर्णिकारकः। कृत्सितवृक्षविशेषः। आव. कण्णपाउरणा-कर्णप्रावरणनामा अन्तरदवीपः। प्रज्ञा. ५५७। ५० कणियारे-दिशाचरविशेषः। भग०६५९। कण्णपाली-कर्णपाली। भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६९। कणीयस- कनीयान, कनिष्ठः, लघुरिति। अन्त०८। कण्णपावणो-कर्णप्रावरणः, अन्तरदवीपविशेषः। जीवा. कणुओ- रजः, धूलिरजः। दशवै.४७ १४४॥ कणुय-कणुकम्, त्वगायवयवः। आचा० ३४७। कण्णपीढं-कर्णपीठम्, कर्णाभरणविशेषरूपम्। जीवा. कणे-कणः। अष्टाशीत्यां सप्तमो महाग्रहः। जम्बू. ५३४ | १६२ भग० १३२ प्रज्ञा० ८८ औप०५० स्था०७१ कण्णपूर-कर्णपूरम्, कर्णाभरणविशेषः। भग० ३१७। कणेरदत्त-कणेरुदत्तः, कुरुष गजपुराधिपतिः। उत्त. कण्णरोडयं-कर्णरोटकम्, राटिः। आव० ८९। कण्णलोयण- शतभिषग्नक्षत्रस्य गोत्रम्। सूर्य. १५० कणेरुदत्ता- करेणुदत्ता, ब्रह्मदत्तस्याऽष्टाग्रमहिषीणां । | कण्णवालि-कर्णवाली, कर्णोपरितनविभाग मध्ये तृतीया। उत्त० ३७९। भूषणविशेषः। जम्बू. १०६ कणेरुपइगा-करेणपदिका, ब्रह्मदत्तस्याऽष्टाग्रमहिषीणां | कण्णसप्पे-राहोः नवमं नाम। सूर्य. २८७। मध्ये तुरीया। उत्त० ३७९। कण्णा- तरुणित्थी। निशी. १६७ आ। कणेरुसेणा- करेणुसेना, ब्रह्मदत्तस्याऽष्टाग्रमहिषीणां कण्णाकण्णिं-निशी०५५ अ। ण संघरिस्संति ताहे मध्ये षष्ठी। उत्त. ३७९) कण्णाकण्णिं भरेति। निशी. ५०आ। कणो-कणः, अष्टाशीत्यां सप्तमो महाग्रहः। सूर्य. २९४। कण्णाघातो-कर्णाघातः, कर्णयोराघातः। उत्त० ३०३। कण्णंतेपुरं-अप्पत्तजोव्वणाण रायदुहियाण संगहो कण्णागतं-कर्णायतम, कर्णं यावद आयतम्-आकृष्टम्। कन्जंतेपुरं। निशी. २७१ अ। भग. ९३। कण्ण-कर्णः। आव० १९| वित्थारकण्ण। निशी०४८ कण्णायय-कर्णं यावदाकृष्टः कर्णायतः। भग० २३० आ। कन्याः, कन्या इव कन्याः, सफला अथवा आकर्णमाकृष्टः। भग० ३२३। दूरफलाः। जम्बू. २०९। कोणं। निशी. १२आ। कर्ण:- कण्णाहुइं- पूर्णकर्णाम्। महा | प्रथमकोटिभागरूपः। सूर्य०४९। आव० ६२१। श्रवणः। कण्णिअ-कर्णिकाः, कोणाः। जम्बू. २२६। बीजकोशः। प्रश्न० ८ कोटिभागः। सूर्य ८५ जम्बू० २४२ कण्णकलं-कर्णकलम, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं कण्णिए- कर्णिकाः, कोणाः। अनयो० १७२। द्रष्टव्यम्, तच्चैवं भावनीयम्-कर्णम् कण्णिगा-कर्णिका, बीजकोशः। जम्बू० २८४। अपरमण्डलगतप्रथम-कोटिभागरूपं कण्णिते-कर्णिका, कोणविभागः। स्था० ४३५१ लक्ष्यीकृत्याऽधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणार्ध्वं क्षणे क्षणे । कणियार-कर्णिकारः, वृक्षविशेषः। जीवा० ३५५) اواوا मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [18] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कण्णियारकुसुमं- कर्णिकारकुसुमम्, कण्हसप्प-कृष्णसर्पः। दर्वीकर-अहिभेदविशेषः। दीव काञ्चनारककुसुमम्। प्रज्ञा० ३६१। दर्वी-फणा, तत्करणशीलः। जीवा० ३९| प्रज्ञा०४६। राहोः कण्णिल्लं-पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् नवमं नाम। भग० १७५ कण्णिलायनम्, शतभिषग्गोत्रम्। जम्बू. ५०० कण्हसिरी-कृष्णश्रीः। दत्तगाथापतिभार्या। विपा० ८२ कण्ह- कृष्णः, परिव्राजकविशेषः। औप० ९१। नवमो वासु- | कण्हसूरवल्ली-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ देवः। आव. १५६| साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। | कण्हा-कृष्णा। अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य प्रज्ञा० ३४। बलदेववासुदेवयोर्धर्माचार्यनाम। सम० १५३ चतुर्थमध्ययनम्। अन्तः २५ कण्हा (कण्णा)-कृष्णा वनस्पतिविशेषः। भग ८०४१ कृष्णः- | (कन्या)। आभीर-विषये नदीविशेषः। आव० ४१२।। पुरुषसिंहधर्माचार्यः। आव. १६३| वसुदेवपुत्रः। दशवै. वासवदत्तराज्ञी। विपा.९५धर्मकथाया दशमवर्गस्य ३६। हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कन्दविशेषः। उत्त०६९१। प्रथममध्ययनम्। ज्ञाता० २५३। कृष्णा-आर्याविशेषः। द्वारकायां वासुदेवः। अन्त० २। ज्ञाता० १००| अन्त०२८। ईशानेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०५ वासुदेवनाम। निर० ३९। कृष्णा-योगद्वारविवरणेऽचल-पुरासन्ननदीविशेषः। कण्हकंद-कृष्णकन्दः। अनन्तकायवनस्पतिविशेषः। पिण्ड०१४४ भग० ३०० प्रज्ञा० ३६४१ कण्हाते-उत्तरपूर्वरतिकरपर्वते ईशानेन्द्रस्याऽग्रमहिष्या कण्हकणवीरए-कृष्णकणवीरः। वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३६० राज-धानी। स्था० २३१॥ कण्हगोमी- कृष्णगोमी, कर्णशृगाली। व्यव० १८७।। कण्हासोए- कृष्णाशोकः। वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३६० कण्हदल-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। कण्हुइ-कुत्रचिद् देशे काले वा। उत्त० १४०| कण्हपक्खिय-कृष्णपाक्षिकः। अधिकतरसंसारभाग | कण्हुई-कस्मिंश्चित् सूत्रादौ वस्तुनि वा। उत्त० १२६। जीवः। प्रज्ञा० ११७ कण्हुहरे- कण्हु-कस्यार्थं हरिष्यामि इत्येवमध्यवसायी। कण्हपरिव्वायगा-कृष्णपरिव्राजकाः। परिव्राजकविशेषः। | उत्त० २७४१ नारायणभक्तिका इति केचित्। औप. ९१| कण्हे- निरयावलिकानां प्रथमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम्। कण्हफसिताओ-कर्णपृषतः। निशी०६०आ। निर०३। कण्हबंधुजीवए- कृष्णबन्धुजीवः। वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० कण्हो-बंभवत्त। कण्हो-क्रोधजयी। मरण। ३६० कतं- कृतं ममानेन तत्प्रयोजनमिति प्रत्युपकारार्थं यद्दानं कण्हभूमी-कृष्णभूमिः। आव० १०१। तत् कृतम् । स्था० ४९६ कण्हराई-ईशानेन्द्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। भग. ५०५। । | कतकज्जो-कृतकार्यः। निष्ठिताखिलप्रयोजनः। सूर्य कृष्णपुद्गलरेखा। भग० २७१। २९ कण्हराती- कृष्णराजी, कृष्णपद्गलपङ्क्तिरूपत्वात्। | कतणासी- कृतनाशिनः, अकृतज्ञाः। ओघ०७२। स्था० ४३२॥ धर्मकथाया दशमवर्गस्य कतपुण्णो-कृतपुण्यः, राजगृहे धनावहपुत्रः। आव० ३५३। द्वितीयमध्ययनम्। ज्ञाता० २५३। कतमाला- एकोरुकदवीपे वृक्षविशेषः। जीवा. १४५ कण्हरातीते- उत्तरपूर्वरतिकरपर्वते कता-कदा। आव० ३४२। ईशानेन्द्रस्याग्रमहिष्या राजधानी। स्था० २३११ कतिकट्ठा-कतिकाष्ठा, किंप्रमाणा। सूर्य०७) कण्हलेस्सा-कृष्णद्रव्यात्मिका लेश्या, कृष्णद्रव्यजनिता कतिविया-कइविका-कलाचिका। ज्ञाता०४४। वा लेश्या कृष्णलेश्या। प्रज्ञा० ३४४। कतिसंचिता- कति–कतिसङ्ख्याताः, सङ्ख्याता एकैककण्हवडेंसय-कृष्णावतंसकम्। ईशानकल्पे समये ये उत्पन्नाः सन्तः सञ्चिताःविमानविशेषः। ज्ञाता०२५३। कत्युत्पत्तिसाधाद् बुद्ध्या राशीकृतास्ते कण्हवेला-आभीरविसए नदी। निशी० १०२ आ। कतिसञ्चिताः। स्था० १०५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [19] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कतिसंचिया-कतीति सङ्ख्यावाची, ततश्च कतित्वेन अधः सङ्कुचितम् उपरि सञ्चिताः-एकसमये सङ्ख्यातोत्पादेन पिण्डिताः विस्तीर्णमुत्तानीकृताऽर्द्धकपित्थसंस्थानसं-स्थितम्। कतिस-ञ्चिताः। भग०७९६| सूर्य. २७४। कती- 'कति' इत्यनेन सङ्ख्यावाचिना व्यादयः कदर्थितः- हीलितः। आचा० ४३० सङ्ख्या-वन्तोऽभिधीयन्ते। स्था० १०५ कदल- वनस्पतिविशेषः। भग०८०३| कृतमस्यास्तीति कृती-पुण्यवान् परमार्थपण्डितो वा। कदली-वल्लिविशेषः। प्रज्ञा० ३१, ३३| आचा० ३०० सूत्र. २९८। सङ्ख्यावाची। भग० ७९९। लतावलयभेदः। उत्त० ६९२ नन्दी० २१५ कत्त-चर्मकम्। निशी० ५६ आ। कदलीथंभो-कदलीस्तम्भः। प्रज्ञा० २६६। कत्तरी-कर्तरी। आव०६२७। कदलीहरं-कदलीगृहम्। आव० १२३ कत्तलिकारूवा-पञ्चलतिकाः। जम्बू. २२३। | कदशनम्- निष्ठानं-सर्वगणोपेतं संभृतमन्नम्, कत्तविरिए- कार्तवीर्यः। सुभूमचक्रवर्तिपिता। आव० रसनियूंढम्- एतविपरीतं कदशनम्। दशवै० २३१। १६२। स्था० ४३० कद्दम-कर्दमः। यत्र प्रविष्टः पादादिर्नाक्रष्टुं शक्यते कत्तवीरिओ-सुभूमचक्रवर्तिनः पिता। सम० १५२। कष्टेन वा शक्यते। स्था० २३५। कार्तवीर्यः-अनन्तवीर्यपुत्रः। आव० ३९२। कार्तवीर्यः- द्वितीयोऽनुवेलन्धरनागराजः। जीवा० ३१३। कईमो संजातकामः-जातेच्छः। भग० १४। गोवाटादीनाम्। स्था० २१९। कर्दमः नदीवि-दरकलक्षणः। कत्ताविय-कर्तापितम्। कर्तनं कारितम्। आव०४१८५ ज्ञाता०६७। कत्ति-कत्तिकडं-क इति कृतम्। आव० ७८२ छदडिया कद्दमए-कमर्दमकः। स्था० २२६। आग्नेय्यां दिशि (सादडी)। निशी० ४२ । वर्तमाने विद्युप्प्रभपर्वते नागराजः। वरुणस्य कत्तिओ-कार्तिकः। राजाभियोगविषये हस्तिनापुरे । पुत्रस्थानीयो देवः। भग० १९९। श्रेष्ठी। आव० ८१११ श्रेष्ठिविशेषः। निर० २२ कद्दमजलं-कर्दमजलम्। यद घनकर्दमस्योपरि वहति। कत्तिय-कृत्तिका। प्रथमं नक्षत्रम्। स्था० ७७। भरतक्षेत्र ओघ० ३२ आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतिकायां कदिवसं-कस्मिन् दिवसे। मरण। षष्ठतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम। सम० १५४। कनंगरा-काय-पानीयाय नङ्गराःकत्तियाणक्खत्ते- कृतिकानक्षत्रम्। सूर्य० १३० बोधिस्थनिश्चलीकरणपा-षाणस्ते कनङ्गराः कानगरा कत्ती- कतरिका (कृत्तिका)। स्था० २३४। चम्म। निशी | वा, ईषन्नङ्गर इत्यर्थः। विपा०७१। १८ अ। कतरी, चर्मपञ्चके पञ्चमो भेदः। आव०६५२ | कनकरसस्तवकाञ्चितानि-कनकखचितानि। आचा. कत्थं- यत्र कथिकादि गीयते तत् कथ्यम्। जम्बू. ३९| ३९४१ कत्थः-अनन्तजीववनस्पतिभेदः। आचा०५९। कनकालुकः-भृङ्गारकः। जम्बू. ५६। भृङ्गारः। जम्बू. कत्थपुडिय- गान्धिकः। निशी० ३५६अ। ર૬રા. कत्थुरी- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। कनकावलि-तपोविशेषः। व्यव० ११३आ। कनकावलिःकत्थुल- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ आभरणविशेषः। प्रज्ञा० ३०७ कत्थुलगुम्मा-कस्तुलगुल्माः। जम्बू० ९८१ कन्दलीकन्दक-सचित्तं तरुशरीरम्। आव० ८२८। कत्थे-कथायां साधुकथ्यं ज्ञाताध्ययनवत्। स्था० २८८।। कन्दुकगतिः- सर्वेण सर्वत्रोत्पद्यते विमुच्यैव कथगो-कथकः। जीवा. २८११ पूर्वस्थानम्। भग० ८४। गतिविशेषः। स्था० ८९। कथनम्-उपदेशः। आव०६०५ कन्न- कर्णः। पिण्ड० १५३ कदंबचीरिका-शस्त्रविशेषः। स्था० २७३। | कन्नकुज्जं- कन्यकुब्जम्। यत्र मृगकोष्ठकनगरे कदंबपुप्फसंठिय- कदम्बपुष्पसंस्थितम्। कदम्बपुष्पवद् | जितशत्रुराज्ञः कन्या यामदग्न्येन पूर्वं कुब्जीकृताः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [20] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] पञ्चाद् अकुब्जीकृताः, अतः संवृत्तं तन्नगरमान। कपिञ्चुः-चित्रपिच्छपक्षिविशेषः। आचा०६९। नगरविशेषः। आव० ३९२ कपित्थं- कपेरिव लम्बते, त्थेति च करोतीति कपित्थम्। कन्नधार-कर्णधारः। निर्यामकः। ज्ञाता० १३६। अनुयो० १५०| फलविशेषः। प्रज्ञा० १० दशवै० १०० कन्नपाउरणदीवे-कर्णप्रावरणद्वीपः। अन्तद्वीपविशेषः। | कपिल-स्वयंबुद्धविशेषः। बृह. १८७ आ। प्रत्येकबुद्धस्था० २२६। विशेषः। उत्त०५ मतविशेषप्ररूपकः। उत्त. २६६। कन्नपालो- कर्णपालः। अलोभोदाहरणे मेण्ढः। आव० कपिलदरिसण-मतविशेषः। आचा. १६३। ७०१॥ कपिहसितं-विरलवानरमुखहीसतम्। ओघ० २०११ कन्नपीढ- कर्णावेव पीठे आसने कण्डलाधारत्वात् कपोत-पक्षिविशेषः। आचा० ३१४॥ कर्णपीठम्। स्था० ४२१| कपोय-कपोतः। लोमपक्षिविशेषः। जीवा० ४११ कन्नवेयणा-कर्णवेदना। श्रोत्रपीडा। भग० १९७ कपोलपाली-गण्डरेखा। जीवा. २७६। कन्नस-कनिष्ठम्। लघ, जघन्यम्। उत्त० २३५। कप्प- वत्थपुप्फचम्मादि वा कप्पं, रुक्खादि वा कप्पं। कन्नसर-कर्णसरः। कर्णगामी। दशवै. २५३। निशी० ७१ अ। कल्पत इति कल्पः स्वकार्य करणसाकन्नाघाओ-कर्णाघातः। आव० ७१९) मोपेतः। भग० १५५। कल्पः-बृहत्कल्पः। सप्तमनिकन्नामोडओ-कर्णामोटकः। आव० ४८५। युक्तिस्थानम्। आव०६१। आव०७९३। कल्पं-कम्बकन्नारोडयं-कर्णस्फोटम्। ब्रह. २८ आ। ल्यादिरूपम्। ओघ० ३४। कल्पः। अनुयो० १७१। तथाकन्नालीयं-कन्यालीकम्। कन्याविषयमनृतम्, विधसमाचारप्रतिपादकः। ज्ञाता० ११० कल्पःअभिन्नकन्य-कामेव भिन्नकन्यका वक्ति विपर्ययो तथाविध-समाचारनिरूपकं शास्त्रम्। औप. ९३। वा। आव०८२० कत्तव्वं। निशी. २५आ। कल्पः-विकल्पः। समाचारो कन्नाहाडिया-कर्णाहता। आव०४११। वा। औप० ३६। छेदः। स्था०४९६। दसाकप्पववहारा। कन्नाहेडयं-कर्णाटकम्। आव० २९२ निशी. १०० आ। कल्पः -आचारः। प्रज्ञा० ७० कन्निया-कर्णिका। बीजकोशः। भग. ५१३१ अपरिहार्यः। निशी. १३२ आ। कल्पः-दशाश्रुतमध्यगण्डिका। कर्णिका। कर्णिका नाम स्कन्धकल्पव्यवहाराः। व्यव० ६३आ। आचारः। आचा० उन्नतसमचित्रबिन्दुकिनी। प्रज्ञा० ८५। कर्णिका- १६८, २४४। स्था० २४४। आचारो मर्यादेत्यर्थः। स्था० पत्राधारभूता। प्रज्ञा० ३७ ५११। करणमाचारः। स्था० १६७। साध्वाचारः। स्था० कन्नीय-कर्णिका। भग०५१११ ३७१। छेदः। स्था०४९७ जिनकल्पिकादिसमाचारः। कन्नीरहो-कर्णीरथः। प्रवहणम्। विपा०४५। भग०६१। यतिक्रिया-कलापः। उत्त. ५०२ प्रवहणविशेषः। ज्ञाता०९३। यतिव्यवहारः। उत्त०६१६| कल्पते-साध्वादिक्रियास् कन्नुक्कड-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० समर्थो भवतीति कल्पो-योग्यः। उत्त० ६३६। विधिः। ३४। नन्दी०६१। व्यवस्था स्थविरक-ल्पादिरूपा यत्र वर्ण्यते कन्नू-कांनु। कामपि। उत्त० १९४। ग्रन्थे सः। नन्दी. २०६। देवलोकः। नन्दी० २०७१ कन्याचोलकः- यवनालकः। आव० ४२१ नन्दी० ८८1 कल्पसूत्रम्। आव ७२४। दिवसः। बृह. २२४ आ। जवनालकः। प्रज्ञा०५४२| क्वचित्करणे। ब्रह. ३ अ। कल्पोक्त-साध्वाचारः। स्था. कन्हो-द्वारवत्यां वासुदेवः। बृहपृ० ५६ आ। ३७३। कल्पायुक्तसाध्वाचारः सामायिकपर्दक-वराटकः। ओघ० १२९। वराटः। प्रज्ञा०४९। कच्छेदोपस्थापनीयादिः। स्था० ३७४। कल्प्यन्तेकपाल-रोगविशेषः। आचा. २३५ इन्द्रसा-मानिकत्रायस्त्रिंशादिदशप्रकारत्वेन देवा कपिंजल-कपिजलः। लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। एतेष्विति कल्पाः-देवलोकाः। उत्त०७०२ कपिंजलक-कपिजलकः। पक्षिविशेषः। प्रश्न०८ कम्बल्यादिरूपम्। ओघ० ३४| सम० ३८ कृत्यम्। आव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [21] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] १५२ ७६१। कारणपुव्वगो। नि० ७९ अ। समाचारः। प्रश्न | कप्पद्वितो-आयरियाण पदाण्पालगो। निशी० ३०७ १०६। अध्वकल्पः। बृह. १२२ आ। समाचारो विकल्पो कप्पट्ठिया-श्रेष्ठिवधूः। स्था० २६६। वा। प्रश्न. १५७ कल्पशा-स्त्रोक्तसाधुसमाचारः। बृह. पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नाः । बृह० १२५। २४६ आ। औपम्यं, सामर्थ्य, वर्णना, छेदनं, करणं, कप्पट्ठी-सेज्जायरधूया। निशी. ७७ आ। तरुणी। बृह. अधिवासश्च। आव. ५०० अध्व-कल्पः। निशी. ४० अ। ७९ आ। आव. ३२४। योग्यः । दशवै.६। कप्पडप्पहारो- कर्पटप्रहारः। तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रम्। भग० ११४। कल्पः- लकुटाकारवलितचीवरैस्ताडनम्। प्रश्न ५६| यज्जिनकल्पिका अनवस्तृता रात्रावुत्कुटुकास्थिष्ठन्ति | कप्पडिओ-कार्पटिकाः। ओघ० ८९। सम० ३८1 कार्पटिएष कल्पः। यत्कारणे समापतिते अज्झुषिराणि कः-ब्रह्मदत्तसेवकः। आव० ३४१। स्वप्नेदृष्टान्तः। (अशुषि-राणि) तृणानि गृह्णन्ति एष कल्पः। व्यव० आव० ३४३॥ २८७ अ। कल्पः-सदृशः। उत्त० ४६५। समाचारी। व्यव० कप्पडिगो-कार्पटिकः। आव० ३८४१ १३६ आ। कल्पाध्ययनम्। व्यव० ४२० । सामर्थ्य कप्पडितो- ब्रह्मदत्तसेवकः। उत्त० १४५ वर्णनायां च, छेदने करणे तथा। औपम्ये चाऽधिवासे च, | कप्पडिय-कार्पटिकः। आव. १९११ दशवै. ५५ दुर्बलः। कल्पशब्दं विदेर्बुधाः ||१|| बृह० ३। जिणकप्पियाण | आव० ८१४। भिक्षाचराणां सार्थः। बृह. १२५ अ। अत्थरणव-ज्जो कप्पो। जिणकप्प-थेरकप्पिएस् कप्पडिया-भिक्खायरा। निशी. ३७ अ। निशी. १८६अ। कज्जेसु अञ्झुसिरगहणे कप्पो भवति। निशी. १६१ आ। | कर्पटैश्चरन्तीति कार्पटिकाः। वा-कपटचारिणः। ज्ञाता० ८,६४,००,००, ००० वर्षात्मकः कालः। आचा० १७ वैमानिकदेवाऽऽवा-साभिधायकः। भग० ९१देवलोकः। । कप्पणं-कल्पना-रचना। जम्बू. २१२ भग० २२१। स्वकार्यकरणसमर्थो वस्तुरूपः। भग० २६९। कप्पणसत्थयं- शस्त्रविशेषः। निशी. १८ आ। छेदः। उत्त०६३८ उपधिः। दशवै० २५० पिण्ड०७२। कप्पणा-कल्पना क्लृप्तिभेदः। औप०६२। कप्पइ-कल्पते। युज्यते। आचा० ४७। कल्प्यते-वर्तते। कप्पणाविगप्पा-कल्पनाविकल्पाः कृतिभेदाः। भग० आचा० १४१। कल्पते-युज्जते। उपा०१३ कल्पते- ३१७ प्रभवति, पौनःपुन्येनोत्पदयते। आचा० १४१। कप्पणि-कल्पनी-कर्तिकाविशेषः। प्रश्न. २११ कल्पन्यः कप्पओ- कल्पकः। कपिलब्राह्मणपुत्रः। आव०६९१| कृपाण्यः। जम्बू० २०६। कल्प्यते छिद्यते यया सा कप्पकरण-कल्पकरणम्। भाजनस्य कल्पनी शस्त्रविशेषः। आचा०६११ धावनविधिलक्षणम्। बृह० २५८ आ। निशी० २८ आ। कप्पणिज्जं-कल्पनीयं-उदगमादिदोषपरिवर्जितम्। कप्पकार-कल्पकराः। विधिकारिणः, परिकर्मकारिणः। आव०८३७| शस्त्रविशेषः। आव०६५० जम्बू० २४२। कप्पति-कल्पते-युज्यते। प्रश्न. १२४१ कप्पट-कल्पस्थः। समयपरिभाषया बालक उच्यते। बृह. | कप्पतित्पे- पात्रक्षालनादौ। गच्छा० १४५ आ। कप्पपालो-कल्पपालः। जम्बू. १०० कप्पडओ- बालकः। पिण्ड० ९२ कप्पय-कल्प एव कल्पकः-छंदः खण्डं कर्परमिति। उपा० कप्पट्ठग-बालः। निशी० ११९आ। बालकः। व्यव० ८ अ। २०१ कल्पस्थकाः-बालाः। व्यव० ११६ अ। कप्पयति-कल्पयति-छिनत्ति। निशी. १९० अ। कप्पटगरूय-कल्पस्थकरूपः। शिशः। आव०६३९। कप्पर-कर्परम्। आव०६२०, ६२२, ३५२। कवालं निशी. कप्पट्टिता-जिणकप्पिया। निशी. २६ आ। १०६ अ। कपालम्। बृह. ६८आ। कर्परः। आव०१०३, कप्पद्विता-कल्पशास्त्रोक्तसाधसमाचारे स्थितिः ४१२। अवस्थानं कल्पस्य मर्यादा। बृह. २५१ अ। कप्परुक्ख मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [22] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम- सागर - कोषः (भाग:-२ ) उक्तव्यतिरिक्तसामान्यकल्पितफलदायित्वेन कल्पना कल्पस्तत्प्रधाना वृक्षाः । स्था० ३९९ । कप्परुक्खग– चैत्यवृक्षः । स्था० १४५ । कप्पडिंसियाओ - उपाङ्गानां पञ्चमवर्गे द्वितीयम् । निर० ३ | कप्पविमाणोववत्तिआकल्पेषु देवलोकेषु, न तु ज्योतिश्चारे, विमानानि, देवावासविशेषाः, अथवा कल्पाश्च सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवर्तिग्रैवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषु उपपत्तिः- उपपातो - जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमा-नोपपत्तिका स्था० ९८१ कप्पा- कल्पा । कल्पनीया । प्रश्न० ५१| कप्पागं- दण्डम् । आव० ७०० कल्पार्क-सूत्रतोऽर्थतश्च प्राप्तं भिक्षुम्। व्यव० ५९ आ कप्पातीत- जिनकल्पस्थविरकल्पाभ्यामन्यत्र । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित कल्पाकल्पम् । नन्दी० २०४ कप्पिओ- कल्पितः। विपा० ३८ कल्पितो-भेदवान्। कल्पिकः- उचितः । विपा० ४७| कल्पितः वस्त्रवत्। खण्डितः । उत्त० ४६० | कल्पितः कल्पनीभिर्वस्त्रवखण्डितः। उत्त० ४६०१ कप्पिते-कल्पिकं [Type text] तीर्थकरः । भग० ८९४ | कप्पायं- कल्पः- उचितो य आयः - प्रजातो द्रव्यलाभः स कल्पायः। विपा० ५७। कल्पाकः- शिरोजबन्धकल्पज्ञः । औप० ७०% कप्पासहिमिंजिया कर्पासास्थिमिञ्जिकात्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ ७०२ कप्पासिअ - त्रीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६९५ | कप्पासिए - कार्पासिकः । अनुयो० १४९१ कप्पासिया - कर्मार्यभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ | कप्पोववण्णे कल्पेषु सौधर्मादिषु उपपन्नः जीवा० ३४६ ॥ कप्पोववन्नगा - सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नाः । स्था० ५७ । कप्पोववन्ने- कल्पेषु - सौधर्मादिषु उपपन्नः कल्पोपपन्नः | सूर्य० २८१ | कप्पासो - पोंडा वमणी तस्स फलं पम्हा कच्चणिज्जा सणो वणस्सति जाती, तस्स वग्गो कप्पणिज्जो कप्पासो भण्णति । एला लाडाणं गड्डरा भण्णंति तस्स रोमा कच्चणिज्जा कप्पासो भण्णति । निशी. १९१ आ कप्पिअ- कल्प्यम् । आव० ११५ | कल्पितं स्वबुद्धिकल्पना-शिल्पनिर्मितम् । दश ३४॥ कल्पितःयथास्थानं विन्यस्तः । जम्बू० १८९| कल्पिकं, एषणीयम्। दशवै॰ १६८। कल्पिकः-सूत्रादिवादशविधः । बृह० ६२आ । कबंध- कबन्धं- शिरोरहितकडेवरम्। प्रश्नः ५०| कब्बड - क्षुल्लप्राकारवेष्टितं कर्बटम् । प्रज्ञा० ४८० आचा २८५ | राज० ११४| जीवा० ४०, २७९ । कुनगरम् । भग ३६ प्रश्र्न० ६९, ३९, ४२१ सूत्र- ३०९ स्था० २९४ अनुयो० १४२२ औफ ७४ निशी० २२९ अ कुनगरं, जत्थ जलथलसमुब्भवविचित्तभंडविणियोगो णत्थि । दश १५७। कर्बटं–पांशुप्राकारनिबद्धं क्षुल्लकप्राकारवेष्टितम्। व्यव० १६८ अ दशकै १६३] कर्बटानि क्षुल्लकप्राकारवेष्टितानि अभितः पर्वतावृतानि वा जम्बू. १२१ कर्बट :- महाक्षुद्रसन्निवेशः। दशवै० २७५॥ कब्बडए - अष्टाशीत्यां षोडशमहाग्रहः । स्थापन । कप्पिआ कल्पिका याः सौधर्म्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा ग्रन्थपद्धतयस्ताः कल्पिकाः । नन्दी० २०७ कप्पिआकप्पिअं- कल्पाकल्पप्रतिपदिकमध्ययनं [23] कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेषाद्भक्तादि स्था० २९८८ कप्पियं- कल्पितं - इष्टं, रचितं वा । औप० ५९ | कप्पिया- कल्पिता-व्यथस्थिताः । आचा० ३०५ | कप्पियारं-कल्पिकं । बृह• २०७ आ । कल्पितारं मार्गदर्शकः । बृह० १२१ आ कप्पूरं तंबोलपत्तसहिया खायइ निशी. ६० अ कर्पूर: घनसारः । प्रश्न० १६२ | कप्पूरपुड- गन्धद्रव्यः । ज्ञाता० २३२ | कप्पेऊणं- कल्पयित्वा प्रक्षाल्य ओघ० २२२ कप्पेति- कल्पयति-छिन्दति । आव० १२३ | कप्पमाणे- कल्पयन्–कुर्वाणः । ज्ञाता० २३८ कप्पोवगा - कल्प्यन्ते इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिदशप्र - कारत्वेन देवा एतेष्विति कल्पाः देवलोकास्तानुपगच्छन्ति उत्पत्तिविषयतया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः । उत्तः - "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कब्बडमारी-मारीविशेषः। भग० १९७ कमती-क्रमते-घटते। सम० १३९। कब्बरूवं-नगरविशेषः। भग. १९३। कमभिण्णं-क्रमभिन्नं, यत्र यथासङ्ख्यमनुदेशो न कब्बडाति-कुनगराणि। स्था०८६) क्रियते। सूत्रस्य द्वात्रिंशद्दोषे त्रयोदशः। आव० ३७५। कब्बडिया-अत्ताणा। निशी० ११ अ। कमभिन्न-क्रमभिन्नं-यत्र क्रमो नाराध्यते। सूत्रस्य कब्बड्ढ- बालकः। गच्छा० द्वात्रिंशद्दोषे त्रयोदशः। अन्यो० २६२ क्रमेण हि कब्बालभयते-कब्बाडमृतकः-क्षितिश्वानक ओडादिः, तिविहमित्येतन्न करोम्या-दिना विवृत्य यस्य स्वं कार्प्यते द्विहस्ता त्रिहस्ता वा त्वया भूमिः ततस्त्रिविधेनेति विवरणीयं भवतीति, अस्य च खनितव्यै-तावत्ते धनं दास्यामीत्येवं नियम्येति। स्था० | क्रमभिन्नस्यानुयोगोऽयं यथाक्रमविवरणे हि २०३। यथासङ्ख्यदोषः स्यादिति तत्परिहारार्थं क्रमभेदः। स्था. कब्बुरए- कर्बुरकः-अष्टाशीत्यां महाग्रहे षोडशः। जम्बू. ५३४१ कमल- नागपुरनगरे गृहपतिविशेषः। ज्ञाता० २५२। कभल्लं- कपालं, घटादिकर्परम्। अनुत्त० ५। कपालम्। हरिण-विशेषः। भग० १२७। राज० १४४। औप० २६। उपा०२११ रविबो-ध्यम्। जम्बू. ११५। सूर्यबोध्यम्। ज्ञाता० १६८१ कम-अवतारं। निशी. १०३ अ। कमला-राजधान्यां कमलावतंसकभवने कमंडलु-भाजनविशेषः। निशी० ३४७ आ। सिंहासनविशेषः। ज्ञाता०२५२। प्रश्न. ८४ कम-भगवत्यां त्रयोदशशतेऽष्टमोद्देशकः कमलदलो- शूलिहतश्चौरो नमस्काराद्यक्षः। भक्त। कर्मप्रकृतिप्ररूपणा-र्थकः। भग० ५९६। क्रम लङ्घय। कमलप्पभा-कालस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। प्रश्न. २०| क्रमः-यतिवि-हित आचारः। उत्त०५०५। भग० ५०४॥ धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य क्रमपरं तु द्रव्यादिचतुर्द्धा। आचा० ४१५। पाकस्य द्वितीयमध्ययनम्। ज्ञाता०२५२ पेयादिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः। आव० ८३७। क्रमः। कमलसिरी-महाबलस्य राज्ञी। ज्ञाता० १२१। कमलगृहआचा०४१५१ पतेर्भार्या। ज्ञाता०२५२ कमइ-कामति-घटते। पिण्ड०७९| कमलवडेंसए-कमलाराजधान्यां भवनम्। ज्ञाता० २४२। कमजोग- क्रमयोगः परिपाटीव्यापारः। दशवै. १६३। | कमला- कालस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। स्था० कमढं-खरंटो उ जो मलो तं कमढं भण्णति। निशी. १९० २०४॥ धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। आ। कमढं-पात्रविशेषः। व्यव. २१८ आ। ज्ञाता० २५२। कमलकमलश्रियोः दारिका। ज्ञाता० २५२। कमढगं-कमढकं-पात्रविशेषः। व्यव. ३२४ आ। कमलामेलं- कमलामेलं, कमलीपीडं वा। जम्बू. २३४| साधुजनप्रसिद्धं भाजनम्। निशी० ६१ अ। करोडगागारं। | कमलामेला-द्वारिकायामन्यस्य राज्ञः दुहिता। आव. निशी० ७१ आ। उड्डाहपच्छायणं। निशी० १११ आ। । ९४। दवारिकायां दारिका। बृह. ३० अ। सबाह्याभ्यन्तरं शुक्ललेपं कांस्य करोटकाकारं कमलावई-कमलावती, इषकारनपतिमहादेवी। उत्त. भाजनम्। बृह. २९० अ। कमढकं-आर्यि-कापात्रम्। ३९५ ओघ. २०९। पात्रम्। ओघ०४४, ८२। कमसो-क्रमतः। उत्त०७ कमढयं-अट्ठगमयं कंसभायणसंठाणसंठियं। निशी. १७९ कमा-धरणस्य प्रथमाग्रमहिषी। ज्ञाता० २५१। कमिज्जणा-मुंडनादि। निशी. १३७ आ। कमणिया-क्रमणिका-उपानहः। तलिका। बृह. १०१ । कमेति-क्रमते-उत्सहते। बृह. १६४ आ। कमणी-पादप्रमाणं चर्म। बृह. २२२ आ। कम्बा- लता। प्रश्न. १६४। कमणीउ-उपानहौ। निशी. १३७ अ। कम्मंता-कर्याणि। कर्मकराः। उत्त. २६३ कमणीओ-उपानहौ। निशी. १८ अ। कम्मंसि-सत्कर्माणि। उत्त० ५९७, १८८1 आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [24] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कम्मंसे- कर्माशान्मूलप्रकृतीः। औप० ११३॥ सम्यगुपयोगरूपं, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादककम्म-अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसम्दायरूपं कर्म। भग० । षाययोगरूपं वा । सूत्र०७१। क्रिया, दशविधचक्रवाल ८। मदनोद्दीपको व्यापारः। भग० १३४। गमनादि। भग० | सामाचारीप्रभृतिरितिकर्तव्यता। उत्त०६६। यदानाचा३१११ ज्ञानावरणादि, क्रिया वा। दशवै०७०| वानलक्षणं। र्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारणं गृह्यते भग० ४७७ क्रियत इति कर्म-क्रिया। उत्त. २४६। रक्षार्थं भारवहनकृषि-वाणिज्यादि। आव० ४०८। कार्मणकरणं। वसत्यादेः परिवेष्टनम्। उत्त०७१० क्रियते इति कर्म। बृह० १२३ अ। कृष्यादि। पिण्ड० १२९। अनावर्जकम्, आव० ३५ अनाचार्यकं सर्वकालिकं वा। आव० ३५। अप्रीत्युत्पादकम्। पिण्ड० १२९। कृषिवाणिज्यादि, नन्दी.१४४। मनोवाक्कायक्रियालक्षणः। उत्त०१८ मोक्षानुष्ठानं वा। प्रज्ञा० ५०| उत्क्षेपणावक्षेपणादि कर्मणाम्-सुखदुःखप्राप्तिपरिहारक्रियाणां गमनादि वा। जम्बू. १३०| अनाचार्योपदेशजं कर्म। कायिकाधिकरणिकाप्रादोषि जम्बू० १३६) कापारितापनिकाप्राणातिपातरूपाणां कम्मआसीविसा-कर्मणा-क्रियया शापादिनोपघातकरकषिवाणिज्यादिरूपाणां वा। आचा० १२९। अनुष्ठानम्- णेनाशीविषाः-कर्माशीविषाः। भग० ३४१। ज्ञानावरणादि। उत्त० ३४८। ज्ञानावरणादि। उत्त० ३८४॥ कम्मए-कर्मणो जातं कर्मजम्। प्रज्ञा० २६८1 जीवा० १४। ज्ञानावरज्ञादि। ज्ञाता० २०५। जीवनोपायः। जम्बू. १३६| अष्टविधकर्मसमुदायनिष्पन्नमौदारिकादिशरीरनिबन्ध कृषिवाणिज्यादि। जम्बू० २५८१ नं च भवान्तरानुयायिकर्मणो विकारः कर्मैव वा यत्पुनर्विवाहप्रकरणादावुद्धरितं मोदकचूर्खादि तद् कार्मणम्। अनुयो० १९६। भूयोऽपि भिक्षाचराणां दानाय गडपाकदानादिना कम्मओ-कर्मतः-क्रियां जीवनवृत्तिम्मोदकादि कृतं तत्कर्म। पिण्ड० ७७। कृषिवाणिज्यादि। बाह्याभ्यन्तरभोजआव० १२९। उत्क्षेपणापक्षेपणादि। भग० ५७। नीयवस्तुप्राप्तिनिमित्तभूतामाश्रित्येत्यर्थः। उपा०९। भ्रमणादिक्रिया। स्था० २३। अनाचार्यकं कादाचित्कं वा। | कम्मकडा-नामकर्मनिर्वतिता, अथवा कर्मभग० १७३। स्था० २८३। कृष्याद्यानाचार्यकम्। स्था० कमनोद्दीपको व्यापारस्तत्कृतं यस्यां सा कर्मकृता। भग. ३०४। उद्देशकस्य-विभागस्य द्वितीयप्रकारः। बृह० ८३। १३४ कार्मणकरणं। बृह. १२३ अ। अष्टमपूर्वः। स्था० १९९। कम्मकर-किंकरादन्यथाविधाः कर्मकराः। जम्बू० २६३। अक्षरलेखनादि-क्रिया। प्रश्न. ११८ अन्तर्यत्र कर्मकरः। उत्त. २२५ कर्मकरः। आव. १९४१ नियतसधादिपरिकर्म्यते। प्रश्न. १२७। लौकिको व्यवहारः। कालमादेशकारी। प्रश्न. ३८1 नायकाश्रितः सुर्य. १६९। उत्क्षेपणावक्षेप-णादि। सूर्य. २८६) कश्चिद्धोगपरः। सूत्र० ३३१ वन्दनादिलक्षणम्। सूर्य० २९६। प्रज्ञा कम्मकारो-कर्मकारः लोहारादिः। जीवा. २८। लोहकारो। पनायास्त्रयोविंशतितमं पदम्। प्रज्ञा०६। कारकवाचकः निशी० २१४ आ। कर्तुरीप्सिततम, ज्ञानावरणीयादि वा, क्रिया वा। आव. कम्मगंथि- कर्मग्रन्थिः-अतिदुर्भेदघातिकर्मरूपः। उत्त. ५११। ज्ञानावरणीयादि। आव०७८२ आरेचनभ्रमणादि। ५९४१ प्रज्ञा०४६३। हस्तकर्म, सावदयानुष्ठानं वा। सूत्र. १८० कम्मगंठिय-कार्मग्रन्थिकः। प्रज्ञा० ३१९, ४२४। पृथिव्याद्यारम्भक्रिया। प्रश्न. १२७। कृष्यादिव्यापारः। | कम्मगुरू- कर्मगुरुः कर्मणा गुरुरिव गुरुः प्रश्न० ११७। कृष्यादिकर्म। उत्त० २०९। अनुष्ठानम्। अधोनरकगामितया। उत्त० २७५। आव० ४७८अनुष्ठानं-ज्ञानप्रशंसादि। उत्त० १२७ कम्मग्गहणं-कर्मग्रहणं, आधाकर्मिकग्रहणम्। पिण्ड. कुत्सिता-नुष्ठानम्। उत्त० २०८ अनाचार्यकं ८६ कादाचित्कं वा। आव०४९५। कषिवाणिज्यादि कम्मचिट्ठ-कर्मचेष्टा-क्रियन्त इति कर्माणि-अग्नौ मोक्षानुष्ठानं वा। जीवा० ४६। अनुष्ठानं, समित्प्रक्षे–पणादीनि तद्विषया चेष्टा। उत्त० २६७) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [25] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ४६ कम्मणकारिया-कार्मणकारिणी। आव०५६१। कैरावतपञ्चकमहाविदेहपञ्चकलक्षणाः। नन्दी०१०२ कम्मणजोए-कुष्ठादिरोगहेतुः। ज्ञाता० १८८ कम्मभूमि-कर्मभूमिः-कृष्यादिकर्मस्थानभूता कम्मणा-कार्मणं। तथाविधद्रव्यसंयोगः। स्था० ३१४१ भरतादिका। प्रश्न. ९६। कम्मदव्व-कर्मद्रव्यं-कर्मद्रव्यपरिच्छेदकोऽवधिः। आव० | कम्मभूमो-कर्मभूमः-कर्मप्रधाना भूमिर्यस्य सः। जीवा. ३६। कर्मशरीरद्रव्यं। प्रज्ञा० ३०४। कम्मधम्मसंजोगो-कर्मधर्मसंयोगः। आव० ३८८1 कम्ममासओ-त्रयो निष्पावा निष्पन्नः-कर्ममाषकः। कम्मनरवइ-कर्मनरपतिः। ज्ञाता० २३४। अनुयो० १५५ कम्मपगडी-कर्मप्रकृतिः-प्रज्ञापनायां त्रयोविंशतितमं | कम्ममाहूय-काय-कर्मोपादाय। आचा० १५८ पदम्। भग०६३ कम्मयं- कर्मकम्-अनुष्ठानम्। उत्त० २९०। कार्मणंकम्मपट्ठवणसयं-कर्मप्रस्थापनादयर्थप्रतिपादनपरं शतं यद-दयात्कार्मणशरीरप्रायोग्यान् पगलानादाय कर्म-प्रस्थापनशतम्। भग० ९४२ कार्मणशरीर-रूपतया परिणमयति परिणमय्य च कम्मपयडी-उत्तराध्ययने त्रयत्रिंशत्तममध्ययनम्। जीवप्रदेशैः सह परम्परा-नुगमरूपतया सम्बन्धयति सम०६४। तत्कर्मणशरीरनाम। प्रज्ञा०४६९। कम्मपुरिसा- कर्माणि-महारम्भादिसम्पाद्यानि कम्मयणो-कम्मबलो। निशी० २७६-अ। नरकायुष्का-दीनीति पुरुषाः। स्था० ११३। | कम्मयर-कर्मकरः छगणपूजादयपनेता। जम्बू. १२२| कम्मप्पवादो-कर्मप्रवादः-पूर्वविशेषः। उत्त० १७४। कम्मया- कृषिवाणिज्यादिकर्मभ्यः सप्रभावा। राज. कम्मप्पवाय-कर्मप्रवादः-ज्ञानावरणीयादिकर्मणो ११६] निदाना-दिप्रवदनमिति। दशवे. १३। ज्ञानावरणादि कर्म | कम्मरय-अष्टप्रकारं कर्मरजः-तत्र प्रोच्यते तत्कर्मप्रवादमिति। सम० २६। कर्म जीवगुण्डनपरत्वात्कर्मैव रजः कर्मरजः। दशवै०१७ ज्ञानावरणीयादिक-मष्टप्रकारं तत्प्रकर्षण कम्मलेसा-कर्मलेश्या-कर्मस्थितिविधात प्रकृतिस्थित्यनभागप्रदेशादिभिर्भेदैः सप्रपञ्चं वदतीति तत्तद्विशिष्टपुद्गल-रूपा। उत्त० ६५२। कर्मप्रवादम्। नन्दी० २४१।। कमलेस्सं-कर्मणो योग्या लेश्या-कृष्णादिका कर्मणो कम्मप्पवायपुव्वं- कर्मप्रवादपूर्व-अष्टमपूर्वनाम। आव० वा लेश्या-लिश श्लेषणे' इतिवचनात् सम्बन्धः ३२११ कमलेश्या। भग०६५५ कम्मभूमगपलिभागी- कर्मभूमगाः-कर्मभूमिजातास्तेषां | कम्मलेस्सा-कर्मणः सकाशाद्या लेश्या-जीवपरिणतिः प्रति-भागः-सादृश्यं तदस्यास्तीति-कर्मभमगप्रतिभागी, | सा कर्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः। भग०६३१ कर्मभू-मगसदृश इत्यर्थः। प्रज्ञा० ४९११ कम्मविउसग्गो- ज्ञानावरणादिकर्मबन्धहेतुनां कम्मभूमगा-कर्म-कृषिवाणिज्जयादि मोक्षानुष्ठानं वा ज्ञानप्रत्यनी-कत्वादीनां त्यागः। भग. ९२७। कर्म-प्रधाना भूमिर्येषां ते कर्मभूमाः, कर्मभूमा एव | कम्मविगईए-कर्मणामशुभानां विगत्या-विगमेन कर्मभूमकाः। प्रज्ञा० ५०| जीवा०४६। स्थितिमा-श्रित्य। भग० ४५६) कम्मभूमा- कर्मभूमाः। उत्त० ७०० कर्म- | कम्मविवेगो-कर्मविवेकः कर्मनिर्जरा। आव० ८५२। कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा कर्मप्रधाना भूमिर्येषां कम्मविसुद्धीए- प्रदेशापेक्षया। भग० ४५६) ते कर्मभूमाः। प्रज्ञा०५० कम्मविसोहीए-रसमाश्रित्य। भग०४५६) कम्मभूमि- कर्मभूमिः-कृष्यादिकर्मप्रधाना भूमिः | | कम्मवेदए-कर्मवेदकः-प्रज्ञापनायाः पञ्चविंशतितमं कर्म-भूमिः-भरतादिका पञ्चदशधा। स्था० ११५) पदम्। प्रज्ञा०६। कृषिवाणिज्य-तपःसंयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भमयः | कम्मसंपया-कर्मसम्पत्, कर्म-क्रिया तस्याः सम्पत्कर्मभूमयो-भरतपञ्च सम्पन्नता, कर्मणा वा ज्ञानावरणादीनां सम्पत् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [261 "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] उदयोदीर-णादिरूपा। विभूतिः। उत्त०६६। कम्मारगाम-कर्मारग्रामः। आव. १८८1 कम्मसंवच्छरे-कर्मसंवत्सरः, कर्म-लौकिको कम्मारदारए-कर्मारदारकः-लोहकारदारकः। जीवा. व्यवहारस्त-त्प्रधानः संवत्सरः। सूर्य. १६९। जम्बू. १२११ ४८७ कम्मारभिक्खू- कर्मकारभिक्षुकःकम्मसच्चा-कर्मणा-मनोवाक्कायक्रियालक्षणेन देवद्रोणीवाहकभिक्षुविशेषः। बृह. २० अ, २८१ आ। सत्याअ-विसंवादिनः कर्मसत्याः। उत्त. २८११ कम्मारिया-कर्मायाः। प्रज्ञा. ५६। कम्मसमज्जणसयं-कर्मसमर्जनलक्षणार्थप्रतिपादकं शतं | कम्मारो- कारः-लोहकारः। बृह. १०७ अ। कर्मसमर्जनशतम्। भग. ९४० कम्मावादी-कर्मवादी-कर्म ज्ञानावरणीयादि तद् वदितुं कम्मसमारंभा-कर्मसमारंभाः क्रियाविशेषाः। आचा. २३ | शीलमस्येति कर्मवादी। आचा० २१ क्रियाविशेषाः, कर्मणो वा ज्ञानावरणीयादयष्टप्रकारस्य । कम्मिणो- कर्मिणः-संक्लिष्टलेश्यास्थानवर्तिन समारम्भा-उपादानहेतवः क्रियाविशेषाः। आचा. २७। | आतध्या-यिनो रौद्रध्यायिनश्चेत्यर्थः। व्यव० १८७ अ। कर्मसमारम्भाः पाकादयः क्रियन्ते। आचा० १३० कम्मिया-कार्मिका-कर्मणां विकारः कार्मिका तयाजीवानु-द्दिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारम्भः। आचा० अक्षी-णेन कर्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः। भग० १३८१ २६९। कर्मिता-कर्म विदयते यस्यासौ कर्मी तद्भावःकर्मिता। कम्मसरीरगं- कर्मशरीरकम्-औदारिकादिशरीरम्। भग० १३८ आचा० १४३ कम्मुणा-कर्मणा-मनोवाक्कायक्रिया। दशवै. १६० कम्मसाला-घटादिनिष्पादनस्थानम्-कुम्भकारक्टी। सम्पूर्ण-मेव कर्मणा। दशवै० १६२। कायेन। दशवै. २२९। बह. १७५अ। जत्थ कम्म कारेति। निशी. २२१ । क्रियया। दशवै० २३३॥ कम्मस्सबंधए-कर्मणो बन्धकः-यथाजीवः कर्मणो कयं-कृतम्-निर्वत्तितम्, अभ्यस्तम्। आव० ५९३। कार्य, बन्धको भवति तथा प्रतिपादकं प्रयोजनम्। प्रश्न. ३५) प्रज्ञापनायाश्चतुर्विंशतितमं पदम्। प्रज्ञा०६। कयंगलं-कृताङ्गला, नगरीविशेषः। आव. २०४। कम्महेउयं-सिक्खापव्वगं। दशवै० ११३| कयंगला-स्कन्दकचरित्रे नगरी। भग० ११२, १२३। कम्मा- क्रिया। आचा० २५१ कयंत-कृतान्तं-दैवम्। प्रश्न०६४| कृतघ्नः यमो वा। कम्माजोए-काम्ययोगः-कमनीयताहेतः। ज्ञाता० १८८1 बृह० ३०१ आ। कम्माणप्पेही-कर्म-क्रिया तदनप्रेक्षत इत्येवंशीलः कयंबे-कदम्बः-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ कर्मानुप्रेक्षी। उत्त० २४६। कय-कृतः-दत्तः। ओध० २१२। अनुज्ञातः। बृह० ५। कम्माणुभाव कृतशब्दोऽत्रानुभूतवचनः। दशवै० १३९। बाह्यतीर्थकरजन्मदीक्षाज्ञानापवर्गकल्याणसम्भू- कयउस्सग्गो-कृतोत्सर्गः-कृतावश्यकः। ओघ० २१ तिलक्षणबाह्यनिमित्तमधिकृत्य तथाविधस्य च कृतोपयोगः। ओघ० १४० सातवेदनीयस्य कर्मणोऽनभावः-विपाकोदयः कयकण्णचूलतो-कृतकर्णचूलकः। उत्त० २७२। कर्मानुभावः। जीवा० १३० कयकरण-धणवेदादिएस सत्थेस जेण सिक्खाकरणं कयं कम्मादाणं-कर्म-ज्ञानावरणादि आदीयते गिहिभावद्वितेण सो साहू कयकरणो भण्णति। निशी. स्वीक्रियतेऽनेन जन्तभिरिति कर्मादानं १३ आ। ये षष्ठाष्टमादितपोभावितास्ते कृतकरणाः। कर्मोपादानहेतुः। उत्त० ३४३। व्यव० १२५ । जेण चउत्थछट्ठमादीया कया। निशी कम्मादाणाइं-कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते १४३ अ। धनुर्वेदे कृताभ्यासः। ब्रह० ३८ आ। कतकरणंयैस्तानि कर्मादानानि, अथवा कर्माणि च तान्यादानानि कृतकपुत्रककरणम्। आचा० ३२| इषु शास्त्रे कृताभ्यासः। च कर्मादानानि कर्महेतवः। भग० ३७२। बृह० ३११ आ। कृतकरणः-बहुशो विहितचौरानुष्ठानः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [27] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] प्रश्न. ४६। धनुर्वेदादौ कृतपरिश्रमः। बृह० ८५। | कयमालक-तमिश्रागुहाधिपसुरः। जम्बू० २५५ कयकिच्चोवक्खरं- नगरे समानीय अस्थाने भाण्डक्षेपी | कयमालगो-कृतमालकः-कोणिकघातको देवः। आव. भाटिकः। बृह. ११ आ। ६८७ कयकुरुकय-कृतकुरुकुचः-कृतकुलः। व्यव० १६१ आ। कयमालयं-कृतमाल्यं तमिश्रागृहाया देवः। आव० १५० कयगं-कृतकम्। आव० १७३। कयमाला-कृतमाला-दुमजातिविशेषः। जम्बू. ९८। कयग्गह- कचग्रहः-मैथुनसंरम्भे मुखचुम्बनाद्यर्थं | कयरूवो-रुवगाभरणादि, कयरूपो। निशी० ८७ अ। युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेष ग्रहणम्। जम्बू. १९३।। | कयरे- कतराणि। अनुयो०६७। कयग्गाह-मैथुनसंरम्भे यत् युवतेः केशेष ग्रहणं स कयरेहिंतो-कान्याश्रित्य। अनुयो०६७। कचग्रहः। राज० २३ कयलक्खण-कृतफलवल्लक्षणः। भग०६६२। कयग्गाहगहियं- कचग्राहगृहीतं-मैथुनप्रथमसंरम्भे कृतलक्षणाः-कृतफलवच्छरीरलक्षणाः। ज्ञाता०२५१ मुखचुम्बना-यर्थं युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहणं | कृतलक्षणः। उत्त० ३२९। तेन कचग्राहेण गृहीतम्। जीवा० २५५) कयलगं-चिब्भिडं, जरठ, तपसावि वा। निशी. १५७ कयजोग्गो-कृतयोगः-कर्कशतपोभिरनेकधाभावितात्मा। | कयलिसमागमो-कदलीसमागमः। आव २०७। व्यव० ११३॥ कयली-कदली-वनस्पतिविशेषः। ज्ञाता०९५१ कयत्तंतिया-कतनी। बृह. २८ अ। कयल्लयं- कृतम्। ओघ० ४६। कयत्था-कृतार्थाः कृतप्रयोजनाः। ज्ञाता० २४॥ कयवणमालपिया-कृतवनमालपिता-हस्तिशीर्षनगरस्य कयत्थिउ-कदर्थितुम्। दशवै० ४१] पुष्प-करण्डकोद्याने यक्षः। विपा. ८९। कयत्थे- कृतार्थः। उत्त० ३१९। कृतस्वप्रयोजनः। भग० कयवम्मा-कृतवर्मा-विमलजिनपिता। आव० १६१। सम. ६६ १५१ कयपंजली- कृतप्राञ्जलिः-पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो कयवर-कचवरः। उत्त० ५९२ पत्रतृणधूलिसमुदायः। यैस्ते। आव० १०० आचा०५५ कयपंसु-कजप्रसवः-पद्मक्स्मः । ज्ञाता०६९। कयवरुज्झिय-कचवरोज्झिका-अवकरशोधिका। ज्ञाता० कयपज्जत्तिय-कृतपर्याप्तिकः-कृतकार्यः। उत्त० २१० | ११९। कयपडिकिई- उपकृतस्य प्रतीकारः। बृह० २९९ आ। | कयवरो- बहु झुसिरदव्वसंकरो कयवरो। निशी० २५६) कृतप्रतिकृतिर्नाम-प्रसन्ना आचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति | कयविक्कय-क्रयविक्रयौ। भग० १९९। न नाम निर्जरेति मन्यमानस्याहारादिदानम्। सम० | कयविहव-कृतविभवाः कृतसफलसंपदः। ज्ञाता० २५ ९५१ कयवेयदिए- कृतवितर्दिकं-रचितवेदिकम्। औप. ५ कयपडिकिरिया-कृतप्रतिक्रिया-अध्यापितोऽहमनेनेति- कृतवितर्दिकम्-रचितवेदिकम्। निर० १-१९। बुद्ध्या भक्तादिदानमिति। ओप०४३। कयव्वय-कृतव्रता-उपस्थापिता इत्यर्थः। व्यव. १०० कयपडिक्किई-कृतप्रतिकृतिः-प्रसन्ना आचार्याः सूत्रमर्थं | कयव्वयकंमे-कृत-अनुष्ठितं व्रतानां-अनुव्रत्तादीनां तदुभयं वा दास्यन्ति न नाम निर्जरति आहारादिना । कर्मत-च्छ्रणज्ञानवाञ्छाप्रतिपत्तिलक्षणं येन यतितव्यम्। दशवै. ३१। प्रतिपन्नदर्शनेन स कृत-व्रतकर्मा कयपुन्न-जन्मान्तरोपात्तसुकृतः। ज्ञाता० २५। प्रतिपन्नाणुव्रतादिरितिभावः। सम० २९। कृतपण्यः । भग०६६२| कयव्ववसाअ- कृतव्यवसाय। आव०२९० कयबलिकम्मा-स्वगृहे देवतानां कृतबलिकर्मा। निर०७ | कया-कृता-परिनिष्ठाता। ओघ० १९९। कृतबलिकर्मा। दशवै. ९८४ कयाइ-कदाचिदित्ति-वितर्कार्थः। भग० ६८३। कयमालए-कृतमालकस्तमिश्राधिपतिः। जम्बू०७४। कयाणुराग-कृतानुरागः-विहिताभिष्वङ्गः। उत्त० ३८६) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [28] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ७९ करं-करः-गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यम्। जम्बू० करकरसई-व्यक्तव्यक्तशब्दम्। आव. २९२ १९४१ भग०५४४ करकरिए-अष्टाशीत्यां पञ्चाशीतितमो महाग्रहः। स्था. करंज-करञ्जः; वृक्षविशेषः। भग० ८०३। नक्तमालः। प्रज्ञा० ३१| करग-करकः। जम्बू.१०१। घंटी। निशी०६४आ। करकः करंड-भाजनविशेषः। प्रश्न. ९३। कठिनोदकरूपः। दशवै०१५३ करंडक-वंशग्रथितः। ओघ० २११। वेणुकार्यविशेषः। सूत्र० करगओ-करपत्रम्। आव०८०१ ११७। बहुपृथुलमल्पोच्छ्रयं मुखम्। बृह. २४९ अ। करगगीवा- वार्घटिका ग्रीवा। अनुत्त० ५। करंडगा-करंडकः-वस्त्राभरणादिस्थानम्। स्था० २७२। करगतं-क्रकचम्। आव०६५१| करंडय- करण्डकं-पृष्ठवंशास्थिकम्। जीवा. २७१। करगय-क्रकचम्, करपत्रम्। उत्त०६५४| करंडादी-उलंबगं-समचउरंसं। निशी० ५४ आ। करगा-उदगपासाणा वासे पडंति ते करगा। निशी. ४५ करंडुअ-करण्डकं पृष्ठवंशास्थिकम्। जम्बू० १११ करगे-करकः घनोपलः। जीवा. २५ कर-करणं नाम नागरकादिप्रारम्भयन्त्रम्। करगो-पाणियभंडयं। निशी. ११७ आ। करकः-जलाधारो संप्राप्तकामस्यएका-दशो भेदः। दशवै० १९४। मदिराभाजनं वा। सूत्र० ११८१ अष्टाशीत्यां त्र्यशीतितमो महाग्रहः। जम्बू.५३५ करः- | करघातो-करस्य पीडा। बृह. ७४ आ। क्षेत्राद्याश्रितराजदेयद्रव्यम्। विपा० ३९ करचोल्लए-करभोजनम्। आव० ३४१। करइल्ल-करकवान्। उत्त० ९७। करजर-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ करए-करको बादराप्कायविशेषः। प्रज्ञा० २८१ करकाः- करट-शरीरेण विमध्यमः। निशी०७१ अ। वार्घटिकाः। उपा०४० करटी-वाद्यविशेषः। जीवा. २६६। करओ-जलगालनं-धर्मकरकः। ब्रह. १०० आ। करडि- करटी। जम्बू. १०१। करकंडु- प्रत्येकबुद्धनाम। प्रज्ञा० १९। द्रव्यव्युत्सर्गोदाहरणे | करडुय-करड्कं-मृतकभक्तम्। व्यव० ३४२ अ। कलिङ्गेषु करकण्डुः-दधिवाहनराजपुत्रः। आव० ७१६, करडुयभत्त-घृतपूर्णः। निशी. १०० आ। करडुकभ७१७ सम० १२४। काञ्चनपुर नृपत्तिः । उत्त० ३०१| क्तम्-मृतकभोजनं मासिकादि। पिण्ड० १३४॥ पउ-मावईए रायपुत्तो। निशी. १९४आ। करकण्डुः- करडो-कुरूटः-कुणालानगर्यां दोषार्ते उपाध्यायविशेषः। कलिङ्गेषु दधिवाहनराजसुतो यो जीर्णं वृषभं दृष्ट्वा आव० ४६५१ प्रतिबुद्धः। उत्त० २९९। आगन्तुके दृष्टान्तः। निशी. | करणं- अपूर्वप्रादुर्भावः। अन्योन्यसमाधानम्। आव. २६९ आ। ४५७। पिण्डविशुद्धयादिः। ज्ञाता०७। उत्त० ५८०| करकंडे- करकण्डः माहणपरिव्राजके दवितीयनाम। औप० गुरूविषयं शिष्यविषयं च। आव० ४७१। गुरुशिष्ययोः सामायिकक्रिया-व्यापारणम्। आव० ४७१। यत् प्रयोजन करक- हिमम्। आचा० ४०| भाजनविधिविशेषः। जीवा० आपन्ने क्रियत इति करणम्। ओघ०७| कालविशेषरूपं २६६। प्रलियशकलः। पिण्ड० १०७ करकः, पक्षिविशेषः।। चतर्यामप्रमाणम्। उत्त. २०२२ करणं न्यायालयम्। प्रश्न. ८1 अनुयो० १५२। निशी० ११२ अ। प्रति-लेखनादि। भग०७२७। करणम्। करकचियं-क्रकचितम्, करपत्रविदारितं काष्ठादि। दशवै०६१। प्रयोगः। ज्ञाता०४१। इन्द्रियम्। अनुयो० १५४१ कृतकारितानुमतिरूपम्। भग० ८९| चारित्रम्। बृह० ११८ करकपाल-चतुर्थं महाकुष्ठम्। प्रश्न० १६१| अ। अपूर्वकरणम्। उत्त० ५७९। अवनामादिरावश्यकः। करकय- क्रकचम्। आव० ४२० करपत्रम्। उत्त० ४५९| | बृह. १३ अ| गात्रम्। आचा० ८६| कृतिःस्वभावतः एव प्रश्न० २१। जीवा० १२०। क्रकचः। प्रज्ञा० ३६७। क्रकचं- | निर्वृतिर्गृह्यते, करणः-न्यायालयः। आव० ५२०, ७१७, येन दारु विदयते तत्। स्था० २७३। , ८२२ उत्त० ३०१ नन्दी. १६३। परिणामविशेषः। ९१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [291 "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] बृह० १७ । आरंभः। बृह. १५८ अ। क्रिया। नन्दी करणपती-न्यायाधीशः। निशी० १०१ । १९० आव०८२१| उत्त० १४९। खण्डनम्। बृह. १७१ आ। | करणया-करणानां-संयमव्यापाराणां भावः-करणता। उत्त० २०४। वैयावृत्त्यम्। ओघ०४५ स्थापनम्। बृह. | ज्ञाता०५२ २३८ अ। बवादिगणितः। ओघ० ११५ क्रियासिद्धौ करणविहीणो-क्रियाहीनः। मरण। प्रकृष्टोपकारकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि। आचा० करणवीरिए- लब्धिवीर्यकार्यभूतो क्रियाकरणं तद्रूपं ४१९। पादकर्म। बृह. २१८ आ। क्रियतेऽनेनेति करणं करण-वीर्यम्। भग० ९५ क्रियायाः साधकतमं कृतिर्वा करणं-क्रियामात्रम्। भग० | करणवीरियं-क्रियावीर्यम्। निशी. १९ अ। ७७३। कम उत्प्लवनलक्षणं यत्करणं-क्रियाविशेषः। करणसत्ती- करणं-क्रिया-तस्यां शक्तिः प्रवृत्तिः भग. ९२८ अवश्यं विपाक-दायित्वेन निष्पादनं क्रियाशक्तिः। नन्दी. १९०९ करणशक्तिःनिधत्तादिस्वरूपमिति। भग० ९३८। इन्द्रियं कृत्यं वा। तन्माहात्म्यात् पुराs नध्यवसतिक्रियासामर्थ्यरूपा। प्रश्न. ४१। न्यायालयः। बृह. ३३ । सधनम्। औप. उत्त० ५९१ ४६। अपवादः, विशेषवचनं च। जम्बू. ५४११ अभिधानम्। | करणसच्चं-करणसत्यं, बाह्यं प्रत्युपेक्षणादि, जम्बू. १३४| विवक्षितक्रि-यासाधकतमं करणम्। त्रयोदशोsD नगास्गुणः। आव० ६६० अनुयो० १३४। पिण्डविशुद्धयादि। अनुयो । यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तं सम्य-गुपयुक्तः कुरुते। मृत्पिण्डादि। आव. २७८१ परिभोगो जो विवरीयभोगं सम०४६ करणे सत्यं करणसत्यं यत्प्रतिकरेति। निशी० १२६ आ। पिण्डवि लेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते। उत्त. शुद्धिसमित्याद्यनेकविधम्। सम० १०९। क्रियते येन ५९१। यथोक्तप्रतिलेखनाक्रियाकरणम्। प्रश्न. १४५। तत्करणं मननादिक्रियास् प्रवर्तमानस्यात्मन करणसभा-महावीरस्वामिनो निर्वाणस्थानम्। सम०७३। उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पदगलसङ्घात इति करणसाला- करणशाला। दशवै० १०८1 भावः। स्था० १०७ उल्लगकरणं। निशी०४२आ। करणसालाए-न्यायालयः। निशी० १२ अ। करणम्। आव०४२६। अङ्गभङ्गविशेषो करणा-करणानि चक्षुरादीनीन्द्रियाणि। जीवा० २७१। मल्लशास्त्रप्रसिद्धः। औप०६५। करणं-विशिष्टिदिवसो करणाए- उपकरणाय, उपकाराय। आचा० २८२। उपदुर्दिनग्रहणोत्पातदिनादिभ्यो भिन्नदिवसः। जम्बू करणार्थम्। आचा० २८८१ २७३। उपधिः। ओघ० २०७। प्रयोगकरणं विश्रसाकरणं करणाणुओगे- क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनयोगः वा। भग० ३६९। इषु शास्त्रे संयमे वा कृतकरणः। बृह. | करणानुयोगः। स्था० ४८१। ३५आ। आधाकर्म। बृह० १२५आ। शक्तिः । आचा० ३०| | करणाणुपालया-पूवरिसीहिं पालियं जे पञ्छा पालयंति पिण्डविशुद्ध्यादि। उत्त० ५८० भग० १२२, १३६। कुर्वत | ते करणाणुपालया। निशी. ३६० आ। इत्यर्थः। भग० १०४। जीववीर्यम्। भग० २५२। कृतिः। करणापर्याप्ताः- ये करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न आव० ४५७ तावन्निर्व-तयन्ति अथचावश्यं निर्वतयिष्यन्ति ते। करणगुण- कलाकौशल्यम्। आचा० १२॥ जीवा० १० करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न करणगुणसेढि-करणगणेन-अपर्वकरणादिमाहात्म्येन तावन्निवर्तयन्ति अथचावश्यं निर्वतयिष्यन्ति ते श्रेणिः करणगुणश्रेणिः प्रक्रमात्क्षपकश्रेणिरेव गृह्यते। । करणापर्याप्ताः । प्रज्ञा. २६) उत्त० ५८० करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणिः । करणालसा-करणालसाः-चरणालसाः, चरणधर्म करण-गुणश्रेणिः प्रत्यनुद्यताः स्वस्य परेषांच सर्वोपरितनस्थितेर्मोहनीयादिकर्मदलिकान्यपादायोदय चिन्ताश्चासननिमित्तमितिभावः। प्रश्न. ३५१ सम-यात्प्रभृतिद्वितीयादिसमयेष्वसङ्ख्यातग्णपद् करणि-सादृश्यम्। अनुयो० १२ प्रशंसा, क्रिया। आव. गलप्रक्षेपरू-पाऽऽन्तौहूर्तिकी। उत्त० ५७९) ३६९। क्रिया। आव०८१८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [301 "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] करणिज्जकिरिया-करणीयक्रिया-यद येन प्रकारेण करिमकरा-मत्स्यविशेषः। सम० १३५ करणीयं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा सा। सूत्र० ३०४। करियातिओ-कृतवान्। निशी० १०९ अ। करणिज्जो-करणीयः-सामान्येन कर्तव्यः। आव० १७१। | करिसग-कर्षकः। नन्दी. १६४ करणी-क्रिया। अनुयो. १३८ वर्गमूलमानीयते। जम्बू | करिसणं-कर्षणं। कृषिः। प्रश्न० ८। १९| करिसो-कर्षः- पलस्य चतुर्मागः। अनुयो० १५४। करणीयाइं-करणीयानि-कादाचित्कानि। ज्ञाता०९१।। करीर-गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ करतलं-हस्तसंखं। निशी० ६० आ। करीरपाणगं- पाणकस्य अष्टादशो भेदः। आचा० ३४७) करतलपल्हत्थमुहे- करतले पर्यस्तं-अधोमुखतया न्यस्तं करिलं-रागद्वेषाभावे दृष्टान्तविशेषः। बृह. ३७ अ। मुखं येन सः। भग० १८० करीलो-वंशजातिविशेषः। व्यव० २२५आ। करधाण-करध्मानम्-परस्परं हस्तताडनम्। जम्बू. करील्ल-शरीरं-प्रत्यग्रं कन्दलम्। अनुत्त०४॥ २०६। करीस-करीषम्। भग० ३०६। करीषम्-शुष्कछगणम्। करपत्ते-क्रकचम्। ज्ञाता० २०४१ स्था० २७३। दशवै. ९२ करपत्रम्-शस्त्रविशेषः। आव०८१९| करीसओण्हा-करीषोष्मा। आव०४१६) करपल्लीवण-करप्रद्दीपनं-वसनावेष्टितस्य करिणी-करेणु। उत्त० ६३४१ तिलाभिषिक्तस्य करयोरग्निप्रबोधनम्। सम० १२६| करुडगादियं-हिंगोलं। निशी. २२ अ। करबोडिय- व्याप्त। मरण। करुणालंवणभूओ-करुणालम्बनभूतः। आव०४१३। करभी-घटसंस्थानकोष्ठिका। बृह. १७९ अ। करुल्लं-कपालम्। आव० २०१। करमंदि-करमर्दी गुल्मभेदः। उत्त० ५४९। करेंतगो-कर्ता। आव. २६२। करमद्द-करमर्दम्। आव० ६२२। गुच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ | करेइ-निर्मथ्यते। ज्ञाता० २४२॥ करमोअणं-करमोचनं यत् करं मन्यमानो वन्दते न | करेणु- करेणुका-हस्तिनी। उत्त० ३४९। निर्जराम, कृतिकर्मणि पञ्चविंशतितमो दोषः। आव० | करेणू- करेणुका। ज्ञाता०६४] ५४४। करेमाणा-कुर्वाणाः। ज्ञाता० ५७। करयलं-करतलं-हस्तः। प्रश्न | करोटकं-कुप्यविशेषः। आव० ८२६। करयलत्थो-करतलस्थः-वशवर्ती। आव० ७२१| करोटिका- भाजनविशेषः। पिण्ड० ६८, १५५१ करयलपरिग्गहिय-करतलपरिगृहीतः करतलाभ्यां भाजनविधि-विशेषः। जीवा० ३६६। पात्रविशेषः। आव. परिगृहीतः-निष्पादितः। जीवा. २४३। ४४३। पात्र-विशेषः। पिण्ड १०५ करवत्तं-करपत्रम्। जीवा० ११७ करपत्रं-क्रकचम्। उत्त० | करोडग-भाजनविशेषः। निशी० ७१ आ। निशी० २५६अ। ४५९। करवतम्। नन्दी० १५५ निशी. ९३ आ। करवर-वनस्पतिविशेषः। पिण्ड १२९। करोडि- करोडि। जम्बू० १०१। करोटिः। आव० ६८९। करालं-उन्नतम्। अनुत्त०६| करोडिआ-अतीवविशालमुखा कुण्डिकैव करोडिका। करालो- युक्तः। भक्त। अनुयो० १५२ करोटिका-स्थगिका। ज्ञाता०४४। करिंसुयसयं-करिंस इत्यनेन शब्देनोपलक्षितं। भग. करोडिय-करोटिका-मृद्भाजनविशेषः। भग० ११३ ९३८ करोटिकः-कपालिकः। विपा० ७६। करि-करोति। ओघ०१११ करोडिया-स्थगिका। भग० ५४८ कापालिका। ज्ञाता० करिए-करिकः-अष्टाशीत्यां चतुरशीतितमोग्रहः। जं०५० | ५८ करोट्या-कपालेन चरन्तीति करोटिका। ज्ञाता० ५३५ १५ करित्ता-करेत्ता। अभयवहृत्य। ओघ०४४। करोडी-करोटिका-कपालिका। आव०६८९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [31] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] करोति-स्मरणे वर्तते न निष्पादने। नन्दी. १७ | कलंत-उत्काल्यमानः। मरण। कर्कट:- पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः। आचा० ५५। कलंदे-दिशाचरविशेषः। भग०६५९। कर्कशः-स्पर्शस्य प्रथमभेदः। प्रज्ञा० ४७३। कलंपि-कलामपि-मनागपि। व्यव० २२६ आ। कर्कशस्पर्शः- यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु कर्कशः स्पर्शी कलंबचीरपत्तं-कलम्बचीरः। शस्त्रविशेषः। विपा० ७१| भवति, यथा पाषाणविशेषादीनां तत्। प्रज्ञा० ४७३। कलंबचीरिया-कदम्बचीरिका-तृणविशेषः, कर्केतन-रत्नविशेषः। सम० १३९। दर्भादप्यतीव-छेदकः। जीवा० १०८ कर्कोलकं- फलविशेषः। जीवा० १३६। कलंबचीरियापत्तं-कदम्बचीरिकापात्रम्। जीवा० १०६) कण्ण-कर्ण:-श्रवणः। आचा० ३८ कलंबवालुया- कदम्बपुष्पाकारा वालुका कदम्बवालुका। कर्णकं-भाजनस्योद्धर्वभागः। ओघ. १६८। प्रश्न. २०० कर्णगति- कन्दादारभ्य शिखरं यावदेकान्तऋजुरुपायां | कलंबाणं-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०३। दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले क्वापि कियदाकाशं कलंबुगा-कलम्बुका सन्निवेशविशेषः। आव० २०६। तत्सर्वम्। जम्बू० ३६३। कलंबुया- जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३१ कर्णपर्पटका-शष्कुली। नन्दी० ७५ कलंबुयापुप्फं-कलम्बुयापुष्पं-नालिकापुष्पम्। सूर्य०७१। कईमजलम-यद घनकर्दमस्योपरि वहति। ओघ०६२। जीवा० ३३९। जम्बू० ४५३। कलम्बुकापुष्पसंस्थानसंकर्पूरं-निर्यासवस्तुविशेषः। जीवा० १३६। स्थितं श्रोत्रेन्द्रियम्। प्रज्ञा० २९३। कर्परः- घटखण्डम्। नन्दी०६३। कलंबुवालुयापुढे-कदम्बवाल्कापृष्ठम्। आव०६५१| कोसी- गुच्छविशेषः। आचा० ३० कलंबो-पिशाचानां चैत्यवृक्षः। स्था० ४४२। कर्बुर- कर्णविशेषः। आचा. २९। बकशः-शबलो वा। भग. कल-मधुरः। जम्बू० २०६। कलायास्त्रिपुराख्या ८९१। स्था० ३३६| वृत्तचणका वा। जम्बू. १२४। धान्यविशेषः। भग० ६८४। कर्म-सिद्धशब्दपर्यायः। स्था० २५१ आर्यभेदः। सम.१३५ पकजलम्। उत्त. ३९१| धनं। निशी. २०५ आ। पड्कः। कर्मकल्क-कर्मसारः। प्रज्ञा० ३३१| पिण्ड० १०२। कर्दमः। भक्त० । कलं- माधुर्यविशिष्ट कर्मनिषेकः-तद्भवजीवितम्। आव० ४८० ध्वनिविशेष-रूपम्। प्रश्न. १५९। कलाःकर्मभूमिजा-भूमिविशेषजन्मा। सम० १३५। अत्यन्तश्रवणहृदयहरा अव्यक्त-ध्वनिरूपा, अथवा कर्मक्षय- सिद्धशब्दपर्यायः। स्था० २५४ कलावन्तः-परिणामवन्त इत्यर्थः ज्ञाता० २३३। कर्मद्रव्यकषायाः- तत्रादित्सितात्तानुदीर्णाः पुद्गला औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कला-वृत्तचनकाः। पिण्ड. द्रव्य-प्रधानात् कर्मद्रव्यकषायाः। आचा० ९१| १६८1 कर्ममास-त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः। सूर्य. २११ स्था० ३४५) कलकल-उपलभ्यमानवर्णविभागः। औप० ५७) कर्मसार:-कर्मणः सारः। प्रज्ञा० ३३१| उपलभ्य मानवचनविभागः। भग० ४६३। कर्षादीनि-मापविशेषः। स्था०८८1 कलकलशब्दयोगात् कल-कलम्। प्रश्न. १९| यत् कलं-कलाम भागम्। उत्त. ३१६। शोभाया अंशः। ज्ञाता० कलकलशब्दं करोति तत् कलकलं अतितप्तमिति। १३१| प्रश्न. १६४| चूर्णादिमिश्रजलम्। विपा० ७०| आचा० कलंक- कलङ्क-दुष्टतिलकादिकं चित्रादिकं वा। जीवा. ३३१। कलकलः व्याकुलशब्दसहूहः। जम्बू० ४६३। २७७। दुष्टतिलकादिकम्। औप० १६| व्याकुलशब्दसमूहः। सूर्य. २८१। कलंकलियवायं- कलङ्कलिकावातम्। आव० २१७ कलकलंत-अतिक्वाथतः कलकलशब्दं कुर्वन्ति। उत्त० कलंकलीभागिणो-कलकलीभावभाजः। सूत्र. ३४१| ४६१ कलंकलीभाव-कदर्यमानता। प्रज्ञा० १०८1 उत्त० १८३ | कलकलिंता-कलकलायमानाः-कोलाहलबोलं कुर्वाणाः। आचा० ११७ प्रश्न.५० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [32] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) कलकलेइ– कलकलायति भवजलधौ क्वथयति । आव ० ५६७ । कलगिर :- व्यक्तवाचः। जम्बू. १२७॥ आगम - सागर - कोषः ( भाग :- २) कलणाय- कलनादः । उत्त० १५० | कलत्तं यस्मात् सर्व आत्ते गृह्णाति तस्मात् कलत्रम् । निशी० २०५ आ । कलन्दं - कुण्डं - कलन्दम् । उपा० २२१ कलभा - बालकावस्थाः । ज्ञाता० ६७ | कलभाणिणी - कलभानना-स्वरमनोज्ञानना। व्यव० २२६| कलमल - जठरद्रव्यसमूहः । स्था० १४५। कलमलजंबाल- मूत्रादिकर्दमः । मरण० । कलमसानि कलमशालिः, शालिविशेषः । जम्बू. Pom कलमा - तन्दुलाः । आ० २३८ कलमाल-बिंदु निशी० ४५अ कलमोडण | निशी० १६६ अ । कलमोडियं । निशी० १३८ आ कलयल - कलकलः - अव्यक्तवचनः । भग० ११५| उपलभ्यमानवचनविभागः । म गच्छा० ११५ | कलयलसद्द - कलकलशब्दः । आव० २३१| कलनं प्रथमसप्ताहो गर्भावस्था तन्दु० । | कलश:- भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६। - । कलस– कलशः–महाघटः । जम्बू० १०१ | कलशः-ताम्रादिकलश - उपकरणवस्तु । दशकै १९४ कलसए- कलशकाः - आकारविशेषवन्तः । उपा० ४० | कलसिंबलिया- कलसिंवलिका कलायाभिधानधान्यफलिका भग० २९० कलंसिअ - लघुतरकलश एव कलशिका | अनुयो० १५३ | कलसीपुरं कलशीपुरं, कृतिकर्मदृष्टान्ते पुरम् । आव ० ५१४| कलहंस- लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ | कलहंसःलोमपक्षी - विशेषः । जीवा० ४१| कलह कलह--वचनराटिः भग० १९८० जम्बू० १२५ भण्डनम् । आ० ४९९ | वाचिको विग्रहः । उत्त० ३४७ | क्रोधः । उत्त० २९१॥ इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्धम् । भगः ५७३] महता शब्देनान्योऽन्यमसमञ्जसभाषणम्। भग० ५७२ | राटिः । प्रज्ञा० ४३८ । भग० ८० । राटिः । प्रज्ञा० ९६ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] स्था॰ २६। विरोधवाचिकः । उत्त० ४३५ | वादिगो । निशी. ७१ आ कलहः- राटिः । जीवा. १७३३ वाग्युद्धम् । ज्ञाता० २२० | जीवा० २८३ | वचनभण्डनम्। प्रश्न० ९२ द्वादशं पापस्थानकम्। ज्ञाता० ७५ | वाचिककलहः । प्रश्न० ९७ । भंडणं, विवादो निशी० ३५अ कलहकर - कलहकर :- भण्डनकरणशीलः । आव० ४९९ । कलहकरत्वं- कलहहेतुभूतकर्त्तव्यकारित्वम्षोडशममसमा-धिस्थानम् । प्रश्न० १४४ | कलहकारी - आत्मना कलहं करोति तत्करोति येन कलहो भवति, सप्तदशममसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ | कलहगे - कलभकः । ओघ० १५८ | [33] कला मात्रा सूर्य ८ धनुर्वेदादिः । प्रश्न०६४ अंशः । स्था० ४९७ | योजनस्यैकोनविंशतिभागच्छेदनाः एकोनविंशतिभागरूपा इति भावः । सम० ३७ | विज्ञानम् । सम• ८३ । वट्टचणया । दशकै० ९२ वहचणगा। निशी. १४४ स्था० ३४४ द्विसप्ततिसु निपुणा लेखादिका प्रश्न ९७५ कलाइरिय कलाचार्यः उत्त०] १४८० कलाओ— कलादः। आव० ३७३ | कलनानि कलाः, विज्ञानानि जम्बू- १३६१ कलाचिका - हस्तमूलम्, कटकं, आभरणविशेषः । प्रज्ञा० ८८ कटकम् । जीवा० १६२ | कलाद- सुवर्णकारः निशी० ४३ अ कलादो नाम्ना मूषिकारदारक इति पितृव्यपदेशेनेति । ज्ञाता० १८७ कलाय– कलादः–सुवर्णकारः । बृह० १०७ आ। ज्ञाता १४२॥ प्रश्न० ३०| वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ कलायाः-चणकाकारा धान्यविशेषाः । उपा० ५ | कलाया- कलायाः वृत्तचणवादि । भग. २७म कलायकाः- वृत्तचणकाः । दशवै० १९३। कलायाःचणकाकारा धान्य- विशेषाः । उपा० ५| | कलालकुलं कलालकुलम् । आव० ३९६ ॥ कलाव - कलापः- ग्रीवाभरणविशेषः । उपा० ४४। कलापःकण्ठाभरणविशेषः। भग० ४५९ | कलापः - भूषणविधिविशेषः । जीवा २६९॥ कण्ठाभरणविशेषो मेखलाकलापः । ऑप. फ्फा कलावओ कलापक:- अंशानां सवर्णनं सवर्ण, सवर्ण:सदृशीकरणं यस्मिन् सङ्ख्याने तत् कलासवर्णम् । स्था "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ४९६| कलिमलं-मलः। तन्दु कलिं- कलिः-एककः। सूत्र०६७। कलियोगकलिओगे-कल्योजकल्योजे पञ्चादयः। भग. कलिंग-कलिङ्ग-जनपदविशेषः, ९६४। करकण्डूत्पत्तिस्थानम्। उत्त. २९९। नैमित्तिकः। कलियोगतेओगे-कल्योजत्र्योजे राशौ सप्तादयः। भग० आचा० ३५९। कलिङ्गः-द्रव्य-व्युत्सर्गे देशविदेशेषः। ९६४ आव०७१६। जनपदविशेषः। प्रज्ञा०५५ देशविशेषः। कलियोगदावरजुम्मे-कल्योजद्वापरेषडादयः। भग. ओघ० २१। शिल्पसिद्धदृष्टान्ते देशविशेषः। आव०४१० | ९६४१ देशविशेषः। व्यव० ४१४ । कलुणा-करुणा-दयास्पदभूता, करुणं वा पालयतीति। कलिंगराया-कलिङ्गराजा-द्रव्यव्युत्सर्गेकरकण्डुः। आव० प्रश्न. १९। कृपास्थानम्। पिण्ड० १११। दीना। दशवै. ७१६) २४८१ रका। निशी. १०६अ। कलिंच-क्षुद्रकाष्ठरूपः। भग० ३६५। वंशकप्परी। बृह. ६८ | कलुणो- कृत्सितं शैत्यनेनेति निरुक्तवशात् करुणः, आ। वंसकपड्डी। निशी. ११६ आ। निशी. २२० । | करुणा-स्पदत्वात्, प्रियविप्रयोगादिदुःखहेतुसमुत्थः निशी० १०५ आ। शोकप्रकर्षस्व-रूपः करुणो रसः। अनुयो० १३५१ कलिंज-फलविशेषः। ओघ० १८७। वंसमयो कडवल्लो। कलुयावासा-द्वीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४१। निशी०५९ । कलुषसमापन्नः-नैतदेवमिति। विपर्यस्त इति। स्था० कलि-जधन्यः कालविशेषः। कलहो वा। अनुयो० १३८१ २४७ प्रथमो भगः बृह. १८०आ। एकः। उत्त० २४८। भग० कलुसमावन्ने-कलुषमापन्नः-नाहमिह कि ଓ୩ श्चिज्जानामीत्येवं स्वविषयं कालुष्यं समापन्न इति। कलिऊण-कलयित्वा-विज्ञाय। दशवै०५९। भग० ११२। नैतदेवमिति प्रतिपत्तिकः। स्था० १७६) कलिओए- एकपर्यवसितः कल्योजः। स्था० २३७। मतिमालिन्यमुपगतः। ज्ञाता०९५) कलिना-एकेन आदित एव कृतयुग्माद्वोपरिवर्तिना | कलुससमावन्न-कल्षसमापन्नः। भग०५४। ओजो-विषमराशिविशेषः कल्योजः। भग०७४५। | कलुसा- कलुषयन्त्यात्मानमिति-कलुषाः कषायाः। कलिओग-कल्योजः पर्वराशौ चर्भिर्भक्ते सति यद्यकः आव० ५८९| कलुषयन्ति-सहजनिर्मलं जीवं कर्मरजसा शेषो भवति तदा स राशिः। सूर्य. १६७। मलिनयन्ति इति कलुषाः कषायाः। बृह. १४१ आ। कलिओगकडजुम्मे- कल्योजकृतयुग्मे, चतुरादयः। भग० | कलेवर- मनुष्यशरीरम्। जीवा. १८०। शरीरम्। उत्त० ९६४॥ ३४१। शरीराणि। कलेवराणिकलिकरंडो- कलिकरण्डः कलीनां-कलहानां करण्ड इव असखयातखण्डीकृतवालुका-कणरूपाणि। भग०६७६| भाजनविशेष इव। परिग्रहस्यैकोनविंशतितमं नाम। कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि। जम्बू. २३। प्रश्न. ९२२ कलेवरसंघाडा-कलेवरसङ्घाराः-मनुष्यशरीरयुग्मानि। कलिकलंडो-कलिकारकः। आव० ३९०| जीवा० १८०। कलेवरसङ्घाटाः-मनुष्यशरीरयुग्मानि। कलिकलहो- कलिकलहः-राटीकलहः। प्रश्न० ४३। जम्बू० २३॥ कलिकलुसं-कलिकलुषम्। उत्त० ३३१। कलहहेतु कलुषं कलेसुयं-तृणविशेषः। सूत्र० ३०९। मलीमसम्। विपा० ४० कलो- चणओ। निशी० ६३आ। निशी. ४० कलिका- मुकुलं, कुङ्मलम्। जीवा० १८२। कलोवाइओ-पिच्छी-पिटकं वा। आचा० ३२७। कलितोए- एकपर्यसितः कल्योजः। स्था० २३८५ कल्कः-कक्क-कषायद्रव्यक्वाथ। आचा० ३६३। कलित्तं- कटित्रं-कृत्तिविशेषः। औप. १० कडित्रं कत्ति- | कल्पतपसा- तपविशेषः। आचा. २०३। विशेषः। ज्ञाता०६। कल्काचारः-आचारविशेषः। आचा० २०२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [34] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कल्पकः- वैनयिकीबुद्धौ अर्थशास्त्र मन्त्री। नन्दी० १६१| कल्याणप्रापकत्वात्-अहिंसाया एकोनत्रिंशत्तमं नाम। कल्पद्वयपर्युषितः- कल्पद्वयपर्युषितस्तु प्रश्न. ९९। शुभम्। मुक्तिहेतुः। उत्त० १२८॥ नियमाज्जिनकल्पि तत्त्ववृत्तया तथाविधविशिष्टफलदायी, अनर्थोपशमकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दिकप्रतिमाप्रतिपन्नानामन्य कारि वा कल्याणरूपं फलविपाकं वा। जीवा. २०११ तमः। आचा० २८० कल्याणं श्रेयः। भग० ११९। नीरोगताकारणम्। भग. कल्पनिका-शस्त्रविशेषः। भग० १९८१ सम० २९। १२५। अनर्थोपशमहेतुत्वम्। भग० १६३। कल्योमोकल्पनी-की-शस्त्रविशेषः। उत्त० ४६० क्षस्तमणति प्रापयतीति कल्याणं-दयाख्यं कल्पपालाः-सुरादिविक्रयकारिणः। मद्यपाः। व्यव० संयमस्वरूपम्। दशवै०१५८। गुणसम्पद्रुपः संयमः। ४२० दशवै० १८९। तत्त्ववृत्या तथाविधविशिष्टफलदायी, कल्पस्त्रियः- कल्पयोः-देवलोकयोः स्त्रियः कल्पस्त्रियः- | अनर्थोपशमकारी। जम्बू०४७। कल्याणं-समृद्धिः। स्था. देव्यः । स्था.१०० ११११ मंगलस्वरूपत्वात्-कल्याणम्। स्था० २४७। कल्पस्थितः- वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः। स्था० ३२४। अर्थप्राप्तिः । भग० ५४१। एकान्तसुखावहम्। जम्बू० कल्पा-संविग्नविहारः। बृह. ११३ अ। ११९| पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कल्यःकल्पातीतः-साधुभेदविशेषः। भग०४। अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति अणति कल्पावतंसिका-कल्पावतंसकदेवप्रतिबद्धग्रन्थपद्धतिः। प्रज्ञापयतीति कल्याणः मुक्तिहेतुः। उत्त० १२८कल्यं निर०२११ नन्दी. २०७४ आरोग्यं अणन्ति-शब्दयन्तीति कल्याणाः। स्था० ४६४। कल्पिका-या कारणे प्रतिसेवना क्रियते सा। व्यव० ४७) नीरोगताकरणम्। ज्ञाता०७६| कल्या-नीरोगी। नन्दी. १६११ कल्लाणकार-कल्याणकरणं, मङ्गलकरणम्। ज्ञाता० कल्याणकं- यदासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः २२० सकलसुरासुरेन्द्रा जीतमितिविधित्सवो युगपत् कल्लाणग-णाम ओहारो। निशी० ११३आ। निशी. ७६ ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते। जम्बू. १५६। । कल्याणकं-अनुपहतं प्रवरम्। उपा० २६। कल्ल- कल्यः-अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षः। उत्त० १२८१ | कल्लाणपुक्खल-कल्यां-आरोग्यं कल्यमणतीति प्रत्यूषः। आव० १४८१ नीरोगया मोक्खो । दशवै. ७१। कल्याणं, पुष्कलं-सम्पूर्णं च कल्याणपुष्कलम्। आव. कल्यं श्वः, प्रादुः प्राकाश्ये च। ओघ० २६। सुखमारोग्यं | ७८८ शोभनत्वं वा। सूत्र० ३८३। कल्यं पूपकम्। ओघ० १७२, | कल्लाणयं- कल्याणकं-कल्याणकारि। जीवा० १६२ १७३। कल्ये। आव० ८५ कल्यं-आरोग्यम्। आव. ७८८1परमवस्त्रलक्षणोपेतम्। जीवा. २६९। श्वः। भग० १२७| कल्यः, मोक्षः। उत्त० १२८ दशवै. | कल्लाणी- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२ १५८ कल्यो-नीरोगः। चिन्तादिनापेक्षया दवितीयदिने। | कल्लालघर-कल्पपालगृहम्। अनुयो० १४२ उत्त० ४७६। कल्लालत्तणं- कौलालत्वं-सुराविक्रेतृत्वम्। आव० ८२९। कल्लसरीरा-कल्यशरीराः, पटुशरीराः। स्था० २४७। कल्लुगा- कृन्तकाः। निशी० ८० आ। नदीपाषाणेषु कल्लाकल्लिं- प्रतिप्रभातम्। उपा०४०। प्रतिदिनम्। उत्पद्यमाना द्वीन्द्रियविशेषाः। बृह. १६२ आ। ज्ञाता० १४९। कल्ये च कल्ये च अदिनमिति कल्लयावासा-द्वीन्द्रियविशेषः। जीवा. ३१| कल्याकल्यिं। विपा० ५१, ५८१ कल्लेदाणिं-नित्यं| निशी. १४४ आ। कल्लाणं-कल्यम्-आरोग्यं अणति-शब्दयतीति कल्लोलं- फलविशेषः। प्रश्न. १६२ कल्याणं। आव० ७८८ कल्याणं-एकान्तसुखावहम्। कल्हाडए- कल्हाडकः। गोरथकाः। बृह० १३८ आ। जीवा० २७८। इष्टार्थफलसंप्राप्तिः । सूत्र. ३८३। कल्हारे-जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ कल्याणहेतुः। सूर्य० २६७। अर्थहेतुः। औप० ५। | कल्होडः- गोरथकः। दशवै० २१७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कवइय-कवचिका-सन्नाहविशेषः। औप०६२भग. | कविकच्छु-कविकच्छूः-तीव्रकण्डूतिकारकः फलविशेषः। ३१७ प्रश्न. १६४१ कवए- कवचः कङ्कटः। भग० ३१८ तनुत्राणम्। जम्बू० | कविकच्छू-कपिकच्छूः-खज्र्जुकारी। ज्ञाता० २०४। २१९। कविचियाओ-कलाचिकाः। भग. १४८ कवचं-ककट-आवरणं। जीवा० १९३। सन्नाहविशेषः। | कविट्ठ-कपित्थं फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६४। फलविशेषः। ज्ञाता०२२११ आव०७९८ प्रज्ञा० ३२८ भग०८०३। कपित्थफलम्। कवड-कपट-वेषपरावर्तादिर्बाह्यो विकारः। आव० ५६६। दशवै. १८५। बहुबीजफलविशेषः। प्रज्ञा० ३२ देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणम्। सूत्र. ३२९। कविठ्ठपाणगं-पानकभेदः। आचा० ३४७ वेषभाषावै-परीत्यकरणम्। प्रश्न. ५८ कविठ्ठलता-कपित्थलता। आव. १७३। भाषाविपर्ययकरणम्। प्रश्न. २७। वेषाद्यन्यथात्वम्। कवित्थ- कपित्थं फलविशेषः। उत्त०६५३। ज्ञाता० १५८। वेषादिविपर्ययकरणम्। ज्ञाता० २३८ कवियच्छ- कपिकच्छ:-कण्डविजनको वल्लीविशेषः। परवञ्चनाय वेषान्तरकरणम्। जम्बू. १६९। जीवा. १०७ नेपथ्यभाषाविपर्ययकरणम्। ज्ञाता०८० वञ्चनाय कविल-कपिलः-पक्षविशेषः। ज्ञाता०२३१। प्रश्न. ८1 वेषान्त-रादिकरणम्। भग० ३०८ सुस्थिताचार्याणां शिष्यः। निशी. ३१। ग्रन्थार्थकवडसड्ढओ-कपटश्राद्धः। आव० ७९९। परिज्ञानशून्यः। परिव्राजकविशेषः। औप० ९१। कवड्डगा-ताममयं नाणकम्। निशी० ३३० अ। राजपुत्रविशेषः। मरीचिशिष्यः। आव० १७० स्थिकवय-कवचः कङ्कटः। भग० १९३। सन्नाहविशेषः। ताचार्यशिष्यः वेदत्रयानुभववान्। बृह० ९८ । क्षुलकजम्बू. २०५। तन्त्राणम्।जीवा० २५९। परिकरः। प्रश्न. श्रमणः। निशी० ७८ अ। राजगृहनगरे ब्राह्मणः। व्यव० ७५ १६६। नगरबाहिरिकायां ब्राह्मणः। आव०६९१। कवर्गप्रविभक्तिकं-पञ्चदशो नाट्यविधिः। जम्बू० ४१७) कौशाम्ब्यां काश्यपपुत्रः। उत्त० २८६। लोभेदृष्टान्तः। कवल-आहारविशेषः। स्था० ९३। ट्यण्डकमात्रा। क्षुल्लविशेषः। निशी. ७८ अ। कपिलः। उत्त० २८६) ओघ०१८२| कवलः। आव०८४४। चम्पानगर्यां कपिलनामा वासदेवः। ज्ञाता०२२२१ कवलकः-उपकणभेदः। आचा०६० कविला-नामविशेषः। विनयबहमानचतर्थभङ्गे कवलग्गाहो-कवलग्राहः-गलकण्टकापनोदाय दृष्टान्तः। निशी ८ अ। कपिला-दानस्यादात्री स्थूलकवलग्र-हण, मखविमर्दनार्थं वा श्रेणिकस्य दासी। आव०६८१| दंष्ट्राधःकाष्ठखण्डदानम्। विपा०८१। कविलिए- कृष्णपुद्गलस्य भेदविशेषः। सूर्य २८७। कवल्ली-कवली-गुडादिपाकभाजनम्। विपा०५८ कविल्ली-कटाहः-लोहभाजनविशेषः। आव० ३६९। कवल्लीओ- लोही। निशी. ३१७ अ। मण्डनकादिपचनिका लोही। अनुयो० १५९। कवाड-कपाटं-द्वारयन्त्रम्। दशवै०१८४ कपाटं- कविसाणए- कपिशायनं-मदयविशेषः। प्रज्ञा० ३६४। प्रतोलीद्वा-रसत्कम्। जीवा. १५९। कपाटानि कविसीसं-कपिशीर्षकं-प्राकाराग्रम्। आव० २३१| प्रतोलीद्वारसत्कानि। प्रज्ञा० ८६। कविसीसए-कपिशीर्षकः-प्राकाराग्रम्। जम्बू. ३२० कवाडोभिन्न-यद् पिहितं कपाटं उद्भिद्य -उद्घाट्य कविसीसग-कपिशीर्षकः। ज्ञाता० ९९। जीवा० २१९। साधुभ्यो दीयते तत् कपाटोद्भिन्नम्। पिण्ड० १०५ कविहसितं-आगासे विकृतरूपं म्खं वाणरसरिसं हासं कवाल-कपालं-कर्परम्। सूत्र. २९८ घटखर्परादि। करेज्ज। निशी० ७५। आचा०३११ कविहसियं-कपिहसितं, यदाकाशे वानरसदृशं विकृतं कविंजला-लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। मुखं हासं कुर्यात्। आव० ७५०। अकस्मान्नभसि कविकं-खलिनम्। आव० २६१। दशवै०४९। ज्वलद्धीमशब्द-रूपम्। जीवा० २८३। कपिहसितं-अनभ्रे मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [36] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] या विद्युत् सहसा तत् कपिहसितम्। भग० १९६| इति कषं कम। स्था० १९३। कसः-चर्मयष्टिका। प्रश्न कविहसिया-कपिहसितानि, अकस्मान्नभसि २२ कशा-आयुष उपक्रमे दवितीयभेदः। आव. २७३। ज्वलद्धीमशब्द-रूपाणि। अनुयो० १२१। संसारः। आचा०६८ कश:-चर्मयष्टिः । उत्त०४८ कवेलुयं-कवेलुकम्। जम्बू० २३। चर्मदण्डः। जम्बू० २३५१ कवेल्ली-लोहकटाहम्। भग० २३८१ कस-कचवरं। ओघ०१८४| कवेल्लुक-भाव्यम्। आव० ५२१। कसट्टिया-कषपट्टः। भग० २१३। कवेल्लुयं-कवेल्लुकं-मण्डनपचनिका लोही। जीवा० १८०१ | कसप्पहारे- वर्धताडनानि। ज्ञाता० ८७। कवोड-कपोतः-पक्षिविशेषः। पिण्ड ७६| कसर-कशरः-खशरः। भग० ३०८1 कवोतक-कपोतकः। प्रश्न.1 कसाइज्जति-कषायन्ते। आव० १११ कवोय-कपोतकः। पक्षिविशेषः। भग०६९१। कपोतः- कसाइययं-कषायितकः। आव. २१९। पक्षिविशेषः। उत्त० ४५६। कसाईओ-कषायितः। आव० ३२३॥ कवोया-लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा० ४९। कसाए-कषायः कषायोदयः। प्रज्ञा० १३५ कृषन्ति विलिकवोलदेसो- कपोलदेशः-गण्डभागः। जीवा. २७३। खन्ति कर्मरूपं क्षेत्रं सुखदुःखशस्योत्पादनायेति कषायाः, कव्व-काव्यः कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थप्रतिबद्धग्रन्थः जीवमिति वा। प्रज्ञा० २९०। कर्षन्ति-हिंसन्ति परस्परं संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसङ्कीर्णभाषानिबद्धः, प्राणिनोऽस्मि-न्निति कषः-संसारस्तमयन्तेसमविषमार्द्धसमवृ-त्तबद्धतया गद्यतया चेति, अन्तर्भूतण्यर्थत्वादगमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कषायाः। गद्यपद्यगेयवर्णपदभेदबद्धः। स्था० ४५० ग्रन्थः। स्था० प्रज्ञा० २८५ अन्नरुचिस्तम्भन-कृत्कषायः। स्था० २६। २८८ कवेरभिप्रायः। अनुयो० १३५ कसाय-कषायं-प्रज्ञापनायाश्चतुर्दशं पदम्। प्रज्ञा०६) कव्वग-भाजनस्यावकल्पमपवृत्य। व्यव० ३०२ आ। वल्लादि। दशवै. १८० कव्वडं-कुणगरो। निशी० ७० आ। वाडवोपमकूड- कसायकलहो- कलहस्य द्वितीयो भेदः। निशी० २५१। सक्खिसमुब्भावियदुक्खछलव्ववहारतं कव्वडं। दशवै. | कसायकुसील- कषायैः कुशीलः कषायकुशीलः। भग० १५७ ८९०| कषायकुशीलः यस्य चञ्चसु ज्ञानादिषु कव्वालभयगो-तइओ भयगभेओ। निशी० ४४ अ। कषायैर्विराधना क्रियते सः, कुशीलस्य द्वितीयो भेदः। कव्वालो-खितिखाणतो उड़डमादी। निशी. ४४ आ। उत्त० २५६। कशा-बन्धनविशेषः। भग० १९३। दशवै. २६७। कसायदुद्दो-हंकारंतो। निशी० ४० अ। कसायदुष्टो यथा कषः-संसारः। जीवा. १५ सर्षपनालिकाभिधानशाकमर्जिकाग्रहणकुपितो कषपट्टकं-सुवर्णपरीक्षकपाषाणविशेषः। जीवा० १९१। मृताचार्य-दन्तभञ्जकः। साधुः। स्था० १६३| कषायः- रसस्य तृतीयभेदः। प्रज्ञा० ४७३। कसायपद- प्रज्ञापनायां चतुर्दशं पदम्। भग० ७४४। पीतरक्तवर्णाश्रय-रञ्जनीयवस्तु। जम्बू. १८९। कसायपच्चक्खाण-क्रोधादिप्रत्याख्यानं-तान् न कषायसमुद्घातः- कषायोदयेन समुद्घातः। जीवा० १७। करोमीति-प्रतिज्ञानम्। भग०७२७५ कस-कशः-वर्धविकारः। उत्त० ३६४। वर्षन्ति-हिंसन्ति | कसायपायाल-कषाया एवागाधभवजननसाम्येन परस्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः-संसारः। प्रज्ञा० २८५ | पातालमिव पातालं यस्मिन् सः-कषायपातालः। आव. कषः-चर्मदण्डः। जम्ब०१४७। कषः-वर्धः। प्रश्न १६४। ६०१ कष्यतेऽस्मिन् प्राणी पुनःपुनरावृत्तिभावमनुभवति । | कसायलोगो-कषायलोकः-औदयिकभावकषायलोकः। कषोपल-कष्यमाणं कनकवदिति कषः संसारः। उत्त० आचा०८४१ १९० कर्म भवो वा। आव०७७ कषति-हिनस्ति देहिनः | कषायसंकिलेस-कषाया एव कषायैर्वा सङ्क्लेशः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [37] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] असमाधिः कषायसङ्क्लेशः। स्था० ४८९। कह-कथा वाक्यप्रबन्धरूपा। उत्त०४२४। कथंकसायसंलीणया- कषायसंलीनता, संलीनताया द्वितीयो | केनप्रकारेण केनान्वर्थेनेति। सूर्य० २९२। भेदः। सा च तद्दयनिरोधोदीर्णविफलीकरणलक्षणा। | कहंतरं- कथान्तरम्। आव ५९२ उत्त. ४२५ उच्चउदयस्सेव निरोहो उदयं पत्ताणं वाऽफलीकरणं, जं इत्थ | स्वरः। बृह. २१३ । कसायाणं कसायसंलीनता एसा। दशवै. २९। कहकहकं- प्रमोदभरजनितकोलाहलम्। जम्बू०४१९। कसाया- कषः, संसारस्तस्मिन् आ समन्तादयन्ते- | कहकहेंति-कहकहायमानं-प्रहसितविशेषः। प्रश्न. ५२। गच्छन्त्ये-भिरसुमन्त इति कषायाः, यद्वा कषाया इव | कहग-कथकः सरसकथाकथनेन श्रोतृरसोत्पत्तिकारकः। कषायाः। उत्त० १९०| कृषन्ति-विलिखन्ति-कर्म-क्षेत्रं | जम्बू. १२३। कथकः। अनुयो०४६। सुखदुःख-फल-योग्यं कुर्वन्ति-कलुषयन्ति वा | कहणविहि-कथनविधिः, कथनप्रकारः। आव० ८६२। जीवमिति निरुक्तविधिना कषायाः। स्था० १९३1 | कहणविही-कथनविधिः, कथनप्रकारः। आव०८०३। कलुषाः। ५८९ कषः-संसार-स्तमयन्ते | कहणा-धर्मकथालब्धिसंपन्नः। ओघ. ९३। गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः-क्रोधादयः परि- | कथनाकथनम्। आव. २३४॥ णामविशेषः। जीवा. १५ कहरत्तो-कथासु रक्तः-सक्तः कथारक्तः। ओघ० १२७। कसाहीया-मुकुलिअहिभेदविशेषः। प्रज्ञा०४६। कहल्लो-कभेल्लः-कर्परः। अन्त०१२। कसिण-कृत्स्नः -सम्पूर्णः। आव० ४९२, ५०० दशवै. कहा- संयमाराधनी या वाग्योप्रवृत्तिः । बृह. ४० अ। २३४। सूत्र० २७८१ व्यव० ३०१ आ। कृत्स्नः । भग० १४९। वाइगजोगेण संयमाराहणी कहा। निशी. १ आ। साधूवादं व्यव० ११८ आ। कृत्स्नं सर्वार्थग्राहकत्वात्। ज्ञाता० जल्पं वितडं वा एता तिण्णिवि कहा। निशी. २४० अ। १५३। कृत्स्नं कृष्णं वा उत्त०४८५ प्रधानभावम्। निशी | आख्यानकानि। सम० ११८ वचनपद्धतिः, १३६ आ। कृष्णं। क्लिष्टम्। दशवै० २३४| वण्णतो चरित्रवर्णनरूपा वा। स्था० १५६। ब्रह्मचर्यगुप्तेर्भेदः। जुत्तप्पमाणा। निशी०४९ अ। सदसं प्रमाणातिरिक्तं। आव० ५७२। कथा-वाक्यप्रबन्धः शास्त्रम्। सम०५५ निशी. १३८ आ। कथा-वार्ता। दशवै. ११४१ कसिणखंध- कृत्स्नस्कन्धः-परिपूर्णस्कन्धः। अनुयो. कहाहिगरणाइं-कथा-राजकथादिका अधिकरणानि च ४०१ यन्त्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानि। सम० ५५ कसिणधवलपडिवज्जगो-कृष्णधवलप्रतिपत्ता। आव० | कहिंथ- कुत्रात्र। उत्त० १६२ ३९४१ कहिय-कथितं-प्रबन्धेन प्रतिपादितम्। उत्त० ३४१। कसिणा-यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां कहियाइओ-कथितवान्। आव० २३७ तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्नारोपणा। सम०४७ कृत्स्ना । | कांक्षा- ऐहलौकिकपारलौकिकेष विषयेष्वाशंसा। तन्दु० यत्र झोषो न क्रियते। व्यव० १२४ आ। ७१८१ कसिणाओ- कृत्स्नाः , सम्पूर्णा अनुपहता। आचा० ३२३॥ | कांचणय- यस्मादुत्पलादीनि काञ्चनप्रभाणि कसिणे-घनमसृणानि यैः सूर्यो न दृश्यते। बृह. २४० अ। काञ्चननामानश्च देवास्तत्र परिवसन्ति ततः कसेरुगं- वनस्पतिविशेषः। आचा० ३४८१ काञ्चनप्रभोत्पलादियोगात् कसेरुमती-नदीविशेषः। व्यव. २२७ आ। काञ्चनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च सः काञ्चनकः। कसेरुया-जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ जीवा० २९१। कसेहि-परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कांचणिया-काञ्चनिका-राजधानीविशेषः। जीवा० २९२॥ कष्टतपश्चरणादिना कृशं करु, यदि वा “कष" कस्मै | कांजिक-जहण्णेणं ज्ञावे कोदवोदणो जूह, च तंदुलोदकं कर्मणेऽलमित्येवं पर्या-लोच्य यच्छक्नोषि तत्र मुद्-गरसो। निशी० ३२६ आ। नियोजयेरित्यर्थः। आचा. १९१| | काइआण-निकाय। जम्बू० ७५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [38] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) काइओ - कायिकः । आव० ७७८ । काइमाईया गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२॥ काइय- कायिकी प्रश्रवणम् आव० ६३४॥ काइयसमाहि- कायिकीसमाधिः । आव ६१८ काइया चीयत इति कायः शरीरं यत्र भवा तेन वा निर्वृता कायिकी, क्रियायाः प्रथमो भेदः । भग० १८१| आव० ६११ । चीयते इति कायः शरीरं काये भवा कायेन निर्वृत्ता कायिकी । प्रज्ञा० ४३५ | क्रियाः - व्यापारविशेषः, तत्र कायेन निर्वृत्ता कायिकी कायचेष्टेत्यर्थः । सम० १० काइयामत्तो- कायिकीमात्रकम् । आव० ६३३ | काईया- कायिकी । आव० ५६ । काउंबरि- कादुम्बरि बहुबीजकवृक्षविशेषः प्रजा. ३ काउंबरिय- वृक्षविशेषः । भग० ८०३३ काउंबरो काकोदुम्बरखादिमवृक्षविशेषः आव• ८२८ काउज्जुय- कायर्जुकः- कायेन ऋजुरेव ऋजुकः । उत्तः ५९० | आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) काउज्जुवया ऋजुकस्य अमायिनो भावः कर्म वा ऋजुकता कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता । स्था० १९६ । काउड्डावणे कार्याकर्षणहेतुः । ज्ञाता० १९९ । काउदर- काकोदरः - दर्वीकरसर्पविशेषः । प्रश्न० ८| काउय- कपोतः बहुकृष्णरूपः । प्रज्ञा० ८० काउलेसा कपोतलेश्या कपोतवर्णा लेश्या धूम्रवर्णा । स्था० १७५। काउस्सग्गो - कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः । आव० ७७८ । काऊ लोहे धन्यमाने या कपोतः बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्वणः । जीवा. १०३ | लेश्या कायवान् । आचा० २३१| काऊअगणि कृष्णाग्निः । सम० १३६॥ काऊअगणिवण्णाभा– कृष्णाग्निर्लोहादीनां ध्यायमानानां तद्वर्णवदाभा येषां ते कृष्णाग्निवर्णाभाः । सम० १३६ ॥ काए- काय :- शरीरं, देहः, बोन्दी, चयः, उपचयः, सङ्घातः, उच्छ्रयः समुच्छ्रयः, कडेवरं, भस्त्रा तनुः, पाणुरिति । आव ०७६७ पर्यायः सामान्यरूपो निर्विशेषणो जीवत्व लक्षणः विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षणः । प्रज्ञा० ३७9५१ अष्टाशीत पञ्चत्रिंशत्तमो ग्रहः। जम्बू० ५३८ । कापोतिका । बृह १०१ अ । काकः - वायसः । ज्ञाता० २०५ | कावोडी । निशीο मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] १८७ अ । कवोडी | निशी० १८ अ । अष्टाशीत्यां पञ्चत्रिंशत्तमो महाग्रहः । स्था० ७९| कुहणविशेषः । प्रज्ञा० ३३| काओ - कायः, जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो विशेषरूपो वा पर्यायविशेषः जीवा० १४०| काओ अरा- दर्वीकरसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ | काओली - साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३, । काकंदी- काकंदी-सुविधिनाथजन्मभूमिः । आव० १६० काकंधे- अष्टाशीत्यां महाग्रहे षट्त्रिंशत्तमः । स्था० ७९ । काक- भिक्षायां दृष्टान्तः । व्यव० १६३ आ । काकजंघा - काकजंघा - वनस्पतिविशेषः । सा हि परिदृश्यमानस्नायुका स्थूलसन्धिस्थाना च भवति इति तया जङ्घ- योरुपमानम्। अनुत्त० ४। काकणिरयणे- चक्रवर्त्तिनः सप्तमेकेन्द्रियरत्नम् । स्था [39] ३१८| काकणी- सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनिः । स्था• ४७१ काकतालीयम् - अवितर्कितसम्भवः, न्यायविशेषः । आचा० १८ काकधडो- काकधृष्टः आक पापान काकन:- पञ्चमं महाकुष्ठम्। प्रश्न. १६९। काकनाद- कुष्ठविशेषः । आचा० २३५| काकमुख रथायभागः । जम्बू. २४९१ काकपद- मणिलक्षणविशेषः । जम्बू० १३८| काकलि- वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ | काकली - मनोज्ञगीतादि। उत्त० ६३३ | सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनि। स्था० ४७% काकस्सर - श्लक्ष्णाश्रव्यस्वरम् । स्था० ३९६ । जम्बू ० ४० काकिणी - राज्यम् । बृह० १५४ अ । काकुः । जीवा० २६१| प्रज्ञा० २४७ काकूद- तालुकः। जम्बू० ११३ | जीवा० २७३ | काकुयं काकुदं तालु प्रश्न. ८२ काकोदरो - काकोदरः, दर्वीकसरसर्पविशेषः । जीवा० ३९ | काकोली- साधारणवनस्पतिविशेषः । आचा० ५७१ कागंदी- काकन्दी नगरीविशेषः । खेमतेऽवि गाहावतीनगरी अन्त० २३| जितशत्रुराजधानी। अनुत्त० २। भद्रसार्थवाही - स्थानम्। अनुत्त०८। कागंदीए काकन्दीनगरी तद्भवः । ज्ञाता० १६३ "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कागजंध-जहिं मणीपडितो तलागे तत्थ रत्ताणि | काण-काणः, भिन्नाक्षः, स्फुटितनेत्रः। दशवै० २१५। जाणिताणि कायाणि भण्णंति। निशी० २५४ आ। आच० ३८९। कागणिमंसं-काकणीमांसं लक्ष्णमांसखण्डम्। औप० । काणओ- चक्षुर्विकलः। बृह. ११९ अ। ८७। काकणीमांसं-तबेहोत्कृत्त हस्वमांसखण्डम्। विपा० काणकक्रयी- बहुमूल्यमपि अल्पमूल्येन चौराहृतं काणकं ४७ लक्ष्णखण्डपिशितम्। प्रश्न ५९ हीनं कृत्वा क्रीणातीत्येवंशीलः। प्रश्न०५८ कागणिरयणं-काकणीरत्नम्। चक्रिणो रत्नविशेषः। काणगं- व्याधिविशेषात्सच्छिद्रम्। आचा० ३४९। जम्बू. २३६। काणग-काणकः-चोरितमहिषः। व्यव० २३१ आ। कागणिलक्खण-वासप्ततौ कलायां काणगमहिसो-जो चारिओ स काणगमहिसो। निशी० ४३ वाचत्वारिंशत्तमा। ज्ञाता० ३८ आ। कागणी-रज्जं। निशी० २४३ आ। काकणी, चक्रिणो काणच्छि-काणाक्षः। निशी. २५७ अ। काणाक्षः। आव. रत्नविशेषः। जम्बू. १३८। सपादा गुञ्जा। अनुयो० १५५। २१८ काणाक्षि। आव. २१८ रुप्पमयं। निशी० ३३० अ। काणण-सामान्यवृक्षजातियक्तानि नगराभ्यर्णवर्तीनि। कागणीरयणे- काकणीरत्नम्-सुवर्णाष्टकनिष्पन्नम्। स्त्रीणां पुरुषाणां वा केवलानां परिभोग्यानि वा। येभ्यः अनुयो० १७१। परतो भूधरोऽटवी वा तानि सर्वेभ्योऽपि वनेभ्यः कागभुत्तं-काकभुक्तं यथा काक उच्चित्योच्चित्य पर्यन्तवर्तीनि वा। शीर्णवृक्षकलितानि वा। अनुयो. विष्ठादे-मध्यावल्लादि भक्षयति, विकिरति वा १५९। स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु काकवत्सर्वं, काकवदेव कवलं प्रक्षिप्य मुखे दिशो वनविशेषेषु अथवा-यत्परतः पर्वतोऽटवी वा भवति तानि विप्रेक्षते। ओघ. १९२ काननानि। ज्ञाता०६७। नगराद् दूरवर्तिवनखण्डः। कागलि-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२| भग० ४८३। काननं-बृहवृक्षाश्रयैर्वनम्। उत्त०४५१| कागवन्नो-काकवर्णः-शिल्पसिद्धदृष्टान्तः सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नं काननम्। राज० ११२। जितशत्रोरपरनाम। आव०४१० काननं सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नम्। जीवा० २५८१ कागस्सर-काकस्वरं लक्ष्णाश्रव्यस्वरम्। अनुयो० १३२ सामान्यवृक्षोपेतं नगरासन्नं च। प्रश्न. १२७। लक्ष्णस्वरेण काकस्वरम्। जीवा० १९४। सामान्यवृक्षो-पेतनगरासन्नवनविशेषः। प्रश्न०७३। कागा- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। दूरवर्तिवनम्। आव० १६८। सामान्यवृक्षसंयुक्तं कागिणी-काकिणिः-विंशतिकपर्दकाः। उत्त. २७२। नगरासन्नं वनम्। भग० २३८५ चक्रवतिरत्नम्। उत्त०६५०, २७६। सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्नानि काननानि। कागिणीमंसगं- काकिणीमांसकं लक्ष्णमांसखण्डम्। ज्ञाता०३६। सूत्र. १२५। लक्ष्णमासम्। आव०६५१। काणयं-काणकं-हीनम्। प्रश्न. ५८ कागो-काकः-वायसः। आव० ८५९। काणव-वनस्पतिविशेषः। भग०८०३। कारावान- गृद्धः-मूर्छितः। आव. ५८७ काणिट्ट- लोहमय्य इष्टकाः। व्यव. १०६ आ। काच-काचः-पाषाणविकारः। औप० ९३। पाषाणमय्यः पक्वेष्टिका वा बलिका महत्यश्च कणिका, काचनं- बन्धनम्। स्था० २२२१ तन्मयगृहकारापकः। बृह० ५० आ। काजिक-आरनालं। बृह. २६७आ। सौवीरकम्। स्था० काणियं-काणितम्। आव. ३९६। अक्षिरोगः। आचा. १४८ अम्लम्। स्था०४९२ आरनालम्। ओघ०१५४१ २३३ काजिकपत्रं- काजिकेन बाष्पितम्। बह. २६७ आ। | काणो-काणः-दीपकाणः, फरलः। प्रश्न. २५ काञ्जिका-आरनालम्। ओघ० २१५) काण्डं-धनुः। भग० ९३ काडिअं- कौट्यौ, उभयप्रान्तौ। जम्बू. २०११ | कातिता-कायिकी, कायचेष्टा। स्था० ३१७) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [40] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कातिते-कायिक-शारीरिकम। इडापिङ्गलादि कलासु दृष्टम-द्भुतदर्शनमाश्रित्य श्रुतं चानुभूतं च प्राणतत्त्वम्। स्था०४५२। संस्तवः परिचयश्चेति कामकथा। दशवै० १०९, १०७ कादंबक-कादम्बाः , हंसविशेषाः। प्रश्न.1 कामकामे-कामकामः-कामेन-स्वेच्छया कामोकादम्बा- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७०| मैथुनसेवा यस्य सः-अनियतकाम इति। प्रज्ञा. ९६| कादूसणिया-कम्-आत्मानं दूषयति कामकूडं- कामकूटं-विमानविशेषः। जीवा० १३८५ तमस्कायपरिणामेन परिणमनात् कदूषणा सैव कामगद्दहो-कामगर्दभः-मैथने गर्दभ इवात्यन्तासक्तो दूषणिका। भग. २६९। जनः। पिण्ड० १३११ काननं- अरण्यम्। दशवै० १४७ कामगम-कामगमः-विमानविशेषः। औप० ५२। काननद्वीपः- जलपत्तनम्। उत्त०६०५। कामगमः-स्वेच्छाचारी। प्रज्ञा. ९६। कामगमःकापालिक- दृष्टान्तविशेषः। निशी० १८० अ। यानविमानविकर्वको देवविशेषः। जम्बू. ४०५। चरगविसेसो। निशी० ३१ अ। कामगुण-काम्यन्त इति कामाःकापालिका-अस्थिका। व्यव. २०६अ। शब्दरूपरसगन्धस्पर्शास्त एव कापिशायितं-मदयविशेषः। जीवा. २६५ स्वस्वरूपगुणबन्धेहेतुत्वाद् गुणाः कामगुणाः। आव. कापिशायणं- कापिशयनं-मदयविशेषः। जीवा० ३५१। ६१५| कामस्य-मदनाभिलाषस्य अभिलाषमात्रस्य वा कापुरिसा-कापुरुषाः, कुत्सितनराः। ज्ञाता०५० सम्पादका गुणाः-धर्माः द्रलानां, काम्यन्त इति कापोती-भारकायः, क्षीरभृतकम्भवयोपेता कापोती कामाः ते च ते गुणाश्चेति वा कामग्णाः । स्था० २९१। भण्यते। आव ७७० शब्दादयः। प्रश्न. ९७। काम्यन्ते-अभिलाषन्ते इति काम- शब्दरूपगन्धाः। आव०८२५। काम्यमानत्वात् कामगुणाः, कामस्य वा मदनस्योद्दीपका गुणाः कामाः-मनोज्ञशब्दादयः। उत्त० ३१८ विषयाः। उत्त. कामगुणाः शब्दादय इति। सम० १११ कामगुणम्। आव० २७७। स्त्रीसंगः। उत्त० २४३। मैथुनसेवा। जीवा० १७३। २००। कामगुणः। मकरकेतुकार्यम्। अब्रह्मणस्त्रिंशत्तमं मनोज्ञशब्दादिकः। उत्त० १८८1 लोमपक्षिविशेषः। जीवा० नाम। प्रश्न०६६। आचा. ९९। भग०६६४। ४१। इच्छानङ्गरूपः। कामः। आचा० ८९। इच्छाकामः- कामजलं-स्नानपीढम्। आचा० ३९७ ण्हाणपीढं। निशी. अप्राप्तवस्तुकाक्षारूपः। उत्त०६६४। स्वेच्छा। प्रज्ञा० | ८३आ। ९६। इच्छा। आव० ३६५ रोगः। दशवै. ८६। | कामजाए-मनोज्ञशब्दादीनां प्रकारः समूहो वा। उत्त. वाञ्छामात्रम। भग०८६। मदनाभिलाषः। स्था० २९१।। २९१। इच्छा-अनुमतो वा। निशी० ७९। अभिधारियो-अनमयो | कामज्झयं- कामध्वज, विमानविशेषः। जीवा० १३८१ वा। निशी०१४ | अवधृतार्थे द्रष्टव्यः। निशी. २३३ अ० | कामज्झया-कामध्वजा-वणिग्ग्रामे गणिका। विपा०४५ कामं अनुमतम्। आव० ५२७। सम्मतम्। पिण्ड०४५ | कामइढितगणे- महावीरस्य नवगणेष सप्तमः। स्था० अभ्य-पगमः। सूत्र. ५३। विमानविशेषः। जीवा० १३८1 ४५१ तवेच्छया। आव० ४०३। कामशब्दः-मकरध्वजे अवधृतौ | कामत्थिआ-कामार्थिनः मनोज्ञशब्दरूपार्थिनः। जम्बू. च। व्यव० १४५ । कामौ-शब्दरूपे। उपा०८। कामः- २६७। शब्दरूपार्थिनः ज्ञाता० ५८१ इच्छा-मदनभे-दभिन्नो विषयः। आव०६६२। कामदेव-उपासकदशायां द्वितीयमध्ययनम्। उपा० १। कामकंतं-कामकान्तं-विमानविशेषः। जीवा० १३८ येन श्रुते सामायिकमवाप्तम्। आव० ३४७। कामकमा कामः-अभिलाषस्तेन क्रामन्तीति कामध्वजगणिका- गणिकाविशेषः। स्था० ५०७। कामक्रमाः। उत्त०४१० कामप्पभं- कामप्रभं विमानविशेषः। जीवा० १३८1 कामकहा- कामकथा-रूपं सन्दरं, वयश्चोदग्रं, वेषः | कामफासे-कामस्पर्शः-अष्टाशीतौ ग्रहे उज्वलः, दाक्षिण्यं, मार्दवं, शिक्षितं च विषयेष, शिक्षा च | सप्तचत्वारिंशत्तमः। जम्ब०५३५। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [41] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम - सागर - कोषः ( भाग :- २) [Type text] कामभोग- काम्यन्त इति कामाः, भुज्यन्त इति भोगाः, कामल - और्णिकं, वस्त्रम् । व्यव० १९२ अ । ततश्च कामाश्च ते भोगाश्च कामभोगाः- | कामलालसा - विषयलम्पटाः । उत्त० ५३०| अभिलषणीयशब्दादयः, यदवा काम च शब्दरुपाख्यो कामले कामलेश्यं विमानविशेषः । जीवा० १३८० भोगाच स्पर्शरसगन्धाख्याः काम-भोगाः । उत्त० २४३ कामवन्नं कामवर्ण-विमानविशेषः । जीवा. १३८ कामः इच्छा भोगाः शब्दादयनुभवाः कामप्रतिबद्धा वा कामविणए शब्दादिविषयसम्पत्तिनिमित्तं तथा तथा भोगाः कामयोगाः । आक ३६५१ कामेषु स्त्रीसङ्गेषु प्रवर्तनं कामविनयः । उत्त० १७ ॥ भोगेषु धूपनविलेपनादिषु सः । उत्त० २४३॥ कामों च कामवृक्षः- वृक्षोपरिजातो वृक्षः । सूत्र० ३५२| शब्दरूपलक्षणाँ भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः कामसमणुन्ने कामसमनोज्ञः कामा इच्छामदनरूपाः अथवा काम्यन्त इति कामाः - मनोज्ञास्ते च ते भुज्यन्त सम्यग् मनोज्ञा यस्य स, अथवा सह मनोज्ञैर्वर्त्तत इति इति भोगाः शब्दादिभोगो मदनसेवा वा औप० ४३५ समनोज्ञः कामैः सह मनोज्ञः कामसमनोज्ञः, यदिवा भगः ९२५ कामौ च शब्द रूपे भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामान् सम्यगनु पश्चात् स्नेहानुबन्धाज्जानाति सेवत कामभोगाः, अथवा काम्यन्त इति कामा मनोजा ते च ते इति कामसमनुज्ञः । आचा० १२५ | भुज्यन्त इति भोगाश्च शब्दादय इति कामभोगा । स्था० कामसिंगारं- कामश्रृङ्गारं विमानविशेषः । जीवा० १३८ ९९१ कामभोगः, मदनकामप्रधानः शब्दादिविषयः । कामसिद्धं कामशिष्टं विमानविशेषः । जीवा० १३८ ॥ विपाककटुश्च दशकै २७ कामा- काम्यन्त इति कामाः स्त्रीगात्रपरिष्वङ्गादयः । कामभोगतिव्वाभिलासे- काम्यन्त इति कामाः सूत्र० २९५| इच्छामदनरूपाः, गन्धालङ्कारवस्त्रादिरूपा शब्दरूपगन्धा भुज्यन्त इति भोगाः – रसस्पर्शाः वा। सूत्र० १८४ | कामभोगेषु तीव्राभिलाषः तदध्यवसायित्वं कामभोग तीवाभिलाषः । आकटरपा कामभोगमारो कामभोगैः सह मारो मदनः मरणं वा कामभोगमार:- अब्रह्मण एकविंशतितमं नाम । प्रश्न० कामावत्तं कामावर्त विमानविशेषः । जीवा. १३८ कामासंसपओग- कामाशंसाप्रयोगःशब्दादावभिलाषकरणः स्था० २७पा कामिंजुया लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९| कामियसर - सरः विशेषः । बृह० ४७ आ । कामी- पंचविसयाकामेतित्ति कामी | निशी० १६० अ कामे कामयते - सेवते । दशवै० १९८ कामेयगो- लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ | कामोत्तरावडिंसए कामोत्तरावतंसकः, विमानविशेषः । जीवा० १३८१ ६६। कामभोगरसगिद्धो कामभोगरसगृद्धः कामभोगेषु अभिहित स्वरूपेषु रसः- अत्यन्तासक्तिरूपस्तेन गृद्धास्तेष्वभिका-ङ्क्षावान्। उत्त० २९५ । कामभोगासंसप्पओगे कामभोगाशंसाप्रयोगःकामभोगा-भिलाषप्रयोगः । आव० ८३९| काममहावण - वनविशेषः । भग० ६७५| काममहावणे - काममहावनं - वाणारस्यां चैत्यविशेषः । अन्त० २५ | ज्ञाता० २५१| कामरए - कामलक्षणं रजः कामरजः । कामरतः । कामानुरागः । भग०४८३१ कामरूवविउब्विणो कामरूपविकरणाः, यथेष्टरूपाभिनिर्वर्त्तनशक्तिसमन्विताः । उत्तः १८७ कामरुविणो- कामरूपिणः कामः - अभिलाषस्तेन रूपाणि कामरूपाणि तवन्तः विविधर्वक्रियशक्त्यन्विताः । उत्त० २५२1 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित काम्पिल्य- अङ्गदेशे नगरी। ज्ञाता० १२५ | पञ्चाला यत्र काम्पिल्यं - नगरम् । जाता० १२५ काम्पिल्यपुरं दुपदराजधानी प्रश्न ८७ कार्यदी- काकन्दी, पुरुषपुण्डरीकवासुदेवनिदानभूमिः । आव० १६३ | नगरीविशेषः । भग० ५०१ | | काय - जीवस्य निवासात् पुद्रलानां चितेः पुद्रलानामेव केषा-ञ्चित् शरणात्, तेषामेवावायवसमाधानात् कायःशरीरम् । आव० ४५६ | भूमिस्फोटकविशेषः । आचा० ५७। औदारिकादित्रयं घातिचतुष्टयं वा, अथवा चीयत इति कायः । आचा० २५८ । प्रचयः । स्था० २१७ | निकायः । [42] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कावा. उत्त०६९० महाकायः। सूत्र० २७७ कायः-राशिः। कायस्थितिः। सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा प्रदेशराशिः। भग० १४८ निजदेहः। आव० ५४७ कापोती, पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन भवनं सा। यया स्कन्धारूढया पुरुषाः। पानीयं वहन्ति। पिण्ड० ३६। प्रज्ञा० ३७५ चीयत इति कायः निकाय इति। उत्त. १८२१ कागः, कायठिई-कायस्थितिः-काय इति पृथिवीकायस्तस्मिन् काकविद्या। आव० ३१८ कायिकाभूमि गृहस्थसंबद्धां स्थितिः ततोऽनुवर्तनेनावस्थानम्। उत्त०६९०| आचा. पश्यति। ओघ. ५६। निकायः, पृथिव्यादिसामान्यरूपः। ८८ कायकालः। स्था० ३| कायस्थितिः-प्रज्ञापनायास्था०६७। औदारिकादिः शरीरः पृथिव्यादिषट् मष्टादशं पदम्। भग० ३५७ प्रज्ञा०६। जीवा० १४१| कायान्यतरो वा। भग० ३४७ वंसो। दशवे. १३१| कायणुवाए-जहा दगतीरे असंघसंवातिमेसु कायणुवाए। द्विपदादीनां प्रतिरूपम्। बृह० ६८ आ। निशी. १४८ आ। कायकालः-कायस्थितिः। स्था० ३। कायतिगिच्छा-कायस्य-ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्सा कायकिलेसो-कायक्लेशः-बाह्यतपो विशेषः। प्रतिपादकं तन्त्रं कायचिकित्सा। स्था०४२७ वीरासनादिभे-दरूपः। दशवै० २९। कायदुक्कड-कायदुष्कृतः-आसन्नगमनादिनिमित्ता। बाह्यतपःपञ्चमभेदः। भग० ९२१| आव०५४८1 कायकोक्कुईया-कायकौकुच्यम्, यत्स्वयमहसन्नेव | कायदुप्पणिहाणे-कायदुष्प्रणिधानम्5नयन-वदनादि तथा करोति यथाऽन्यो हसति। उत्त० कृतसामायिकस्या-प्रत्युपेक्षितादिभूतलादौ ७०९। करचरणादीनां देहावयवानामनि-भृतस्थापनम्। आव. कायकोडिया-काचो-भारोद्वहनं तस्य कोटी-भागः ८३४॥ काचकोटी तथा ये चरन्ति काचकोटिकाः। ज्ञाता० १५२। कायपरित्तो-कायपरीत्तः प्रत्येकशरीरी। जीवा० ४४६। कायकं-काचकं-कचकवृक्षफलम्। आव० ५३० कायपरीते-कायपरीतः यः प्रत्येकशरीरी स। प्रज्ञा० ३९४| कायगुत्ती प्रत्येकशरीरी। प्रज्ञा० १३९। गमणागमणपचलणादाणण्णसणप्फंदणादिकिरिया- कायबलिआ-कायबलिकाः क्षुधादिपरीषहेष्वग्लानीभवणगोवणं कायगत्ती। निशी०१७ अ। त्कायाः। औप० २८१ कायगो-क्रायकः। आव. ९७| कायबलिय-कायबलिकाः परीषहापीडितशरीरः। प्रश्न कायजोग-काययोगः-औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो | १०५ वीर्य परिणतिविशेषः। आव०६०६। कायभव-काये-जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव कायछक्कं-ककायषट्कं कायानां पृथिव्यादीनां षट्कं। । यो भवः जन्म सः कायभवः। भग०१३३ सम्य-गनुपालनविषयतयाऽनगारगणाः। आव०६६० | कायभावो-काचभावः-काचधर्मः। आव. ५२१ कायटिई- कायो नाम जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो | कायमओ-काचमयः। आव. ५५९। विशेषरूपो वा पर्यायविशेषस्तस्तिन् स्थितिः | कायमणिआ-काचमणि-कायः। आव०७६६| कायस्थितिः, यस्य वस्तुनो येन पर्यायेण | कायमणीय-काचमणिकः-कुत्सितः काचमणिः। आव. जीवत्वलक्षणेन पृथिवीकायादि-त्वलक्षणेन वाऽऽदिश्यते व्यवच्छेदेन यद्भवनं सा। जीवा० १४० कायमाणं-कायमानम्। ओघ०४६। कायद्विति-काये-निकाये पृथिव्यादिसामान्यरूपेण काययोग-औदारिकादिशरीरय्क्तस्यात्मनो स्थितिः-कायस्थितिः असङ्ख्योत्सर्पिण्यादिका। वीर्यपरिणति-विशेषः। आव० ५८३। सप्ताष्टभवग्रहणरूपा। स्था०६६। काय इव कायः। तत्र कायरए-आजीविकोपासकः। भग. ३७० सामान्यरूपो निर्विशेषणो जीवत्वलक्षणः, विशेषरूपो कायरा-कातराः-परीषहोपसर्गोपनिपाते सति नैरयिकत्वादिलक्षणस्तस्य स्थितिः-अवस्थानं विषयलोलुपा वा। आचा. १५३ चितावष्टम्भवर्जिताः। | ५२११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [43] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] ज्ञाता०५२ बाह्यकारणम्। प्रज्ञा० २२३। करोतीति कारणं-परोक्षार्थकायरिए-वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. १९९। निर्णयनिमित्तमुत्प-त्तिमात्रम्। स्था० ४९२ कारणंकायरिया-कातरिका-माया। सूत्र. १७| ज्ञाना-दिव्यतिरिक्तं कारणमाश्रित्य वन्दते तत कायवरो-काचवरः-प्रधानकाचः। प्रश्न. १५३ कृतिकर्मणि पञ्चदशो दोषः। आव० ५४४। इष्टार्थानां कायविसए-कायाणि-कायविसए। निशी० २५४ आ। हेतुः-कृषि पशुपोषण-वाणिज्यादिः। भग० ७३९) कायसंकिलेसे-कायमाश्रित्व सङ्क्लेशः-असमाधिः काय कारणः-हेतुः। प्रज्ञा० १८० सङ्क्लेशः। स्था० ४८९ कारणजाए- कारणजातः कारणप्रकारः। उत्त० २३५ कायसंवेहो-विवक्षितकायात्-कायान्तरे तुल्यकाये वा कारणपडिसेवि-अकृत्यं यतनया प्रतिसेवते इत्येवंशीलः गत्वा पुनरपि यथासम्भवं तत्रैवागमनम्। भग०८०९। कारणप्रतिसेवी। व्यव० ८। कायसंसिओ-कायसंसृतः-देहसङ्गतः। दशवै० १२७ । कारणभूता-प्रमाणभूताः। निशी. ३२० अ। कायसुखता-काये सुखं यस्यासौ कायसुखस्तद्भावः कारणविणासाभाव-कारणविनाशाभावः। दशवै० १२८१ कायसुखता। प्रज्ञा० ४६२। कारणविभागाभाव-कारणविभागाभावः कायाणि-जहिं मणी पडितो तलागे तत्थ रत्ताणि जाणि कारणविभागाभावत् न खल् जीवस्य पटादेरिव ताणि कायाणि भण्णंति। ते वा काये रत्ताणि कायाणि। तन्त्वादिकारणविभागोऽस्ति कार-णाभावादेव। दशवै. निशी० २५४ आ। क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः-कर्पासो १२८। कारणविरुद्धकार्योपलम्भानमानम्। स्था० २६३। भवति तेन निष्पन्नानि कायकानि। आचा० ३९४। कारणविरुद्धोपलम्भावनुमानम्। स्था०२६२।। कायापरीत्त-काधारणशरीरी। जीवा० ४४६। कारणसूई-याः-परव्यपरोपणादिकारणमुद्दिश्य कायिका-उच्चारभूमिः। आव०७८१प्रश्रवणम्। आव० कारयित्वा परस्य नखमूलादौ कुट्यन्ते ताः। ७९० कारणसूच्यः । बृह० २२३ आ। कारं-राजदेयं द्रव्यम्। भग० ४८१। कारणा-यातना। व्यव० २१० अ। कारंडग-कारण्डकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न कारणाई-कारणानि-विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि। कार- वैयावृत्यादिकरणः। बृह. ४३ अ, ५२ आ। ज्ञाता०११० कारओ-कारकः। विधायकः। उत्त० ३१३। कारणानि-ज्ञातानि। सम० १९८५ कारक- हेतुः। नं० १६५ कर्तारम्। बृह. १५८ आ। कारणानुपलम्भानुमानम्-न्यायविशेषः। स्था० २६३१ हेतुळजको वा। आव० ५९७। सिप्पी। | कारणिक-विवादनिर्णायकः। अनुयो० ३१। राजपुरुषाः। कारगं-करोतीति कारकं उदाहरणम्। ओघ०११। साधुः। | नन्दी०१५२, १५६। सम्यग्दर्शनादयनुष्ठाना। आचा०४१९ क्रिया। बृह. ५२| | कारणिय-कारणिकः, न्यायकर्ता। आव०७१८ गुरुवैयाकारगसुत्तं- कारकसूत्रं। सूत्रस्य द्वितीयो भेदः। बृह० वृत्यादिना व्यापृतः। आव० ७७८ न्यायालयसत्कः ५० पुरुषः। उत्त० ३०१॥ कारगारी-अपराधी। दशवै. ९८१ कारणिया-कारणिका। आव. ९९। कारणिका। निशी. कारण-उपपत्तिमात्रम्। भग०११६| आव०६२ अन्यथा- ११२ अ। निशी० १३५अ। ऽनपपत्तिमात्रम्। उत्त. ३०८। उपपत्तिमात्रं कारणे- वेदनादिकारणमन्तरेण भुजानस्य कारणदोषः। दृष्टान्तादि-रहितम्। उत्त० ३०८। ग्रासै-षणादोषे पंचमो दोषः। आचा० ३५१] परोक्षार्थनिर्णयनिभित्तमपपत्तिमात्र। स्था० ४९३। | कारणेसु- कारणेसु-सिसाधयिषितप्रयोजनोपायेषु कारणं नामालम्बनं। प्रज्ञा० ६७ प्रयोजनम्। आव० ५२४। | विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेष। विपा० ४० करोतीति कारणं, कार्य निर्वतयतीति। आव. २७७। कारवाहिआ-कर-राजदेयं द्रव्य वह न्तीत्येवंशीलाः स्वेन व्यापारेण कार्ये यदुपयुज्यते। आव० २७८५ कारवा-हिनस्त एव कारवाहिकाः कारबाधिता वा। जम्ब० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [44] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] २६७। कारवाहिया- करपीडिताः, नृपाभाव्यवाहिनो वा । औप ७३ कारं - राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाहिनस्त एव कारवाहिका, कारवाधिता वा । भग ४८१ । आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) काराग्रहम् - कारागारम् । उत्त० ५५५ कारापकः- करणं कारस्तं कारयति कारापयतीति णके च कारापकः । आव० २६० | कारियणिमित्तकरणं कारितनिमित्तकरणम्सम्यगर्थपद-मध्यापितमस्माकं विनयेन विशेषण वर्त्तितव्यं तदनुष्ठानं च कर्त्तव्यम् । दशकै० ३१॥ कारियनिमित्तकरणं सम्यक् शास्त्रपदमध्यापितस्य विशेषेण विनये वर्त्तनं तदार्थानुष्ठानम्। सम० ९५| कारियल्लई- वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ | कारी- अपराधी आव० ३४९ | कार्त्तारः । अपराधिनः । आव० ६७२ अपराधिनी । दशकै० ९९| कारीषाग्निसमानः- फुम्फुकाग्निसमानः परिमलमदनदाहरूपः । जीवा० ६५| कारुइज्ज— कारुकः, कारुकजातिविशेषः । कस्टच्छिम्पका-दिषु भवा कारुकीया। प्रश्न. ३० कारुय - कारुकः-वरुटच्छिम्पकादिकः । प्रश्न० ३०| कारेल्लकं- वल्लीविशेषफलम्। अनुत्त० ६। कारोडिआ - कारोटिकाः, कापालिकाः, ताम्बूलस्थगीवाहका वा जम्बू• २६७ कापालिकाः । भग० ४८१| कारोडिय कारोटिकः। आव० १९१| कारोडिकः । कापालिकः । ताम्बूलस्थगिकावाहको वा औप ०७३। कार्तिक:- रोहितकेशचियभिन्नो मुनिः । संस्ता०| कलिंक श्रेष्ठी- शक्रस्य पूर्वभवः । भग० ३२२ ॥ कार्पटिकः- दीनकृपणः । दशवै० २६०१ पिण्ड १४० कार्मणं- लक्षणतः संवत्सरं कार्मणं, यस्य ऋतुसंवत्सरः सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायौ । स्था० ३४५ कार्मणबन्धनाम- यदुदयात् कार्मणपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं सम्बन्धस्तत्कार्मणबन्धननाम । प्रजा० ४७० - कार्मणसङ्घातनाम - यदुदयवशात् कार्मणशरीररचनानुकारिसङ्घातरुपा (परिणतिः) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) जायते तत् । प्रज्ञा० ४७० | कार्य नेम (देशी)। पिण्ड २८ कार्यकारणभाव:- न्यायविशेषः आचा० ९९| कार्यनिमित्तको विनयः- संग्रहमुपसंग्रहं वा मे करिष्यतीत्येवं बुद्ध्या यो विनयः क्रियते सः विनयस्य तृतीयो भेदः ॥ व्यव० २० आ कार्यव्यासङ्गात्– न्यायविशेषः । आचा० १०६ | कार्यानुपलब्ध्यनुमानम् - न्यायविशेषः । स्था० २६३ | कार्यानुमानम् न्यायविशेषः स्था० २६२। कार्षापण - माषः । प्रज्ञा० २५७ उत्त० २७६ । कालंजरवत्तिणी- कालञ्जरवर्तिनी [45] गङ्गामहानद्याविन्ध्यस्य चान्तरा अटवी । आव० ३४८ । कालंबवालुआ- कदंबवालुका-कदम्बवालुकानदीपुलिनम्। उत्त० ४५९ | काले- कालः- दक्षिणनिकायते प्रथमो व्यन्तरेन्द्रः । भग० १५७। तृतीयप्रथमप्रहरादिः । विपा. ६९। पिशाचेन्द्रः । जीवा॰ १७४| तमतमापृथिव्यां प्रथमो महानिरयः । प्रज्ञा० ८३ | सप्तमः परमधार्मिकः सूत्र० १२४ | आव० ६५० पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु सप्तमः । उत्त० ६९४ कालानुयोगः । गणितानुयोगश्चेत्यर्थः दशव ४ तृतीया पौरुषी । बृह० ६८] अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थभागरूप । सूर्य । अष्टाशीत्यां महाग्रहे षट्पञ्चाशत्तमः । जम्बू 9391 कलन- कालः कलासमूहो वा आव० ४६५, ६९१ | श्रवा। स्वाध्याय-कालः । मरणम् । आव० २७५ | कोणिकबन्धुः । आव० ६८३, ६८४| कोणिकस्य दण्डनायकः । आव ०६८४ कालः- कलासमूहो वा कालः ॥ निशी० ५आ। स्थितिः प्रमाणं वा स्था० ७६। मरणं, मारणान्तिकसमुद्घातः । भग. ६५०] यः कण्डवादिषु पचति वर्णतः कालश्च स कालः । परमाधार्मिकसप्तमनाम । सम० २८ अष्टाशीत्यां महाग्रहे अष्टपञ्चाशत्तमः । स्था० ७९ । पिशाचेन्द्रः । स्था० ८५| ज्ञाता० २५२ | वेलम्बेन्द्रस्य लोकपालः । प्रभञ्जनस्य लोकपालः । प्रथमो वायुकुमारः । स्था० १९८ प्रथमस्य वडवामुखपातालकलशस्याधिष्ठाता देवः । जीवा० ३०६ | स्था० २२६ | नवमहानिधौ षष्ठनिधिः । स्था॰ ४४८। गणितानुयोगः । जम्बू० २ वर्तमानावसर्पिणीचतुर्थारक-विभागरूपः । जम्बू. १३) "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] प्रस्तावः। उत्त० ४८६। मृत्युः। आचा० १२२। अवसरादिः। | अभिसन्धितः कालो यैस्ते कालगृहीताः। आचा० १८४ भग०७७३। कलनं कालः, कलासमूहो वा कालः, तेण वा | कालग्गं-कालाग्रं-अधिकमासकः। यदिवाऽग्रशब्दः कारणभूतेन, दव्वादिचउक्कयं कलिज्झतीति कालः- परिमाण-वाचकस्तत्रातीतकालोऽनादिरनागतोऽनन्तः ज्ञायत इत्यर्थः। निशी० ५। कालविषयम्। बृह. २०१। । सर्वाद्धा वा। आचा० ३१८० निरयावलिकानां प्रथम-वर्गस्य प्रथममध्ययनम्। निर० | कालग्गहो-कालग्राही। व्यव. २५२ अ। ३। कल्यते-संख्यायतेऽ-सावनेन वा कलनं वा कला- कालचक्कं- कालचक्र। आव. २१७१ समूहो वेति कालः वर्तनापरा-परत्वादिलक्षणः। स्था. कालचारी-कालचारिणी-एतादृशी संयती। ५५ समयः। स्था० १९८१ स्था० २०१। अवस्थितिः। भग० | कालचारिश्रमणी-युक्तः। ओघ० ५७ ५३३। नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां सः। कालच्छेदे-कालपर्यन्ते। ओघ० २१३। नारकादिभवेऽवस्थानं सः। स्था० २०११ सज्ञाकालः। कालण्णाण-कालज्ञानं ओघ० १२२। स्वाध्यायकालः। शना। मरणम्। आव. सकलज्योतिःशास्त्रानुबन्धिज्ञानम्। जम्बू० २५८५ २७५। सुभिक्षदुर्भिक्षादिः कालः। आव० ८३७। प्रक्रमात् कालदोस-कालदोषः-अतीतादिकालव्यत्ययः। सूत्रस्य पतनप्रस्तावः। उत्त० ३३४। कालः। दिवसस्य द्वात्रिंशद्दोषे एकविंशतितमः। आव० ३७४। अनुयो० प्रहरत्रयलक्षणः। भग० २९२। विमानविशेषः। सम० ३५) ર૬રા. आमलकल्पानगर्यां गृहपतिविशेषः। कालवतंसकविमाने | कालधम्मु-कालधर्मः-मरण। स्था. १४३। सिंहासनम्। ज्ञाता० २४७। मरणधर्मः। जम्बू. १५८ कालनिषीथं-कृष्णरजन्योः यत्र वा काले निषीथं दीर्घकालिकसंज्ञा। मरणम्। दशवै ९| विपा०८० व्याख्यायत इति। आचा०४०८१ क्षीयमा-णादिलक्षणः। दशवै० ११५। कुणिकराज्ञो कालपएसे-कालप्रदेश:-एकादिसमयः। प्रज्ञा० २०२ भिन्नमातको भ्राता। भग. ३१६। षष्ठो निधि-विशेषः। कालपक्ख- कृष्णपक्षः। आव० ३४९। जम्बू. २१५८1 गणितः। आव २९६। कालपरियाए- मृत्युरवसरोऽत्रापि ग्लानावसरेऽसावेव कालकंखी-कालम्-अनुष्ठानप्रस्तावं कालत काल-पर्याय इति। आचा० २८२। इत्येवंशीलः कालकांक्षी। उत्त० २६९। कालपाले-धरणेन्द्रस्य प्रथमलोकपालः। स्था० १९७। कालक-विदयाप्रदानाय प्रशिष्यसकाशमागत कालपोराणं-कृष्णपर्वणां उपरितनपत्रसमूहापेक्षया आचार्यविशेषः। आव० ५२३॥ हरिता-लवत्पिञ्जराणां। जीवा. ३५५१ कालकाचार्यः- गुणननिमित्तमनुयोगे दृष्टान्तः। बृह. | कालप्रत्युपेक्षणा-उचितानुष्ठानकरणार्थं कालविशेषस्य ३९ । प्रवचनप्रत्यनीकशासकः। बृह० १५६ अ, बृह. । पर्यालोचना। स्था० ३६१ १५५ । कालप्रायश्चित्तं-त्रिविधप्रायश्चित्ते तृतीयम्। बृह. ४८ कालकाल-अभीष्टवस्त्ववाप्त्यवसरः, कालो, मरणं।। आग मरणक्रि-यायाः कलनं काल इत्यर्थः। दशवै० ९|| | कालभूमी-कालभूमिः-कालमण्डलाख्या भूमिः। आ० मरणक्रियाकलनं काल-कालः। आव. २५७। कालकूट-कालकूटनामकं विषम्। उत्त० ४७८१ कालभेदः-अतीतादिनिर्देशे प्राप्ते वर्तमानादिनिर्देशः। कालखमणो-कालक्षपणः-कालकाचार्यः। उत्त०१२७। स्था०४९६| कालगज्ज-कालकाचार्यः। निशी० ३०३ । कालभोइ-जो मज्झण्हे भुंजइ अणत्थमिए वा। निशी. कालगतिल्लतो-कालगतः। उत्त० १६०| ३८ आ| कालगय-कालगतः-मृतः। आव०६२९/ कालमण्डला- कालमूभिः। आव० ७८४१ कालगहिया-कालेन मृत्युना गृहीताः, कालमरण- यस्मिन् काले मरणम्पवर्ण्यते क्रियते वा। पौनःपुन्यमरणभाज इत्यर्थः। धर्मचरणाय वा गृहीताः- | उत्त० २२९। ७८४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [46] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कालमहं-कालमहत्-अनागताद्धा। उत्त. २५५ सन्धा कालसन्धा सा सजातैषामिति। जीवा० २६५) कालमासा-मासाभेदः। ज्ञाता० १०७) कालसंयोगो-वर्तनादिकाललक्षणानभूमिः मरणयोगो कालमासिणी-कालमासवती-गर्माधानान्नवममासवतो। | वा। स्था० १३३ दशवै० १७११ नवमे मासे गब्भस्स वट्टमाणस्स। दशवै. कालसमए-कालसमयः। सूर्य ९०। कालेन-तथाविधेनो७९ पलक्षितः समयः-अवसरः कालसमयः। सूर्य. २९४। कालमासे-कालस्य-मरणस्य मासः। उपलक्षणं कालसिरी-कालगृहपतेर्भार्या। ज्ञाता० २४८१ चैतत्पक्षाहो-रात्रादेस्ततश्च कालमासे-मरणावसर इति । | कालसीमा- तस्यामेव सार्द्धत्रयस्त्रिंशति त्रिंशतागुणितायां भावः। स्था०९९ १००५ सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तदेषां कालमिगपट्ट- कालमृगपट्टः-कालमृगचर्म। जम्बू. १०७। कालसीमा। सम०८० जीवा. २६९। कालसुणगो-कालसुनकाः-कालश्र्वानः। जीवा० २८२ कालमियचम्म- कालमृगभर्म। ज्ञाता० २२० | कालसूरियं- कालशौकारिकं, श्रेणिकस्य नरकनिवारणे कालमुही- कृष्णमुखी-उपद्रवकारिण्या विशेषम्। ओघ. दृष्टान्तः। आव० ६८१। १७ कालसोयरिय-विनयबहुमानचतुर्भङ्ग्यां चतुर्थे दृष्टान्तः। कालमुहे- कालमुः। म्लेच्छविशेषः। जम्बू० २२० निशी० ८ अ। कालवडिंसगभवणे-चमरचञ्चाराजधान्यां भवनम्। कालसौकरिकः- नामविशेषः। सूत्र. १७८१ ज्ञाता०२४७ महदापगतोऽपि स्वतः महदापगतेऽपि च परे कालवत्तिणि-कालवर्तिनी-काले-भोगकाले यौवने आमरणादसजातानुतापः। आव०५९०| अभव्यकमुदम्। वर्तत इति। अन्त० १२॥ बृह. १८८1 कालवादी-अस्ति जीवाः स्वतो नित्यश्च कालत इति कालहत्थी-कालहस्ती कलम्बकायां प्रत्यन्तिकः। आव. वादी। आव०८१६) २०६| कालवादिनः- विद्यते खल्वात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च | कालहय-कालहतः-ग्रामेयकविशेषः। आव० ११४। काल-वादिनः। सम० ११० विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन | कालहेसिं-काले-अराजकानां राजनिर्णयार्थके रूपेण न परापेक्षया ह्रस्वदीर्घत्वे इव नित्यश्च | अधिवासना-दिके समये हेषते शब्दादयतीत्येवंशीलं कालवादिनः। स्था० २६८ कालहेषि। जम्बू० २३७ कालवाल-नागकुमारेन्द्रस्य लोकपालः। भग० ५०४। | काला-कालार्थ एकादशः। भग० ५११। पिशाचभेदविशेषः। कालवासी-काले-प्रावृषि वर्षतीति एवंशीलः-कालवर्षी। प्रज्ञा० ७० मथारायां जितशत्रराजवेश्या। उत्त. १२० काले जिनजन्मादिमहादौ वर्षतीतिकृत्वा। भग० ६३४। काला सन्निवेशः। सिंहविदयन्मतीगोष्ठीस्थानम्। आव. कालवर्षी-अवसरवर्षीति। स्था० २७० २०११ कालवेसि- जितशत्रुपुत्रः श्रृगालभक्षितः। मरण० २० कालाइक्कमो-कालस्यातिक्रमः, कालातिक्रमः। आव० कालवेसिय-कालवेसिकः। मथुरायां कालाभिधवेश्यायाः ८३८ पुत्रः। उत्त० ९२० कालाएस-कालप्रकारः। कालतः। भग०८०९। कालशौकरिकः-निरुपक्रमायुषि दृष्टान्तः। भग० ७९६। कालागुरु-गन्धद्रव्यविशेषः। सम०६१२। कृष्णागुरुः। नरकादिकगतिप्राप्तौ दृष्टान्तः। उत्त० २७२। प्रश्न० ७७। गन्धद्रव्यविशेषः। कृष्णागुरुः। सम० १३८॥ कालसंजोग-कालसंयोगः-समयक्षेत्रमध्ये कृष्णागुरुः। जम्बू. ५१। सुगन्धिद्रव्यविशेषः। जीवा० आदित्यादिप्रकाश-सम्बन्धलक्षणः। स्था० ३५९। १६०, २०६। प्रज्ञा० ८७ कालसंदीवो-कालसन्दीपकः। आव०६८६) कालाणुहाई- यद्यस्मिन् काले कर्तव्यं कालसंधिय-कालसन्धिता–काले स्वस्वोचिते सन्धानं । तत्तस्मिन्नेवानुष्ठातुं शीलमस्येति कालानुष्ठायी, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [47] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कालानतिपातकर्तव्योदयतः। आचा० १३२१ श्रेणिकभार्या। आव० ६८७ कालातिक्कंत-कालं-दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणं कालियावाए- कालिकावातः-प्रतिकूलवायुः। ज्ञाता० १५८ अतिक्रान्तः कालातिक्रान्तः। भग० २९२। कालियावायरहिए-कालिकावातरहितः। आव० ३८७) कालातिक्कंता-ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले च यत्र काली-चमरेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०३। कालीस्थितास्त-स्यामृतुबद्धे काले मासे पूर्णे वर्षाकाले अन्तकृद्दशानां अष्टमवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। अन्त० चतुर्मासे पूर्णे यत् तिष्ठति सा कालातिक्रान्ता। बृह. ९३ | २५ देवीविशेषः। निर० १९| धर्मकथायाः प्रथमवर्गस्य अ। तृष्णाबुभुक्षा-कालाप्राप्ताः। ज्ञाता०११३। प्रथम-मध्ययनम्। ज्ञाता०२४७। कालगृहपतिकालश्रियोः कालापाय-काल इत्यत्रापि कालादपायः कालापायः, काल दारिका। ज्ञाता०२४८१ एव वा। दशवै. ३६। कालीपव्वंगसंकासे-कालीपर्वाङ्गसङ्काशः कालायवसितो-कालादवैश्यः। व्यव.४३२ आ। कालीकाकजङ्घा तस्याः पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च कालायस-लोहः। जम्बू० ३७, २३८। जीवा० १९२। लोहं। तनूनि भवन्ति ततः, कालीपर्वा-णीव पर्वाणिनिशी० ८७ अ। कालायसम्-लोहविशेषः। औप०७१। जानुकूर्परादीनि येषु तानि कालीपर्वाणि, तथाविधैरङ्गःभग० ३२२, ४८१। शरीरावयवैः सम्यक्काशते तपःश्रिया दीप्यत इति कालालोणे- कृष्णलवणं-सैन्धवलवणपर्वतैकदेशजम्। कालीपर्वभिर्वा सङ्काशानिसदृशानि अगानि यस्य सः। दशवै० १९८१ उत्त० ८४१ कालावभासे-कालावभासः, कालदीप्तिर्वा। भग० २६९। काहिती-उग्गए आदिच्चे दिवसतो जो गच्छति। निशी. कालावीचिमरणं-थयाऽऽयुष्ककाले मरणम्। उत्त. २३१| ३८ आ। कालासवेसियपुत्ते- पापित्यीयः। भग० ९९। कालुणितेति-कारुण्यं शोकः। स्था० ४९६। प्रथमशतकग-तदृष्टान्तः। भग० ३२७। कालुद्देसे- कालोद्देशः। आव०८२२॥ कालिंग-कालिङ्गम्। प्रज्ञा० ३७ कालुसभावो- कलुषभावः कालुष्यम् दुष्टाभिसन्धिरूपम्। कालिकाचार्यः- गर्दभिल्लस्य शिक्षादाता। निशी०पू०३०४ | दशवै० २१२। आ, २५६। अशठाचीर्णे दृष्टान्तः। बृह. १४ अ। कालस्से- कसाउप्पत्ती। निशी० ३१ अ। कालिजर-नगविशेषः। उत्त० ३८३। कालेज्ज-कालेयकम्। संस्ता० । कालेयकः। आव०६५११ कालिनी-आर्द्रादेवता, रौद्रीत्यपरनाम। जम्बू. ४९९। | कालेण- कालेन-प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणेन कालिपोरेति-काकजङ्घावनस्पतिविशेषपर्व। अनुत्त०४। | हेतुभूतेनाधीयन्ते। स्था० १२६। दुष्षमसुषमादिना कालियं-काले-दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीदवय एव | विशिष्टेन कालेन सतोत्प-त्त्यादिकमभूत्। आचा० ४२५॥ पठ्यते तत्, तत्कालेन निवृत्तं कालिकम्, । कालोदाइ-कालोदधिः-अन्ययूथिकः। भग० ३२७, ३२३। उत्तराध्ययनादि। स्था० ५२। नन्दी० २०४। कालेन रजन्यां भिक्षाग्राही बौद्धसाधुः। बृह. ९३ अ। निर्वत्तं कालिकम, प्रमाणकाले-नेति भावः दशवै०२ कालोदायी- गुणशिलचैत्यनिकटवर्ती अन्ययथिकः। कालियदीवे-द्वीपविशेषः। ज्ञाता० २२८१ भग०७५० कालियपत्ते-कालिकपुत्रः। स्थविरविशेषः। भग० १३८१ कालोय-धातकीखण्डपरितः शुद्धोदकरसास्वादः कालोद कालियसुयं-कालिकश्रुतं एकादशाङ्गरूपः। भग० ७९२। समुद्रः। अनुयो० ९०| धातकीखण्डानन्तरं समुद्रः। प्रज्ञा० कालियसुयमाणुओगिए- कालिकश्रुतानुयोगे-व्याख्याने ३०७ नियुक्ताः-कालिकश्रुतानुयोगिकाः, कालिकश्रुतानुयोग कालोवक्कम- कालस्योपक्रमः। कालोपक्रमः। यदिह एषां विद्यते इति कालिकश्रुतान्योगिनः। नन्दी० ५१। नालि कादिभिरादिशब्दात् कालिया-काले सम्भवन्तीनि कालिकाः शकुच्छायानक्षत्रचारादिपरिग्रहस्तैः कालउपक्रम्यते स अनिश्चितकालान्त-रप्राप्तयः। उत्त० २४३। कालिका- | कालोपक्रमः। यत्तु नक्षत्रादिचारैः कालस्य विनासनं स मनि दीपरत्नसागरजी रचित [48] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ३१ वस्तुनाशे कालोपक्रमः। अनुयो०४८। कासवे-स्थविरविशेषः। भग० १३८ कश्यपःकालोवाय-कालोपायः-अपायभेदः। दशवै०४० अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम्। अन्त० कावालिए- अस्थिसरजस्कः। बृह. ९०| कापालिकः- १८1 राजगृहे गाथा-पतिः। अन्त० २३ वृथाभागी। आव० ६२८१ उत्तराफाल्गुन्याः गोत्रनाम। जम्बू. ५००। काश्यपगोत्रो काविट्ठ-महाशुक्रकल्पे विमानविशेषः। सम० २७५ महावीरः। उत्त० ८३। ऋषभस्वामी वर्धमानस्वामी वा। काविलिज्ज-कापिलीयं, उत्तराध्ययनेष्वष्टमध्ययनम्। सूत्र०६८। कौशम्ब्यां राजबहुमतो ब्राह्मणः। उत्त० २८६) उत्त०२८६ नापितस्य सम्बन्धिक्षुरगृहम्। बृह. १८४ अ। काविलियं-उत्तराध्ययनेषु अष्टममध्ययनम्। सम०६४। | कासवए-काश्यपः-नापितशिल्पः। आव० १३२ काविसायण-कपिशायनं-मदयविशेषः। जम्बू. १०० कासवग-काश्यपः-नापितः। भग० ४७२। सूत्र. ११६) कावो-कावः-कापडिवाहकः। जीवा० २८११ कासवगा- षष्ठीश्रेणिविशेषः। जम्बू. १९३। कावोडी-कापोती-तुलाकारं पानीयानयनसाधनम्। दशवै. | कासवगोत्ते-काश्यपगोत्रम्। सूर्य. १५० १३५१ दशवे. ५७ आर्यजम्बुनामान–गारस्य गोत्रम्। ज्ञाता०१३ कावोय-कावडिवाहकः। अनुयो०४६। कासवनालियं- श्रीपर्णीफलम्। आचा० ३४९। दशवै. १८५ कावोयलेस्सा-कापोतस्य पक्षिविशेषस्य वर्णेन तुल्यानि | कासवसंहियट्ठाण-यस्तु ग्राम एव त्रिकोणतया निविष्टः यानि द्रव्याणि धूम्राणि इत्यर्थः, तत्साहाय्याज्जाता वृक्षा वा त्रयो यस्य बहिस्त्र्यस्त्राः स्थिताः एकतो द्वौ कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा सा लेश्या येषां ते। स्था० अन्यतस्त्वेकः काश्यपसंस्थितः। बृह. १८४ अ। कासवा- कशे भवः काश्यः-रसस्तं पीतवानिति काशा- शर्कराः। प्रज्ञा० ३६६। काश्यपस्त-दपत्यानि काश्यपाः। स्था० ३९० काशिमण्डलं-काशिदेशः। उत्त०४४८ कासवी-पञ्चमतीर्थकरस्य प्रथमा शिष्या। सम० १५२| काश्यपादीनि-गोत्रविशेषः। सम० ११२ कासाइअ-कषायेण-पीतरक्तवर्णाश्रयरञ्जनीयवस्तुना काष्टपादुके- मौजे। सूत्र० ११८१ रक्ता काषायिकी शाटिकेत्यर्थः। जम्ब० १८९। काष्टमूलं-चणकचवलकादिकं द्विदलम्। बृह० २६७ आ। | कासायं-काषायिकं-वस्त्रविशेषः। आव० ३५२१ काष्टमूलरसं-चणकचवलकादिद्विदलं तदीयेन रसेन कासि-काशीजनपदो यत्र वाणारसी नगरी। ज्ञाता० १२५ यत्परि-माणितम्। पानकम्। बृह. २६७ आ। कासिभूमि-काशीभूमिः-काश्यभिधानो जनपदः। उत्त. काष्ठश्रेष्ठी- पारिणामिकीबद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी.१६६) ३८३ श्रमण-विशेषः। बृह. ९४ । कासी-काशी-जनपदविशेषः। ज्ञाता०१४११ प्रज्ञा० । काष्ठाशब्दः- प्रकर्षवाची। सूर्य. १३ वाणारसी, तज्जनपदोऽपि काशी। भग० ३१७ कासंकासे-कासंकषः। आचा० १३९। अष्टाशीतौ महाग्रहे सप्तचत्वारिंशत्तमः। भग०६८० कास-कासः-रोगविशेषः। भग. १९७। गच्छाविशेषः। कासीअ-अकार्षीत्। उत्त. ३२२ प्रज्ञा० ३२ अष्टाशीतौ महाग्रहे सप्तचत्वारिंशत्तमः। कासीस-रागद्रव्यः। ज्ञाता०२३१| स्था०७९ कासो-इक्ख्। दशवै० ५८१ कासगो-कर्षकः। निशी. १४३ आ। काह- कदा। भग० ११६| कासणं-काशनं-खाटकरणम्। ओघ० ९२ काहए-अकथयत्। उत्त०४८० कासय-कर्षकः-कृषीवलः। उत्त० ३६१। काहरो-कापोतिकः-जलवाहकः। दशवै० १३५ कासरनालियं-सीवण्णिफलं। दशवै० ८६| काहलं-फल्गुप्रायम्। बृह० ४५ आ। कासवं-काश्यपस्यापत्यं काश्यपः तं काश्यपगोत्रम। | काहला- खरमुही। जम्बू. १९२॥ तस्स मुहत्थाणे खरनन्दी०४८ | मुहाकारं कट्ठमयं मुहं कज्जति खरमुखी। निशी० ६२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [49] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] वादयविशेषः। स्था०६३।। किंते- तद्यथार्थः। औप० ५४। तद्यथा। जम्बू. १९२॥ काहामि-करिष्यामि। उत्त०४३३। प्रश्न. १५९। किंभूतान्। ज्ञाता० २३०१ काहारो-जलवाहकः। दशवै० ५७ किंत्थुग्धं-किंस्तुध्नं-एकादशमं करणम्। जम्बू० ४९३। काहावणं-कार्षापणम्। उत्त० २७६। कार्षापणः-द्रम्मः। | किंनए-किण्वं-अनन्तजीववनस्पतिभेदः। आचा० ५९। प्रश्न. ३० किंनर-किन्नरेन्द्रः। जीवा० १७४। किन्नरःकाहितो-सज्झायादिकरणिज्जे जोगे मोत्तुं जो दक्षिणनिकाये पञ्चमो वाणव्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८ देसकहादिक-हीतो कहेति सो काहितो। निशी० ९१ आ। किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा०७०वाणव्यन्तरभेदविशेषः। काहिया-धम्मत्थकामेसु अण्णाओ विकहाओ कहेंता प्रज्ञा०६९। चमरेन्द्रस्य रथानीकाधिपतिर्देवः। स्था० ३०२, कहिया भवंति। निशी. ९| ४०६। इन्द्रनाम। स्था० ८५। किन्नरः-वाद्यविशेषः। काहीआ-कथिका। गच्छा०। देवविशेषो वा। प्रश्न०७०| देवविशेषः। भग० ४७८१ काहिउ-कथकः। ओघ० १५० किंनरकण्ठ-किन्नरकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः। जीवा. काहिए-। ओघ० १५० पासणिए। निशी० २९२ अ। २३४१ काहीति-करिष्यति। स्था० ४९६| किंनरी- देवीविशेषः। मैथुने दृष्टान्तः। प्रश्न. ९० किं- प्रश्ने क्षेपे वा। आचा० १६५। प्रश्ने। ज्ञाता० १४९। किन्नरोत्तमा-किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० क्षेप-प्रश्ननपुंसकव्याकरणेषु। आव० ३७९। किंपगारे-किंप्रकार:-किंस्वरूपः। जीवा०६५ किंकमे-किंकमे, अन्तकृद्दशानां षष्टमवर्गस्य किंपत्तियं-कः प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किम्प्रत्ययम्। द्वितीयमध्ययनम्। अन्त०१८ भग० १८१, १३८१ किंकम्मय-किंकर्मकः। आव० ४०९। किंपभासई-किं-कुत्सितं प्रकर्षेण भाषते इति किंकर-भार्यादेशकरः-अन्वर्थः पुरुषविशेषः। पिण्ड. किंप्रभाषते। उत्त०४४३ १३५। किङ्कराः-प्रतिकर्मपृच्छाकारिणः। जम्बू० २६३। किंपाकफलः- फलविशेषः। आचा० १६४। किकरा-किङ्करभूताः। प्रज्ञा० ८६। जीवा० १६० किंपाग-किम्पाकः बृक्षविशेषः। उत्त० ६२८, ४५४। फलप्रतिकर्मपृच्छा-कारिणः। भग० ५४७। आदेशसमाप्तौ विशेषः। आव० ३८५ पुनः-प्रश्नकारी। प्रश्न. ३९| | किंपुरिसा- वाणव्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा० ६९। किंपुरुषःकिंकिणी-किकिणी, क्षुद्रघण्टिका। भग. ३२२१ प्रश्न उत्तरनिकाये पञ्चमो वाणव्यन्तरेन्द्रः। स्था० ८५, ३०२। ७। क्षुद्रघण्टा घण्टिका वा। जम्बू०४२९ भग० १५८ किंपुरुषः-किन्नरेन्द्रः। जीवा. १७४। किंकिन्धपुरं-आदित्यरथराजधानी। प्रश्न०८९ कण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः। जीवा. किंखाइंति-अथ किं पुनरित्यर्थः। भग० १४९। २३४१ किंगिरिडा-त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ किंपुरुषा- किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०। किंचनं- किञ्चनं काञ्चनं-हिरण्यादि, अल्पमपि वा। किंपुरुषोत्तमा–किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० आव०१५५ किंभयाः- कस्माद भयं येषां ते, कतो बिभ्यतीत्यर्थः। किंचि-काञ्चिः मूशलमूलस्थलोहकटी। पिण्ड० १६४। स्था० १३५ किंचूणा- किञ्चिदूना-एकत्रिंशत्कवला। स्था० १४९। किंमए- किंमयः-किंविकारः। जीवा० ११० ऊनोदरतायाः पञ्चमो भेदः। इत्थं पञ्चविंशतेरारभ्य किंमज्झं-किंमध्यं-किंशब्दस्य क्षेपार्थत्वात् असारम्। याव-देकत्रिंशत्तावत्किञ्चिदूनोदरता। दशवै० २७५ प्रश्न. १३७ किंचूणोमोअरिआ-किञ्चिन्न्युनावमोदरिका-एकत्रिंशतो | किंलेसे-का-कृष्णादिनामन्यतमा लेश्या येषां ते द्वात्रिंशत एकेनोनत्वात्। औप० ३८४ किंलेश्या। भग. १८८१ किंणापउल-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। | किंशुककुसुम- पलासकुसुमम्। जीवा० १९११ किपरु मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [50] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] किंसंठिय-किं संस्थितम्-किमिव संस्थितम्। जीवा० किच्छदुक्ख-कृच्छ्रदुःखं-गाढशरीरायासः। भग०४७० ३७८१ किमिवसंस्थिताः किंसंस्थिताः। जीवा. १०४। किं |किच्छपाणो-कृच्छ्रप्राणः। उत्त०११८ संस्थितं-संस्थानं यस्याः यदिवा कस्येव संस्थितं- किच्छोवगयप्पाण-कष्टगतजीवितव्यः। ज्ञाता०२११| संस्थानं यस्याः सा किंसंस्थिता। सूर्य०७३। किटिभ-क्षुद्रकुष्ठविशेषः। जम्बू. १७०| नवमं किंसुकफुल्ल- किंशुकफुल्लंपलासक्सुमम्। स्था० ४२० क्षुद्रकुष्ठम्। प्रश्न. १६१। आचा० २३५ किंसुयपुस्करासी- किंशुकपुष्पराशिः। प्रज्ञा० ३६१। किट्ट-लोहादिमलः। आचा० ३२२ अच्युतकल्पे विमान किइ-कृतिः-अवनामादिकरणं, मोक्षायावनामादिचेष्टैव । | विशेषः। सम० ३९। ऊर्णाद्यवयवाः तन्निष्पन्नं वस्त्रम्। वा। आव०५११ बृह. २०१ आ। किइकम्म-कृतिकर्म-विश्रामणा। आव० ११८। कृतिकर्म, | किट्टइत्ता-कीर्तयित्वा-स्वाध्यायविधानतः संशुद्ध्य। वन्दनं, कार्यकरणम्। भग०६३७ वन्दनम्। आव० ८० उत्त० ५७२। गुरोविनयपूर्वकमिदमित्थं मयाऽधीतमिति सम. २३ ओघ. २श पादप्रक्षालनादि। ओघ०६३। निवेद्य। उत्त. १७२। द्वादशावतवन्दनम्। ओघ० १५६। किट्टति-अपगच्छति। बृह. २३३ अ। किई-कृतिः-द्वादशाव दिवन्दनम्। उत्त० १७। किट्टा-रोमविसेता। निशी. १२६ अ। कृतिकर्म वन्दनम्। दशवै. २४१। किट्टि-कीर्तितम्-भोजनवेलायाममुकं मया किच्च-कृत्यः-आचार्याणां वैयावृत्यम्। आव० २६०। प्रत्याख्यातं तत् पूर्णमधुना भोक्ष्य इत्य्च्चारणेन। आव. कृतिः-वन्दनकं तदर्हतीति कृत्यः। उत्त० ५४। कृत्यं, ८५११ आसेवनीयं कालस्वाध्यायादि। आव० ५७३। कृत्यं किट्टिका-साधारणबादरवनस्पतिकायिकभेदः। जीवा० उचिता-नुष्ठानम्। उत्त०६५। २७ आचार्यादयभिरुचितकार्यम्। दशवै. २५० कृत्यः- किट्टिय-कीर्तितं-अन्येषामुपदिष्टम्। प्रश्न. ११३| आचार्यादिः। दशवै. २५०| आचार्यः। दशवै. २३५ माया। कीर्तिता-पारणकदिने अयमयं चाभिग्रहविशेषः। कृत निशी० ७७ आ। आसीद् अस्यां प्रतिमायां स चाराधित एवाधना किच्चकर- ग्रामकृत्ये नियुक्तः। ग्रामव्याप्तकः। निशी | मुत्कलोऽहमिति गुरुसमक्ष कीर्तनादिति। स्था० ३८८१ १७६ आ। कृत्यानि कुर्वन्ति-अनुतिष्ठन्ति कृत्यकराः | किट्टिसं-ऊर्णादीनां यदुद्धरितं किट्टिसं तन्निष्पन्नं नियोगिनः। उत्त० ३०५। ग्रामचिन्तानियक्तः। बृह. सूत्रमपि ऊर्णादीनामेव दविकादिसंयोगतो निष्पन्नं ३१३आ। ग्रामकृत्ये नियुक्तः। बृह. ३३ | सूत्रम्, उक्तशेषा-श्वादिलोमनिष्पन्नं वा किट्टिसम्। किच्चणं-तत्र दिवसे क्षणिका विमुक्तकृषिलवनव्यापारा। | अनयो० ३५। कतवो वरक्को किट्टिसं। निशी. १२६ अ। ओघ०७२। कतनम्। बृह० २४१ आ। ऊर्णाद्यवयवनिष्पन्नं वस्त्रम्। बृह. २०१ आ। किच्चाइ-कर्तव्यानि यानि प्रयोजनानीत्यर्थः, अथवा किट्टिसिय-किल्विषिका भाण्डादय इत्यर्थः। भग०४८१ कृत्यानि नैत्यिकानि। ज्ञाता०९१। किट्टी-किट्टिजमवयवनिष्पन्नः। स्था० ३३८। किच्चिरस-कियच्चिरेण। आ०५५९। किट्टीया-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४ किच्चोवएसगो-कृत्योपदेशिकः कृत्यं कर्तव्यं किट्टेइ-कीर्तयति-पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं सावद्यानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या-गृहस्थास्तेषाम्पदेशः | तच्च मया कृतमित्येवं कीर्तनात्। भग० १२५। ज्ञाता० संरम्भसमारम्भरूपः स विद्यते यस्य सः। कृत्यंकरणीयं पचनपाचनखण्डनपे-षणादिको भूतोपमर्दकारी | किट्ट- वाहितं। निशी० २२। कृष्टम्। आव० ६३०| कृष्टं व्यापारस्तस्योपदेशस्तं गच्छतीति कृत्योपदेशगः कर्षणं लभ्यग्रहणायाकर्षणम्। जम्बू. १९४१ कृत्योपदेशको वा। सूत्र०४७। किट्ठ- देवविमानविशेषः। सम०९। वनस्पतिविशेषः। भग० किच्छं- कृच्छ्रम्। आव० ३८४१ ८०४१ ७२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [51] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] । किटिकूडं-देवविमानविशेषः। सम. ९। २६ किट्ठघोसं-देवविमानविशेषः। सम० १२ किढिणसंकाइयगं-किढिणंकिद्विजुत्तं-देवविमानविशेषः। सम. ९। वंशमयस्तापसभाजनविशेषस्ततश्च तयोः साइकायिक किद्विज्झयं-देवविमानविशेषः। सम. ९। भारोदवहनयन्त्रं किढिणसाड़कायिकम। भग.५१६। किढिप्पभं-देवविमानविशेषः। सम. ९। किढिणपडिरुवगं- कढिनप्रतिरूपकं-कढिनं किट्ठिया-अनन्तकायविशेषः। भग. ३०० वंशमयस्तापस-सबन्धीभाजनविशेषस्तत्प्रतिरूपकं किट्ठियावत्तं- देवविमानविशेषः। सम० ९। तदाकारं वस्तु। भग० ३२२ किहिलेसं-देवविमानविशेषः। सम० ९| किढिदासी-काष्ठिकीदासी। आव. २३७। किद्विवण्णं-देवविमानविशेषः। सम. ९। किढिया-| निशी० १३६ आ। स्थविरा माता। ब्रह. ११४ किहिसाविया | निशी. ३२९ अ। । किद्विसिंग- देवविमानविशेषः। सम० ९ किढी-थेरी। बृह. १९८ आ। स्थविरा स्त्री। बृह. १११ अ। किट्ठिसिटुं-देवविमानविशेषः। सम. ९। काष्ठिकी। आव. २३७ किहत्तरवडिंसगं-देवविमानविशेषः। सम० ९| किणा-किम्जिन्मात्रा। पिण्ड० १७३। किठी-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४।। किणिऊणं-क्रीत्वा। आव० १९८१ किडए-पाककुम्भी। निशी. ३०३ अ। किणित्ता-जातिगितविसेसो। निशी० ४३ आ। किडिकिडिया-किटिकिटिका किणिया- किणिका-ये वादित्राणि परिणयन्ति वध्यानां निर्मासास्थिसम्बन्ध्युपवेश- नादिक्रियासमुत्थः। च नगरमध्ये नीयमानानां पुरतो वादयन्ति। व्यव० २३१ शब्दविशेषः। भग० १२५ निर्मासास्थि-सम्बन्धी उपदेशनादिक्रियाभावीशब्दविशेषः। ज्ञाता०७६) किण्णं- कानि-किंविधानि। भग० १०९। किडिभं-कुट्ठभेदो। निशी० ६२ अ। जंघास कालाभं रसियं । किण्णरछाया- किन्नरछाया-छायागतिभेदः। प्रज्ञा० ३२७। वहति। निशी० १२७ आ। शरीरैकदेशभाविकु-ष्ठभेदः।। | किण्णा लद्धा-केन हेतुना लब्धा-भवान्तरे उपार्जिता। बृह. २२२ । रोगविशेषः। निशी. १८८ ज्ञाता० २५० किडिम(भ)-किडिमः-क्षुद्रष्ठविशेषः। भग० ३०८। किण्णे-केन हेतुना। भग. १६३ किड्डति-अन्तर्भूतकारितार्थत्वादन्यान् क्रीडयन्ति। | किण्ह-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२| कृष्णवर्णः-अञ्जनवत् भग०६१८ स्वरूपेण। ज्ञाता० ७८ किड्डा-पाशककपर्दकैः क्रीडन्ति। ओघ. १६। क्रीडाप्रधाना | साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। दशा क्रीडा, दशदशायां द्वितीयादशा। स्था०४१९। क्रीडा- | किण्हकेसरे-कृष्णकेशरः-कृष्णबकुलः। प्रज्ञा० ३६२ जन्तोदवितीया दशा। दशवै. ८ दवितीयादशा। निशी जम्बू. ३२॥ २८ आ। किण्हगुलिया-उदायनदासी। निशी० ३४६ आ। किड्डावियाए-क्रीडापिका, क्रीडनधात्री। ज्ञाता० २१९। किण्हचामरज्झय- कृष्णचामरध्वजा कृष्णचामरयुक्ता किढ-वृद्धः। बृह. २५६ आ। ध्वजा। जीवा. १९९। किढग-किटकः-वृद्धः। व्यव० २३४ अ। | किण्हपक्खिए- कृष्णपाक्षिका-शुक्लानां आस्तिकत्वेन किढिण-वंशमयस्तापसभाजनविशेषः। निर०२६। विशुद्धानां पक्षो-वर्गः शुक्लपक्षस्तत्रभवाः शुक्लपाक्षिकाः किढिनं-वंशमयस्तापससम्बन्धोभाजनविशेषः। भग. | तद्विपरीतास्तु कृष्णपाक्षिकाः। स्था० ६१| ३२२, ५२० | किण्हपत्ता- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ किढिणसंकाइयं-किढिणं-वंशमयस्तापसभाजनविशेषः, | चतुरिन्द्रि-स्य य विशेषः। प्रज्ञा०४२॥ सांकायिकं-भारोदवहनयन्त्रं किढिणसांकायिकम्। निर० | किण्हसिरी-षष्ठं चक्रवर्तिनः स्त्रीरत्नम्। सम० १५२ जाग मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [52] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] किण्हा- नदीविशेषः। स्था० ४७७। कृष्णा-ईशानदेवेन्द्रस्य च। उत्त० ३७९। अलोभोदाहरणे प्रथमाऽग्रमहिषी। जीवा० ३६५ श्रावस्त्यामजितसेनाचार्यस्य महत्त-रिका। आ०७०१। किण्होभासे- कृष्णप्रभः कृष्ण एव वाडवभासत इति कित्तिय-कीर्तितं-जनेन समत्कीर्तितं कीर्तिदं वा। कृष्णावभासः। ज्ञाता०४| कृष्णवर्ण एवावभासते- औप.५ कात्तितः स्वनामभिः प्रोक्तः। आव. ५०७ दृष्ट्रणां प्रणिभातीति कृष्णावभासः। ज्ञाता०७२। कित्तिया-कीर्तिता प्रदर्शिता। आचा० ४२। कृत्तिकाकितिकम-वंदणं। निशी० २३८ अ। वेयावच्चं। निशी । अग्निभूतेर्जन्मक्षत्रम्। आव० २५५ ८०आ। कृतिकर्म। आव० ७९३। विस्सामणं-निशी. २१३ | कित्तिसेणो-कीत्तिसेनः-ब्रह्मदत्तपत्न्या अ। कृतिकर्म-द्वादशावतवन्दनम्। ओघ० १३९| | कीर्तिमत्याः पिता। उत्त० ३७९। कृतिकर्म-वंदनकं, विश्रामणादिकं वा। व्यव० ७२ । । | कित्ती-कीतिः एकदिग्गामिनी। प्रश्न० ८६। कीर्तिः कृतकर्म-विश्रामणा। व्यव० १८३ । ख्याति-हेतुत्वात्। अहिंसायाः पञ्चमं नाम। प्रश्न. ९९। कितिकम्माति-कृतिकर्माणि-विश्रामणा। व्यव० १७४। दानपुण्यफ-लभूता, एकदिग्गामिनी वा प्रसिद्धिः। प्रश्न कित्तइस्सामि-कीर्तयिष्यामि-प्रतिपादयिष्यामि। दशवै. १३६। दानकृता एकदिग्गामिनी वा प्रसिद्धिः। औप० १०८। १५ एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः। बृह. ३६ आ। कित्तणं-कीर्त्यते-संशब्दयते येन कारयिता तत् कित्तीजीवियं-कीत्तिजीवितम्। आव० ४८० कीर्तनं देवकुलादि। प्रश्न. ९५१ कित्तीपुरिसा-कीर्तिप्रधानाः पुरुषाः कीर्तिपुरुषाः स्था० कित्तणयं-कीर्तनं शब्दनम्। आव० १८१। ४४८ कित्तणा-कीर्तना संशब्दना। आव० ४९२। कित्तीपुरिसो-कीत्तिपुरुषः वासुदेवः। आव० १५९। कित्ति-कीतिकूट-केसरिह्रदसुरीकूटम्। जम्बू० ३७७।। | कित्तेइ-कीर्तयति-तत्समाप्तौ इदमिदं कीर्तिः एकदिग्व्यापी। भग० ६७३। दशवै० २५७। एक- चेहादिमध्यावसानेषु कर्तव्यं तच्च मया कृतमिति दिग्गामिनी प्रख्यातिर्दानफलभूता वा। भग० ६४३। कीर्तनात्। उपा० १५ जातित-पोबाह श्रुत्यादिजनिता। लाधा। दानसाध्या। । किन्न-कीर्णः क्षिप्तः। स्था०४६४। सूत्र. १८२। दानपुण्यफला। आव०४९९| प्रसिद्धिः। प्रश्न | किन्नग्गन्थे-कीर्णः-क्षिप्तः ग्रन्थो३६। केसरि-हदे देवताविशेषः। स्था०७३। सर्वदिग्व्यापी धनधान्यादिस्तत्प्रतिबन्धो वा येन स किर्णग्रन्थः। स्था० साधुवादः। स्था० ५०३। एकदिग्गामीनी प्रसिद्धिः। भग. ४६४१ ५४१। दान-पुण्यफला कीर्तिः। स्था० १३७) किन्नपुडगसंठिओ-आवलिकाबाह्यस्य नवमं गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा, एकदेशगामिनी पुण्यकृता वा संस्थानम्। जीवा० १०४१ कीर्तिः प्रज्ञा०४७५ किब्बिस-किल्बिषस्य पापस्य हेतुत्वात्, कित्ति(त्ती)- चतुर्थवर्गे चतुर्थमध्ययनम्। निर० ३७। दवितीयाधर्मदवार-स्याष्टादशं नाम। प्रश्न २६। पापाः। प्रख्यातिः। ज्ञाता० २२० बृह० २१२ आ। कित्तिकर-दानपुण्यफला कीर्तिस्तत्करणशीलः किब्बिसभावणा-किल्बिषभावना। उत्त० ७०७ कीर्तिकरः। आव०४९९। किब्बिसिआ-किल्बिषिकाः-परविदूषकत्वेन कित्तिताइं-कीर्तितानि-संशब्दितानि नामतः। स्था० पापव्यवहारिणो भाण्डादयः। जम्बू. २६७। पातकफलवन्तो निःस्वान्ध-पवादयः। ज्ञाता०५७। कित्तिम- कृत्रिमः-योगेन निष्पन्नः। ओघ० १६८१ किल्बिषं-पापं उदये विदयते येषां ते किल्बिषिकाः कृत्रिमः-क्रमेण शिल्पिकर्षकादिप्रयोगनिष्पन्नः। जम्बू. | पापाः। स्था० १६२ | किमंग पुण-किं पुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य कित्तिमई- कीर्तिमती, कीर्तिसेनसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी | विशेषद्योतनार्थम् अङ्ग्रेत्यामन्त्रणे यद्वा परिपूर्ण २९७। ६९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [53] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] एवायं शब्दो विशेषणार्थः। निर०७४ ५६९। कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थः। अष्टमशते किमाइया-किमादिका-उपादानकारणव्यतिरेकेण चतुर्थोद्दे-शकः। भग० ३२८१ किमादिः मौलं कारणं यस्याः सा। प्रज्ञा० २५६। किरियट्ठाणं-क्रियास्थानम्। आव०६५८५ किमाई-किमादिः-मौलं कारणम्। प्रज्ञा० २५६) किरियठाणं-क्रियास्थानंकिमाहार-चतुर्दशशते षष्ठोद्देशः। भग० ६३०| सूत्रकृताङ्गस्याष्टादशमध्ययनम्। उत्त०६१६) किमिकुट्ठ- कृमिसंकुलं कोष्टमुदरं कृमिकोष्ठः। व्यव० किरियवादी-क्रियावादी जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्त्येवेत्येवं ३५० अ। कृमिकृष्ठः-रोगविशेषः आ० ११६| सावधारणक्रियाभ्युपगमो यस्य सोऽस्तीति। सूत्र. २०२। किमिच्छए-कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स क्रियां-जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितं शीलं यस्य किमिच्छकः। दशवै. ११७ सः। सूत्र० २०८१ किमिच्छय-यो यदिच्छति तस्य तद्दानं समयत एव किरियविसालं-क्रिया:-कायिक्यादिकाः विशालाःकिमि-च्छकम्। आव० १३६| विस्तीर्णाः सभेदत्वादभिधीयन्ते तत् क्रियाविशालम्। किमिण-कृपणः। स्था० ३४२। कृमयः सम० २६| अशुच्यादिसम्भवाः। उत्त०६९५। कतिपयकृमिवत्। किरिया- अनुष्ठानम्। स्था०५०३। क्रिया-सम्यक्संयमाज्ञाता०१७७ नुष्ठानम्। प्रज्ञा० ५९। कर्मबन्धः। ब्रह० ७१ आ। क्रियन्ते किमिणा- कृमिवन्तः। प्रश्न०६० मिथ्यात्वादिक्रोडीकृतैर्जन्तुभिरिति क्रियाः। किमिय-कृमिकः जन्तुविशेषः। आव०११७ कर्मबन्धनिबन्ध-नभूताश्चेष्टाः। उत्त०६१३। अस्ति किमियडसंठितो-आवलिका बाह्यस्याष्टमं संस्थानम्। परलोकोऽस्त्यात्माऽस्ति च सकलक्लेशाकलकितं जीवा.१०४१ मुक्तिपदमित्यादिप्ररूणात्मिका क्रिया। भग० ९२५। किमिरागकंबले- कृमिरागेण रक्तः कम्बलः आस्तिकता। स्था० ४०८ कायिक्यादिका आस्तिक्यमात्रं कृमिरागकम्बलः। प्रज्ञा० ३६१| वा। सम० ५। कायिक्यादिः संयमक्रिया च। नन्दी० २४११ किमिरागो- कृमिरागः। जम्बू० ३४। अनुष्ठानम्। स्था० ५०४। क्रिया-चारित्रम्। व्यव० ४५७ किमिरासि- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। आ। वैद्योपदेशाद् औषधपानम्। निशी० पू० १०१। साधारणबादर-वनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। क्रिया-अस्तिवादरूपा। दशवै० २४२। सदन-ष्ठानम्। सूत्र. किमुलग-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। ३६१। अस्ति परलोक इत्यादिप्ररूपणात्मिका। उत्त० १७ कियाडियाए- कर्णेन। व्यव० ९आ। करणं क्रिया, कर्म-बन्धनिबन्धना चेष्टा। आव०६४२ किर-किल-परोक्षाप्तवादसूचकः। उत्त० ३४३,। अपारमा- भग० १२१। प्राणा-तिपातादिका। जीवा० १२८। एतन्नामा र्थिकत्वख्यापकः। उत्त० ३४३। परोक्षाप्तवादसूचकः भगवतीसूत्रस्य तृती-यशतकस्य तृतीयोद्देशकः। भग. सम्भा-वने। उत्त०७१२। परोक्षाप्तवादसूचकः। उत्त. १८६ क्रिया करणं तज्जन्यत्वात् कर्मापि क्रिया। क्रियत ६२० संशये। आव. २४०| परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः। इति क्रिया कर्म एव। भग०१८२ करणं क्रियाआव० १३०| किल-लक्षणमेवास्येदमभिधीयते न पुनस्तं कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा। प्रज्ञा०४३५। प्रज्ञापनाया कोऽपि छेत्तुं वाऽऽरभत इत्यर्थसंसूचनार्थः। भग० २७६। द्वाविंशतितमं पदम्। प्रज्ञा०६। क्रिया। आव० ११६ । किराइं-किल। आव. ९११ अत्थिवादो। दशवै० १३ किराडयं-किराटकं द्रव्यम्। आव० ८२२ किरियाठाणा- क्रियास्थानानि करणं क्रिया-कर्मबन्धनि किरिकिरिया-तेषामेव वंशादिकम्बिकातोदयम्। आचा० बन्धनचेष्टा तस्याः स्थानानि-भेदाः-पर्यायाः ४१२ क्रियास्थानानि। सम० २५। सूत्रकृताङ्गस्य किरिमालए-किरिमालकः। दशवै. ५१। द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयमध्य-यनम्। सम०४२। किरिय-क्रिया-सम्यग्वादः। आ०७६२२ चिकित्सा। आव० | सूत्रकृताङ्गस्य दवितीय मध्ययनम्। स्था० ३८७। मनि दीपरत्नसागरजी रचित [54] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] किरियातीता-किरियाए कीरमाणीएवि जा ण पण्णपति |किलाम-क्लमः शरीरायासः। भग. २९५। देहग्लानिरूपः। सा| निशी० २११ । आव. ५४७। ग्लानि। स्था० १३॥ किरियारुइ-क्रिया-सम्यक्संयनानुष्ठानं तत्र रुचिर्यस्य स | किलामणया- ग्लानिनयनम्। भग० १८४। क्रियारुचिः। प्रज्ञा० १६। किलामिओ-क्लामितः समुद्घातं नीतः, किरियारुई-क्रियारुचिः-दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य ग्लानिमापादितः। आव० ५७४। भावतो रुचिरस्तीति सः। स्था०५०४| क्रिया-अनुष्ठानं |किलामेति-क्लमयन्ति-मूच्र्छापन्नान् कुर्वन्ति। प्रज्ञा. तस्मिन् रुचिर्यस्य सः। उत्त. १६३। ५९श किरियावरण- क्रियामात्रस्यैव-प्राणातिपातादे वैः क्रिय- | किलामेइ-मारणान्तिकादिसमुदघातं नयति। भग० २३० माणस्य दर्शनात्तद्धेत्कर्मणश्चादर्शनात् क्रियैवाचरणं- | किलामेह-क्लमयथ-मारणान्तिकसमुदघातं गमयथ। कर्म यस्य स क्रियावरणः। स्था० ३८३। भग० ३८११ किरियावाई-क्रिया कर्तारं विना न संम्भवति सा किलिंच- शलाका। भक्त। किलिञ्च-क्षुद्रकाष्ठरूपः। चात्मसम-वायिनीति वदन्ति तच्छीलाश्च ते दशवै. १५२ क्रियावादिनः। क्रियां जीवा-दिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां किलिकिञ्चतं- रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपद्वा। वदितं शीलं येषां ते क्रिया-वादिनः। क्रियाप्रधानम्। भग. सम०६४१ ९४४। क्रियावादी-क्रियैवचैत्यकर्मा-दिका प्रधानं किलिकिलाइतं-किलकिलायितम्। आव. ३४८१ मोक्षाङ्गमित्येवं वदितुं शील यस्य सः। सूत्र. ३७। तत्र न | किलिकिलिंतो-किलकिलायमानः। आव०४२२१ कर्तारं विना क्रिया सम्भवति तामात्मसवायिनीं वदन्ति | किलिटुं-क्लिष्टं-बाधितम्। उत्त. १२२ ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिनः। सम० ११० नियत- किलिन्नं-क्लिन्नं-निचितम्। उत्त० १२२ शुक्लपाक्षिकाः। दशाश्रु । सकलमतसमवसरणे किलीबे-क्लीबे-नपुंसकः। आचा० ३३१| कथञ्चिदा-त्मादयस्तित्वादि क्रियावादिनः सम्यग्दृशः। । | किलेसो-क्लेश:-रोगः। पिण्ड०७०/ क्लेशः शारीरी। सूर्य भग. ९४४१ २९७ किरियावादी-आत्मसमवायिनी वदन्ति तच्छीलाश्च ये किवण-कृपणाः-रकादयो दुःस्थाः। स्था० ३४२। दरिद्राः ते क्रियावादी। नन्दी. २१३ क्रियां वदतीति क्रियावादी । आचा० ३२५। अपरित्यागशीलः, अहवा दारिद्दोवहतो वेज्जे-त्यर्थः। निशी० ६६ आ। क्रियां-जीवाजीवादिरर्थोऽ- | जायगो कृपणः। निशी० ९८ आ। कृपणः-रङ्कः। भग. स्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिनः आस्तिकाः। स्था० | १०१। दीनो वराककः, इन्द्रियैः पराजितः। सूत्र०७२। २६८ यतः कर्मयोगनिमित्तं बध्यते, योगश्च व्यापारः । | रङ्काः-रकादयो दुःस्थाः। स्था० ३४१। प्रश्न० २५। स च क्रियारूपः, अतः कर्मणः कार्यभूतस्य किवणकलुणो- कृपणानां मध्ये करुणः कृपणकरुणः। वदनात्तत्कारणभूतायाः क्रियाया अप्यसावेव परमार्थतो अत्यन्तकरुणः। प्रश्न. ५९। वादीति। आचा० २२ किवणकुलाणि- कृपणकुलानि-तर्कणवृत्तीनि। स्था० किरियाविसालपुव्वं-त्रयोदशपूर्वम्। स्था० १९९। ४२० किरियाविहाणं-क्रियाविधानं-सिद्धक्रियाविधिः। प्रश्न. | किविणं- कृमिवत्। प्रश्न० १६२। कृपणः-पिण्डोलकः। दशवै०१८४ किलंत-क्लान्तः-ग्लानिमपगतः। जीवा० १२ किविणवणीमते-कृपणाः-रकादयो दुस्थाः, ग्लानिभूतः। ज्ञाता०२८१ परेषामात्म-स्थत्वदर्शनेनान्कूलभाषणतो यल्लभ्यते किलकिलाइयरवे-किलकिलायितरवः सानन्दशब्दः। द्रव्यं सा वनी प्रतीतो तां पिबति-आस्वादयति पातीति जम्बू० ५३० वेर्ति वनीपः स एव वनीपकः-याचकः। स्था० ३४१। किलकिलायमानः- किलकिलशब्दं कृर्वाणः। नन्दी० १५८१ | किदिवस-किल्बिषं क्लिष्टतया निकृष्टमशुभानुबन्धि ११७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [55] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] 1981 अधमः उत्त० १८३ किल्बिषिकं कर्म। दशवै० १८९। | कीयकडं- क्रीतेन-क्रयेण कृतं-साधुदानाय कृतं किल्बिषं पापम्। प्रज्ञा० ४०५१ क्रीतकृतम्। प्रश्न. ११४१ किव्विसत्तं-किल्बिषत्वं-चाण्डालप्रायदेवविशेषत्वम्। कीयगड-क्रयणं क्रीतं तेन कृतं-निष्पादितं क्रीतकृतं, प्रश्न.११ क्रीत-मित्यिर्थः। पिण्ड० ९५भग० २३१। क्रीतकृतम्। किस-कृशं स्तोकमपि तृणत्षादिकमपीत्यर्थः। कसनं- आचा० ३२९। कयेण-कडं कीयकडं, कत्तिएण वा कडंकसः परिग्रहग्रहणबुद्ध्या जीवस्य गमनपरिणामः। कीयगडं। निशी० १०३आ। सूत्र० १३ कीयतिय-क्रीतत्रितयं-क्रयणक्रापणानुमतिरूपम्। दशवै. किसलय-किशलयः-अवस्थाविशेषोपेतः। पल्लवविशेषः। । १६८१ जीवा० १८८ किशलयः-अवस्थाविशेषोपेतः कीरंत-क्रियमाणः। ज्ञाता० १७३। पल्लवविशेषः। जम्बू. २९। अतिकोमलः। जम्बू०५३। कीर-शकः। जीवा. १८८ अभिनवपत्रम्। उत्त० ३३४१ कीत्ति-नीलवर्षधरपर्वते पञ्चमकूटः। स्था०७२ किसि-कृषि:-क्षेत्रकर्षणकर्म। प्रश्न. ९७१ कीलं-कीलकम्। दशवै. १७६। कण्ठः । सूत्र. १३०| किसिपरासरो-कृषिप्रधानः पारासरः कृषिपारासरः। उत्त० | कीलंति-यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन ११८ शरीरेण कृशस्तेन पारासरः कृशपारासरः। उत्त.. गीतनृत्यादिविनो-देन वाऽवतिष्ठन्ते। जम्बू०४६। १९९| कामक्रीडां कुर्वन्ति। भग० ६१८१ किसी- कृषिः-कृषिकर्मोपजीवी। जीवा. २७९। कीलइ-क्रीडति। आव० १९२॥ किसीए- कृषीकरणम्। आचा० ३२। कीलओ-कर्पूराकारम्। बृह. २४५ अ। किह-केन प्रकारेण। भग. ११६| कीलगसहस्सं-कीलकसहस्रं महत्कीलम्। जीवा० १८९। कीअ-कीचकः वंशः। दशवै० २४३।। कीलसंस्थाने-कीलवद्दीर्घमुच्चं गतं तस्मिन्। ओघ. २११। कीअगडं-क्रीतकृतं-द्रव्यभावक्रयक्रीतभेदम्। दशवै. १७४१ | कीलावणधाती-चउत्थी धाई। निशी० ९३आ। कीएइ-भोजनदोषः। भग० ४६६। क्रीडनकारिणी। ज्ञाता०४१। कीकशं-अस्थि। प्रश्न. १११ कीलिआइ-क्रीडितं-स्त्रीभिःसह तदन्य क्रीडेति। सम० कीट:- कचवरनिश्रितो जीवविशेषः। आचा० ५५ १६ कीटजं-यत्तथाविधकीटेभ्यो लालात्मकं प्रभवति यथा कीलिका-यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धानि तत्। जीवा १५ पटसूत्रम्। उत्त० ५७१। ४२ अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि। राज०५७। कीड-कीटः कृमिः। दशर्वे. १४२। घुणादि। बृह० १५२॥ यत्रास्थीनि कीलिकमात्रबद्धान्येव तत्। प्रज्ञा० ४७२। चतुरिन्द्रियजीवभेदः। प्रज्ञा० ४२। जीवा० ३२। उत्त. कीलिगा-अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि। जम्बू०१५ कीलिय-क्रीडितं दयूतादिक्रीडा। प्रश्न. १४०| कीलिका कीडति-क्रीडति-यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन लोहरेखा। दशवै. ९१। गीतन-त्यादिविनोदेन वा तिष्ठति। जीवा. २०११ कीव-कीवः पक्षिविशेषः। प्रश्न. २३। मन्दसंहननम्। कीडयं-वडयपट्टोति। निशी. १२६ अ। भग० ४७१। नामविशेषः। ज्ञाता० २०८। मैथनाभिप्राये कीडाए-क्रीडायै-लंघनवलग्नानस्फोटनक्रीडानां योग्यः। यस्याङ्गा-दानं विकारं भजति बीजबिन्दूश्च परिगलति आचा० १०६| स क्लीबः। बृह. ९९ आ। क्लीबः-असमर्थः। स्था० कीते-द्रव्येण भावेन वा क्रीतं-स्वीकृतं यत्तत्क्रीतमिति। १६४। क्लीबः-निःसत्त्वः। उत्त०४५७। स्था०४६० कीस-कस्मात्। उत्त. १३५ कीसत्ता-किंस्वता, किंस्वकीय-शबले षष्ठो दोषः। सम० ३९। क्रीतं-मल्येन परिग- | भावता, कीदृशता वा कः प्रकारः-किंस्वरूपतेत्यर्थः। हीतम्, अष्टमदोषः। भग. २२ किम्। व्यव० ६७ अ। ६९६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [56] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कुंकण- चतुरिन्द्रियजीवविशेषः। उत्त० ६१६। कोकनदः। | कुंडधारपडिमाओ-कुण्डधारप्रतिमे-आज्ञाधारप्रतिमे। प्रज्ञा० ३७ जम्बू०८२ कुंकुम- केशरः। अनुयो. १५४ आव० ८२३। जीवा. १९११ कुंडधारी-तीर्यक्ज़म्भकदेवविशेषः। आचा० ४२२ कुकुम, जात्यघृसृणम्। जम्बू० २१३। कुङ्कुम- कुंडपुरं-कुण्डपुरं-वर्द्धमानजन्मभूमिः। आव० १६०| कश्मीरजम्। प्रश्न. १६२| निशी० २७६ आ, १३९ अ। प्रव्रज्यास्थानम्। आव० ३१२ सुदर्शनाया कंकमकेसरं- पद्मकम्। दशवै. २०६। वास्तव्यस्थानम्। उत्त० १५३। कुंकुमपुड-गन्धद्रव्यः। ज्ञाता० २३२। कुंडमोए-कुण्डमोदं, हस्तिपादाकारं मृन्मयं पात्रम्। कुंच-क्रौञ्च-पक्षिविशेषः। उत्त०४०७। सम० १५८१ प्रश्न. दशवै० २०३ कुंडरिया-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| कंचवीरगो-सगडपक्खिसारित्थं जलजाणं कज्जति। कुंडल-कुण्डलं-कर्णाभरणविशेषरूपः। प्रज्ञा० ८८1 निशी. १७ । कर्णाभ-रणविशेषः। औप. ५०| भूषणविधिविशेषः। कंचिक-तापसविशेषः। व्यव० ६४ आ। जीवा० २६८। अरुणवरावभाससमुद्रानन्तरं द्वीपः, कंचिका- | नन्दी० १६५ तालोदघाटिनी। पिण्ड० १०६। तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। कुण्डलंकुंचितो- तावसविशेसो। निशी. १०१ आ। कर्णाभरणविशेषः। भग० १३२॥ कुंचिय-कुञ्चितः-कुण्डलीभूतः। भग० १०| वक्रः। प्रश्न | कुंडलजुअलं-कुण्डलयुगलं-कर्णाभरणम्। आव० १८० ८२ कुंडलभद्दो- कुण्डलभद्रः-कुण्डले द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। कुंची-कुडिलो, मायावी। व्यव० ६३ आ। जीवा० ३६८१ कुंजरसेणा-कुञ्जरसेना-ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां कुंडलमहाभद्दो- कुण्डलमहाभद्रः-कुण्डले मध्ये पञ्चमी। उत्त० ३७९। द्वीपेड पराद्धघातिर्देवः। जीवा० ३६८। कुंजरावत्त- वज्रस्वामिपूजास्थानम्। मरण | कुंडलवर- द्वीपविशेषः। अनुयो० ९०| कुण्डलवरे समुद्रे कुंजरो-कौजीर्यतीति कुञ्जरः कुजे-वनगहने रमति- पूर्वार्द्धा-धपितिर्देवः। जीवा० ३६८ कुण्डलसमुद्रानन्तरं रतिमा-बध्नातीति कुञ्जरः। जीवा० १२२ द्वीपः, तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। कुंट-हीनहस्तः। निशी० ४३आ। विकृतहस्तः। प्रश्न. कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकारकुण्डलाकृतिः-कुण्डलवरः। २७। अवयवविशेषः। आचा० ३८९। स्था० १६६, १६७। कुण्डलवरः कुण्डलसमुद्रपरिक्षेपी कुंटत्तं- कुण्टत्वं पाणिवक्रत्वादिकम्। आचा० १२०| द्वीपविशेषः। कुण्डलवर-द्वीपपरिक्षेपी समुद्रश्च। कुंटितो-कुण्टितः। आव० ३९६) जीवा० ३६८1 कुंडं- पुढविमयं। दशवै. ९९। गङ्गाकुण्डादि। नन्दी | कुंडलवरभद्दो- कुण्डलवरभद्रः कुण्डलवरद्वीपे २२८। कुलियं। निशी. २४ आ। स्थलविशेषः। भग० १४२॥ | पूर्वार्द्धाधिपति-देवः। जीवा० ३६८१ कुंडग-सण्हतंडुलकणियाओ कुकुसा य कुंडगा। निशी. | कुंडलवरमहाभद्दो- कुण्डलवरमहभद्रः कुण्डलवरे ३२ अ। कुडङ्गम्-जालिः। आव० ६७०। पानीयभाजनम्। | द्वीपेऽपरार्द्ध-धिपतिर्देव। जीवा० ३६८१ निशी० ६६ आ। कुण्डकः-कणक्षोदनोत्पन्नकुक्कुसः। | कुंडलवरमहावर-कुण्डलवरे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। उत्त०४५ जीवा० ३६८१ कुंडग्गाम-कुण्डग्रामः, वर्धमानस्वामिविहारभूमिः। आव० | कुंडलवरावभास-कुण्डलवरसमुद्रानन्तरं द्वीपः, २१९। ब्राह्मणकुण्डग्रामविषयोऽष्टमशते तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७) त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशकः। भग० ४२५ कुंडलवरावभासभद्द-कुण्डलवरावभासे द्वीपे वैश्यायनतापसस्थानम्। भग०६६५। पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा० ३६८। कुण्डलवरसमुद्रपरिक्षेपी कुंडदोहणी-कुण्डदोहनी। ओघ० ९७। द्वीपः, कुण्डलवरावभासद्वीपतत्परिक्षेपी समुद्रश्च। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [57] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जीवा० ३६८० उत्त०६९५। पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः। आचा० ५५ कुंडलवरावभासमहाभद्दः-कुण्डलवरावभासे गोमयनि-श्रितो जीवविशेषः। आचा०५५। षष्ठः द्वीपेऽपरार्ध-धिपतिर्देवः। जीवा० ३६८ चक्रवर्तिनाम्। निशी. २७६ आ। कुन्थुः-सप्तदशो कुंडलवरावभासमहावर-कुण्डलवरावभासे समुद्रेऽपरा - जिनः, मनोहरेऽभ्युन्नते महाप्रदेशे स्तूपं रत्नविचित्रं धिपतिर्देवः। जीवा० ३६८० स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा तेन तस्य कुन्थुरिति नामकृतम्। कुंडलवरावभासवर-कुण्डलवरावभासे सम्द्रे पूर्वार्द्धाधि- आव०५०५ पतिर्देवः। जीवा० ३६८१ कुंथू-कुः पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति कुस्थः। आव० ५०५। कुंडला-कुण्डला सुकच्छविजये राजधानी जम्बू० ३५२। षष्ठः चक्रवर्तिनामः। सम० १५२ स्था० ३०२। कुन्थुः कुंडलाओ- विदेहेषु राजधानी, विशेषनाम। स्था० ८० षष्ठः चक्री। आव. १५९। त्रीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० कुंडलिक- मात्रकं हस्तो वा। ओघ० १६७। ४श कुंडलो- कुण्डलः अरुणवरावभाससमुद्रपरिक्षेपी | कुंथूपिवीलिया- कुन्थुपिपीलिका–त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। द्वीपविशेषः। ओघ० १६८। कुण्डलद्वीपपरिक्षेपी जीवा० ३२ समुद्रश्च। जीवा० ३६८। कुण्डलः कुंदं-कुन्दं कुसुमम्। प्रज्ञा० ३६१। जीवा० २७२। लताजम्बूद्वीपादेकादशकुण्डलाभिधानद्वीपान्तर्वी विशेषः। भग० ८०२। पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता०६९। कुण्डलाकारपर्वतः। प्रश्न. ९६। पुष्पविशेषः। जम्बू० ३५ कुंडागं-कुण्डाकं सन्निवेशः। आचा० २०९। कुंदकलिका- कवलपुष्पम्। प्रज्ञा० ९१। कुंडिआ-कुण्डिका। अनुयो० १५२॥ कुंदगुम्मा-कुन्दगुल्माः। जम्बू. ९८१ कुंडिका-कुण्डिका। उत्त० ११३। कुंदरुक्क-चीडाभिधानगन्धद्रव्यः। प्रश्न०७७ कुंडिगा-कुमण्डलू। बृह० २१ आ। कुंदु-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४ कुंडिनी- भीष्मराजधानी। प्रश्न०८८1 कुंदुरुक्क-चीडा। सम० १३८ सिल्हकम्। सूर्य० २९३। कुंडिय-कुण्डिका कमण्डलू। भग० ११३॥ कुक्कटरुत। आव०४०८। चीडा। ज्ञाता०४०। औप.५१ कुंडिया-कुण्डिका-कमण्डलू। प्रश्न. १५२। औप० ९५) वनस्पतिवेशषः। भग०८०४। कन्दुकः-चीडाभिधं आव० ३०५। आलुका। अनुत्त० ५। भग० ६६३। द्रव्यम्। जम्बू०१४४चीडा। प्रज्ञा० ८७। कुन्दुरुष्कःकुंडी-पानीयभाजनविशेषः। निशी० ६१ अ। चीडा। जीवा० १६०, २०६। कुंडुक्क- भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७) कुंदुलता- लताविशेषः। जीवा. १८२। कुंडुल्क- आलिन्दकम्। अनुयो० १५३। कुंदो- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ कुंढो- कुण्ढः-मायावी। उत्त० १०८ कुंभ- ललाटम्। बृह. १३ | आढकषष्ट्यादिप्रमाणतः। कुंत-भल्लः। आव० ५८८ प्रज्ञा० ९७। कुन्तम्। जीवा० स्था० ४६२। कुंभ एव, अहवा चउकढिं काउं कोणे कोणे ११७। कुन्तकं-एतावद्रव्यं त्वया देयमित्येवं धडओ बज्झति, तत्थ अवलंबिउं आरंभिउं वा संतरणं नियन्त्रणया नियोगिकस्य देशादेर्यत्समर्पणम्। विपा. कज्जति। निशी. ४४ आ। एगो घडणा वा। निशी० ७७ ३९। शस्त्रविशेषः। जीवा० १९३| कन्तः-भल्लाभिधः आ। मुनिसुव्रतनाथस्य प्रथमशिष्यः। सम० १५२॥ शस्त्रविशेषः। आव०६५१। एकोनविंशतितमः तीर्थंकरस्य पिता। सम० १५१। नवमकुंतग्गं- कुताग्रं-भल्लाग्रम्। स्वप्नः। ज्ञाता०२० नरके एकादशः परमाधार्मिकः। कुंतफल-कुन्तफलम्। आचा० ३११। उत्त०६१४१ आव.६५० सम० २९। मल्लिजिनपिता। कुंतल-शेखरकः। ज्ञाता० १३८ ज्ञाता० १२४। आव० १६१। सूत्र० १२४१ आढकानां षष्ट्या कुंती- पाण्डुराजपत्नी। प्रश्न० ८७। जघन्यः कुम्भः अशीत्या मध्यमः शतेनोत्कृष्ट इति। कुंथु-कुंथवः-सत्त्वाः । ओघ० १२६। अनुद्धरिप्रभृतिः। | ज्ञाता० ११९| घटः। आव० २९५४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [58] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कुंभकारकड-उत्तरापथे प्रत्यन्तनगरम्। बृह. १५३ । कुच्छियकम्मा- मच्छबंधगादयो। निशी. १०७ अ। अ। उत्तरापथे णगरं। निशी० ४४ अ। कुम्भकारकटम्। कुकम्मो-कुकर्मी-अङ्गारदाहककुम्भकारायस्कारादिकः। उत्त० ११४ सूत्र. १६१ कुंभकारुक्खेवो-कुम्भकारोत्क्षेपः-सेनापल्ल्यां कुफुइया-भाण्डाः भाण्डप्रायाः। भग०४७९) पत्तनविशेषः। आव. ५३८1 कुकुच-भाण्डचेष्टः। बृह० २१३अ। कुंभग-मिथिलायां राजा। मल्लिपिता। ज्ञाता० १२४| कुकुवित-कुत्सितं-अप्रत्यपेक्षितत्वादिना कुचितंकुंभगारगड-कुम्भकारकृतः-नगरविशेषः। व्यव० ४३२ अधस्य-न्दितं यस्य सः ककुचितः स्था० ३७३। कुंभगारो-कुम्भकारकृतः-ढङ्काभिधो श्रमणोपासकः। कुकुर-श्वा। बृह. ८१ आ। श्वा। आचा० ३१४॥ आव० ३१३ कुकुला-कुफुका। दशवै० ११५ कुंभग्गं-कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भप्रमाणमुक्तामयं | कुकुस-कुक्कसा-तुषप्रायः, धान्यक्षोदः। आचा० ३४२ मु-क्तादाम। जीवा० २१०। कुम्भपरिमाणतः ज्ञाता० कुकूलानलो- कुकूलानलः। कारीषाग्निः प्रश्न० १४ १२६। कुक्कडे- चतुरिन्द्रियजीवविशेषः। उत्त० ६९६। कुंभग्गसो- कुम्भाग्रशः-अनेककुम्भपरिमाणानि। जम्बू | कुक्कइआ- कौत्कुच्यकारिणो भाण्डाः। जम्बू० ३६४। ૨૬રા. कुक्कुइए- कुत्सितसङ्कोचनादिक्रियायुक्तः कुचः कुंभबलि-कुम्भबलिका। आ० ६७५) कुकुचस्तद्-भावः कौकुच्यम्। अनेकप्रकारा कुंभार- प्रथमा श्रेणिविशेषः। जम्बू. १९३। मुखनयनोष्ठकरचरण विकाकुंभि-कुम्भी-पाकभाजनविशेषः। प्रश्न. १६४। रपूर्विकापरिहासादिजनिका भाण्डादीनामिव कुंभिका-कुम्भो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु । विडम्बनक्रिया। आव०८३०| कौकुचिकः-कुकुचा वा तानि कुम्भिकानि। स्था० २३२ अवस्यन्दनं प्रयोजन-मस्येति। स्था० ३७३| कौत्कुच्यंकुंभिक्का-कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणम्। अनेकप्रकारा मुखनय-नादिविकारपूर्विका जम्ब०५६। परिहासादिजनिका भाण्डानामिव विड-म्बनक्रिया। उपा० कुंभिपाग-कुम्भ्यां-भाजनविशेषे-पाकः कुम्भीपाकः। १०९। सम० १२६। कुक्कुइय-कुकुचेन-कुत्सितावस्पन्देन चरन्तीत कभी-नरके-रत्नप्रभादिनरकपृथिव्यात्मके कौकुचिकाः। औप० ९२। खुंखुणकम्। सूत्र० ११७। स्थानानिसीमन्त-काप्रतिष्ठानादीनि। उत्त. २४७ कुक्कुओ-स्थानशरीरभाषाभिश्चपलः। बृह० २४७ अ। मुखाकारा कोष्ठिका। बृह० १७९ । जस्स वसणा | कुक्कुटमांसकं-बीजपूरककटाहम्। स्था० ४५७) सुज्जति। निशी० ३३ । कुम्भी-उष्ट्रिकाकृतिः। सूत्र० | कुक्कुट्टी- कवलानां प्रमाणं कुक्कट्यण्डम्। शरीरम्। १२५। पिठरक एव सङ्क-टमुखः कुम्भी। आचा० ३२७। पक्षिणी। पिण्ड० १७३ कुम्भीनारकपचनस्थानम्। आव०६५१। कुक्कुड-कुर्कुटं-विद्यादिना दम्भप्रयोगलक्षणम्। वनस्पतिविशेषः। भग० ५११। कुम्भिकः व्यव० १६६ अ। कुर्कुटः-ताम्रचूडः। ज्ञाता० १। प्रश्न. नरकपालविशेषः। आव०६५१| कुक्कुडप्रायः ओघ०५६। चतरिन्द्रियजीवविशेषः। कुउब-कुतपं-चर्ममयं घृतभरणभाजनम्। पिण्ड० १५४१ प्रज्ञा० ४२। कक्कटः-लोमपक्षिविशेषः। जीवा० ४११ कुऊहलं-कुतूहलं-इन्द्रजालाद्यवलोकनगोचरः। उत्त० कुक्कटाः चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ १५१| कुक्कुडगो-कुक्कुटः। आव० ४२८१ कुऊहल्ले-कुतूहलः-औत्सुक्यः। सूर्य० ५। कुक्कुडजाइयं-कुक्कटजातिकं, अनेन पक्षिजातिरुद्दिष्टा। कुकुम्मा-मत्स्यबन्धवागरिकादयः। बृह. ५१ अ। आचा० ३४० कुकर्माणः-मात्स्यिकादयः। ओघ०७५। | कुक्कुडपोअ-कुक्कटपोतः-कुक्कटचेल्लकः। दशवै. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [59] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ। [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २३७ कुर्वन्ति, कुशदर्भयोराकारकृतो विशेषः। प्रश्न० १२८१ कुक्कुडमंसए- कुक्कटमांसकं-बीजपूरकं कटाहम्। भग० | कुच्चिए- कूर्चधरः। बृह. ९०आ। ६९१ कुच्छणा- कुत्सना-अगुल्यन्तराणां कोथः। व्यव. ९ कुक्कुडलक्खण-दवासप्ततौ कलायां सप्तत्रिंशत्तमा। ज्ञाता० ३२ कुच्छलवाहगा- त्रीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० ४२। कुक्कुडसंडेयगामपउरा-कुक्कुडसम्पात्या ग्रामाः सर्वासु कुच्छा- कुत्सा-प्रतिषेधः। दशवै० २७० दिक्षु विदिक्षु च प्रचुरा यस्याः सा कृच्छि-कुक्षिः-विहस्तमानः प्रज्ञा० ४८। क्कुडसण्डेयग्रामप्रचूराः। राज०२। द्विहस्तप्रमाणा। नंदी। ९६। कुक्कुडि-कुक्कटिः माया। पिण्ड० ९३। कुक्कटी-शरीरम्। | कृच्छिकिमिया-कक्षिकमयः-कुक्षिप्रदेशोत्पन्नाः कमयः। व्यव० ३३३ आ। जीवा० ३१। कुक्षिप्रदेशोत्पन्ना कृमयः कुक्षिकृमयः। कुक्कुडिअंडो-कुक्कड्यण्डकम्। व्यव० ३३३ आ। प्रज्ञा० ४११ कुक्कुडिअंडगपमाण-कुक्क्ट्य ण्डकस्य यत् प्रमाणं मानं | कुच्छिधार-कुक्षिधारा-नौपार्श्वनियुक्तकाः तत्। भग० २९२ आवेल्लकवाहका-दयः। ज्ञाता० १३६। कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ता-कुक्कट्यण्डकप्रमाणमात्रा, कुच्छिसूल-कुक्षिशूलं-रोगविशेषः। ज्ञाता० १२१। कुक्क-ट्यडकस्य यत्प्रमाणं-मानं तत्परिमाणं-मानं | कुच्छी-अष्टचत्वारिंशदङ्ग्लप्रमाणा। भग० २७५। येषां ते तथा, अथवा कुकुटीव-कुटीरमिव अष्टचत्वा-रिंशदगुलानि कुक्षिः। जम्बू० ९४| कुक्षिः जीवस्याश्रयत्वात् कुटीशरीरं कुत्सिता अशुचिप्रायत्वात् द्विहस्तमानाः। जीवा० ४० कुटी कुकुटी तस्या अण्डकमि-वाण्डकं कुच्छेज्जा-कुथ्येत्-पूतिभावं यायात्। अनुयो० १६२ उदरपूरकत्वादाहारः कुकुट्यण्डकं तस्य प्रमाणतो-मात्रा | कुज्जा-कुर्यात-करोतेः सर्वधात्वर्थत्वाद् गृहणीयात्। दवात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते। भग० २९२१ उत्त० ५३९। कुक्कुडिय- कोकुटिकाः-मातृस्थानकारिणः। बृह० ३०५। | कुटुंबिया- साधुसद्देण विच्छुद्धा गच्छन्ति। निशी० १०७ कुक्कुडी-कुकुटी-कुटीरम्। भग० २९२। कुटुंबी- प्रभूतपरिचारकलोकपरिवृतः। बृह० २७६ आ। कुक्कुययं-खुंखुणकम्। सूत्र० ११७ कुट्टणी- कण्डनकारिणी। बृह. ६५अ। कुक्कुरा-कुकरी:-श्वानस्ते च जिहिंसः। आचा० ३१०| कुट्टविंदो-वडपिप्पलआसत्थयमादिदाणवक्को मट्टियाए कुक्कुस-तुषप्रायो धान्यक्षोदः। दशवै० १७० सह कुटिज्जति सो। निशी०६४। कुक्कुसा-अतिगुलीकाः। बृह. १९५अ। कुक्कुसा- कुट्टा-चिञ्चतिका। बृह. २६७ आ। कणिक्का। आव०६२२॥ कट्टितं-छिद्रितं। निशी०६५। कुक्कुह- चतुरिन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० ४२। जीवा० ३२॥ | कुट्टियं-पत्थरादिणा। निशी. १७२ आ। कुचरा-चौरपारदारिकादयः। आचा० ३०८। कुच्छियचरा कुटुंब-कोटुंबिनी-गामित्यर्थः। बृह. ९८ आ। कुचरा पारदाकादि। निशी. ५८ अ। कुटुं-कष्टम्। निशी० २८९ अ। रोगविशेषः। निशी. १८८ कुचा- मृत्तिकाया उदकस्य च वधः। ब्रहः २९४ आ। अ। कुष्ठ-गन्धकहविक्रेयो वस्तु विशेषः। निशी. १० कुचिकर्णः- मागधजनपदे धनपतिः। आव० ३४। आ। कुचेले-जीर्णकर्पटः। ओघ०७४। कुंड-माया। निशी० ६३। कुच्चं- कूर्चम्। आव० ३९११ कुडुंग-वंशजालिका। बृह. ९अ। वनखण्डम्। बृह. २४६ कुच्चंधरो- कूर्चधरः अन्तःपुराधिष्ठायकः। ओघ०७४। अ। वंशादिगहनम्। ज्ञाता० २३९। देवक्लं वृक्षविषमो वा। कुच्चगं- कूर्चकाः क्रियन्ते येन। आचा० ३७२। व्यव. २०५। कुच्चो- कूर्चाः-येन तृणविशेषणः कुविन्दाः कूर्यान् | कुडंगीसरहाणं- गन्धवदुज्जयिन्यां स्थानम्। मरण | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [60] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कुडओ- चतुःसेतिकः कुडवः। ज्ञाता० ११९। | भित्तिः। उत्त० ५३०| खटिकादिरचितम्। उत्त० ४२५॥ कुडगं-तुसमुहीकणिया कुक्कससीमा कुडगं भण्णति। कुड्मलं-मुकुलं, कलिका। जीवा० १८२॥ निशी. १९६अ। कुड्यैकदेशः- भित्तिमूलम्। दशवै. १७८। कुडगफाणिए- कुटजफाणितं-कुटजक्वाथम्। प्रज्ञा० ३६४। | कुढिय- हृतगवेषकः। उत्त० ११०| ग्रामाधिपः, आरक्षकः। कुडगो-कुटः-कुम्भः। आव० ३१०| आव० २७२। कुडभी- लघुपताका। जीवा० २२९। जम्बू० ४०३, आव० | कुढिया-कुविया। निशी० ७७ अ। ७१९। जम्बू. ३२५। पताका। उत्त० ३०३। कुढो- चौरहतागवेषकः। बृह. २२अ। दशवै० ४४। निशी. कुडमुहे- | निशी. ३५७ आ। ६आ। कुडय-कुटजपुष्पाणि। जम्बू० २१२१ कुणक्के- कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कुडयज्जुणणीव-कुटजार्जुननीपा-वृक्षविशेषास्तत् | कुणपनहो- कुणपे-मांसे सूक्ष्मो नखो नखावयवः स पुष्पाणि कुटजार्जुननीपानि। ज्ञाता० १६१| कुणपन-खावयवः। व्यव० २५५ आ। जनपदविशेषः। कुडवं-मानविशेषः। आव० ८२३। निशी० ८०आ। कुडा-कुण्डानि-गङ्गाकुण्डानि। कुणाल-अशोकश्रीपुत्रः। बृह. १५३ आ। कुणालः, कुडागाराणि-कूटागारान्-पर्वतोपरिगुहाणि। आचा० ३८२, भावप्रणिधावुदाहरणे दृष्टान्तः। आव०७१३। असोगस्स नन्दी० २२८१ पुत्तोः । बृह० ४७ । कुडाविमा- वनस्पतिविशेषः। भग०८०२२ कुणालकुमार-पाडलिपुत्ते असोगसिरिराया तस्य पुत्तो कुडाहच्च-कूटाघातम्। राज० १३४| कुणालो। निशी० ४४ आ। कुडि-बृहती। आव० २६२। कटी। आव० ५२० कुणाला-जङ्घार्धमानैरावतीकण्ठे नदी। बृह. १६१ आ। कुडिउ- बद्धाङ्गः। निशी० १६१ आ। एरवती नदी कुणाला जणपदे, जनपदविशेषः। निशी. कुडियंठो-कण्डिकाण्ठः। आव० २७३। ८० जनपदः। राज०११६। जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५) कुडिय- हृतगवेषकः। उत्त० १०९। ज्ञाता० १४०। कुणाला यत्र श्रावस्तीनगरी ज्ञाता० १२५१ कुडिलगइ-कुटिलगतिः-वक्रगतिः। आचा० ४२। कुणि- गर्भाधानदोषात् हस्वैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा कृणिः कुडिलो-कुटिलः वक्रः प्रश्न० ३० कुण्ट इति। प्रश्न० १६१। पाणिविकलः। बृह. ११९ अ कुडिव्वय-कुटिव्रतः-परिव्राजकविशेषः। औप० ९१। कुणिए-कणिक।। राज०१४३। कुडी-कुटी-शरीरम्। भग० २९२। गृहः। आव० ४८४। कुणिओ-कुणिकः-सेवकविशेषः। प्रश्न १५ कुडीरग-कुटीरकं, तृणादिनिर्मितं लघुगृहम्। दशवै० १६६। कुणिमं- मांसम्। तन्दु० । उपा० २९। रुधिरम्। आव० कुडीरी-ओरजम्। तन्दु०। ५६१। कुणपः-शवः। अनुयो० १३८१ प्रश्न० ५२। मांसम्। कुडुंबजागरिय-कुटुम्बचिन्तायं जागरणं-निद्राक्षयः। पिण्ड०७१। जीवा. १०७। शबस्तद्रसोऽपि वसादिः कुटुम्बजागरिका। ज्ञाता०८३ कुणपः। जम्बू० १७१। कईंबिणीओ-पदातिरूपाः। भग. ५४८1 कुणिमवावण्ण-व्यापन्नं-विशरारुभूतं कणिमं-मांसं यस्य कुडुंबिया- कतिपयकुटुम्बस्वामिनः। राज० १२१। स | जीवा० १०७ कडभगो-जलमंडओ। निशी. ४५अ। कुणिमाहरे-कुणपः-शबस्तद्रसोऽपि वसादिःकुडुग- बहुबीजविशेषः। भग० ८०३। कुणपस्तदाहारः कुणपाहारः। भग० ३०९। कुड्डतर- कुड्यान्तरं-कुडयं खटिकादिरचितं तेनान्तरं- कणियं-मरहट्ठविसए चोद्दिति कणियं वा भणंतो। निशी. व्यवधानं कुड्यान्तरम्। उत्त० ४२५ २९४ आ। गर्भाधानदोषाद् हस्वैकपादौ न्यूनैकपाणिर्वा कुड्ड-कुड्ड-भित्तिः । आव०६१९। कुड्यम्। ओघ० ९१, कुणिः । आचा० २३३ १५३। कायोत्सर्गे चतुर्थो दोषः। आव० ७९८1 कुड्यं- | कुण्डकोलिए-रूपकान्तः। उपासकदसायां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [61] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] षष्ठमध्ययनम्। उपा०१।। प्रज्ञा०६० कुतप- बस्तिः । नन्दी०१६। तैलादिभाजनविशेषः। भग० | कुद्दव-कोद्रवः, सामायिकलाभे दृष्टान्तः। आव०७५१ ४७९। चर्ममयं भाजनविशेषः। ब्रह. २३६ अ। कुद्दाल-वृक्षविशेषः। भग० २७८1 उपरितनो भागः। उपा० कुतव-कुतपः-छागलम्। स्था० ३३८ भाजनविशेषः। २१। कोद्दालः। जम्बू० ९८। खननशस्त्रम्। शस्त्रविशेषः। निशी० ३४५। आचा० ३३। कुद्दालः-भूखनित्रम्। प्रश्न. २४| कुतित्थ-कुतीर्थम्। आव० ५६१। कुत्सितानि च तानि कुद्ध-क्रुद्धः। ज्ञाता०२१७। तीर्थानि-कुतीर्थानि च शाक्यौलूक्यादिप्ररूपितानि तानि | कुपक्ख-कुपक्षः-कुत्सितान्वयः। आचा० ३८८४ विद्यन्ते येषामनुष्ठेयतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनः। | कुप्परा- कूर्पराविव कूपरौ कूर्पराकारत्वात्। जम्बू० २०० उत्त० ३३७ कुप्पावयणियं-कुत्सितं प्रवचनं येषां ते तथा तेषु भवं कुतित्थियधम्मो-कृतीर्थिकधर्म: कुप्रावचनिकम्। अनुयो० २९। चरकपरिव्राजकादिधर्मः। दशवै० २३। कुप्पासओ-कुर्पासकः-कंचुकाः। बृह० २३५ अ। बृह० २५६ कुतुंबक- कुस्तुम्बकः। जीवा० १०५। आ। कुतुंबकसंठिय-कुतुम्बकसंस्थितः-आवलिका कुबेरदत्तो-निजसुतागामी। भक्त०| बाह्यस्यैकविंशतितमं संस्थानम्। जीवा. १०४। कब्जसंस्थानं- पञ्चमं संस्थानम्। प्रज्ञा०४७२। कुतुप-पक्वतैलादिभाजनम्। औप०६९। चर्मनिष्पन्नं कुब्जिका- वक्रजङ्घा। ज्ञाता०४१। घृतभरणपात्रम्। पिण्ड० ३५। चर्मकुम्भः। पिण्ड० १०५) कुब्द-निम्नं क्षाममित्यर्थः। उपा० २११ कुतूहलं-नटादिविषयम्। आव० ३४६। कुब्बरो-कूबरः वैश्रमणलघुपुत्रः। अन्त०५। कत्तिय-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्संभवं कुमार-दुःखमृत्युः। उपा० ५१। विरूपमारणप्रकारः। वस्त्वपि कुत्रिकम्। भग० १३६| ज्ञाता० १९२। प्रत्यन्तान् सीमासन्धिवर्तिनः कुत्तियावण-कुत्रिकं-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूत्रयं क्षुभ्यतोऽन्तर्भूतण्यर्थ-त्वात् समस्ता अपि तत्सम्भवि वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादको य आपणो- सीमापर्यन्तवतिनीः प्रज्ञाः क्षोभयतो दुर्दान्तान् हट्टो देवाधिष्ठि-तत्वेनासौ कत्रिकापणः। भग०४७२। दुःशिक्षितान् संग्रामनीति कुशलः सर्वतः सर्वासु दिक्षु यो कृत्रिमापणः। आव० ३२०। देवाधिष्ठितत्वेन दमयन् वर्तते स एतादृशः कुमारः। व्यव० १७० अ। स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितयसं-भविवस्तसंपादक कुमारः-द्वितीयवयोवर्तिछात्रादिः। उत्त० ३६४। कुत्सिता आवणो-हट्टः कुत्रिकापणः। ज्ञाता० ५६। कुत्रिकं माराः कुमाराः-सौकारिकाः ओघ०७५। मोदक-प्रियकस्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि मारः। पारिणामिकीबद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी. १६६। कुत्रिकं तत्सम्पादक आपण-हट्टः कुत्रिकापणः। भग. अयस्कारः। उत्त०४६१। कुमारः राज्याहः। प्रश्न. ९६| १३६। उत्त० १७१। अमुक्तभोगी। बृह० १३ आ। कुत्तियावणचच्चरी-कुत्रिकापणचर्चरी । दशवै० ५८५ कुमारगाह-कुमारग्रहः उन्मत्तताहेतुः। भग० १९७१ कुत्थंभरि-कुस्तम्भरि-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ कुमारग्गहो- कुमारग्रहः। जीवा० २८४। कुत्सति-निन्दति। आव. ५८७। कुमारनंदी-कुमारनंदी चम्पायां सुर्वणकारः। आव० २९६। कुथंभरि-धाणगा। निशी. १४४ आ। बृह० १०८ आ। कुदंडयं-कुदण्डकं-काष्ठमयं प्रान्तरज्ज्पाशम्। प्रश्न | कुमारपुत्तिय-कुमारपुत्रः निर्ग्रन्थविशेषः। सूत्र. ४१०| ५६| कुमारभिच्च-कुमाराणां-बालकानां भृतौ पोषणे साधु कुदंडो-कुदण्डः-असम्यग्निग्रहः। विपा०६३। कुमारभृत्यं, तद्धि शास्त्रं कुमारभरणस्य क्षीरस्य दोषाणां बन्धनविशेषः। प्रश्न. २२१ संशोधनार्थं दुष्टस्तन्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थं कुदंसणं- मिथ्यादर्शनम्। आतु० । कुदर्शनाः शाक्यादयः। | चेति। आयुर्वेदस्य प्रथमाङ्गम्। विपा० ७५३ स्था० ४२७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [62] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कुमारमुत्ती-कुमारभुक्तिः । आव० ३६६। निशी० २४३। ६६६ आव० २१३ कुमारसमण-कुमारश्चासावपरिणीततया श्रमणश्च | कुम्मारगाम- कूर्मारग्रामः वर्धमानस्वामिविहारभूमिः। तपस्वीरिव तया कुमारश्रवणः। उत्त०४९८५ भग०६६४। आव० २२२। कुमारामच्च-कुमारामात्यः। आव० ६७९, ४३६ नन्दी. कुम्मासा- कुल्माषाः सिद्धभाषाः, यवभाषा इत्यन्ये। १६३ दश. ५४। कमारामात्यः, असत्या दशवै. १८१। अर्द्धस्विन्ना मदगादयो माषा इत्यन्ये। सम्बद्धप्रलापित्वे उदाहरणम्। आव० ८३९। भग०६६८ कल्माषाः-राजमाषाः। उत्त० २९५। कुपितःकुमारामच्चतं-कुमारामात्यत्वम्। उत्त० १०५। मनसा कोप-वान्। विपा०५३। माषविशेषाः। आचा० ३१३। कुमारायं-कुमाराकं-सन्निवेशः। कुल्माषाः-उडदाः। पिण्ड० १६३ माषाः, ईषत्स्विन्ना वर्धमानस्वामिविहारभूमिः। आव. २०२। मुद्गादयः। प्रश्न. १५३। गोन्नद्वितीयनाम। आव० कुमारिए-सौकरिकः। बृह. ५१ अ। मारेति तं कमारिया। ८५४१ निशी. १०७ । कुम्मुण्णया- कूर्मपृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता, अर्हदादीनां कुमारिया-जे कुमारेण मारेति ते। निशी. १०७ आ। मातृयोनिः। प्रज्ञा० २२७ कुमारोलग्गएहि-कुमारावलगकैः। उत्त० ११५ कुम्मुन्नये- कूर्मः-कच्छपः तद्वदुन्नता कूर्मोन्नता। कुमुअं- कुमुदं गद्दर्भकम्। दशवै० १८५) मुकुदं स्था० १२२ चन्द्रबोध्यम्। जम्बू. ११५ कुय-कव्वं-शिथिलम्। व्यव. २९७ आ। कुमुतं- कुमुदं-चन्द्रविकाश्यं पद्मम्। प्रश्न० ८४। कुयवाय- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ कुमुदं-सहस्रारकल्पे विमानविशेषः। सम० ३३। कुरंग-द्विखुरविशेषः। प्रज्ञा०४५। मृगभेदः आनतकल्पे विमानविशेषः। सम० ३५। कुम्दः- श्रृङ्गवर्णादिविशेषः। जम्बू० १२४। कुरङ्गः मृगः। प्रश्न. चन्द्रबोध्यम्। भग० ५२०| कुमुदः दिग्हस्तिकूटनाम। ७ द्विखुरश्चतुष्पदवि-शेषः। जीवा० ३८1 जम्बू. ३६०। कुमुदो विजयः। जम्बू. ३५७। कुरंटओ-संदंशकः पुतपृष्टजान्वाच्छादि। बृह. २३७ आ। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ कुरच्छा(त्था)-देवजाणरहो वा विविधा संवहणा गच्छंति कुमुदगुम्म-आनतकल्पे विमानविशेषः। सम० ३५ सेसा करच्छा(त्था)। निशी० ७१ आ। कुमुदप्पभा-कुमुदप्रभा, पुष्करिणीनाम। जम्बू. ३३५१ कुरज्ज-कराज्यं भिल्लादिराज्यम्। जम्बू० २७७। कुमुदा-कुमुदा पुष्करिणीनाम। जम्बू. ३३५१ कुरणं- राजकीयमन्यदीयं वाची तं। व्यव० १७७ आ। अञ्जनकपर्वते पुष्करिणी। स्था० २३० कुरत्था-कुरथ्या-कुमार्गः। आ०७४०| कुमुदुगं-धान्यविशेषः। सूत्र० ३०९। कररी-पक्षिणी। उत्त०४८० कुमुयं- कुमुदं चन्द्रविकासि। जीवा० १७७ १९१। कुमुदः। कुररो-कुररः उत्क्रोशः। प्रश्न. २१। राज०८ चन्द्रबोद्यादीनि। ज्ञाता० ९८५ कुरल- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा० ४९। जीवा०४१। कुमुयदल-कुमुददल। प्रज्ञा० ३६११ कुराईण-कुराजानः-प्रत्यन्तराजानः। आचा० ३३४| कुमुया- महाविदेहेषु राजधानीविशेषः। स्था० ८०। कुमुदा- कुराया- कुत्थितो राया, पच्चंतणिवो। निशी. २७७ पञ्चिमदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्यापरस्यां पुष्करिणी। करिणमि-महति अरण्ये। ओघ. १५८ जीवा० ३६४१ कुरु-जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५ कुरुजनपदो यत्र हस्तिकुमुयाई- चन्द्रविकासीनि। जम्बू. २६। नागपुरं नगरम्। ज्ञाता० १२५१ कुम्म- कूर्मः षष्ठाङ्गे चतुर्थं ज्ञातम्। आव०६५३। सम० | कुरुआ-कुरुकुचा-पादप्रक्षालनादिका। ओघ० ८२। ३६। उत्त०६९४। ज्ञाता०९। कच्छाः । ज्ञाता०९।। कुरुए-कुरुकम्। सम०७१| सावोरूपमा। आ०६५३। कूर्मकः-कच्छपः। प्रश्न. ७० | कुरुकुचा-पादप्रक्षालनाचमनरूपा। ओघ० १२५ कुम्मगाम- कूर्मग्रामः-वर्धमानस्वामिविहारभूमिः। भग० | कुरुकुय-अचित्तपुढवी। निशी० १५९ आ। कुरुकुच। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [63] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ओघ. १९८१ आचा. २०३। विद्याधरादि। आ० ५१०| प्रख्यातं कुलम्। ओघ० ४८१ कुरुकया-पादप्रक्षालनादिका। बृह. २९० अन्वयो गच्छः। उत्त० ३४७। पार्श्वनाथसन्तानम्। उत्त. कुरुकुरायंति-क्लिश्नीतः। आव० ३९३। ५००। कुलमदः, द्वितीयं मद-स्थानम्। आव० ६४६| कुरुजणपदं- कुरुजनपदं देशविशेषः। आव० १४५) आर्यद्वितीयभेदे तृतीयः। सम० १३५ नागेन्द्रकुलादि। कुरुजणवयं-कुरुजनपदं देशविशेषः। उत्त० ३९५) दशवै० २४२॥ कुरुटुक-काकटुकबीजप्रायः। प्रश्न. ४३ कुलए- कुडवं चतुःसेतिकामानम्। दशवै.१३४ कुरुटुककडं-कुरुटुककृतं-कुरुटुकाः-काकटुकबीजप्राया कुलओ-चतस्रः सेतिका कुडवः। अनुयो० १५१। कूलतः अयोग्याः सद्गुणानां तैः कृतं अनुष्ठितम्, कुडवः। आव०४२४१ तृतीयाधर्मद्वारस्य क्वचित् चतुर्थं नाम। प्रश्न० ४३।। कुलकहा-उग्रादिकुलप्रसुतानामन्यतमा कथा कुलकथा। कुरुडः- कुणालायां स्थितमुनिः। उत्त० २०४। स्त्रीकथाया द्वितीयभेदः। आ०५८१। स्त्रीकथाया कुरुदत्त-अग्निदग्धो मुनिः। संस्ता० । द्वितीयभेदः। स्था० २०९। कुलसम्बन्धेन स्त्रीणां कथा कुरुदत्तपुत्त-कुरुदत्तपुत्रः-ईशानसामानिकवक्तव्यतायां कुलकथा। प्रश्न. १३९ अनगारः। भग० १५९ कुलक्ख-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ क्लाक्षः-चिलातदेशकुरुदत्तसुओ-कुरुदत्तसुतः-हस्तिनापुरे इभ्यपुत्रः। उत्त० | निवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४॥ १०९ कुलगर-कुलकरः। आव० ४९९। कुलकराः-विशिष्टबुद्ध्यो कुरुदत्तसुत-नैषेधिकीमाचरतां हतः। मरण। लोकव्यवस्थाकारिणः कुलकरणशीलाः पुरुषविशेषाः। कुरुभ- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२१ जम्बू. १३२। कुलकराः-विशिष्टबुद्ध्यो कुरुमई- कुरुमती, ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां लोकव्यवस्थाकारिणः पुरुषविशेषाः। स्था० ५१८॥ मध्येऽष्टमी, स्त्रीरत्नम्। उत्त० ३७९। सम० १५२| कुलगरकालो-कुललकरकाललः। आव० ११३। कुरुया- देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षालनं कुरुका। व्यव० | कुलघरं-पितृगृहम्। ज्ञाता० ११९। औप० ८९। बृह. २०७ १६३आ। | निशी. १९४ । कुरूविंद-कुरुविन्दः-तृणविशेषः। जम्बू० ११० तृणवि- | कुलच्चिया-कुलगता। व्यव० २४८। शेषः। आचा० ५७ प्रज्ञा० ३३॥ तृणविशेषः। प्रश्न. ८० कुलजः- कुलपुत्रकः। बृह० १९५आ। कुटलिकः। प्रश्न० ८० कुलजुत्तीए-आत्मकुलौचित्येनेत्यर्थः। व्यव० २२४ अ। कुरुए- कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपयति-विमोहयति यत्तत् | कुलत्थ- एकत्र कुले तिष्ठिन्ति इति कुलस्थाः। कुरूपं भाण्डादिकर्म। भग० ५७३। धान्यविशेषः। निर० २४| चवलिकाकाराः चिपिटिका कुर्यात्-आलोचयेद्। आचा० ३३७| भवन्ति। भग. २७४। धान्यविशेषः। भग०८०२ कुलं- उग्रादि। पिण्ड० १२९। वंशस्यावान्तरभेदम्। ज्ञाता० औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कुलत्थाः२२०| गृहम्। आचा० ३२१। बृह. ८६अ। निशी. १८५। चपलकतुल्याश्चिपिटा भवन्ति। जम्बू. १२४। कुलत्थाः उत्त० ४०४। गिह। निशी० ७० । समूहः। ज्ञाता० १६१। धान्यविशेषः। दशवै. १९३॥ चवलगसरिसा चिप्पिडया स्थानीयादि। आचा०८१। एगं कटंबं। दशवै० १६३।। भवन्ति। स्था० ३४४। एकत्र क्ले तिष्ठन्तीति कुलस्थाः। पितृसमुत्थं कुलम्। पिण्ड० १२९। सूत्र० २३६। उत्त० १४५१ | अन्यत्र कुलत्थाः धान्यविशेषाः। ज्ञाता०११० आव० ३४१। कुटुंबं। निशी० ८३ अ। १५९ आ। चान्द्रादिकं | कुलथेरा- कुलस्य लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च साधुसमुदायविशेषरूपं प्रतीतम्। स्था० २९९। कुटुम्ब, । व्यवस्थाका-रिणस्तद्भक्तश्च निग्राहकास्ते। स्था० यूथं वा। प्रश्न० ३७। कृमि-कीटवृश्चिकादि। जीवा० १३४। । ५१६| पैतृकः पक्षः। ज्ञाता० ७ प्रश्न० ११७। गच्छसमुदायरूपं | कुलधमा-कुलधमगा-ये कुले स्थित्वा शब्दं कृत्वा चन्द्रादिकम्। प्रश्न० १२६। नागेन्द्रादि। बृह० ८४ | भुञ्जते। निर०१५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [64] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कुलधम्मे- कुलधर्मः-उग्रादिकुलाचारः। कुलं-चान्द्रादिक- | कुलिंगे- द्वीन्द्रियादिः। ओघ० २२० माहतानां गच्छसमूहात्मकं तस्य धर्मः-सामाचारी। | कुलिअ-कुलिकं, लघुतरं काष्ठं तृणादिच्छेदार्थ यत्क्षेत्रे स्था० ५१५ वाह्यते तत्, मरुमण्डलादिप्रसिद्धम्। अनुयो०४८। कुलपव्वए- कुलपर्वतः हिमाचलादि। जम्बू० ४११। क्षेत्रस्यास्थ्यादिश-ल्योद्धरणे साधनविशेषः। आव. ५५४। कुलपव्वया-क्षेत्रमर्यादाकारित्वेन कलकल्पाः पर्वताः- कुलिकं, क्षेत्रविदारणं कृषिसाधनम्। दशवै०४० कुलपर्वताः, कुलानि हि लोकानां मर्यादानिबन्धनानि कुलिज्ज- कुलसमवायं। निशी. २९१ अ। भवन्ति इतीह तैरूपमा कृता। सम०६६) कुलिय-कुलिकं-कडणकृतं कुड्यम्। सूत्र० ५८१ कुलपुत्तओ- शय्यातरः। बृह० ३१० अ। कुलपुत्रकः। आव० हलप्रकारः। प्रश्न० ८1 अलविशेषः। प्रश्न० २४॥ कुंडं। ८१६| निशी० ८४ अ। कुलिकम्। आचा० ३३ कुलपुत्तगो- कुलपुत्रकः। आ० ४२२॥ कुलिया- कुड्यम्। बृह. १५९ अ। कुलपुत्तय-कुलपुत्रकः। उत्त० ५०| कुलीकोस-कुटीक्रोशः-पक्षिविशेषः। प्रश्न० ८। कुलमसी- कुलमषी-कुलमालिन्यहेतुः, कुलोवकुला-कुलोपकुलानि। सूर्य १११। तृतीयाधर्मद्वारस्य त्रयोविंशतितमं नाम। प्रश्न० ४३ कुल्माषा-उडदा, राजमाषा वा। बृह. २६७ आ। कुलरोग-कुलरोगः-कुलजन्यरोगः। भग० १९७। कुल्लग-नितम्बः। निशी० ६२ अ। कोल्लाकसन्निवेशः। कुलल- गृधं, शकुनिका वा। उत्त०४१० पक्षिविशेषः।। आव० १७१। प्रश्न. ८ कररः-मार्जारनामा पक्षिविशेषः। उत्त० ५११। | कुल्लूरिकापण-खाद्यकापणः। आव० २७५ मार्जारः। दशवै० २३७ मज्जारो। दशवै० १२६। कुवणउ-लउडगो। निशी० १३३ आ। कुलवे- कुडवः। भग० ३१३। कुलशिकाचतुर्थांशरूपो धान्य- | कुवणओ-लगुडः। बृह० ६८ अ। मानः। बृह. २३६ ॥ कुवणय-लगुडः। बृह० १५३ अ। कुलसरिसं- श्रीमदवणिजां रत्नवाणिज्यमिव। ज्ञाता० कुवलय-नीलोत्पलं पद्मम्। प्रश्न० ८४| कुवलयं तदेव २०५४ नीलम्। जम्बू. १९५५ कुला- कुलानि, नक्षत्राणि। सूर्य. १११। कुला-कुलानि- | कुवलयनं- वस्त्रादिमयं कुवलयनम्। व्यव० २७८ आ। गहाण्यामिषान्वेषणार्थिनो नित्यं येऽटन्ति ते, मार्जाराः। कुविंदवल्ली- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२। सूत्र० ८०० कुविंदाः- तन्तुवायाः। प्रज्ञा० ५८१ कुलाण-मृद्भावनं। निशी. १०९ अ। भाजनानि। नि कविए-कपितः-प्रवद्धकोपोदयः। भग० ३२२। ज्ञाता०६८ ३४४ आ। असोगस्स पत्तो। निशी. २४३। जम्बू० २०२। कुलाणुरूवं- कुलोचितम्। ज्ञाता० २०५। कुवितसाला-कुपितशाला-तूल्यादिगृहोपस्करशाला। कुलारिया- कुलार्याः। प्रज्ञा० ५६। प्रश्न० १२७ कुलालचक्र- दृष्टान्तविशेषः। प्रज्ञा० ११| कुवितो-कुविओ। निशी० २८६अ। कुलालया-कुलानि-क्षत्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्ड- | कुविय-कुप्यं-विविधं गृहोपस्कारात्मकम्। उत्त० ३६२। पातान्वेषिणां परतर्कुकाणामालयो येषां ते कुलालयाः, कुप्यः- गृहोपस्करः स्थालकच्चोलकादि। उपा० ८ निन्यजीविकोपगताः। सूत्र० ४०० गृहोपस्करः। प्रश्न. ९ कुलिंग-पिपीलिकादि। भग० ७५४| कुलिङ्ग-तापसादि- आसनशयनभण्डककरोटकलोहा-युपस्करजातम्। लिङ्गम्। आव० १३४। त्रीन्द्रियादि मर्दितः। ओघ० १६७। आव०८२६। कुपितः-जातकोपोदयः। भग. १६७ कलिंगच्छाए-पिपीलिकासदृशः। भग०७५४ कुपितम्-घटितम्। दशकं. ११५५ कुलिंगाले-कुलस्य-स्वगोत्रस्याङ्गार इवाङ्गारो | कुवियपमाणाइक्कमे-कुप्यप्रमाणातिक्रमः। आव० ८२५१ दूषकत्वातुप-तापकत्वाद्वेति। स्था० ९८४| | कुवेणी-कुवेणी रूढिगम्याम। प्रश्न. ४८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [65] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर- कोषः (भाग - २) [Type text] कुव्व- कुर्व-इत्यागमप्रसिद्धो । व्यव० १०७ आ । कुव्वकारिया- गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ कुव्वासह- सुभरो। नि० ३३२आ । कुशः- तृणविशेषः । जीवा० २६| प्रज्ञा० ३०| कुशलानुष्ठानं - ब्रह्मचर्यम् । सम० ९६ । कुशवच्चकम् - दुर्बलालम्बनः । आव० ५३४| कुशाग्रीयया - शेमुष्या । आचा० ११९ । कुशूल - कोष्ठम् । बृह० १६८ आ । कुष्माण्डी- विद्याविशेषः । आव० ४११ । कुसं- द्रुमगणविशेषः । जीवा० १४५| कुसंतो- कुशान्तः-दर्भपर्यन्तः । जीवा० २१० | कुस - दर्भानेव निर्मूलान् । निर० २६| मूलभूतः । ज्ञाता० ११४। कुशः-छिन्नमूलो दर्भः। भग० २९०| निर्मूलः। विपा० ७२ दर्भः । ज्ञाता० ७९ । औप० ९। भग० २७८ जम्बू० ९८\ प्रश्न० १२८। दर्भसदृशस्तृणविशेषः । उत्त० ३३४| कुसग्गं- कुशाग्रं, कुशाग्रपुरम्, अपरनाम प्रसेनजिद् राजधानी । आव ० ६७० कुसग्गजलबिन्दुसन्निहे- कुशाग्रजलबिन्दुसंन्निभः । उत्त० ३२९| कुसट्टा - जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । कुसणं- द्विदलम् । आव० ८४४ | कुशनं सूपः, व्यञ्जनं वा । उत्त॰ १६०। मुद्गदाल्यादि तदुदकं वा । बृह० २४६ आ कुसिणं-व्यञ्जनम्। आव० ३१४, ८५६ । कुसणातिओ - कुसणादिकः भिश्रितः । आव० ८५७ कुसत्तो - कुसत्त्वः- तुच्छघृतिबलः । बृह० २४१ आ । कुसथंवो– कुशस्तम्बः-कुशसमूहः । आव० ६७१। कुसपडिमा - कुशपडिमा । आव० ६३०, ६३५ कुसुमघरगं- कुसुमगृहकं-कुसुमप्रकरोपचितं गृहकम्। जीवा० २००१ कुसमयमोहमोहमइमोहियाणं- कुत्सितः समयःसिद्धान्तो येषां ते कुसमयाः कुतीर्थिकास्तेषां मोहःपदार्थेष्वयथावबोधः कुसमयमोहस्तस्माद्यो मोहःश्रोतृमनोमूढता तेन मतिर्मोहि-ता- मूढतां नीता येषां ते कुसमयमोहमोहमतिमोहिताः । सम० ११०| कुसल - कुशलं मिलितानां चौराणां सुखदुःखादितवार्तां प्रश्नः। प्रश्र्न० ५८। कुशलः- आश्रवादीनां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] हेयोपादेयतास्वरूपवेदी । भग० १३५ | पंडितो। निशी. १४६ आ। कुशलः-सम्यक्क्रियापरिज्ञानवान्। जीवा० १२२| जम्बू० ३८८| आलोचितकारी। भग० ६३१| गीतार्थः। आचा० ४३०। कुशलः-सम्बाधनाकर्मणि साधुः । औप॰ ६५| कर्म्मक्षपण-समर्थः, प्रधानो वा । निशी० २५ आ। कुशलः-विधिज्ञः। अवाप्तज्ञानदर्शनचारित्रो मिथ्यात्वद्वादशकषायोप-शमसद्भावात्। आचा० १४७ क्षीणघातिकर्मांशो विवि-क्षितः । आचा० १४७ आलोचितकारी। अनुयो० १७७| श्रीवर्द्धमानस्वामी। आचा॰ २१६। कुशाः द्रव्यतो दर्भादयो भावतः कर्माणि तान् कर्मरूपान् कुशान् लुनन्ति-समूलानुत्पाटयन्तीति तीर्थंकराः । बृह० १९३ अ । स्ववितर्काच्चिकित्सादिप्रवीणाः । ज्ञाता० १८० | तीर्थकृत्। आचा० २११| | कुसलत्तणं- कुशलत्वं सम्यग्ज्ञानम्। आव० ३४६। प्रावीण्यरूपम् । उत्त० १४३ | कुसलदिट्ठ - कुशलदृष्टं तीर्थकरोपलब्धम् । दशवै० १०६ | कुसलाणुबंधि- मोक्षानुकूलम् । चतु० ३। कुसलोदंत - कुशलवार्ता। ज्ञाता० १४९| | कुसल्लियं– कुशल्यितं अन्तः प्रविष्टतोमरादिशल्यशरीरमिव सञ्जातदुष्टशल्यम्। प्रश्न० १३४ | कुसवरो - कुशवरः- अपान्तरालद्वीपः । जीवा० ३६८ कुसा - स्थावरजीवविशेषः । सूत्र० ३०७ । कुसिणं- दधिदुग्धादि । ओघ० १६३ । कुसिया - कुसिताः मोचयितुमसमर्थाः । व्यव० १५९ अ कुसी - कुशी | आव० ३९७ कुसीमूलियं - कुशीमूलिका । आव०८२६। कुसील - कुशीलः - निग्र्थस्य तृतीयो भेदः । व्यव० ४०२ अ। निर्ग्रन्थस्य तृतीयभेदः। कुत्सितं शीलं-चरणमस्येति कुशीलः । भग० ८९०| कुशीलः- परतीर्थकः, पार्श्वस्थादिर्वा स्वयूथ्या अशीलगृहस्थः । सूत्र० १५३ । कुत्सितशीलः कुशीलः-कालविनयादिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणां विराधक इत्यर्थः । ज्ञाता० ११३। कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः। आव० ५१७। कुशीलः | निशी० १६८ अ । कुशीलः-असंविग्नः । ओघ० १२० | [66] “आगम-सागर-कोषः " [२] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कुसीलओ-कुशीलवः-विदूषकः। आ० ३९८ कुसुमरसं-कुसुमरसः, कुसुमासवः। दशवै०७२। कुसीलपडिसेवणया-कुशीलप्रतिषेवणता-कुशीलं-अब्रह्म कुसुमसंभवे- कुसुमसम्भवः, दशम मास नाम। जम्बू. तस्य प्रतिषेवणं, तद्भावः। स्था० २८१। ४९०। सूर्य. १५३ कुसीलपरिभासिए-सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे कुसुमा-कुसुमसदृशत्वात् सौकुमार्यादिगुणयोगेन सप्तम-मध्ययनम्। सम० ३१| कुसुमाः। जम्बू० १३१॥ कुसीलवे-कुशीलवानां-नटानां। बृह. १०३ आ। कुसुमानि- पद्मलक्षणानि जातानि यत्र तत्कुसुमितम्। कुसीलाणपरिभासा-सुत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे स्था०५० सप्तम-मध्यनम्। उत्त०६१४। कुसुमासव- किजल्कः । औप० ८१ कुसीलाणपरिहासा-कुशीलपरिभाषा, कुसुमासवलोला-किजल्कपानलम्पटाः। जीवा० १८८१ सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे सप्तममध्ययनम्। आव. मकरन्दलम्पटाः। ज्ञाता० २७ किजल्कलम्पटाः। ६५१ ज्ञाता०५१ कुसुंबए-वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३६| कुसुमिय- कुसुमितं-सञ्जातकुसुमम्। भग० ३७। कुसुंभ-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। लट्टकाणाः। यत्पुष्यै- कुस्तुम्बकः-वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३७ र्वस्त्रादिरागः। जम्बू० १२४। कुसुम्भं-तैलस्य तृतीयभेदः। | कुस्स-कुशो-यो वेधे प्रान्तः प्रवेश्यते। बृह० ३६ आ। आव० ८५४। धान्यविशेषः। भग० ८०२। कुहंडयकुसुमं- कूष्माण्डिकाकुसुमं, कुसुंभग-कुसुम्भकः-लट्टा। धान्यविशेषः। भग० २७४१ | पुष्पा(पुस्क)लिकापुष्पम्। प्रज्ञा० ३६१| उदगविशेषः। निशी. ५२ आ। कुहंडिया- मुद्रितः। आव. २२४। कुसुंभरागः- प्रायोगिकरागः। आ० ३८७। कुहंडे- कुहण्डः-वाणमन्तरविशेषः। प्रज्ञा० ९५१ कुसुंभवणे- कुसुम्भवनम्। भग० ३६| कुह-कुहः-वृक्षः। दशवै०१७ कुसुंभिओ-कुशुम्भिका, अतसी। ओघ० १४६। कुहए- कुहकं, इन्द्रजालादि। दशवै० २५४। कुसुण-कुशनं, दध्यादि। पिण्ड० १६५, ९० कुहक-कुहकं, परेषां विस्मयोत्पादनप्रयोगः। प्रश्न.१०९| कुसुणियं-कुसुणितं-करम्बादिरूपतया कृतम्। पिण्ड० कुतूहलम्। उत्त०६५६। ९११ कुहकपरा-क्षेपकरणम्। निशी० ७ आ। कुसुम-पाटलिपुत्राभिधं नगरम्। आव० २९४१ कुहण-भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७। एक एवालापको कुस्मसमूहः। जीवा० २५५। कुसमजातम्। जीवा० २५६) द्रष्टव्यः, तद्योनिकानामपरेषामभावादिति भावः। सूत्र. अविकसितः। औप. १६। ३५२। कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कहणः-चिलातदेशवासी। कुसुमकुंडलं- धत्तूरकपुष्पसमानाकृतिकर्णाभरणं, प्रश्न. १४१ दर्भकुसुमं वा। अन्त०५१ कुहणया- कुधनता-दारिद्यभावः। क्रोधनता। प्रश्न० १०९। कुसुमघरए- कुसुमप्रायवनस्पतिगृहम्। ज्ञाता०९५१ कुहणा-कुहणाः-भूमिस्फोटकाभिधानाः ते कुसुमघरगा-कुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि चाप्कायप्रभृतयः। प्रज्ञा० ३०| कुहणाकुसुमगृहकाणि। जम्बू. ४५ भूमिस्फोटाभिधानास्ते चाप्कायप्रभ-तयः। जीवा. २६| कुसुमट्टिया-कुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिज्जंति। कुहणा-भूमिस्फोटकविशेषः। सर्पछत्र-कादिः। उत्त. उसुमट्टिया, कुसुमट्टिया वा। निशी० ६४ । ६९ कुसुमपुर-मायापिण्डोदाहरणे सिंहस्थराजस्य नगरम्। | कुहर- पर्वतान्तरालम्। ज्ञाता०६३। जम्बू. १४४। पिण्ड० १३९। चूर्णद्वारविवरणे चन्द्रगुप्तराजधानी। कुहव्वए-कन्दविशेषः। उत्त०६९११ पिण्ड० १४३। पाटलीपुत्रमभिधीयते। निशी. १३९आ। हा-कुत्ति पुहवि तीए धारिज्जति तेणं कुहा। दशवै ६। बृह. २२७ अ। मुरुण्डस्य राजधानी। बृह० २५६ आ। | कुहाड- प्रहरणविशेषः। निशी० १०५ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [67] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ४८ कुहित-कुथितः-कोथमुपनीतः। ज्ञाता०६७। भ्रान्तिजनकद्रव्यम्। भग० ३०८। कूटः-सिद्धायतनकूटप्रकुहिय-कुथितः-पूतिभावमुपगतः। जीवा० १०७ कोथमुप- भृतिः। प्रज्ञा०७१। माडभागः। जीवा० २०४, ३६० गत, ईषदुर्गन्धः । ज्ञाता० १२९। कुटकेषु-अधोविस्तीर्णेषूपरि संकीर्णेषु वृत्तपर्वतेषु कुहुंडियाकुसुमं-कूष्माण्डीकुसुमं-पुष्पफलीकुसुमम्। हस्त्या-दिबन्धनस्थानेषु वा। ज्ञाता०६७। कूटंजीवा. १९११ प्रभूतप्राणीनां यातनाहेतुत्वं नरक इत्यर्थः। उत्त० २४३। कुहुक-कुतूहलम्। उत्त०३४७ पर्वतः। नन्दी० २२८। माडभागः। राज०६२। पाषाणमयकुहुण- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४१ मारणमहायन्त्रम्। भग० ३७३। भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७। कूडकवडमवत्थुगं-कूटकपटावस्तुकं-कूट-परवञ्चनार्थं कुहेडविज्जा-कुहेटविद्या न्यू-नाधिकभाषणं, कपट-भाषाविपर्ययकरणं। अलीकाश्चर्यविधायिमन्त्रतन्त्रज्ञा-नात्मिका। उत्त. अविद्यमानं वस्तु-अभिधेयोऽर्थो यत्र तत्। ४७९ समानार्थत्वादेकमधर्मद्वारस्य षष्ठं नाम। प्रश्न. २६) कूअ-कुतपः-तैलादिभाजनम्। जम्बू० २६४। कूडग्गाहो-कूटेन जीवान्। गृह्णातीति कूटग्राहः। विपा० कूअणता- कूजनता-आर्तस्वरकरणम्। स्था० १४९| कूइआ- कूर्चिका। आव० १०२ कूडछेलियहत्थो- कूटछेलिकाहस्तः-या च कूटेन स्थाप्यते कूड़ए- कूजितम्-कासितम्। आव० १७४। चित्रकादिग्रहणार्थं छेलिका-अजा सा, कुटंकूड़गादि-कूचिकादि। आव. १९८१ मृगादिग्रहणयन्त्रं च छेलिका चेति कूटछेलिका सा हस्ते कूच्च-कूर्चः-गूढकेशोन्मोचको वंशमयः। उत्त० ४९३। यस्य सः। प्रश्न. १३॥ कूजणया कूडतुलकूडमाणे- कूटतुलाकूटमानं, तुलया कुडवादिमानेन मातिपितिभातिभगिणीपुत्तदुहित्तमरणादीवि(सु) च यन्न्यूनाधिकत्वम्। आव०८२२ महइमहंतेण सद्देण रोवइति कूजणया। दशवै० १५ कूडत्तं-कूटत्वं-न्यूनाधिकत्वम्। आव० ८२३। कूजन्त-अव्यक्तं शब्दायमानम्। ज्ञाता० १६७। कूडपासए-कूटपाशकः। आव० ४३५१ कूजित-विविधविहगभाषयाऽव्यक्तशब्दं कूडया-कूटता-तुलादीनामन्यथात्वम्, सुरतसमयभाविनम्। उत्त०४२५ तृतीयाधर्मद्वारस्य द्वाविंशतितमं नाम। प्रश्न० ४३। कूटप्रयोगकारी-प्रच्छन्नपापः। आव० ५८९। | कूडरूवग-कूटरूपकः। आव० ४२१। कूटरूपम। आव० कूड-कूट-शिखरं, स्तूपिकाः अथवा कूटं २००१ सत्त्वबन्धनस्था-नम्। स्था० २०५। कूटं-शिखरम्। कूडलेहकरणं-कूटं-असद्भूतं लिख्यत इति लेखः, तस्य जीवा० २०५१ परञ्चनार्थं न्यूनाधिकभाषणम्। प्रश्न० २७ | करणं-क्रिया कूटलेखक्रिया-कूटलेखकरणं अन्यमुद्राक्षरमानादीनामन्य-थाकरणम्। प्रश्न. ५८५ बिम्बस्वरूपलेखकरणमित्यर्थः। आव० ८२० कार्षापणतुलाप्रस्थादेः परवञ्चनार्थ न्यूनाधिककरणम्। कुडव-मानविशेषः। आव० ८२३ सूत्र० ३३०। कार्षापणतुलादेः परवञ्चनार्थ कूडवाही-कूटवाही, बलीवर्दः। आव० ७९७। न्यूनाधिकरणम्। ज्ञाता० ८० कूडसक्खिज्जं- कूटसाक्षित्वम्कार्षापणतलाव्यवस्थापत्रा-दीनाम्यथाकरणम। ज्ञाता० | उत्कोचमात्सर्याद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्ति, २३८१ रत्नकूटादि। अनुयो० १७३। असत्भूतम्। आव. अविधवाद्यनृतस्यात्रैवान्तर्भावो वेदितव्यः। आव० ८२० ८२१। कूट-भ्रान्तिजनकद्रव्यम्। जम्बू. १६१| कूडसामलिपेढे-कूटाकारा-शिखराकारा शाल्मली तस्याः महच्छिखरम्। जम्बू०४९। मृगग्रहणकारणं गादि। पीठं-कूटशाल्मलीपीठम्। जम्बू० ३५५) भग. ९३। शिखरं, हस्त्यादिबन्धनस्थानं वा। भग. २३८। । कूडसामली-कूटाकाराशिखराकारा शाल्मली माडभागः। रजतमय उत्सेधः। जम्बू०४९। कूटशाल्मली। स्था०६९, ७९| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [681 "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) कूडा- कूटाः-नन्दनवनकूटादिकाः । प्रश्र्न० ९६ । कूडागारं धन्नागारं । निशी० २६५अ कूटागारं सशिखरभवनम् प्रश्नः ८२ पव्वतसंठितं उरुवरिभूमियाहिं वट्टमाणं कुडागारं कूडेवागारं कूडागारं पर्वते कुट्टितमित्यर्थः । निशी० ६९ आ । कूटाकारः । जीवा० २६९| आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) राज० ५८ | कूडाहच्चं– कूटस्येव " कूडागारसंठिओ- कूटाकारसंस्थितः शिखराकारसंस्थितः । क्रूरविहाणं- कूरविधानम् । आव० ८५फा जीवा० २७९ ॥ कूडागारसाला - कूटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूटाकारशाला। भग॰ १६३ । कूटस्येव पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा तथा, सा चासौ शाला च । विपा० ६३ । कस्मिंश्चिदुत्सवे कस्मिंश्चिन्नगरे बहिर्भागप्रदेशे महती देशि -कलोकवसनयोग्या शाला-गृहविशेषः । निर० २२श कूटस्येव पर्वतशिखर-स्येवाकारो यस्याः सा कूटाकारा यस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कूटाकारेति, कूटा-कारा चासौ शाला च कूटाकारशाला, यदि वा कूटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूटाकारशाला । पाषाणमयमारणमहायन्त्रस्येवाहत्या आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम् । भग० ६७०| कूटे इव तथाविधपाषाणसम्पुटादौ कालविलम्बाभावसाधर्म्यादाहात्या आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम्। भग० ३२३ । कूणिए श्रेणिकचेल्लणयोः पुत्रः निर० ४ । श्रेणिकराजपुत्रः । ज्ञाता० ६ चम्पानगर्या राजा १९ चम्पायां राजा । भग० ६२० | कूणिओ - कूणिकः- चम्पायां राजा भगः ३२० | शिक्षायोग दृष्टान्ते श्रेणिकपुत्रः, अपरनाम ओशोकचन्द्रः आव. ६७९| भग० ५५६ । परकृतमरणे दृष्टान्तः । भग० ७९६ ॥ कंपिअं - कूपिका, सन्निवेशः। महावीरस्वामिविहारभूमिः । आव० २०७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] कूरओडिया - कूरकोटिका- क्षिप्रचटिका आव०६२२ कूरकम्मा- क्रूरकर्माः क्रूराणि कार्माणि यस्य सः प्रश्न. १३ कूबरं युगन्धरम् । जम्बू. २९१| कूयरा- कूत्सितं शिष्टजनजुगुप्सितं चरन्ति इति। कुचराः उद्भ्रामिका वा । बृह० ६४अ । - कूर भक्तं बृह० २३६ अ ओदनविशेषः ओघ० १३३ | कूरः । आव० ३५२, ६२४ | धान्यविशेषः । आव० ३१४ | परिकथनायां दृष्टान्तः । ओध० ६९। । कूरगडुकप्राय सीयकूरभाई अन्तपन्ताहारो भग० ७०५१ कूरपुवगादि- कूरसिस्थादि, (देशीवचनं)। आव० ३१५१ कूरभायण- कूरभाजनः, ओदनभाजनः । दशवै० ३८ कूरिकड - क्रूरिकृतं, क्रूरं चित्तं क्रूरो वा परिजनो यस्यास्ति स क्रूरी, तेन कृतं अनुष्ठितम् । तृतीयाधर्मद्वारस्य चतुर्थ नाम प्रश्न. ४३॥ कूर्मापुत्रः- नामविशेषः । औप० ११७ | कूर्मापुत्रः । प्रज्ञा० १०९ | कूर्मोन्नता - मनुष्ययोनिभेदः । आचा० ६७ | कूलधमग- कूले स्थित्वा। भग० ५१९। कूलवारओ कूलवारकः विशालभङ्गे श्रमणदृष्टान्तः । आव० ४३७ | कूलवाल— श्रमणविशेषः । सूत्र०१०३ । कूलवालओ कूलवालकः, विशालाभङ्गे श्रमणदृष्टान्तः ॥ आव० ४३७ | कूलवालक- गुरूणामेव प्रत्यनीकः । बृह• २९४ अ विशालाभङ्गे श्रमणदृष्टान्तः । नन्दी० १६७ | शिलाक्षेपकः श्रमणः । उत्त ४४ आचार्यादिप्रतिकूलत्वे निदर्शनीभूतः क्षुल्लकः । उत्त० १४९१ कूलवालगोकूलवालकः- शिलाऽक्षेपकः श्रमणः आव. [69] ३८५| कूलवालो- श्रमणोऽविनीतः बृह• ५ आ कूव- कूपः आव० ५८१ प्रश्न ८ कूजकं व्यावर्त्तकबलम् । ज्ञाता० २२१| अन्धकूपादिः प्रश्न. ५६। कूपःरोमरन्धः । भग० ४६०। कुतुपः । ज्ञाता० ५७॥ कूवए- अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य एकादशमध्ययनम् । अन्त० ३ | कूवणय- कूपनयः-कुमारायां कुम्भकारः । आव० २०२ कूवति - कूजति-शब्दं करोति । आव० ८१९ । कूवय कूपकः, स्तम्भविशेषः । औप- ४८ कूवयद्वाणं कूपकस्थानम् । निशी० ४७ अ कूवर कूबरं तुण्डम् ज्ञाता० १५१| कूविए- चोरगवेषकः । जाता० ७९ कूपिका ज्ञाता० ७९ | "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] °४० कूविय-कूजकः, व्याहारकारी, गवां व्यावतक इत्यर्थः। साधारणवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ४० पिण्ड०४७ कृष्णपाक्षिकः-संसारापरीत्तः। जीवा० ४४६। कवियबल-निवर्तकसैन्यानि। ज्ञाता०२३८। कृष्णराज्ञी-ईशानदेवेन्द्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। जीवा. कूष्माण्डः- व्यन्तरविशेषः। प्रज्ञा०५१। ३६५ कुष्माण्डा-पिशाचविशेषः। प्रज्ञा०७०| कृष्णसारः- नेत्रमध्यवर्तिनी कनीनिका। उत्त० ६५२| कूष्माण्डी- वल्लीविशेषः। जीवा. २६। प्रज्ञा० ३० कृष्णसुदेवः- द्वारिकाधिपतिः। प्रक्ष०८८1 कूसेह- (देशी०) गवेषयत। बृह. १२० अ। केइ-काश्चिन्न सर्वा इत्यर्थः। ज्ञाता० २३१| कुहंड-कृष्माण्डः, व्यन्तरनिकायामुपरिवर्तिनो जातिवि- | केइत्थ- कांश्चिदत्र। ज्ञाता० २३११ शेषः। प्रश्न०६९। | केउ-केतु-मेघवृष्ट्या निष्पद्यते तत्। प्रासादगृहादिकम्। कृकलासः-अण्डविशेषः। दशवै. २३० बृह. १३८ वर्षावारिनिष्पादयं क्षेत्रम्। बृह. ५० कृतकुलः- कृतकुरुकुचः। व्यव० १६१ आ। केउते-पातालकलशविशेषः। स्था० २२६। कृतनिष्ठितता-तन्दुलानां वपनमारभ्य यावद् वारदवयं | केउमती-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य कण्डनं तावत् कृतत्वम्, तेषाञ्च तृतीयवारं तु कण्डनं । अष्टादशमध्ययनम्। ज्ञाता० २५२। निष्ठितत्वम्। पिण्ड०६६। केऊ-केतुः, जलकेत्वादिकः। औप० ५२। कृतप्रतिकृतिकः- कृते-उपकृते प्रतिकृतं-प्रत्युपकारः तद् ज्योतिष्कविशेषः। प्रश्न. ९५५ यस्यास्ति स। स्था० २८५ केऊर- पातालकलशविशेषः। स्था० ४८० केयूर-अङ्गदम्। कृतमालिक-यक्षविशेषः। स्था० २५८। जम्बू० १०६| कृतमाल्यक- तमिस्रागुहायाः अधिष्ठायकदेवः। स्था० केकई-अष्टमवासुदेवस्य माता। सम. १५२| केकय-चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४१ कृतवीर्यः-कार्तवीर्यपिता क्षत्रियः। सूत्र. १७०, १७८। केकयअद्ध-केकयाई, जनपदार्द्ध विशेषः। प्रज्ञा० ५५१ कार्तवीर्यपिता। सूत्र० २६५ केकारवं-केकायितं-मयूराणां शब्दः। ज्ञाता०९६) कृतिकर्म-दवादशावतवन्दनकम्। स्था० ४०८। केगमई-कैकेयी-लक्ष्मणवास्देवमाता। आव० १६२ कर्मणोs केज्जगं- क्रय्यम्। आव० ६७७ पनयनकारकमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायविषयमवनामादिरू | केतइ-वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ प-मिति। आव. ९८१ केतकी-वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३१| वलयविशेषः। आचा० कृपणादि-द्रव्यशस्त्रम्। आचा० १७४। ३०। सुरभिकुसुमविशेषः। उत्त० ६५४। जीवा० १९११ कृमिः- पृथिव्यावश्रितो जीवविशेषः। कचवरनिश्रितो केतनं-सामान्येन। स्था० २१८ संकेतः। व्यव० १२५। जीव। आचा० १७० | केतु-आकाशपतितोदकनिष्पाद्यं क्षेत्रम्। आव० ८२६। कृमिराग-लोभस्य लक्षणसूचकः। आचा० १७० जीवा. ध्वजः। जीवा. १८८1 १९१| केतुकरे- चिह्नकरः अद्भुतकारित्वादिति। स्था० ४६३। कृमिरागपट्टसूत्र केतुमती-किन्नरेन्द्रस्य दवितीयाऽग्रमहिषी। भग०५०४। मनुष्यादिशोणितोत्पन्नकृमिलालसमुत्पन्नम्। अनुयो. स्था० २०४१ ३५१ केदारः- वप्रः, जलस्थानम्। जीवा० १२३। कृषिवलः- कर्षकः। आव०८१५१ केमहालए-किंमहालयः-कियान्। जम्बू०४५० किं कृष्णः- केवलसम्यग्दर्शनी। आव० ८०५ महत्त्वं यस्यासौ किंमहत्त्वः। भग० १५१| साधारणवनस्पति-विशेषः। आचा. ५७ केमहालय-किमहान्, कियत्प्रमाणमहत्त्वम्। जीवा० साधारणवनस्पतिकायिकभेदः। जीवा० २७। कृष्णकं, १३१ ७१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [701 "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) [Type text] केमहालिका- किम्महती जीवा० ३७१ केलाससमा कैलाससमा कैलासपर्वततुल्या उत्तः ३१६६ महालिया - किम्महती सम० १४२॥ कियन्महतीकिम्म केलि परिहासः । बृह• २६९आ। क्रीडा। जीवा. १७३॥ हत्त्वोपेता कियती वा अनुयो० १६३ | प्रज्ञा० ९६, २५८८ केलिः, नर्म औप० ५२श केमहिइढिए केन रूपेण महर्द्धिकः । किंरूपा वा केवइका- दुम्माः । बृह० १३९ आ । महर्द्धिरस्येति किंमहर्द्धिकः । कियन्महर्द्धिकः । भग० १५४९ केवइकालं कियत्कालम् भग० १९ ॥ - केतनं, केतः चिह्नमङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहादिकम्। केवइकालस्स कियता कालेन जीवा० १४१ स्था॰ ४९९। केतं-चिह्नम । आव० ८४१ | केतः-चिह्नम्। वगादि - द्रव्यविशेषः । निशी० ४४ अ । भग• २९७। केया-रज्जुः। दशवै० १०६ । रज्जु निशी. केवच्चिरं - कियच्चिरं, कियन्तं कालं यावत् । जीवा० ६७ । कियच्चिरं - कियत्कालम् । भग० ११६ | २०१ केयइ गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा• ३२ केवडिया रूप्यकाः । बृह० २९७ आ केयइअ - केकयीनामार्ध अर्धमात्रमार्यत्वम् राज० ११३ | केयइपुड- गन्धद्रव्यविशेषः । पुष्पजातिविशेषः । ज्ञाता० केवलं- शुद्धम् । आव० ७६९ | स्था० ४६ | अकलङ्कम्। उत्त. १८८ सम्पूर्णज्ञेयविषयत्वात् सम्पूर्णम्। अनुयो० रा परिपूर्ण, विशुद्धं वा प्रश्न. १३५७| सकलजगद् भाविसमस्त वस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपम् । प्रज्ञा० ५२७ असहाय, मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं, शुद्धं, तदावरणकर्ममलकलङ्काङ्करहितं, सकलं, तत्प्रथमतयैव अशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं, अनन्यसदृशं, ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं, यथावस्थि-ताशेषभूतभवद्भाविभावस्व भावावभासि वा । आव ८ अद्वितीयम् आव ७६०] असहाय, मत्यादिनिरपेक्षत्वाद-कलड़क वा आवरणमलाभावात, सकलं वा तत्प्रथमतयैवा-शेषतदावरणाभावतः । सम्पूर्णोत्पत्तेरसाधारणं वा अनन्यसदृशत्वादनन्तं वा । स्था॰ ४७। असहायं मत्यादि-ज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा, आवरणमलकलङ्करहितत्वात्, सकलं वा तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारण वा अनन्यसदृशत्वात् अनन्तं वा । स्था० ३४८ केवलः शुद्धः अन्यपदासंसृष्टः दशवै० १२६ परिपूर्णः । ज्ञाता० १८०| भग० १५५ असहाय, शुद्ध, परिपूर्ण, असाधारणं, अनन्तं वा । भग० ६६। सुद्धो अण्णेण सह असंजुत्तो । दशवै० ५४ | केवलकप्प- केवलकल्पं, केवलं केवलज्ञानं तत्कल्पं परिपूर्णतया तत्सदृशं परिपूर्णमित्यर्थः। प्रज्ञा॰ ६००। परिपूर्णम् । जीवा १०९ | संपूर्णम्। बृह. ५२ आ केवलज्ञान सदृशः संपूर्णपर्यायो वा केवलकल्प इति । भग॰ १५५। केवलः-परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यसामर्थ्यात् कल्पश्च केवलज्ञामिव वा परिपूर्णतयेति, केवलकल्पः 1 " २३२ केयण कृतकम् । निशी ३५१ अ श्रृङ्गमयधनुर्मध्ये काष्ठमयमुष्ठिकात्मकम्। उत्त० ३११| केतनं मत्स्यबन्धनम् । सूत्र. ८ केयकंदली - कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ | यति - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ | केयाघडिया - रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् । विहायसि व्रजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः, त्रयोदशशते नवम उद्देशकः । भग० ५९६ । रज्जुप्रान्तबद्धघटिका भगः ६२७| केयार- अवन्तीजनपदे कूपविशेषः । व्यव० १८ अ । निशी० ३५१ अ केयावंती के आवन्ति केचन । आचा० १८५ | केयूरं- आभरणविशेषः। आव० १८२| भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९॥ बाह्याभरणविशेषावित्यर्थः स्था० ४२११ केयूवी- केयूपः, मेरोर्दक्षिणस्यां पातालकलशः । जीवा० ३०६। केलास - कैलास - मेरुः | निशी० ९९ अ कैलाशः राहोः कृष्णपुद्गलः। सूर्य॰ २८७ | साकेतनगरे गाथापतिविशेषः। अन्त॰ २३। अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य सप्तमम-ध्ययनम्। अन्त० १८ । स्था० २२६ । कैलाशः, नन्दीश्वर द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवविशेषः । जीवा. ३६५ तृतीयोऽनुवे- लन्धरनागराजः, तस्यैवाऽऽवासपर्वतश्च । जीवा० ३१३ | केलासभवणं- कैलाशभवनं कैलासपर्वतरूपाश्रयः । पिण्ड० १३२| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [71] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] समयभाषया परिपूर्णः। स्था० ६१ | केवलः परिपूर्णः स चासौ कल्पश्च स्वकार्यसमर्थ इति केवलकल्पः । ज्ञाता० आगम-सागर- कोषः ( भाग :- २) १८० | केवलकप्पा- केवलकल्पा-परिपूर्णा, परिपूर्णप्राया वा । स्था० १६१ | केवलदंसणं- केवलमेव दर्शनं सकलजगद् भाविवस्तुसामान्य-परिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनम् । जीवा० १८ | केवलदंसणि- केवलं सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्ण दर्शनं केवलदर्शनी तदावरणक्षयाविर्भूततल्लब्धिमतो जीवस्य सर्वद्र-व्येषु मूर्तामूर्तेषु सर्वपर्यायेषु च भवतीति । अनुयो० २२०१ केवलनाणं- केवलज्ञानं पञ्चमकं ज्ञानं, अथवाऽनन्तराभिहि-तज्ञानसारूप्यप्रदर्शक एवं आव ८] पञ्चमं ज्ञानम्। स्था० ३३२ | केवलवेयसो - केवलवेदसः अवगततत्त्वः । जीवा० २५६ । केवलि - केवली - श्रुतावधिमनः पर्यायकेवलज्ञानी स्था० ९८ केवलि आराहणा- केवलिनां श्रुतावधिमन: पर्यायकेवलज्ञानि-नामियं केवलिकी सा चासावाराधना चेति केवलिकाराधना स्था० ९८८ केवलिइए- रूप्यकाः । बृह० ९३ आ । केवलिउवासग - केवलिनमुपास्ते यः श्रवणानाकाडक्षी तद् उपासनमात्रपरः सन्नसाँ केवल्युपासकः । भग० २२ केवलिए- केवलं अद्वितीयं केवलिप्रणीतत्वाद् वा कैवलिकम् । ज्ञाता० ५१ | केवलिकंमंसे- केवलिनः 'कम्मंसत्ति कार्मग्रन्थिकपरिभाष-याशशब्दस्य सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि केवलिसत्कर्माणि भवोपग्राहीणि । उत्त केवलिमरण - केवलिमरणम् । सम० ३३ | ये केवलिनःउत्पन्नकेवलाः सकलकर्म्मपुद्गलपरिशाटतो म्रियन्ते तज्ज्ञेयमिति । मरणस्य द्वादशो भेदः । उत्त० २३४ केवलिय- केवलमद्वितीयं नापरमित्थम्भूतम् । आव ७६०| कैवलिकं परिपूर्णम् । आव० ३२९| केवलस्य भावः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ५८९ । केवलिकेवली- केवलिनस्तृतीयो भेदः निशी. १३९ केवलिपन्नतो - केवलिप्रज्ञप्तः सर्वज्ञदेशितः । प्रज्ञा० ३९९ । केसरि - द्रहविशेषः । स्था० ७३ | [Type text] कैवल्यं घातिकर्मवियोगः आव० ७३ केवलिसमुग्धाय केवलिनि अन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदे समुद्घातः केवलिसमुद्घातः । जीवा० १७| केवलिसावग जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी सन् श्रृणोति तद्वाक्यान्यसौ केवलिश्रावकः । भग० २२स केवली- सर्वज्ञः । भग ६७। चतुर्दशशतके दशम उद्देशः । भग० ६३० | केवलीणठाणं- केवलिनां स्थानं, केवलिनामहिंसायां व्यवस्थितत्वात्। अहिंसायाः षट्त्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न ० ९९ केशर - पद्मपक्ष्मम् । भग० १२ | जम्बू० १३८ केशव कृष्णः । आचा० ३९० केशि- उदायनभागिनेयः । स्था० ४३१| केस- केशाः शिरोजाः । सम० ६१ । शिरसिजाः । उत्त० ३३८ | कः- अज्ञातकुलशीलसहजत्वादनिर्दिष्टनामकः सकारः प्राकृतशैलीभवः । जम्बू० २०२१ केसभूमी- केशभूमिः, केशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्वक्। जीवा० २७३१ केसमंसु- श्मश्रूणि कूर्चकेशाः । भग०८८० केसर- किञ्जल्कः । जम्बू. ४२१ आचा• ८१ वर्णविशेषः । आचा० २९| केशरम्। आव० ४१९, ६३५ | ज्ञाता० ९८ केशरः- गन्धः । आव० २७७ केसरोपलक्षितः । जीवा० १७६ | केसर - प्रधानम् । जीवा० १२३ । काम्पील्यनगरे उद्यानविशेषः। उत्त॰ ४३८| केसरचामरवाल- सिंहस्कन्धचमरपुच्छकेशाः। ज्ञाता० ၃၃၃ केसरपाली - केसरपालिः स्कन्धकेशश्रेणि जम्बू० १३०१ केसरा- केसराणि कर्णिकायाः परितोऽवयवाः । जम्बू• [72] २८४ | केसरा- केसराणि कर्णिकायाः परितोऽवयवाः । जम्बू• २८४ | केसरिका - पात्रमुखवस्त्रिका | ओघ० २१२ ॥ केसरिद्द हो- केसरद्रहो नाम द्रहः । जम्बू० ३७७ केसरिया केशरिका प्रमार्जनार्थ चीवरणखण्डम् भग ११३ | औप० ९५| केसरी चीवरखण्डं प्रमार्जनार्थम् । ज्ञाता० ११०) प्रतिवासु "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] देवनाम। सम० १५४। चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४। केसव-केशवः-वासुदेवः। आ० १६६। ज्ञाता० २१३। जीवा० | कोंचवरो- क्रौञ्चवरः, अपान्तरालद्वीपः। जीवा० ३६८१ १२९। वसुदेवलघुसुतः वासुदेवः। उत्त० ३८९। अपरविदेहे । | कोंचवीरग-पेटासदृशं जलयानम्। बृह. ३२ अ। जीर्णश्रेष्ठिपुत्रः, श्रेयांसजीवः। ऋषभपूर्वभववैद्य-पुत्रस्य | कोंचस्सरा- क्रौञ्चस्वरा-विदयुत्कुमाराणां घण्टा। जम्बू० मित्रम्। आव० १४६। ४०७। क्रोञ्चस्वरः, क्रोञ्चस्येव स्वरो यस्य सः। जीवा. केसवाणिज्ज- केशवाणिज्यम्। दासीर्गहीत्वाऽन्यत्र २०७। विक्रीणाति। आव० ८२९। कोंचा-लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। केसहत्थ- केशहस्तो-धम्मिल्लः भग० ४६८५ कोंचावली-क्रोञ्चावलिः। जीवा. १९१। केसा-केशाः-शिरोजाः। प्रश्न०६० कोंचासणं- क्रौञ्चासनं, यस्यासनस्याधोभागे क्रोञ्चो केसि-कीदृशी स्त्री। अनुयो० १३॥ व्यवस्थितः सः। जीवा. २००९ केसिआ- केशा विदयन्ते यस्याः सा केशिका। सूत्र. ११६। | | कोंची-द्रविडदेशे नगरी। बृह. २२७ अ। केसिगोयमिज्जं-केशिगौतमीयं, उत्तराध्ययनेष कोटलवेंटलं-कार्मणवशीकरणादि। आव. १९३। त्रयोविंशति-तममध्ययनम्। उत्त. ९। केशिगौतमीयं- | कोंडग-क्षत्रियविशेषः। निशी. १२। उत्तराध्ययनेषु त्रयोविंशतितममध्ययनम्। उत्त० ४९७ | कोंडलमेंढ-कुण्डलमेंढ-भृगुकच्छे वाणव्यन्तरविशेषयात्राकेसिसामि-केशिस्वामी। भग० १३८ केशिनामा स्थानम्। बृह. १३६ अ। भृगुकच्छे वाणव्यन्तरविशेषः। आचार्यः। भग० ५४८१ बृह. १३६ । केसी-पार्श्वपत्यः श्रमणः। राज०११ निर०१, ४० कोंडिण्णो-कौण्डिन्य-तापसविशेषः। आव. २८७ केशी-विगतिदवारे उदायनस्य भागिनेयः। आव. ५७३। कॉडियायण- चैत्यविशेषः। भग०६७५ केश्यभिधानः। भग० ६१८ कॉतियं- कौन्तिकम्-मधुविशेषः। आव० ८५४। महुस्स केसुअ-किंशुकं-पलाशपुष्पम्। जम्बू० २१२। पढमो भेओ। निशी. १९६ आ। कैदारकः- मङ्खः। पिण्ड० ९६| कॉति- पाण्डुराज्ञो राजी। ज्ञाता०२१३। कोंकण- देशविशेषः। आचा०५१ व्यव० १६८ अ। निशी. | कोअगडं- पार्श्वजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम्। आव. ६३ | निशी. ७९आ। १४६| कोंकणकसाधुः-अपध्यानाचरिते साधः। आव० ८३० कोआसिअ-कोआसिते-विकसिते। जम्बू. ११३ कोंकणग-म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४ प्रज्ञा० ५५ कोआसिय- पद्मवदविकसितम्। औप०१७ कोकणकः-देशविशेषः। आव. ९३। कोइल- कोकिल-अन्यपुष्टः। उत्त०६५३। प्राणातिपातदोषविषये उदाहरणम्। आव० ८१८ कोइलच्छद-कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः। उत्त०६५३। कोंकणगखमणओ- कोकणकक्षपकः-मनोदण्डे कोइलच्छदकुसुम- कोकिलच्छदकुसुम-कोकिलच्छदःउदाहरणम्। आव० ५७७ तैलकण्टकः, तस्य कुस्मम् । प्रज्ञा० ३६०| कोंकणगदेसो-कोकणदेशः-कर्मसिद्धोदाहरणे कोइला- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। कोकिला-परभृत्। देशविशेषः। आव० ४०८१ प्रश्न. ३७ कोंकणगसावगो-कोकणकश्रावकः-गुणोदाहरणे श्राद्धः। | कोइल्लं- कोल्लेरं-नित्यवासविषये आव० ८२११ सङ्गमस्थविरदृष्टान्ते नगरम्। आव० ५३६। कोंकारव-कोकारवः, पुरद्वारस्योद् | कोउअ- कौतुकं-रक्षा। जम्बू. १८९। अलङ्कारविशेषः। घाट्यमानस्याव्यक्तोऽयं शब्दः। दशवै० ४८१ आव० १८२। मषीपुण्ड्रादि। उपा० ४४। कोंच-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ क्रौञ्चः-पक्षिविशेषः। । कोउगं- सौभाग्यादिनिमित्तं परेषां स्नपनादि। औप० आव० ३६९। क्रोञ्चः, लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। १०६। सौभाग्याद्यर्थं स्नपनम्। प्रज्ञा० ४०६। मनि दीपरत्नसागरजी रचित [73] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] अवतारणकादि। सूत्र. ३२५। रक्षादिकम्। प्रश्न. ३९।। | कोक्कइय-भाण्डा भाण्डप्राया वा। औप०६९। कौक्च्यम्। कौतुकं-रक्षादि। आव० १३० कौतुकं-समवसरणम्। बृह. | चेष्टाविशेषः। उत्त०७०९। १९४ अ। मङ्गलकर्म। उत्त० ७१० कोच्चितो- शैक्षकः। व्यव० १४७ अ। कोउगामिगा-कौतुकात् मृगा इव मृगा। उत्त० ५०१। कोच्छा-कुत्सा-शिवभूत्यादयः। स्था० ३९० कोउतं-कौतुकं-उत्सवः। आव० ४३३। कोच्छुभो– मणी। निशी० ८१ आ। कोउय-कौतुकं-रक्षाविधानादि। भग० ५४५ ललाटस्य कोज्जय-कुब्जकं, कुबो इति नाम्ना वृक्षविशेषः। जम्बू मुशलस्पर्शनादीनि। उत्त० ४९०| कौतुकानि-मषीपुण्ड्रा- १९२ दानि। निर०७। कौतुकं-आश्चर्यम्। व्यव० १६३ अ। कोटलय-कौटलं ज्योतिष निमित्तं वा। ओघ. १४९। मषीतिलकादिकम्। भग० १३७। मषीपुण्ड्रादि। भग० कोटा- ग्रीवा। प्रश्न. ५६। ३१८ सौभाग्याद्यर्थस्नपनकम्। भग० ५१। कोटिंबो-उडवो। निशी. ७७ आ। कोउयकरण-कौतुककरणं-सौभाग्यादिनिमित्तं कोटिक- गणविशेषः। आचा० ८१। दशवै. २४२। परस्नपनका-दिकरणम्। स्था० २७५। कोटिकादिः- गणविशेषः। प्रश्न. १२६। कोऊहल-कौतुकं-अपत्याद्यर्थ स्नपनादि। उत्त० ४७९।। कोटिम-उपरिबद्धभूमिकं गृहम्। व्यव० १०७ अ। उत्त. कोहलपडिया-कोहलप्रतिज्ञया-कौतुकेणेत्यर्थः। निशी. | ७०६ १८४ । कोट्टब-कौडम्बानि-गौडदेशोद्भवानि। व्यव. २०४ अ। कोऊहल्ल-कुतूहलं, नटादिषु कौतुकम्। दशवै० २६७। कोट्ट-जं अडविमज्झे कौतूहलम्। आव० ४१६।। भिल्लपुलिंदचाउवण्णजणवयमिस्सं दुग्गं वसति वणिया कोऊहल्लिलो-कुतूहलवान्। ओघ. ९८१ च जत्थ ववहरंति तं कोट्टं भन्नति। निशी० २१ । कोकंतिय-कोकन्तिकः-लोमटकः, यो रात्रौ कौ को एवं । प्राकारः। उत्त०६०५ ओघ. २१० अटव्यां रौति। प्रश्न. ७। लोमटिकः, सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। | चतुर्वर्णजनपदयुतं भिल्लदुर्गम्। बृह० १०५अ। प्राकारः। जीवा० ३८ काकन्तिका-लोमटका ये रात्रौ को को इत्येवं प्रश्न. १७५ रवन्ति। जम्ब० १२४१ श्रृगालाकृतिर्लोमटको रात्रौ को को | कोट्टकिरियं-कुट्टनक्रिया-रौद्ररुपा चण्डिका, इत्येवं रारटीति। आचा० ३३८१ महिषकुट्टनक्रि-यावतीमित्यर्थः। भग. १६४। तत्कुट्टनपरा कोकेतिया-सनखपदचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा०४५ कोक- | कोट्टक्रिया। अनुयो० २६।। न्तिकाः-लुकडिकाः। जीवा० २८२। लोमटकाः। ज्ञाता० | कोट्टगं- जत्थ लोगो अडवीए पउरफलाए गंतुंफलाइं ७० सोसेति तं कोट्टगं भण्णति। निशी० १२८ अ। कोट्टकंकोकणदे- जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३। पुलिं-दपल्ली। बृह. १६५आ। गन्त्रीपोट्टकलादिभिरानीय कोकासवडढई-कोकाशवर्द्धकी-शिल्पकर्मविषये दृष्टान्तः।। नग-रादौ विक्रीणाति। बृह. १४७ आ। लोकः आव०४०९। प्रचुरफलाया-मटव्यां गत्वा फलानि यावत्पर्याप्तं गृहीत्वा कोकासिअ-कोकासिते-विकसिते। जम्बू. २३६| यत्र गत्वा शोषयति, पश्चाद गन्त्रीपोट्टलकादिभिरानीय कोकासियं-कोकासितं-पद्मवदविकसित्। जीवा० २७३। नगरादौ विक्रीणाति तत्। बृह. २९० अ। विकसितम्। प्रश्न० ८२ कोणि-कोट्टन्यः-याः कोट्टग्रहणाय प्रतिकोट्टभित्तय कोकिला-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। उत्थाप्यन्ते ताः। जम्बू० २०९। कोक्कंतिए-कोकंतिया-लकडी। प्रज्ञा० २५४। कोट्टपाल-नगरं रक्खति जो सो नगररक्खिओ कोट्टपालो। कोक्कासो-कोकाशः-शिल्पेनार्थोपार्जने कोकाशः। दशवै. | निशी. १९५ अ। १०७ नामविशेषः। यन्त्रमयकापोतकारकः। व्यव. कोट्टबलिकरण-कोट्टाय-प्राकाराय बलिकरणम्। १२७ कोट्टाक्रीडा तेन बलिकरणं चन्दिकादेः प्रतो बस्तादेरिव मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [74] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] उपहारविधानम्। प्रश्न. १४। कोष्ठपुटे ये पच्यन्ते ते कोष्ठपुटाः-वासविशेषाः। ज्ञाता० कोट्टरं-छिद्रम्। निशी० १६१ आ। २३२। गन्धद्र-व्यविशेषः। प्रज्ञा० ३०७ कोष्ठ-गन्धद्रव्यं कोट्टवीर-कोट्टवीरः- शिवभूतेर्लशिष्यः। उत्त० १८० तस्य पुटाः। जम्बू० ३५पुटैःपरिमितानि यानि कोट्टा-कोट्टाः-क्रीडाः। प्रश्न०१७ कोष्ठादिगन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये कोट्टागा-काष्ठतक्षकाः, वर्द्धकिनः। आचा० ३२७ परिमाणोपचारात् कोष्ठपटानि। जीवा. १९२ कोट्टितिय-कुट्टयन्तिका तिलादीनां चूर्णनिकारिका। कोहबुद्धिणो-कोष्ठबुद्धयः-यथा कोष्टके धान्यं प्रक्षिप्त ज्ञाता०११७ तदव-स्थमेव चिरमप्यवतिष्टते न किमपि कोटिंबा- गोभक्तदानस्थानम्। बृह. १३३ अ। कालान्तरेऽपि गलति, एवं येषु सूत्रार्थी निक्षिप्तौ कोटिवे-जत्थ गोभत्तं दिज्जति। निशी० ४२ । उडुप। तदवस्थावेव चिरमप्यवतिष्टतः। ते कोष्ठबुद्धयः। ब्रह. निशी० ४५। १९३ आ। कोट्टिम- कुट्टिमम्। आव० ५५० कोहबुद्धी-कोष्ठक इव धान्यं या कोट्टिमकारे-शिल्पविशेषः। अनयो० १४९। बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदवस्थानौ च सूत्रार्थी कोट्टिल्लं- ह्रस्वमुद्गरविशेषः। विपा०७१। धारयति न किमपि तयोः कालान्तरे गलति सा कोट्टिल्लयं-मुद्गरकः। विपा०७२। कोष्ठबुद्धिः। प्रज्ञा०४२४। कोष्ठवत्-कशूल इव कोट्टेइ-कुट्टयति। आव० ३९६| सूत्रार्थधान्यस्य कोह-कोष्ठः-शूलः। जम्बू. १५४। कुशूलः। जम्बू. १६| यथाप्राप्तस्याविनष्टस्याऽऽजन्मधरणाद बुद्धिः-मतिर्येषां गन्धद्रव्यविशेषः। जीवा. १९१। जम्बू०६०। उप ते। औप. २८१ रितनगृहं, धान्यकोष्ठो वा। जम्बू० २१०| गन्धद्रव्यम्। | कोहसमुग्गयं-कोष्ठसमुद्गकम्। जीवा० २३४। जम्बू. ३५। कोष्ठः-कुशूलः। भग० २७४। बृह. १६८ आ। कोडागार-दब्भादितणट्ठाणं। निशी. २६५। जत्थ स्था० १२४। सूर्य० ५कोष्ठकः, अपवरकः। जीवा० १६०| सणसत्तरसाणि धण्णाणिकोट्ठागारो। निशी० २७२ आ। गङ्गासमुदायात्मकः। भग०६७६| धान्यभाजनानि। कोष्ठा-धान्यभाजनानि तेषामागारं-गृहं कोष्ठागारं स्था० १७३। कोष्ठान आ-समन्तान् कुर्वते तस्मिन्निति। धान्यगृहम्। स्था० १७३। कोष्ठाउत्त० ३५१। अविनष्टसूत्रार्थधारणम्। नन्दी. १७७। पलिं- धान्यपल्यास्तेषामगारं-तदाधारभूतं गृहम्। उत्त० ३५१| दपल्ली। निशी. १४४ अ। कोष्ठं, बुद्धिभेदः। प्रज्ञा० ४२४। | कोहारं-कोष्ठागारम्। आव० ४३५१ कोहए- श्रावस्तीनगर्यां भैत्यः। भग० ५५२, ६५९, ४८४ | कोहिया– परिसप्पमाणा हीणाधिया वा चिक्खल्लमती। आव० ३१ राज०१२६। ज्ञाता २५१। निर० २२ निशी० ५९ अ। कोष्ठिका-लोहादिधातुधमनाय श्रावस्तीनगर्यां चैत्यः। उपा० ५३। वाणारसीनगाँ मृत्तिकामयी कुशूलिका। उपा० २१। चैत्यः। उपा० ३१, ३४। आव० ७१४१ | कुट्ठियाओ- कोष्ठिकातः-मृन्मयकुशूलसंस्थानायाः आचा० कोहओ- वढमढो सुन्नओ। दशवै० ८२। अग्गिमालिंदओ। ३४४१ निशी. १९२ । | कोडंड-कुदंड-कारणिकानां कोहग-कोष्टकं-श्रावस्यां तिन्दुकोद्याने चैत्यविशेषः।। प्रज्ञापराधान्महत्यपराधिनोऽप-राधे अल्पं राजग्राह्य उत्त० १५३। कोष्ठकाः-अपवरकाः प्रज्ञा० ८६। बृह. ३१४ | द्रव्यम्। भग० १४४। अ। जम्बू० ७६। अध्ययनापवरकः। बृह. १०७ । कोडंब-कोलम्बप्रान्तः, लोकेऽवनतं वृक्षशाखाग्रमुच्यते। कोष्टकः-चट्टानां शाला। व्यव० ४२० अ। आवास-विशेषः।। ज्ञाता०२३६। ओघ०८२। | कोड-कुटिलः, क्रुद्धः। आव० ४३६| कोद्वतो-कोष्ठकः। बृह. ६अ। कोडल्लय-णयवेसिय। निशी. ९२आ। कोहपुड-कोष्टपुटः-गन्धद्रव्यपुटः। जीवा० १९१। । कोडालसगुत्तो- कोडालसगोत्रः-ऋषभदत्तब्राह्मणस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [75] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गोत्रः। आव. १७८ | कोडुब- कौटुम्बं-स्वराष्ट्रविषयम्। जीवा० १६६) कोडालसगोत्त- गोत्रविशेषः। आचा० ४२११ कोडुबिअ-कौटुम्बिकाः-अधिकारिणः। जम्बू. १८८1 कोडि-कोटिः-अस्रि, विभागः। पिण्ड० ८३ कोटयो- कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः। जम्बू० १९०| कौटुविभागः सूक्ष्मपल्योपमापेक्षयाऽसंख्येयखण्डानि म्बिकः-श्रेष्ठ्यादिः। ओघ० १२०। कौटुम्बिका महर्द्धिकाः। बादरपल्योपमापेक्षया तु कोटयः-सङ्ख्याविशेषाः। स्था० बृह० ६५। कौटुम्बिकः-कतिपयकुटुम्बप्रभुः। जीवा० २८० ९१। विभागः। स्था० ४५२। | कोडुबित- कौटुम्बिकः-कतिपयकुटुम्बप्रभुः। स्था० ४६३। कोडिगारा-शिल्पार्यभेदः। प्रज्ञा० ५६। कोडुंबिय- कौटुम्बिकः-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः। कोडिण्ण-कौडिन्यः-शिवभूतेयेष्ठशिष्यः। उत्त.१८० भग० ३१८ औप० १४| कौटुम्बिकाः-कतिपयकुटुम्बनगरविशेषः। ज्ञाता० ३०९। कोडिन्यः प्रभवो राजसेवकाः। भग० ११५। कौम्बिकाःमहागिर्याचार्यशिष्यः। आव० ३१६। कौण्डिन्यः ग्राममहत्तरा। प्रश्न. ९६। भग०४७४। कौम्बिकाःबोटिकशिवभूतेरादिशिष्यः। आव० ३२४। कतिपयकुटुम्बना-यकाः। भग०४६३। निशी० ७८ आ। कोडितगणे-महावीरस्य नवमो गणः। स्था० ४५११ | कोडु-स्फुटम। आव० ४२०। कौतुकं-मनोरथः। आव० ४३२१ कोडिन्न-कोण्डिन्यः-मिथिलायां श्रीमहागिर्या- कोढ- कुष्टं-पाण्डुरोगः, गलत्कोष्ठं वा। बृह० १७० अ। चार्यशिष्यः। उत्त. १६३। शिवमूतेः प्रथम शिष्यः। उत्त० रोगविशेषः। ज्ञाता० १८१। ३२१ कोढिउ- कुष्ठी। आव० ६७४। कोडिपडागा-कोटिपताका। आव० ३४२ कोढी-कुष्ठमष्टादशभेदं तदस्यास्तीति कुष्ठी। आचा० कोडियं- गाढचम्पितम्। बृह. २४३ आ। २३३॥ कोडियसहियं-कोटीभ्या सहितं कोटीसहितम्। कोणं-कर्णम्। बृह. १०७ आ। मिलितोभय-प्रत्याख्यानकोटि, चतुर्थादिकरणमेव। आव० | कोणंगुली- कोणेऽङ्गुलिः। आव० ३७९| ८४०१ कोण-कोणः-वादनदण्डः। जीवा० १९३। जम्बू० ३८५ कोडिसहियं- मीलितप्रत्याख्यानद्वयकोटि चतुर्थादि कोणः। आव० ८४२ कृत्वाऽन-न्तरमेव चतुर्थादेः करणम्। भग. २९६| | कोणओ-लगुडो। निशी० १०५आ। कोडिसिला- कोटीशिला। आव० १७६। कोणा-अश्रयः। जीवा० १२३। कोडी-कोट्यौ-अग्रे प्रत्याख्यानादयन्तकोणरूपे। उत्त. | कोणालग-कोणालकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न. ८ ७०६। कोटि-पञ्चोत्तरं लक्षम् १०५०००| जीवा० ३२५ कोणिए-कूणिकः-चम्पानगर्यां राजा। भग० ३२६। कोडीए-कोट्या-अग्रभोगेन। जम्बू०६८ कोणिकः-चम्पानगर्यधिपतिः। अन्त०२५ चम्पानगर्या कोडीकरण-कोट्यौव कोटीकरणम्। दशवै० १६२१ राजा। प्रश्न०१। कोडीणं-कोट्यः-अनेका कोटाकोटिप्रमुखाः सङ्ख्याः। कोणिओ-कोणिकः, राजविशेषः। विपा. ९०१ श्रेणिकपुत्रः। जम्बू० ९५ दशवै.५०| शिक्षायोगदृष्टान्ते श्रेणिकचेल्लणयोः पुत्रः। कोडीवरिसं-कोटिवर्ष, लाटजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ | यः पूर्वभवे कण्डीश्रमण आसीत्। आव०६७८ कोटीवर्ष-मूलगुणप्रत्याख्यानोदाहरणे म्लेच्छनगरम्। कोणिक- श्रेणिकपुत्रः। व्यव० ४२६ अ। चम्पायां राजा। आव०७१। ज्ञाता०३ कोडीसहियं-कोटीभ्यां-एकस्य कोण्हुआ-जम्बूकः। आव० ३५११ चतुर्थादेरन्तविभागोऽपरस्य चतर्थादेरेवारम्भविभाग | कोतव- उदररोगनिष्पन्नं कौतवम्। अनयो० ३५ इत्येवंलक्षणाभ्यां सहितं-मिलितं युक्तं कोटीसहितं कोतवोवरको। निशी. २५५ अ। मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटेश्चतुर्थादेः करणमि-त्यर्थः। | कोतालि- गोट्ठी। निशी. १७ आ। स्था०४९ कोताली-गोष्ठी। बृह. ३१ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [76] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कोतुविआ-कुतुपेन बहिर्ग्रामे व्यवहारकृत्। बृह. १९०। कोद्दवुब्भज्जी-कोद्दवोभज्झी कोद्दवजाउलयं। ओघ. कोत्तिया-भूमिशायिनः। भग०५१९निर०२७। औप० | १९६] कोद्दालकः- एकोरूकदवीपे वृक्षविशेषः। जीवा० १४५ कोत्थ-जनपदविशेषः। भग०६८० उदरदेशः। ज्ञाता० कोद्दालिय-कुद्दालिकः, भूखनित्रविशेषः। विपा० ५८१ ૬૮૫ कोधे- क्रोधे निश्रितमिति सम्बन्धात् क्रोधाश्रितंकोत्थल- वस्त्रकम्बलादिमयः। उत्त०४५७। कोपाश्रितं मृषेत्यर्थः। स्था० ४८९। कोत्थलकः- बस्तिः, अपाटितेनापनीतमस्तकेन | कोप्पर- कूर्परः। ओघ० ३१| कूर्परम्। प्रज्ञा० ४७३। स्क निकर्षितच न्धावारः। आव०६६७ र्मान्तर्वतिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरभर्ममयस्थिग्गलक | कोमल-श्रोत्रमनसां प्रहलादकारि। व्यव. २०अ। स्थगि तापानछिद्रेण मनोज्ञम्। जीवा० १८८, २९५। कोमलः-दृष्टिसुभगः। सङ्कीर्णमुखीकृतग्रीवान्तर्विवरेणाजापश्वोरन्यत-रस्य । जीवा० ४७४। शरीरेण निष्पन्नश्चर्ममयः प्रसेवकः कोत्थलापरपर्यायो | कोमारा-मट्टिया, उल्लामट्टिया। निशी० २५५आ। इतिः। पिण्ड० १८० कोमुइजोगजुत्तो- कौमुदीयोगयुक्तःकोत्थलकारिया-कोत्थलकारिका, भ्रमरीविशेषः। कार्तिकपौर्णमास्यामुदितः। दशवै० २४६। गृहकारिका। ओघ० ११७५ कोमुइया- कृष्णस्य प्रथमा भेरी। बृह. ५६ अ। कोत्थकलारी-भ्रमरी। बृह० २७८ अ। | कोमुइवारं- कौमुदीवासरम्। आव० ८१६| कोत्थलगारिअ-कोत्थलकारिका-गृहकारिका। ओघ. | कोमई-कौमुदी। ओघ. ९७। कौमदी-कार्तिकीपौर्णिमा। ११८ जम्बू. ११५ कोत्थलगारिया-कोत्थलकारिका-भ्रमरीविशेषः। आव. | कोमुतिआ- कौमुदीकी-वासुदेवस्य देवतापरिगृहीता ६२५ गोशीर्ष-चन्दनमयी तृतीया भेरी। आ०९७। कोत्थलवाहगो- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा. ३२१ | कोमुदि-कौमुदी-कार्तिकी। प्रश्न० ८४ कोत्थंभरि-कुस्तुम्भर्यो-धान्यककणाः। जम्बू० २४३। | कोमुदितं-उत्सववाद्यम्। ज्ञाता० १००/ कोथूभो– कौस्तुभो-वक्षोमणिः। प्रश्न० ७७ कोमुदियवारो- कौमुदीमहः। आव० ५६२। कोदंड-धनुः। भग० २९०। उत्त० ३११। कुदण्डस्तु | कोमुदी- कौमुदी। आव० ३५५ कारणिकानां प्रज्ञाद्यपराधात्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे | कोमदीनिसा- कौमुदीनिशा, कार्तिकपौणमासी। ज्ञाता० अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यम्। जम्ब० १९४| चापः। जम्बू ___३५१ २०६। कोयव- रूतपूरितः पटः, या लोके 'माणिकी' इति प्रसिद्धा। कोदूसग-कोद्रवविशेषः। भग. २७४। बृह. २२० अ। कुतुपः। स्था० २३४। कोदूसा-धान्यविशेषः। भग० ८०२। कोयवगो-वरक्को। निशी० ६१ अ। रूतपूरितपटः। ज्ञाता० कोइंसा-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ ૨૩રા. कोद्दव-कोद्रवः-धान्यविशेषः। भग० ८०२ दशवै. १९३| | कोयवाणि- वस्त्रविशेषः। आचा. २९३। सूत्र० ३०९। धान्यविशेषः। तृणविशेषः। स्था० २३४। | कोयवि-कौतपी-दुष्प्रतिलेखितदूष्यपञ्चके द्वितीयो औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३कोद्रवः, धान्यविशेषः। तृण- भेदः। आव०६५२ पञ्चके तृतीयोभेदः। आव० ६५२। कोरंग-कोरकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न. ८। कोद्दवकूरं-कोद्रवतन्दुलम्। आव० २००। कोरंट-कोरण्टकः-पुष्पजातिविशेषः। जम्बू० ३४१ कोद्दवजाउलयं-कोद्दवोभज्झी । ओघ. १९६| | कोरंटक-अग्रबीजः। दशवै० १९३। गुल्मविशेषः। आचा० कोद्दवोदणसेइया-कोद्रवौदनसेतिका। आव०६९२ | ३० स्थलजम्। प्रज्ञा० ३७| कोरण्टकः, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [77] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] पुष्पजातिविशेषः। जीवा० १९१। कोलशुनकाः-महाशूकराः। जम्बू० १२४। पाटयित्वा कोरंटगं- कोरंटकं-भरुकच्छे उद्यानम्। व्यव० १७३ आ। | भक्षणम्। निशी. १२९ । कोरंटय- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ | कोलसुणयं- महासुकरं। आचा० ३३८५ कोरंटयगुम्मा-कोरण्टकगुल्माः। जम्बू० ९८५ कोला-घुणा। नि० ८३ | निशी० २५५आ। घुणाःकोरव-कोरकं-मुकुलम्। स्था० १८५। जम्बू. ५२८। तदावासभूते जीवप्रतिष्ठितः। आचा० ३३७| कोरव्व-कौरव्यः-कौरव्यगोत्रः। जीवा० १२१। कुलविशेषः। | कोलाओ-कोलः। तन्दु । आव० १७१। कुरवः- कुरूवंशप्रसूता। औप० २७। कुरवः- कोलाल-मृद्धाजनविशेषः। आव० ४८४। कुलालाःआर्यभेदः। स्था० ३५८ कुरवः। भग० ४८९। कुलार्य- कुम्भकाराः। उपा०४२। भेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६। कालालिए- कौलालानि-मृद्भाण्डानि पण्यमस्येति कौलाकोरिंट-कोरिण्टं-कुसमविशेषः। भग० ३१८ कोरण्टकः- लिकः। अनुयो० १४९। पुष्पजातिः। ज्ञाता० २३ कोलालिया-कार्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० ५६। कोलालिकाःकोरिंटक-अग्रबीजाः। स्था० १८६| कुलालक्रयविक्रयिणः। बृह. १७५अ। कोरिंटमल्लदाम-कोरण्टकमाल्यदामं। प्रज्ञा० ३६१ कोलावास-कोला-घुणकीटकास्तेषामावासः। आचा० २९३। कोलंबए-कोलम्बः-शाखिशाखानामवनतमग्रं भाजनं वा। घुणावासः। आचा० ४१०| कोला-घुणास्तदावासभूतः अनुत्त०५ कोलावासः। आचा०३३७ कोलंबो-कोलम्बः-प्रान्तः। विपा० ५५ कोलाहल-विलपिताऽऽक्रन्दितादिकलकलः। उत्त० ३०७ कोल-कोलः-घुणः। आव०६५६। दशवै० १५५ शूकरः। बहुजनमहाध्वतिः। ज्ञाता० २२०। जीवा० १७३। बोलः। ज्ञाता०७० बृह. १४८ अ। बदरं। दशवै० ८० पिण्ड. प्रज्ञा० ९७। आतशकुनिसमूहध्वनिः। भग० ३०६। १६११ दशवै. १७६, १८५। बदरचूर्णम्। बृह. २६८ अ। आतशकुनसमूहध्वनिः। जम्बू. १६७ उन्दराकृतिर्जन्तुविशेषः। प्रश्न.७। क्रोडः-शूकरः। प्रश्न | कोलाहलभूत-कोलाहलः-विलपिताऽऽक्रन्दितादिकलकलः ७। कुवलं-बदरम्। भग० २८५४ कोलाहल एव कोलाहलकः स भूत इति जातो यस्मिंस्तत् कोलघरियाओ- कुलगृहात्-पितृगृहादागताः कौलगृहिकाः। | कोलाहलकभूतम्। उत्त० ३०७ उपा० ४८१ कोलाहलब्भूए-कोलाहलः-आर्तशक्निसमूहध्वनिस्तं कोलगिणी-कोलिकी। आव०४२११ भूतः प्राप्तः कोलाहलभूतः। भग० ३०६) कोलचण्णं- बदरचण्णं। दशवै. ८० बदरसक्तन। दशवै. | कोलाहा-दर्वीकरअहिभेदविशेषः। जीवा० ३९। प्रज्ञा०४६। १७६] कोलिअतंतुयं- कोलिकतन्तुकम्। ओघ० ११७ कोलजुत्तो- कुलौचित्यः। व्यव. २२४ अ। कोलिओ-कृतिकर्मदृष्टान्ते द्वारिकायां वास्देवभक्तो कोलट्ठिय- कुवलास्थिकम्-बदरकुलकः। भग० २८५। वीरकाभिधः कोलिकः। आव० ५१३। कोलपाणगं-पाणकविशेषः। आचा० ३४७ कोलिकपटक-वाद्यविशेषः। भग० २१६) कोलपाले–धरणेन्द्रस्य द्वितीयलोकपालः। स्था० १९७। कोलिग-कोलिकः-जीवविशेषः। बृह. १६४ अ। कोलवं- कौलवं-तृतीयं करणम्। जम्बू० ३९३) कोलिगजालग-कोलिकजालकानि-जालकाकाराः कोलवालं-दवरकम्। आव० ४२७।। कोलिकानां लालातन्तुसन्तानाः। बृह. २७८ अ। कोलवासंसि-कोला-घुणाः तेषामावासः। सम० ३९| कोलिय-कौलिकः-तन्तवायः। नन्दी.१६५ कोलसुणए-कोलशनकः-मृगयाकुशलः श्वा। प्रज्ञा० २५४१ | कोलियकः- लता। ओघ. १२६ सूकरस्वरूपधारी। उत्त०४६० कोलियकण्णा- कोलिककन्या विषभोजननिवृत्तौ कोलसुणक-कोलश्वानः-महासूकरः। प्रश्न. ७) दृष्टान्तः। आव० ५५६) कोलसुणग-सनखपदचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा० ४५ कोलियगो-कोलिकः। उत्त. १०० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [78]] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] कोलियापुडिगो-मक्कडसंताणओ। निशी० २५५आ। कोविओ-कोविदः-संसारविमखप्रज्ञतया पण्डितः। पिण्ड. कोलणं- कारुण्यम्। निशी० ५८ आ। ७२ कोलेज्जाओ-अधोवृत्तखाताकाराद् असंयतः। आचा० कोवियप्पा-कोविदात्मा-कोविदः-लब्धशास्त्रपरमार्थ ३४४१ आत्माऽस्येति। उत्त०४२० कोल्लइर-संगमस्थविरविहारभूमिः। निशी० ९५आ। कोविया-खुडिया-नाशिता। निशी. १०८ आ। कोल्लकिरं-क्रीडनधात्रीदोष विवरणे नगरम्। पिण्ड. कोशलजनपदः- कोशलजनपदोऽप्यभिधीयते यत्र १२५ अयोध्या-नगरीति। ज्ञाता० १२५ पिण्ड० ९८। कोल्लगाणुगो-जो रयहरणणिसेज्जाए कोशला- देशविशेषः। पिण्ड० ९८१ उवग्गाहियपादपुंछणे वा ठितो वा एति चिट्ठति वा। कोशातकी-तिक्तरसपरिणता। प्रज्ञा० १०॥ वल्लीविशेषः। निशी० १३७ । आचा० ३० कोल्लयग्गामे- वर्द्धमानजिनस्य प्रथमं पारणकस्थानम्। | कोशिकारः-कीटविशेषः। आचा०७१। आव० १४६। कोष्ठ-लक्षणहीनम्। अनुयो० १०२। वाससमुदायः। भग कोल्लयर-कुल्लयरं-नगरविशेषः। उत्त. १०८1 ७१३| धान्यपल्यः। उत्त० ३५१। कोल्लर- हस्तिन उपरि कोल्लररूपा 'गेल्लि' या मानुषं | कोष्ठबुद्धिता- ऋद्धिविशेषः। स्था० ३३२। गीलतीव। भग. १८७, ३९९। कोसं-कोष-भाण्डागारं चर्मलताद्यनेकवस्तुरूपम्। उत्त. कोल्लाए-सन्निवेशः। उपा०२, १४। सन्निवेशः। ३१६ महावीरस्वा-मिविहारभूमिः। भग०६६२१ कोस-सरावं। दशवै. ९९। अहिं रयणादियं दव्वं सो। कोल्लाकसन्निवेशं- वर्द्धमानजिनस्य विहारभूमिः। आव० कोशः। निशी. ३४ आ। कोशः-आश्रयः। प्रश्न०६४। २००१ समुदायो। निशी० ६२आ। क्रोशः-गव्यूतम्। उत्त०६८६) कोल्लाग-कोल्लकः-सन्निवेशः। कोशः-वारकादिभाजनम्। सूत्र. ११८ महावीरस्वामिविहारभूमिः। आव. १८८1 कोसंब- एकास्थिकवृक्षविशेषः। भग० ७०५, ८०३। प्रज्ञा. कोल्लागसन्निवेस-कोल्लागसन्निवेशः ३११ व्यक्तसुधर्मगणधरयोर्ज-न्मभूमिः। आव० २५५/ कोसंबवण-कौशाम्बवनं-कृष्णस्य कालकरणस्थानम्। कोल्लुकपरंपर- महाराष्ट्रसिद्धकोल्लुकचक्रपरंपरन्यायः। | अन्त०१६) बृह. ९० आ। कोसंबाहारं-आर्यसुहस्तिविहारभूमिः। कोल्लगा-सिगाला। निशी. १७५अ। द्रमकदीक्षास्थानम्। निशी. २४३ अ। कोल्हुकं- इक्षुयन्त्रम्। बृह. १९९आ। कोसंबि-कौशाम्बी- वर्धमानस्वामिविहारभूमिः। भग. कोल्हुगाणूगे- क्रोष्टुकानुगः। आचार्याणां तृतीया उपमा। ५५६। आव. २२१ शतानीकराजधानी। भग० ५५६। विपा. भिक्षोः तृतीया उपमा। व्यव० १२१ आ। ६८ आव० २२ कोव-कोपः-क्रोधोदयात्स्वभावाच्चलनमात्रम्। भग० कोसंबिय-कोशाम्बी, अज्ञातोदाहरणेऽजितसेनराजधानी। ५७२ आव०६९९ कोवघर- कोपगृहम्। विपा० ८३। कोसंबी- कौशाम्बी-नगरीविशेषः। उत्त. २१४, १९३, ३७९। कोवडिओ-केतराती। दीणारो। निशी० ३३० । यज्ञदत्तद्विजस्थानम्। उत्त० ११११ वत्सदेशराजकोवपिंड-कोपपिण्डः-कोहप्रसादात पिंडं लभते स धानी। बृह. १६७ आ। द्रमकप्रव्रज्यास्थानम्। बृह० १५३ कोपपिण्डः। निशी. १०० अ। आ। वर्द्धमानस्वामिपारणकस्थानम्। आव० २२५१ कोविए- कोविदः-पण्डितः। उत्त० ४८२। लब्धशास्त्रपर- दुर्गन्धायाः उत्पत्तिस्थानम्। उत्त० १२३। नगरीविशेषः। मार्थः। उत्त० ४१९ ज्ञाता० २५३। वत्थजणवए णगरी। निशी. १६अ। भग. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [79] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] ५५६। नगरीविशेषः। उत्त०४४। दशवै०४९। तापस- कोसिओ-कौशिकनामा अश्वणिक्। आव० २२० कौशिश्रेष्ठिस्थानम्। उत्त० २८६, २८७| धनपालराजधानी। कनामा ब्राह्मणविशेषः। आव० १७१। कौशिकःविपा. ९५। पद्मप्रभजन्मभूमिः। आव १६०| तापसपुत्रः। आव० १७६) शिक्षायोगदृष्टा-न्ते नगरी। आव०४८५ कोसिकारकीड-कोशिकारकीटः-आत्मवेष्टकः अज्ञातोदाहरणेऽजितसेनराजधानी। आव० ७००। कीटविशेषः। प्रश्न०६१ संपइस्स उप्पत्तिट्ठाणं। निशी० ४४। कोसिता- कौशिकाः-षडुलकादयः। स्था० ३९० कोसंबीओ-कौशाम्बीकः। आव०६३ कोसियं-कौशिकं-हस्तगोत्रम्। जम्बू. ५००। कोसकोट्ठागारकहा- कोशो-भाण्डागारं, कोष्ठागारं- | कोसियगोत्ते- कौशिकगोत्रम्। सूर्य १५०। धन्यागारं, तत्कथा कोशकोष्ठागारकथा। स्था० २१० कोसियज्जो-कौशिकार्यः-आर्जवोदाहरणे कोसकोद्वारे-कोशकोष्ठागारं, राज्ञाः चम्पायामुपाध्यायः। आ०७०४१ कोशकोष्ठागारसम्बन्धी-विचारः। कोसी-नदीविशेषः। स्था० ४७७। कोशः-परिवारः। सूत्र. राजकथायाश्चतुर्थभेदः। आव० ५८१। २७६। कोशी-प्रतिमा। उपा०२४। कोसग- कोशकः-चर्मपञ्चके चतुर्थो भेदः। स्था० २३४।। कोसेज्ज-कौशेयकं-कौशेयककारोद्भवं वस्त्रम्। प्रश्न कोशः-चर्मपञ्चके चतुर्थो भेदः। आव०६५ नखभंगरक्ष- ७१। वस्त्रम्। औप०१०। कौशेयं-त्रसरितन्तनिष्पन्नम्। कश्चर्मकोशः। बृह० १०१ अ। अंगुलीनामगुष्ठस्य वा जम्बू. १०७ वेडयकारिणो। निशी० ४३आ। वस्त्रविशेषः। छादकः स कोशकः। बृह० २२२ आ। जम्बू० २०२ कोसयं-कोशः। आव०६२५ कोसेयं- कौसेयं-त्रसरितन्तुनिष्पन्नं वस्त्रम्। जीवा० २६९। कोसल-देशविशेषः। उत्त. ३७५ भग०६८० कोशलकः- | कोहंडा- कूष्माण्डाः-पुंस्फलाः। अनुयो० १९२। कोशलदेशोत्पन्न। व्यव० २१९ आ। कोह- कारणेऽकारणे वाऽतिक्रूराध्यवसायः क्रोधः। आचा० कोसलग-कोशलकः-कोशलदेशीयः। पिण्ड. १६७ १९१। तत्रात्मीयोपघातकारिणी क्रोधकर्मविपाकोदयात् कोसलपुरं-सुमतिनाथजन्मभूमिः। आव० १६० क्रोधः। आचा० १७० क्रोधनं-क्रध्यति वा येन सः क्रोधःकोसला-कोशला-अयोध्या, तज्जनपदोऽपि कोशला। क्रोधमोहनीयसम्पाद्यो जीवस्य परिणतिविशेषः भग० ३१७। अयोध्या। जम्बू० १३६। कोशला क्रोधमोहनीय-कर्मैव। स्था० १९३| अप्रीतिलक्षणः। उत्त. जनपदविशेषः। ज्ञाता०१३० प्रज्ञा० ५५ कोशला- २६१। क्रोधः-अप्रीतिपरिणामः। जीवा० १५। क्रोधः। आव. अचलगणधरजन्म-भूमिः आव० २५५ ८४८। क्रोधः-सप्तम उत्पादनदोषः। पिण्ड० १२१। षष्ठं कोसलाउरे-कोशलपुरे-मायोदाहरणे नगरं, यत्र पूर्वभवे पापस्था-नकम्। ज्ञाता०७५ कोथः-कथितत्वं शटितं वा। धनपतिधनावहभार्ये नन्दनेभ्यस्य भग०१९८1 श्रीमतिकान्तिमतिदुहितरौ जाते। आव० ३९४। कोहणिस्सिया-क्रोधनिःसृता-क्रोधान्निःसृता, कोसलिए-कोशलदेशोत्पन्नत्वात्। कौशलिकः। स्था. क्रोधादविनिर्ग-तेति। प्रज्ञा० २५६। ३२७। कोशलायां-अयोध्यायां भवः कौशलिकः। जम्बू | कोहण- क्रोधनः-सकृत् क्रुद्धोऽत्यन्तक्रुद्धो भवति। १३६। कोशलदेशे भवः कौशलिकः। सम० ९० नवममस-माधिस्थानम्। सम० ३७। क्रोधनः-यः कोसलियं-कौशलिकं-देशविशेषः। उत्त० ३५४। सकृत्क्रुद्धोऽत्यन्त-क्रुद्धो वा भवेत्। कोसा-कोशा, पाटलिपुत्रे गणिका। आव० ४२७। वेश्या, नवममसमाधिस्थानम्। आव० ३५३| यस्या गृहे स्थूलभद्रो द्वादशवर्षं यावत् स्थितः। आव० कोहनिस्सिया-क्रोधनिसृता-मषाभाषाभेदः। दशवै० २०९। कोहविवेग-क्रोधविवेकः-कोपत्यागः, तस्य कोसातकी-तिक्तरसे दृष्टान्तः। उत्त०६७६| दुरन्ततादिपरि-भावनेनोदयनिरोधः। भग०७२७। कोसि-कोशी-प्रतिमा। ज्ञाता०५७। कोहसन्ना-क्रोधोदयादावेशगर्भा ६९५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [80] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] प्ररूक्षनयनदन्तच्छदस्फ़र-णादिचेष्टैव प्रश्न.१४४॥ संज्ञायतेऽनययेति क्रोधसंज्ञा० भग० ३१४। क्रोधादिपिण्डः- क्रोधमानमायालोभैरवाप्तः क्रोधवेदनीयोदयात्तदावेशगर्भा क्रोधादिपिण्डः। आचा० ३५११ पुरुषमुखवदनदन्तच्छदस्फू-रणचेष्टा क्रोधसंज्ञा। प्रज्ञा. | क्रोधादिमानं-क्रोधादीनां मानम्। आचा. १६४| રરરા क्रौंचारिः- कार्तिकेयः। आचा. २६। कोहा- क्रोधा-क्रोधानुगता। निशी० ३१ आ। क्रौष्ठिकी- श्रीकृष्णस्य नैमित्तिकः। उत्त०४९० कोहंडियाकुसुमेइ-कुष्माण्डिकाकुसुमं-पुंस्फलीपुष्पं। क्वणितं- शब्दितम्। आव०६४६| जम्बू. ३४ क्वणिता- काचिद्वीणा। जीवा० २६६। कोहेतुः- को हेतुः- का उपपत्तिः । सूर्य. २२। किं कारणम्। क्वथितं- प्रधानम्। जीवा. २६८१ सूर्य. १३ क्वथितोदकं-उष्णोदकम। दशवै. २२८। कौटलं-अर्थशास्त्रम। ज्योतिषं निमित्तं वा। ओघ. १४९। | | क्वार्थ- फाणितम्। प्रज्ञा० ३६४। कौटिल्यं-मायी। दशवै० २५४। क्षणक्षयिभावप्ररूपकः-सामच्छेदः। आव० ३११| कौतुकं- थुथुकरणं, बन्धकडकादिबन्धनं, एतत् सर्वमपि | क्षणमात्रं- पलमात्रम्। नन्दी. १५५। कौतुकमुच्यते। बृह. २१५ अ। क्षणीभूतं-स्तिमितम्। ओघ. १८४ कौमोदकी- वासुदेवस्य गदा। उत्त० ३५०। गदाविशेषः। क्षपकर्षि-भिक्षुविशेषः। उत्त० ४१८॥ प्रश्न० ७७। गदा, लकुटविशेषः। सम० १५७। क्षपणं-अनारोपणम्, प्रस्थे कौलिकः- कोकिलजातीयः पुरुषविशेषः। नन्दी० १५५ चतुःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव झाटनमित्यर्थः। स्था० कौलिकी-कोकिलजातीया-भ्रामरम्, उत्पातिकीबुद्धे- ३२६। ईष्टान्तः। नन्दी० १५५ क्षपणोपसम्पत्- चारित्रनिमित्तं क्वचित्क्षपणार्थम्। कौशाम्बकानने- वनविशेषः। स्था०४३३ आव. २७१। कौशेयकानि-वस्त्राविशेषभूतानि। सम० १५८। क्षयनिष्पन्न- तत्फलरूपो विचित्र आत्मपरिणामः, कौसंभ-रागविशेषः। रञ्जनविशेषः। जम्बू. १८८५ केवलज्ञान-दर्शनचारित्रादिः। स्था० ३७८१ क्खायं-ख्यातं, कथितं, प्रसिद्धम्। प्रज्ञा०६८। क्षयोपशमं-अर्द्धविध्यातानलोदघट्टनसमतां नीतम्। आव. क्रमभङ्गः- यथैको जीव एक एवाजीवेत्यादि। आव०५९६। । ७९ क्रमभङ्गकाः- भङ्गस्य द्वितीयभेदः। स्था० ४७८। क्षान्तः-क्षामितसमस्तप्राणिगणः। आचा. २९१। क्रयाणकः- द्रव्यसमूहः। नन्दी० १५० क्षात्रखानकः-सन्धिन्छेदकः। प्रश्न० ४६। क्राकचव्यवहारः- क्रकचेन काष्ठस्य तद्विषयं सङ्ख्यानं | क्षारोदका-आमलकोदकाः। पिण्ड० ६५१ कल्प एव यत्पाट्यां क्राकचव्यवहारः। स्था० ४९७। क्षाल- निर्द्धमनः। स्था० २९४। क्रियानयः-नयविशेषः। दशवै.८० क्षीरकाकोली-साधारणवनस्पतिविशेषः। आचा. ५७। क्रियाविशालं- कायिक्यादिक्रियाविशालं क्षोरबिडीलिका-साधारणवनस्पतिकायिकभेदः। जीवा. संयमक्रियाविशालं च। नन्दी० २४१। રછ| क्रियासिद्धिः- इहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा। आचा० ४१९। क्षीररसा-वापीनाम। जम्बू० ३७१। क्रीडारथः-क्रीडार्थ रथः रथस्य प्रथमो भेदः। जीवा. १८९| | क्षीरवरः-दवीपविशेषः। अनयो०९० क्रीत-साध्वकल्प्य मशनादि। दशवै.२०३। प्रश्न. १४४।। | क्षीराश्रवत्वं- ऋद्धिविशेषः। स्था० ३३२१ क्रूराणि- क्रूराणि, निर्दयानि निरनक्रोशानि। निशी. १९९| | क्षीराश्रवः-क्षीरवन्मधवक्ता। आचा०६८। क्रोधकारणः- गर्वः। आचा० १६४। क्षीरिका-साधारणवनस्पतिकायिकभेदः जीवा० २७। क्रोधनत्वं- अत्यन्तक्रोधनत्वम्। नवममसमाधिस्थानम्। | क्षीरोदः- क्षीररसास्वादः समुद्रः। अनुयो० ९०| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [81] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] क्षुद्रिका-सर्वतोभद्राप्रतिमायाः प्रथमो भेदः। स्था० २९२२ तुल्यः पादादिलेपकारी कर्दमविशेषः एव। स्था० २३५ क्षुद्रघण्टा-घण्टिकाः, किङ्किण्यः। जम्बू. ५२९। स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणोद्भुतम्। उत्त०६५२। क्षुभिताः-आकुलाः। ओघ०७१। लोभस्य लक्षणसूचकः। आचा० १७०| क्षुरप्रसंस्थितं- रसनेन्द्रियसंस्थानम्। भग. १३१| खंजरीट-जीवविशेषः। दशवै. १४१ क्षुरिका-शस्त्रविशेषः। जीवा० १९२ नन्दी. १६४। खंड-शर्करा। बृह० ७५आ। अन्यो. १५४। भिन्नः। जीवा. आभरणविशेषः। पिण्ड० १२४१ १३०| इक्षुविकारः। उत्त० ६५४। मधु शर्करा वा। जीवा. क्षुल्लककुमारः- श्रमणविशेषः। सूत्र०७२। २६८ लवणम्। ओघ० १३७। पव्वदेससहितं। निशी. २३ क्षुल्लहिमवत्-हिमवर्षधरपर्वते द्वितीयकूटम्। स्था० । अ० खण्डम् प्रज्ञा० ३६४१ आचा. ९७। કરા खंडकण्णो-खण्डकण्णः-अवन्तीपतेर्मन्त्रो। व्यव० १४९। क्षुल्लिका- भद्रोत्तरप्रतिमायाः प्रथमो भेदः। स्था० २९३। | खंडकुटो-खंडकुटो नाम यस्य कर्णौ बोटौ स पानीयमनं क्षेत्र- आर्यस्य दवितीयभेदे प्रथमः। सम. १३५१ गृह्णाति। बृह० ५४ । क्षेत्रगणितं- रज्जुगणितम्। स्था० २६३, ४९७। खंडकुडे- खण्डकुटः। आव० १०११ क्षेत्रग्रहणलक्षणैका-सङ्ग्रहपरिज्ञासम्पतः, प्रथमो भेदः। खंडग-खण्डप्रपातगुहाकूटं, वैताढ्यकूटनाम। जम्बू० उत्त०४० ३४१। खण्डप्रपाता नाम वैताढ्यगुहा। स्था०४५४। क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा-कायोत्सर्गनिषदनशयनस्थानस्य खंडगप्पवायगुहा-खण्डप्रपातगुहा। आव० १५१| स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च निरूपणा। स्था. खंडगमल्लगं-खंडमल्लकं-खण्डशरावं भिक्षाभाजनम्। ३६१ ज्ञाता०२००, २०३। क्षेत्रमरणं- यस्मिन् क्षेत्रे मरणं इङ्गिनीमरणादि वर्ण्यते खंडघडगं-खण्डघटकः-पानीभाजनम्। ज्ञाता० २००, २०३१ क्रियते वा, यदा वा तस्य खंडना-विराधना। प्रश्न. ७ शस्यादयुत्पत्तिक्षमत्वम्पहन्यते तदा तत्। उत्त० २२९। खंडपट्टे-खण्डपट्टः-धूतः। विपा० ७२ खण्डः-अपरिपूर्णः क्षेत्रविज्ञानं-किमिदं मायाबहलमन्यथा वा ? तथा पट्टः परिधानपट्टो यस्य मद्यद्यूतादिव्यसनाभिभूततया साधभिर-भावितं भावितं वा नगरादीति विमर्शनम्। परिपूर्णपरिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टाः-यूतकारादयः, प्रयोगमतिसम्पतः तृतीयो भेदः। उत्त० ३९| अन्यायव्यव-हारिणः, धूर्ता वा। विपा. ५६। क्षेत्रोपक्रमः-क्षेत्रविनाशः। अनुयो० ४८१ खंडपाडिय-खण्डपाडितः। विपा. ५६ क्षेम-तत्तदुपद्रवाद्यभावापादनम्। राज० १०९। खंडप्पवायगुहाकूड-खण्डप्रपातगुहाधिपदेवनिवासभूतं क्षेमकरः-आधायाः परिवर्तितदवारे वसन्तरे कूटं खण्डप्रपातगुहाकूटम्। जम्बू० ७७। निलयश्रेष्ठिपत्रः। पिण्ड० १०० खंडप्रपाता- गुहाविशेषः। स्था० ७१। क्षोभः-आकस्मिकः संत्रासः। ओघ. १९| खंडभेदः-क्षिप्तमृत्पिण्डस्येव। स्था०४७५ क्षौमकं-वस्त्राम्। स्था०५१२ खंडभेय-खण्डभेदः-लोष्टादेरिव यः खण्डशो भवति। भग. -x-x-x રરકા खंडरक्ख-खण्डरक्षः-दण्डपाशिकः। राय० खण्डरक्षः। खं-आकाशम्। आव० ८५०| उत्त० १६५। दण्डपाशिकः शूल्कपालो वा। औप० २२ श्रमखंघकरणी- कुडभकरणी साध्व्यपकरणम्। बृह. ११९ । णोपासकविशेषः। आव० ३१७ शुल्कपालः। प्रश्न. ३० खंजणं-खजनं-दीपमल्लिकामलः, शुल्कपालः कोट्टपालो वा। प्रश्न० ४६। स्न्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणो-द्भवं वा। प्रज्ञा० ३६१। खंडरक्खा-खण्डरक्षाः- दण्डपाशिकाः शुल्कपाला वा । जम्बू. ३२। दीपमलः। बृह. ९२ अ० खजनः। सूर्य ज्ञाता० २। दण्डपाशिकाः। ज्ञाता० २३९। हिंडिकाः। बृह० २८७ ज्ञाता०६। १८०आ। खंजन- खञ्जनं दीपादीनाम्। स्था० २१९। दीपादिखञ्जन- | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [82] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] खंडशर्करा - मत्स्यण्डी । जम्बू० १०५ | प्रज्ञा० ३६६ | जीवा० २६८ आगम - सागर - कोषः (भाग : - २) खंडाखंडिकतो- खण्डखण्डीकृतः । आव० २३| खंडाखंडेहिं खण्डशः आव० ३७०१ खंडाभेद- खण्डभेदः लोहखण्डादिवत्। प्रज्ञा० ३६७ | खंडिअ - खण्डितम् । देशतो भग्नम्। आव० ५७२ | आव० ७७८ खंडिए - खण्डिकः छात्रः । उत्त० ३६४ | खंडिओ - छात्रः । आव० ५६१ | खंडित्तए खण्डयितुं देशतः भक्तुम् । ज्ञाता० १३९६ खंडिय - खण्डितं दण्ड इव विभागेन छिन्नम्। प्रश्न १३४॥ खण्डिकः छात्रः । आव० २४६ । उत्त० ३६७ | खंडी खण्ड: अपद्वारम्। विपा० ५६ । खंडीओ - प्राकारच्छिद्ररूपाः । ज्ञाता० ८१| खंत- पिता । बृह० ३२ आ । पिण्ड० १२७ | क्षमोपेतः क्षान्तः। सूत्र० २९८। वृद्धः । उत्त० १२८ \ पिण्ड० ३९६ । दशकै ८९| पिता। आव० ३०४ खंतपुत्तो- वृद्धपुत्रः । आचा० ६४ खंति- क्रोधनिग्रहः । जाता० ७ खंतिखमे क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्तिक्षमः - अनगारः । भग० १२२| खंतिखमाते- क्रोधनिग्रहेण क्षमा-मर्षणं न त्वशक्ततयेति क्षान्तिक्षमा स्था० १४९ | खंतिया - जननी। ओघ० १६३ | पिण्ड० १२६, १२७ | खंतिसुद्धि- क्षान्तिः-क्षमा शुद्धिः- आशयविशुद्धता, क्षान्तेः शुद्धिः-निर्मलता क्षान्तिशुद्धिः । उत्तः ५८ खंती - क्षान्तिः क्रोधनिग्रहः तज्जन्यत्वादहिंसाऽपि क्षान्तिः। अहिंसायास्त्रयोदशं नाम प्रश्न० ९९| खंतेण पितरि गहिते। निशी० १७६ अ खंद स्कन्दः कार्त्तिकेयः । भग. १६४१ जम्बू. १२३ जाता० ४६, १३९५ जीवा० २८१ पात्रालके यामकूटपुत्रः । आव० २०११ खंद - स्कन्दणः श्रावस्तीनयर्गां कात्यायनगोत्रो गर्दभालिशिष्य स्कन्धकः परिव्राजकः । भग० ११२, १२४| स्कन्दकः-स्कन्दकसम्बन्ध्युद्देशकः । भग० २१२१ भग ३२१, ३२४, ४५६,५१९, ५२३, ५५२, ५५४, ६२४| श्रावस्तीनगर्यां जितशत्रोः पुत्रः । बृह॰ १५२आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] जितशत्रुराजपुत्रः। उत्त० ११४ | भगवत्यां द्वितीयश उद्देशकः । ज्ञाता० १२४, १९८ । खंदगगच्छो- दृष्टान्तविशेषः। निशी० ३०३अ खंदगपडिमा स्कन्दप्रतिमा आव० २२१| खंदगाह - स्कन्दग्रहः उन्मत्तताहेतुः । भग. १९७ खंदगो - आयविशराहणाए दिट्ठतो। निशी० ४४ अ । स्कंदकः । अन्त० १८ | चंपाणाम णगरी, तत्थ खंदगो राया। निशी० ४४ अ । खंदमह- स्कस्य कार्तिकेयस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः स्कन्दमहः । जीवा. २८१ कार्तिकेयोत्सवः । ज्ञाता० ४६ | खंदसिरी स्कन्दश्री:- विजयस्य चौरसेनापतेर्भार्या। विपा. १७] राजगृहेऽर्जुनकमालाकारस्य भार्या उत्त० ११२ खंदिल- स्कन्दिलः तगरायामाचार्यशिष्यः, सद्व्यवहारका -चार्यः । व्यव० २५६ आ खंध - स्तम्भः | निशी० २१ अ । स्कन्धः - रूपवेदनाविज्ञानसञ्ज्ञासंकाराख्यः । प्रश्र्न० ३१। स्कन्धःअंशदेशः । जम्बू. ११२ स्कन्धः - स्थुडम्॥ राय ०९। स्थुः दशकै० २४७ औप० ७ जीवा. १८७१ उत्त० २४म स्थुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति । जम्बू• २९| पागरी पेढं वा, घरो मृदिष्टकदारसंघातो स्कन्ध इत्यर्थः। निशी० ८४ अ स्कन्धः संहतानेकपरमाणुरूपः । उत्त० ६७४मा खंधगसीसा- कुम्भकारकटे यन्त्रपीलिताः । मरण० । खंधग्गहो- स्कन्धग्रहः । जीवा० २८४ | खंधदेसा स्कन्धदेशाः स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणामम-जहतां बुद्धिपरिकल्पिता व् यादिप्रदेशात्मका विभागाः । जीवा० ७ ॥ खंधप्पएसा स्कन्धप्रदेशाः स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाम-महजतां प्रकृष्टा देशाः निर्विभागा भागाः परमाणवः । जीवा० ७ | स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणामपरिणतानां बुद्धिपरिक-ल्पिताःप्रकृष्टा देशा निर्विभागा भागाः परमाणव इत्यर्थः, स्कन्धप्रदेशाः । प्रज्ञा० १० | खंधबीए स्कन्धबीजः सल्लक्यादिः सूत्र- ३५ण खंधबीया निहुशल्लक्क्यरणिकादयः स्कन्धबीजाः । आचा० ५७| स्कन्धबीजं शल्लक्यादि । दशव- १३९| खंधभूयं स्कन्धभूतं नालकल्पम्। प्रश्न. १३४| [83] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] खंधवसहो-स्कन्धवृषभः-ककुदधरः। आव० ७१९।। येनघनम्। बृह० ५५ अ। शुष्कः। निशी० ६१ अ। खंधा-खन्धः-थुडम्। राय०६। स्कन्दन्ति-शुष्यन्ति । खरंगे- व्याप्ताङ्गः। मरण। धीयन्ते च-पुष्यन्ते पुद्गलानां विचटनेन चटनेन चेति खरपुत्तो-क्षौरपुत्रः आव० २११। स्कन्धाः। प्रज्ञा०९। स्कन्धाः-स्थुडाः। प्रज्ञा० ३१| खउरिता-खरण्टिता रोषेणेत्यर्थः। रुष्टाः। निशी. २०७। द्वीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४१। खउरियाओ-कषितचेतसः कषायेणानालपनम्। ब्रह. खंधार-स्कन्धावारः सैन्यसंन्निवेशः। आव०४२४॥ २०९ आ। राजबिम्बयुतं स्वचक्रं परचक्रं वा। बृह. २७३ आ। खओ-क्षयः यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशः। जीवा. १८३। खंधारमाणं-कलाविशेषः। ज्ञाता० ३८१ खओवसम-क्षयोपशमः-उदितानां क्षयोऽदितानां विष्कखंधावार-स्कन्धावारम्। आव. २१७ स्कन्धावारः। म्भितोदयत्वम्। ज्ञाता०६४। हस्ती। आव०६७१। प्रज्ञा० ३००| निशी. ३५८ । आव० खओवसमिए-क्षायोपशामिकः-क्रियामात्रं क्षयोपशमेन वा २९९, ५५६| निवृतः। भग०६४९। क्षयापशमाच्च जातः खंभ-स्तम्भः। औत्पातिकीबद्धौ द्वादशमदाहरणम्। क्षायोपशामिकः देशोदयोपशमलक्षणः। सूत्र. २३० नन्दी१५३। भग० २३८ स्तम्भः-कायोत्सर्गस्य विंशतौ | खओवसमिया-तथाऽवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मण दोषे तृतीयो दोषः। आव०७९८ सामान्यतः। जीवा. उदयावलि-काप्रविष्टस्यांशस्य वेदनेन योऽपगमः स १८२। सुवर्णरूप्यमयं फलकम्। जीवा० १८० क्षयोऽनुदयावस्थस्य विपाकोदयविष्कम्भणम्पशमः औत्पात्तिकी बुद्धौ यस्य दृष्टान्तः। आव० ४१९। क्षयश्च उपशमश्च क्षयोपशमौ ताभ्यां निवृतं खंभछाया-स्तम्भछाया, छायाभेदः। सूर्य० ९५५ क्षायोपशमिकः। प्रज्ञा०४३१| खंभपुडतरं-स्तम्भपुटान्तरं-द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं खक्खरओ-खर्खरकः आव०४२४। तेषामन्तरम्। जीवा० १८२। जम्बू. २५० खक्खरो-खर्खरः-अश्वोत्वासनाय चर्ममयो वस्तुविशेषः, खंभबाहा-स्तम्भपार्चम्। जीवा० १८२। स्फुटितवंशो वा। विपा०४७ खंभसीसं-स्तम्भशीर्षम्। जीवा. १८२ खग्ग-खङ्गः शस्त्रविशेषः। उत्त०७११। आटव्यो खंभागरिसो-स्तम्भाकर्षः। आव० ४१२। जीवस्तस्य विषाणं-श्रृङ्गम्। स्था० ४६४। आयुधम्। भग० खंभूग्गया-स्तस्भोद्गता-स्तम्भोपरिवर्तिनी। जम्बू०४३। | ३१८ खङ्गः-एकश्रृङ्ग आटव्यस्तिर्यग्विशेषः। बृह. खंभोग्गया-स्तम्भोदनता-स्तम्भोपरिवर्तिनी। जीवा. १०६अ। गण्डीपदचतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८। खङ्गः१९९। अटव्यश्चतुष्प-दविशेषः। औप. ५३। प्रज्ञा० १०० खइअ- खचितानि-विच्छुरितानि। जम्बू० २७५, ७९। कायोत्सर्गफले दृष्टान्तः। आव० ८०११ खइए-क्षयाज्जातः क्षायिकः आटव्यश्चतुष्पदविशेषः। प्रश्न. १५८यस्य पाश्र्चयोः अप्रतिपातिज्ञानदर्शनचारित्र-लक्षणः। सूत्र. २३० पक्षवच्चर्माणि लम्बन्ते श्रङगं चैकं शिरसि भवति। क्षायिकः-क्षयः कर्मणोऽपगमः स एव तेन या निवृत्तः। प्रश्न ७। एगसिंगी अरण्णे भवति। नि० च०४७ आ। अनुयो० ११४१ आटव्यचतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८६। वनजीवः। मरण खइय-क्षापितं-प्रशस्तयोगैर्निर्वाणहुतभुक् तुल्यतां खग्गथंभणं-खङ्गस्तम्भनं-कायोत्सर्गफले दृष्टान्तः। नीतम्। आव० ७९। ख्यातम्-प्रसिद्धम्। आव० ७०० आव० ७९९। खादितं-भक्षणम्। स्था० २७६) खग्गपुरा-सुवल्गुविजये राजधानी। जम्बू० ३५७। खइया-असकृदासेविता। बृह. १३ अ। खग्गपुराओ-विदेहेषु राजधानीविशेषः। स्था० ८० खइव-संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणः। स्था० २७६) खग्गा– गण्डीपदविशेषः। प्रज्ञा०४५) खउर-खोरखदिरमादियाण खउरो। निशी० २३ अ। खग्गि- यस्य गच्छतो दवयोरपि पार्श्वयोश्चर्माणि चिक्कणद्रव्यम्। बृह. २२० आ। कठिनमतिश लम्बन्ते स जीवविशेषः। कोऽपि श्रावकः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [84] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ૨૮ प्रथमयौवनमदमोहितमना धर्मकृत्वा पञ्चत्वमुपागतः। १०० खङ्गः समुत्पन्नः। नन्दी० १६७। खङ्गिः खज्जोयग- खद्योतकः-प्राणिविशेषः। आचा०५०। आरण्यपशुविशेषः। ज्ञाता० १०४| खञ्जरीटः-जीवविशेषः। दशवै. १४११ खग्गी- खङ्गी-श्वापदविशेषः। आव०४३७। आटव्यो खटिका-वतिः । बृह. २५आ। जीवः। औप० ३५ विजये राजधानी। जम्बू० ३४७। खट्ट-खट्वा । आव ३५४| खग्गीतो-महाविदेहे विजयराजधानी। स्था० ८० खट्टमेहा-अम्लजलमेघाः। जम्बू.१६८। भग० ३०६) खग्गूड-कुटिलः। पिण्ड० १०० खट्टा-खट्वा-तूल्यादि। प्रश्न. ९२| खग्गूडप्रायाः-अवसन्नाः । ओघ०१५६। खट्टामल्लो-अतिशयेन वृद्धः। खट्टामल्लो नाम खग्गूडा-इहालसाः। स्निग्धमधुराद्याहारलम्पटाः। प्रबलराजर्जरि-तदेहतया यः खट्वाया उत्थातुं न खग्गूडा उच्यन्ते। बृह. २४० अ। अलसाः, निर्द्धर्मप्रायाः। शक्नोति। बृह० ५९। ओघ०७१, १५३ खट्टिका- कम्ममुंगितविसेसो। निशी० ४३ आ। खग्गडी-निर्धर्मप्रायः। ओघ०४४१ खट्टीदए-खट्टोदकं-ईषदम्लपरिणाम। जीवा० २५ प्रज्ञा० खग्गूडे-खग्गूडप्रायः। ओघ०७३। खग्गूडो- शठप्रायः। ओघ०४४। निद्रालुः। बृह. २४२ अ। खड-तृणम्। व्यव. १०७ अ। खचित-परिगतः। औप.१११ खडखडावेह-वादयत। आव० २०४। खचिय-खचितं-मण्डितम्। ज्ञाता० २७। भग० ४७७) खडखडेइ-खटत्कारयति। उत्त० १३८५ खज्ज-खाद्य-कूरमोदकादि। ज्ञाता०२३। खाद्यानि- खडपूलग-तृणपूलकः। निशी० १२८ अ। अशो-कवतयः। उपा०५ प्रश्न०१५३खाद्यम्। आव० खडपूलय-तृणपूलिकाः। मरण। खड्डग-खड्डुकः-टोलकः। बृह० ९२ अ। खज्जइ-खाद्यते-भक्ष्यते। आव०५६६। खाद्यते खड्डू- गतम्। आव० ६२४१ खण्डखा-द्यादि। उत्त० ३६०| खड्ड- गतः। आव० १९६, ३८४१ खज्जगं-खादयकम्। निर० ३४| खड्डा-गा । आव० ३६८, ६८५ खज्जगविही-खण्डसादयादिलक्षणभोजनप्रकारः। भग. खड्डुग-अगुलीयकविशेषः। औप. ५५ ६६२ आव० ३१४१ खड्डुय-खड्डुकः, टक्करः। उत्त०६२। खज्जगादि-खादयकादि। आव०८२२ खणं-क्षणं-स्तोककालम्। दशवै० १८० क्षणः-समयः। खज्जगावणो-खाद्यकापणः कुल्लुरिकापणः। आव० आव०६१० पारणम्। आव० ३२७। क्षणं-अवसरः। सूत्र. २७५ ७६। परमनिरुद्धःकालः क्षणः। सूत्र. २५। बहतरोच्छवासखज्जयं-खाद्यम्। उत्त. १५९| रूपः। ज्ञाता० १०४। क्षणः-प्रस्तावः। उत्त०६३१। परम खज्जुरी- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३। निरुद्धकालः क्षणः अष्टप्रकारेण कर्मणा संसारबन्धनैर्वा खज्जूरे-खर्जूरं-पिण्डखर्जूरादि। उत्त० ६५४। विषयाभिष्वङ्गस्नेहादिभिः। आचा० ११२। क्षणनं क्षणो खज्जूरपायगं-पानकभेदः। आचा० ३४७। हिंसा। आचा० २११। मुहूर्तः। स्था० ३४५। क्षणंखज्जूरसारए- मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसवः अवसरम्। आचा० १०९| खजूरसारः। प्रज्ञा० ३६४। खणजोइणो-परमनिरूद्धः कालः क्षणः, क्षणेन योगःखज्जूरसारो-खजूरसारः। जीवा० २६५। सम्बन्धः क्षणयोगः स विदयते येषां ते क्षणयोगिनः। खज्जूरि-वृक्षविशेषः। भग० ८०३। सूत्र. २५ खज्जूरिवण खजूरिवनं-वृक्षविशेषवनः। जीवा० १४५ खणणं-खननम्। आव०६१९। खज्जूरिसार-खज्र्जूरसारनिष्पन्न आसवविशेषः। जम्बू | खणभंगविघायत्थं-क्षणभङ्गविघातार्थ २००। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [85] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] निरन्वयक्षणिकवस्तु-वादविघातार्थम्। दशवै. १३० चक्रवर्तिवासुदेव-बलदेवप्रभृतयः। आचा० ३३३। क्षत्रियःखणयन्नो-क्षण एव क्षणकः-अवसरो सामान्य राजकु-लीनाः। राय०१२११ क्षत्रियाःभिक्षार्थमुपसर्पणादि-कस्तं जानातीति। आचा० १३२॥ शेषप्रकृतितया विकल्पि-ताः। जम्बू. १४५। क्षत्रियाःखणलव-कालोपलक्षणः क्षणलवादिषु आरक्षिकाः। निशी. २७७ अ। संवेगभावनाध्यानासेव-नतश्च निर्वतितवान्। ज्ञाता० खत्थो-विलक्षः। दशवै०५५। १२१ खदिरचञ्चुः- वजुलः। प्रश्न० १० खणसंखडी-क्षणसङ्खडी। दशवै० ८९। खदिरसारए-खदिरसारः। प्रज्ञा० ३६० खणाति-क्षणाः सङ्ख्यातानप्राणलक्षणः। स्था०८७) खद्धं-त्वरितम्। आचा० ३३७। बृहच्छब्देन खरकर्कशनिखणिए-क्षणिकः निर्व्याघातः। ओघ. २००९ ष्ठुरम्। आव०७२६। बहुः। उत्त० १४६। महाप्रमाणम्। खणित्तु-खनित्वा-समाकृष्य। आचा०४१७) बृह. ६४ आ। प्रचुरम्। आव० ३९३, ५६। बृह० २३५अ। खणीकरेंति-प्रक्षालयन्ती। आव० २१५ बृह. २४८ आ। ओघ०६८, १२७ पिण्ड० ७०, १३९। आव० खण्णा- (देशी) सर्वात्मना लुषिता। व्यव० १४० आ। ७२६। प्रश्न. १२८ आचा० ३३९। प्रचरम्। व्यव० १८०। खतं-स्वदेहोद्भवमेव क्षतम्। अनुयो० २१२ प्रभूतम्। ओघ० ४८५ प्रश्न० १४१। आचा० ३५३। शीघ्रम्। खतए- रावप्रलापाते कृष्णपुद्गलविशेषः। राहोः आचा० ३५२। बृहता बृहता कवलेन भक्षणम्। आव०७२६। चतुर्थनाथ। सूर्य २८७। बृहत्प्रमाणं। ओघ० २१६, १२१। स्था० १३८। खतोवसम-क्षयोपशमः क्रियारूप एव। स्था० ३७८। खद्धपलालितो- प्रचुरपलालितः-सुखीधनाढ्यः। खत्तं-क्षत्रम्। उत्त. २०७। क्षत्रं-करीषविशेषः। पिण्ड०८ | उत्त०२२५) ओघ० १३० खद्धवसभो- समर्थवृषभः। उत्त० ३०३ खत्तए-खातः-गर्तः इत्यर्थः। खातकः क्षेत्रस्येति गम्यते | खदादाणिअगामो-खद्धादानिकग्रामः-समृद्धग्रामः। ओघ. चौर इत्यर्थः। ज्ञाता० ७९। खत्तखणग-क्षात्रखानका-ये सन्धानवर्जितभित्तीः | खद्धादाणिओ- बहुदानीयः-श्रीमान्। आव० ६७९| काणयन्ति। ज्ञाता० २३९। खद्धादाणिय-प्रचुरादानीयः-ऋद्धिमान् धनाढ्यः। आव. खत्तमेहा-खात्रमेघाः-करीषसमानरसजलोपेतमेघाः। ४३३॥ जम्बू० १६८ भग० ३०६|| खदादाणियगिहा-ईश्वरगृहा इत्यर्थः। निशी० ३५० अ। खत्ता-क्षता-क्षत्रीयस्त्रीरुद्राभ्यां जातः। आचा० ८। क्षत्राः- खनित्रम्-खननसाधनम्। शस्त्रविशेषः। आचा० ३६| क्षत्रियजातयो वर्णसङ्करोत्पन्ना वा। खन्ना-मत्स्यकच्छपविशेषः। जीवा. ३२१| तत्कर्मनियुक्ताः। उत्त० ३६३॥ खपुसवग्गुरि-अद्धजंघातियाओ। निशी० १८ अ। खत्तिआ-क्षत्रियाः-श्रेष्ठ्यादयः। दशवै. १९११ क्षत्रिया। खपुसा- हिमाहिकण्टकादिरक्षायै पादपरिधानम्। ब्रह. आव. १२८ क्षणनानि क्षतानि तेभ्यस्त्रायत इति १०१ अ। घुटकच्छादकं चर्म। या घुण्टकं पिदधाति सा क्षत्रियः-राजा। उत्त०१८२। राजा। भग० १०१। खपुसा। बृह. २२२ आ। राजकुलीनः। भग० ११५। इक्ष्वाकुवंशादिकः। सूत्र. २३६। | खमंत-क्षपयन, क्षपणम्। पिण्ड० १६६। कुलविशेषः। आव. १७९। राष्ट्रकूटादयः। आचा० ३२७। खम-क्षेम-सङ्गतत्वम्। क्षम-युक्तार्थः। बृह. १०७ अ। सामान्यराजकुलीनः। औप० ५८।। क्षमा। भग०४६९। खत्तियकुंडग्गामं- क्षत्रियकुण्डग्राम-सिद्धार्थराजधानी। खमइ-क्रोधाभावात् क्षमते। भग०४९८1 आव० १७९| नगरविशेषः। भग० ४६१। खमए-क्षपकः। आव० २६३। क्षपकः-विकृष्टतपस्वी। बृह. खत्तिया-सामान्यतो राजोपजीविनः। बृह. १५२ अ। २५९ आ। क्षत्रियाः-हैहेयाद्यन्वयजाः। उत्त०४१८५ खमओ-क्षपकः-श्रमणः। दशवै. ३७ ४८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [86] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] एकान्तरितादिक्षपण-कर्ता। बृह. ९४ आ। खरंटो-3 जो मलो कमढं भण्णति। निशी. १९०आ। खमग-क्षपकं-मासक्षपकादिकम। ओघ०६४ अनशनी। खरंडिय-संतयं, निर्भय॑। आव० ४३१| भक्त०। उपोषिताः। बृह. २४४ आ। निशी. ५५। खर-खरस्थानम्। स्था० ३९७| निलम्। आ०८५४। क्षपकः। आ० १९५ गर्दभः। प्रज्ञा० २५२। जीवा० २८२। दासः। बृह. १६७ अ। खमणं- उपवासः। बृह. ९४ आ। क्षपण-अभक्तार्थः। व्यव० खरसन्नय। ओघ. १४६] १९१ आ। खरउ-शातवाहनस्यामात्यः। व्यव० १९३ अ। खमणाइयं-क्षापणादि-अनशनतादि। आव० ८४० खरए-राह्वाप्रलापीमते कृष्णपुद्गलविशेषाः। सूर्य० २८७ खमया-क्षमा-क्रोधनिग्रहः। चतुर्दशोऽनगारगुणः। आव. | राहोः। चतुर्थनाम। भग० ५७५ राहो तृतीयनाम। सूर्य ६६० २८७। दासदासीरूपं द्व्यरक्षकम्। बृह० १६४ आ। खमसि-क्षमसे क्षोभाभावेन। ज्ञाता०७१। खरओ-यक्षरो वा कर्मकरः। ओघ० १५६। दासः बृह. खमा-क्षमा-अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपस्य २२५ अ। द्वेषसज्ञितस्या-प्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा खरकंट- खरा-निरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टाः-कण्टकाः क्रोधमानयोरुदयनिरोधः। सम०४६। सङ्गतत्वम्। औप० | यस्मिं-स्तत् खरकण्टं बब्बूलादिडालम्। स्था० २४४। ५९। रोसावगमो। निशी० २१६अ। क्षमत्वम्। भग०४५९| | खरकंटयसमाणे-यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न खमामि-आत्मनि परे वाऽविकोपतया क्षमे। स्था० २४७। चलति अपितु प्रज्ञापकं दुर्वचनकण्टकैर्विध्यति स खमावणय-परस्यासन्तोषवतः क्षमोत्पादनम्। भग. खरकण्ट-कसमानः। स्था० २४३| ७२७ खरकंडे- खरकाण्डम्। कठिनो विशिष्टो भूभागः। जीवा. खमाह-क्षमस्व, सहस्व। उत्त० ३६७। ८९ खमिय-क्षपिकः। बृह० २०५ अ। खरकम्मिअ-दण्डपासगः। ओघ० ८९। खय-क्षयः राजयक्ष्मा। बृह. १७०अ। सर्वविनाशः। भग. खरकम्मिए-खरकर्मिकः-आरोग्याभिरतौ ५३९। बीजपुरवनदृष्टान्ते कुम्भकाराद्यन्यतमः। आव०४५३। खयक्का-कीलकः। उत्त०८५ खरकम्मिओ-खरकर्मिकः-आरक्षकः। ब्रह. १०२ आ। खरं- कठिनम्। जीवा० ८९। उच्चेण महंतेण सरेण जं खरकम्मिय-खरकर्मिकः। आव०६२७) सरीसं उक्तं तं खरं। नि० २९९ । खरस्थानम्। अनुयो) | खरकम्मिया-सन्नद्धपरिकराः। बृह० १२९ । रायप्१३३। सरोसवयणमिव अकंतंखरं। निशी. २७८ अ। रिसा। निशी० २१० अ। राजपुरुषाः। बृह० २१३। खरंट- खरण्टयति-लेपवन्तं करोति यत् तत् खरण्टं खरकर- लक्ष्णपाषाणभृतचर्मकोशकविशेषः, अशुच्यादि। स्था० २४४१ स्फुटितवंशो वा। प्रश्न. ५९| खरंटणा-खिंसना। ओघ० ४५ णिप्पिवासा। निशी० १३१ | खरग-खरकः-वैदयविशेषः। आव. २२६। दासः। निशी. अ। प्रवचनोपदेशपूर्वकं परुषभणनम्। ओघ०४२ १०५ आ। खरंठनं-निर्भर्त्सनम्। व्यव० १२० आ। खरणं- बब्बूलादिडालम्। स्था० २४४। खरंटना-निर्भर्त्सना। बृह. १५० आ। खरदूषणः- रावणभगिनीपतिः। प्रश्न० ८७ खरंटि-खरण्टनम्, लेपविशेषः। पिण्ड० ८७। खरपम्हं- खरा णिसड्ढा दासाओ जस्स तं खरपम्हं। खरंटिओ-तिरस्कृतः। उत्त० १३९। निशी. २४५आ। खरंटिता-खउरिता रोसेणेत्यर्थः। रुष्टः। निशी. २०७४ खरपिंड-कठिनपिण्डः। आचा० ३६१। खरंटेउं-निर्भय॑। बृह. ३९ आ। खरफरुस-खरपरुषः अतिकर्कशः। आव० ६१७। ज्ञाता० खरंटेति-भर्त्सयति। निशी. २११ आ। ७९। स्पर्शतोऽतीवकठोरः। भग० ३०८५ खरंटेहिंति-निर्भर्त्सयिष्यन्ति। दशवै. ३८ | खरबायरपुढवी-खरबादरपृथिवी-मण्यादिषट्त्रिंशद् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [87] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] भेदात्मिको पृथिवी। आचा० २८१ | खलं-कुथितादि विशिष्टम्, अल्पधान्यादि वा। सूत्र. खरबादरपुढविक्काइया-खरा नाम पृथिवी संघातविशेष । ३२४। खलं-धान्यमेलनपचनादिस्थण्डिलम्। जम्बू काठिन्यविशेष वाऽऽपन्ना तदात्मका जीवा अपि खराश्च १४९| धान्यमेलनादिस्थण्डिलम्। ज्ञाता० १०४। ते बादरपृथिवीकायिकाश्च, खरा चासौ बादरपृथिवी च स | खलखलंति-खटत्खटदिति भवन्ति, खलखलशब्दं कायाः-शरीरं येषां ते एव खरबादरपृथिवीकायिकाः। कुर्वन्ति। आव० ७१९। जीवा० २२ खलखलिति-खलखलशब्दं करोति। उत्त० ३०३। खरमुखी-काहला, तस्स मुहत्थाणां खरमुहाकार खलखिलं-निर्जीवमित्यर्थः। व्यव० १९६ आ। कट्टमयमुहं कज्जति। निशी० ६२ अ। खलगं-जत्थ मंसं सोसंति। निशी. २२ आ। खरमुहि-खरमुखी काहला। भग० ४४७, २१६। जम्बू. खलणा-स्खलना-प्रतिसेवणा, भङ्गो, विराधना, उपघातः १०१ अशोधिः, शबलीकरणं, मइलणा च। ओघ. २२५१ खरमुही- काहला। जीवा० २४५ तोहाडिका। आचा० ४१२। | खलपुरिसो-खलपुरुषः। राजपुरुषविशेषः। आव० ८२१। खरमुखी-काहला। औप०७३। जीवा० २६६। खरमुही- खलमत्स्य-मत्स्यविशेषः। प्रश्न. ९। काहला। जम्बू. १९२| राय०२५१ खलयं-खलकं-धान्यमेलनस्थण्डिलम्। ज्ञाता० ११६। खरवायं-खरवातम्। आव० २१७५ खलयारिओ-स्खलीकृतः। आव० २९४१ खरशानया- पाषाणप्रतिमावत्। स्था० २३२॥ खलाहि- (देशी) अपसर। उत्त० ३५९। खरस्सरे- यो वज्रकण्टकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य | खलिणं-कायोत्सर्गस्य एकोनविंशतौ दोषेयोदशमदोषः। खरस्वरं कुर्वन्तं कुवन् वा कर्षति स खरस्वरः। चतुर्दशः । आव० ७९८१ अस्सरस्सी। दशवै० १५४। खालिनंपर-माधार्मिकः। आव० ६५०| चतुर्दशः परमाधार्मिकः।। कविकम्। आव० २६१। खलिनः-कविकः। ज्ञाता० २२० उत्त०६१४। सूत्र० १२४ खलियं-स्खलितं-छलितम। ओघ. २२५ विनष्टम्। बृह. खरा-कठिनाः। उत्त०६८९। सङ्घातविशेष १०२ आ। काठिन्यविशेषं वाऽऽपन्ना पृथिवी। जीवा० २२। निरन्तरा | खलियाइ-स्खलितादि। भग० ८९११ निष्ठरा वा। स्था० २४३ खलीकओ- उपसर्गितः। दशवै० ३७५ खरावत्ते-खरो-निष्ठरोऽतिवेगितया पातकछेदको वा खलीकुर्वन्ति- । ओघ० ४५ आव-तनमावतः स च समद्रादेश्चक्रविशेषाणां वेति खलीण-विषमभूमिः। आव. १६। खलिनं-कविकम्। खरावतः। स्था० २८८१ दशवै० २८३ खरि-द्वक्खरिदा। निशी. २० अ। खलीणा-खलीना-आकाशस्था। विपा० ४४। खरिए- यक्षरिका। ओघ० २२३। खलुंक- गलिरविनीत इति। स्था० ३५०| दुःशिष्यः। उत्त. खरिका-कठोरकर्मा। उत्त. १०७ १४८, ५५३। खरिमुह-खरमुखी-नपुंसकी दासी वा। व्यव० १५० अ। | खलुंकिज्ज- खलुकीयं, उत्तराध्ययनेषु खरियत्ताए-नगरबहिर्वति वेश्यात्वेन। भग०६९४१ सप्तविंशतितममध्यय-नम्। उत्त० ९। सम० ६४। खरिया- यक्षरिका। दासी। बृह० ४७ आ। व्यक्षरिका खलूकीयं-उत्तराध्ययनस्य सप्तविंशतितममध्ययनम्। ओघ. ५६। व्यक्षरिका-कर्मकरी। ओघ. १५६। दासी। उत्त० ५४८१ निशी० ३९ आ। खल-विशेषणे विशेषेण-अत्यर्थम्। आचा० १०५। खनिखरोदी-लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। श्चतम्। सूर्य. १४। अपिशब्दार्थः। आव० ५३०| खर्जु-कण्डूम्। स्था० ५०५ खलुए- गले। निशी० १३८ । पादमणिबन्धः। विपा० ७२। खर्च-स ए उन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति। | खलुकाः-जानुकादिसंधयः, जानुकादिसन्धिषु वातः। बृह० स्था० १८२ १२३ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [88] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) खलुखेत्तं खलुक्षेत्रं यत्र किमपि प्रायोग्यं लभ्यते । व्यव खसा - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० २३७ । ३३५आ। खसूची- मूर्खः । सूत्र. २३७ यह आकाशम् स्था० ११५ उत्त० ६९८८ | खहर खचरजं पुद्गलविशेषः । आव• ८५४॥ खचराःवैताढ्यवासिनो विद्याधराः । जम्बू० १६८ | खे आकाशे चरन्तीति खचराः । प्रज्ञा० ४३ | ख खनने भुवो होने च त्याग यद्भवति तत् खहम्। भग० खलुखेत्ता खलुक्षेत्राणि यत्राल्पो लोको भिक्षा प्रदाता । बृह० २०६ आ खलुग- खलुक:- घुण्टकः । बृह• २२३ अ चरणगुल्फः । बृहत २५२आ खलुगमेत्तो कद्दमो| निशी० ७९ आ खल्लेज- स्खलयेयुः- निष्काशयेयुः । उत्त० ३६४। खल्लए- कपर्द्दकाविशेषः । ज्ञाता० २३५ | खल्लका पत्रपुटानि । बृह० ९४ अ खल्लकादि- धर्मकोशः पार्ष्णित्रम्। आचा० ३७०१ खल्लग– खल्लकः चर्मपञ्चके द्वितीयो भेदः । आव ० ७७६ । खाइं - अवश्यम् । आव० ४०१ | खाइ - कथय । उत्त० ९८, १७४ । गच्छ, अवश्यं वा । आव ० २२० भग० १७०१ तदा, अत्यन्तम् । आव० ७०१ | पुनः । भग० ३६८ | खाइज्जा- खादेत् भाषेत्। दशकै २३५१ खाइणं- देशभाषया वाक्यालङ्कारे। औप० ११५| खाइमं खायत्त इति खाद्य खर्जूरादि दशवें० १४९ ॥ खादि-मफलादी । खं आकाशं तच्चमुखविवरमेव तस्मिन् मातीति खादिमम्। आव० ८५० | खादिमं त्रपुषफलादि । आव• ८११। खादिमं पिण्डखर्जूरादि। उत्त० ४१८| खादनं खादस्तेन निवृत्तं खादनार्थं तस्य निर्वत्र्त्यमानत्वादिति स्था० २०९। खाद्यत इति खादिमं नालिकेरादि आचा० २६५| खाइयं - खातवलयम | प्रश्न० १६० खवगा- क्षपका:- उपवासिकाः ओघ० ९४ | खाई ख्याति अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति प्रकाशयति । प्रज्ञा० ६०० | खवणं- क्षपणं-अप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण क्षपकश्रेण्यां मोहाद्य-भावापादनम्। आचा० २९८ खवणा- क्षपणा-पापानां कर्मणां क्षपणहेतुत्वात् क्षपणेति । खाओदया- खातायां भूमौ यान्युदकानि ताि स्था॰ ६। क्षपणा श्रुतनाम | दशवै०१६ | खातोदकानि । भग० ६९४ | खवणो- चउप्पगारं भवं खवेमाणो जम्हा अप्पा कम्म खाडखडे नरकेन्द्रविशेषः स्था० ३६५ खाडहिला कृष्णशुक्लपट्टाङ्कितशरीरा शून्यदेवकुलादिवा- सिन्यः प्रश्नः ८ खाडहिल्ला- खाडहिल्ला। आव० ४१७ । खाणं- खादनम् । आव० ११५ । खाणतेणो- खत्तं खणतो । निशी० ३८ आ । खाणी - खनिः । आव० २७४ | खाणु स्थाणवः कीलका ये छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्का-वयवाः 'ठुठा' इति लोकप्रसिद्धाः । जम्बू० ६६ । स्थाणुः ऊर्ध्वकाष्ठम् । जम्बू. १२४ दशकै १६४M स्थाणुः । ज्ञाता० ६५, ७८, ७९ ६५२ | खल्लकः । स्था० २३४ | खल्लाडो - खल्वाटः । आव० ३१७ | खल्लिता खल्ल्यौ दशकै ८९ खल्ली - खलतिः । उत्त० १६५ | खल्लीडो- खल्वाटः । उत्त० १६५ । खल्लूट - साधारणवनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७ | खल्लूर साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४१ खवर- क्षपको मासक्षपणादितपस्तप्यते। बृह• ३५आ। मासादिक्षपकः । बृह० ३५ आ खयइ तम्हा वा । दशवै० १४५ | खवलिओ आमन्त्रितः आव० १७५१ खवल्लमच्छ- मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । प्रज्ञा० ४३ ॥ खविणं- क्षपयित्वा । पिण्ड० १६७ | खवियदंदा- क्षीणक्लेशाः । चतु० । खस खस : चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न. १४ | खसडुमो नाम मिगराया। व्यवः २२३ आ खसरः– खर्जूः। जीवा० २८४ खसर- खशरः-कशरः । भग० ३०८ । कसरः । जम्बू० १७० | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित - [89] [Type text] - "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] खाणुगं- उद्धाययट्ठियं कटुं खाणगं भण्णति। निशी० ६९। | ७२३॥ खाण-स्थाणः-कीलकः। बह. ७७आ। निशी. ३२। खारतंते-क्षरणं क्षारः, शुक्रस्य तदविषयं तन्त्रं यत्र तत् खातं-खातं, उभयत्रापि सममिति। प्रज्ञा० ८६। नन्दी। क्षारत-न्त्रम्। स्था०४२७। १६४। भूमिगृहकादि। आव० ८२६। उपरि विस्तीर्णमधः | खारतउसी-क्षारत्रपुषी कटुका त्रपुषी। प्रज्ञा० ३६४। सङ्-चितम्। राय०२ खारतउसीफलं-कटुकात्रपुषी क्षारत्रपुषी तस्या एव फलं खाति-1 भग. २२९ क्षारत्रपुषीफलम्। प्रज्ञा० ३६४। खातिका-अध उपरि च समखातरूपा। अनुयो० १५९। | खारमेहा-क्षारमेघाः सर्जादिक्षारसमानरसजलोपेतमेघाः। खातिया-खातिका-परिखा। प्रश्न उपरि विस्तीर्णाऽधः | भग. ३०६। सकटखातरूपाः। भग०२३८। खारवावी-क्षारवापी-क्षारद्रव्यभृतवापी। प्रश्न. २०० खातोच्छ्रितम्-भूमिगृहस्योपरि प्रासादः। आव० ८२६। खारातणा-मण्वगोत्रविशेषः। स्था० ३९० खामिअविडसविआणं-क्षमितव्यवशमिताना खारिअ-सलवणानि। ओघ. ९८१ मर्षितत्वेनोप-शान्तानाम्। सम० ३७ खारिया-क्षारितानि यानि लवणखरण्टितानि खामित-क्षामितानि-वचसा मिथ्यादुष्कृतप्रदानेन शालनकान्या-स्तानानीत्यर्थः। व्यव० १४२ अ। शमितानि। बृह. २२१ अ। खारोदए-क्षीरोदकं-ईषल्लवणपरिणामम्। जीवा० २५ खामियं-मिथ्यादुष्कृतेन शमितम्। क्षामितव्यम्। ब्रह. क्षारोदकं-ईषल्लवणस्वभावम्। प्रज्ञा० २८। २२२ । खासिए- कासितम्। आव० ७७९। खामेत्ता-क्षमयित्वा। ज्ञाता०७४। खासिय-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५) खासिकः-चिलाखायं- खातं-उपरि विस्तीर्णमधः सङ्कटम्। ज्ञाता० २ । तदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४॥ औप० ३। खातमध उपरि च समम्। सम० १३७। कूपादि। | खिंखिएइ-खिखिकरोति। उत्त० १२१। अनुयो० १५४। ख्यातं-प्रसिद्धम्। आव. ५१४। खातं- खिखिणि- किङ्किण्यः-क्षुद्रघण्टिकाः। जम्बू. १०६) उभयत्रापि समम्। जीवा० १५९। बृह. २८ अ। जम्बू०७६) | किङ्किणी-क्षुद्रघण्टिकाः। प्रश्न. १५९। जीवा० १८१| खातानि-पुष्करिण्यादिकानि। जम्ब० २१० ज्ञाता० १६७। क्षुद्रघण्टाः । जीवा० १९२। खायजसो-ख्यातयशाः। आव०६१७ खिखिणिघंटाजालं-किङ्किणीघण्टाजालंखायजाणए-खातज्ञायकः। आव०४२४। क्षुद्रघण्टासमूहः। जीवा० ३६९। खार- कटकम्। प्रज्ञा० ३६५ क्षारं-तिलक्षारादि। प्रश्न. खिंखिणिजालेण- किङ्किणीजालेण क्षुद्रघण्टिकाः ५७। तीक्ष्णम्। जीवा० ३०३। क्षारः-परस्परं मत्सरः। एकैकेन घण्टाजालेन। जीवा० १८१। जम्बू. १२७। करीरादिप्रभवः। दशवै०१३९। खिखिणिस्सरे-किकिणि-क्षुद्रघण्टिकाः तस्याः स्वरो परस्परमत्सरः। भग० १९८ क्षारः-भुजपरिसर्पः ध्वनिः किकिणिस्वरः। स्था० ४७१। तिर्यग्योनिकः। जीवा० ४०| परस्परं-मात्य॑म्। जीवा. | खिखिणी-किङ्किणी-भूषणविधिविशेषः। जीवा० ३६९। २८३। वस्तुलादिर्लवणं वा। बृह. २७१ अ। यवक्षारादिः। क्षुद्रघण्टाः । जम्बू० २३। स्था० ४७२। पिण्ड० वत्थलमाती खारो। निशी. १९२ आ। खिंखिणीजालं-किङ्किणीजालं-क्षुद्रघण्टासंघातः। जीवा. वत्थुलादिगो। निशी. ३५६ अ। क्षाराः २०५४ क्षाररसामोरडप्रभृतयः। व्यव० ६१ आ। क्षारः खिसं-परोक्षे हीलना खिंसा। आव. ५२८। तिलक्षारादिः। ओघ० १३० क्षारो-भस्मादि। स्था० ४९२ खिंसण-खिंसनं-निन्दावचनं, खारकडुयं-क्षारकट्कम्। आव० ५५६) अशीलोऽसावित्यादिवचनम्। प्रश्न. १६०| सूयया खारकाइए-क्षारकायिकी। आव २१७ असूयया वा असकृद्दष्टाभिधानं खिंसनम्। दशवै. २५४। खारगंधो-क्षारगन्धः-कटकगन्धः विषगन्धः। आव. जनसमक्षं निन्दा। भग० २२७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [90] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) खिंसणा खिंसना-तान्येव लोकसमक्षम्। औप० १०३ परिभवः । ओघ २१५ पुणोरद्धणियस्स भवइ थभा उ काहो उ वा हवेज्जा दश० १४० | लोकसमक्षमेव जात्यादयुद्घट्टनम् । अन्तः १८ खिंसणिज्ज- खिंसनीयो जनमध्ये जाता० ९६| खिसंति- परस्परस्याग्रतः तद्दोषकीर्तनेन । ज्ञाता० १४९ । खिंसति- खरण्टयति। बृह० ९८ आ । निन्दति। निशी० १०६ अ आव० ७९९ । स्वसमक्षं वचनैः कुत्सन्ति । भग १६६ | आगम- सागर - कोषः (भाग:-२ ) खिंसह - खिंसत, जनसमक्षं निन्दत। भग० २१९ | खिंसा - जुगुप्सा. -जुगुप्सा असमीक्षितभाषिणम् ओघ० ५३ ॥ खिंसिज्जमाणो - निन्द्यमानः | आव० ८६३ | खिंसितं जन्मकर्मादयुद्घट्टनतः स्था० ३७१। खिंसितवयणे जन्मकर्माद्युद्घट्टनवचनम् । स्था० ३७०१ खिंसिय- खिंसितः निन्दापुरस्सरं शिक्षितः । व्यव० १६९ | खिइ- क्षितयः-धर्माया ईषत्प्राग्भारावसाना अष्टौ भूमयः । आव ० ६०० | खिड्पइट्ठिअं- क्षितिप्रतिष्ठितं नगरविशेषः । आव० ११६ । खिड्पइडितं - जितशत्रुराजधानी | निशी० ६८ आ खिङ्गपट्ठियं क्षितिप्रतिष्ठितं द्रव्यव्युत्सर्गोदाहरणे प्रसन्नचन्द्र-राजधानी । आव० ४८७ । आत्मसंयमविराधानदृष्टान्ते जित-शत्रुनगरम् । आव ० ७३२ | नगरविशेषः । उत्त० ३१५ आव० ३७० | मगधाया मूलराजधानी। उत्त० १०५ | द्रव्यव्युत्सर्गे नगरम् । आव ० ७२० / खिइपतिट्ठियं - क्षितिप्रतिष्ठितं-नगरविशेषः । उत्त० ३०४ | आव० ३८८ खिइपदिडिअं- क्षितिप्रतिष्ठितं नगरविशेषः । आव० ११५ ॥ खिज्जणिया खेदक्रिया जाता० ३०५ खिण्ण श्रान्तः। निशी ९९ अ खिति- क्षिति-क्षितिप्रतिष्ठितं, योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते नगरम्। अपरनाम चणकपुरं वृषभपुरं राजगृहं च। आव ६७० | खितिखाणतो- उड्डमादी निशी. ४४ आ खितिपतिट्ठिय- जितशत्रुराजधानी निशी० ३५१ आ । खित्त क्षेत्रं- आकाशम्। अनुयो० १८१। क्षिप्तं व्याप्तम्। राय० २८१ क्षियन्ति निवसन्ति तस्मिन्निति क्षेत्र मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] आकाशम्। उत्त॰ ६४५| क्षेत्रं शस्योत्पत्तिभूमिः । आव ० ८२६। क्षेत्र यदाकाशखण्डं सूर्यः स्वतेजसा व्याप्नोति तत् । जम्बू० ४५९१ इन्द्रकीलादिवर्जितं ग्रामनगरादि । बृह० २६अ। क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्रंयामारामादि सेतुकेतूभयात्मकं वा उत्त० १८८१ खित्तचित्त- क्षिप्तचित्तः पुत्रशोकादिना नष्ठचितः । स्था० ३०५ | शोकेन । स्था० ३१५ | खित्तचित्ता- क्षिप्तं नष्टं रागभयापमानैश्चित्तं यस्याः सा क्षिप्त-चित्ता। बृह॰ २३० आ । अपमानतया क्षिप्तंनष्टं चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता। बृह० २१०अ अपमानेनोन्मत्ता। बृह० २१०अ | खित्तवत्थुपमाणाइक्कमे क्षेत्र- शय्योत्पत्तिभूमिः, वास्तु अगारं, क्षेत्रवास्तूनां प्रमाणातिक्रमः क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रमः । आव• ८२५ - खिद्यमानार्थतया प्रयोजनम्। आचा० १०६ । खिन्नो- खिन्नः विषण्णः । प्रश्न० ६२ खिप्पंतो- क्षिप्यन् प्रतीक्षमाणः। दशवै० ५७| खिप्पामेव शीघ्रमेव ज्ञाता० ३२ खिलभूमी- खिलभूमिः, हलैरकृष्टा भूमिः । प्रश्न० ३९ ॥ खिलीभूय खिलीभूतं- अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षपयितुमशक्यं निकाचितमित्यर्थः । भग० २५१। खिल्लरं पल्वलम् । आव• ५६६ खिल्लरबंधे - गोण्यदे | निशी० १८ अ । खिल्लिउं - क्रीडितम् । आव० ५६६ । खिवेमाणे- क्षेपयन् प्रेरयन्। ज्ञाता० ८५| खीणकसातो क्षीणकषायः । उत्त- २५७ खीणभोगी- भोगो जीवस्य यत्रास्ति तद्भोगी शरीरं तत्क्षीणं तपोरोगादिभिर्यस्य सः क्षीणभोगीक्षीणतदुर्बलः । भग० ३११ खीणमोह- क्षीणमोहः क्षीणमोहनीयकर्म्म। स्था० १७८ । क्षीणमोहः-श्रेणिपरिसमाप्तावन्तर्मुहूर्तं यावत्क्षीणवीतरागः। भूतग्रामस्य द्वादशं गुणस्थानम्। आव० ६५० | खीणे क्षीणः बालाग्राकर्षणात्क्षयमुपगतः। भग• २७७ जम्बू. ९६| क्षीणः स चावशेषसद्भावे भग० ६७६ । खीरं क्षीरम् प्रज्ञा० ३६१ खोर क्षीरोदः क्षीरवरद्वीपानन्तरं समुद्रः प्रज्ञा० ३०७१ [91] -- "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] खीरकाओली- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० | खीरोदए-क्षीरसमुद्रे क्षीरोदकम्। प्रज्ञा० २८१ क्षीरोदकं ३४॥ क्षीरसमुद्रजलम्। जीवा० २७४ खीरकाकोलि-वल्लीविशेषः। भग० ८०४। खीरोदा-क्षीरोदा, अन्तरनदी। जम्बू. ३५७। खीरगहण-क्षीराभ्यवहारम्। ओघ०४७ खीरोयाओ-नदीविशेषः। स्था० ८० खीरघरं-खीरसाला। निशी० २७२ आ। खील-कीलकः। आव० ५७८1 कीलः-शङ्कः। प्रश्न. ८1 खीरणि- एकमस्थिकं फलविशेषः। भग०८०३। खीलए- कीलकः, लोहकीलकः। दशवै. ५९। खीरदुमा- वडउम्बरपिप्पला। निशी० ३९ अ। क्षीरद्रमाः, खीलग-कीलकः। आव.४२० उदम्बरादयः। ओघ. १२९। खीलगसंठिते-कीलकसंस्थितं सातीनखत्तस्य संठाणं। खीरहुमो - क्षीरद्रुमः, वटाश्वत्थादिः। पिण्ड.1 सूर्य. १३० खीरधाती-धातीविसेसा। निशी. ९३ आ। स्तन्यदायिनी। | खीलगो-कीलकः। ओघ. १७८1 ज्ञाता०४१। खीलच्छाया- छायाविशेषः। सूर्य.९५ खीरपूरए- क्षीरपुरं-क्वथ्यमानमतितापादूर्ध्वं गच्छत् खीलया-कीलिकाः। आव. ३६० क्षीरम्। प्रज्ञा० ३६१। खीलसंठितं-जं उविज्जंतंण ठाति तं खीलसंठितं। खीरपूरेइ-क्षीरपूर-क्वथ्यमानमतितापादूर्ध्व गच्छत् निशी० १२५ आ। क्षीरम्। जम्बू. ३५ खुंखुणगा-घुर्घरकाः-गुल्फाः । आव० २०६। खीरप्पभो-क्षीरप्रभः क्षीरवरदवीपाधिपतिर्देवः। जीवा. | खुंदति-आस्कन्दति प्राप्नोतीत्यर्थः। व्यव० १८७ आ। ३५३ क्षोदयन्ति-विनाशयन्ति। उत्त०६२८१ खीरभुस-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। तृणविशेषः। खंभणं-क्षोभणम्। प्रश्न. २४। प्रज्ञा० ३३ खु-खुर्वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा। आचा० ८४। खीरमेहे-क्षीरमेघा नामतो महामेघः। जम्बू. १७४। अवधारणे। आव० ५३२। निश्चितं अवधारणे वा। उत्त. खीरवरो-क्षीरवरः-द्वीपविशेषः। जीवा० ३५२, ३४३। प्रज्ञा० ३६९। निश्चिये। जम्बू. २०१। वाक्यालङ्कारे प्रश्न. ३०७ १२०। क्षुत्-अष्टप्रकारं कर्म। व्यव० ३९ आ। खीरवुट्ठी-क्षीरवृष्टिः । भग० १९९। खुइं-क्षुतिः छीत्कारादिशब्दविशेषः। ज्ञाता० २२११ खीराइया-क्षीरकिताः-सजातक्षीरकाः। ज्ञाता० ११९। खज्जं-यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च खीरामलएणं-अबद्धास्थिकं क्षीरमिव मधुरं यदामलकं यथोक्तप्रमाणलक्ष-णोपेतं उरउदरादि च मण्डलं तत् तस्मा-दन्यत्र। उपा० ३। कुब्जम, पञ्चमं संस्थानम्। जीवा०४२श कुब्जकरणी। खीरासव-क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवाः क्षीरवन्मधुरत्वेन बृह० ३१४ अ। कुब्जः-यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च श्रोतृणां कर्णमनः सुखकरं वचनमाश्रवन्ति। औप० २८१ यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदा-रादि च मडभं तत्। क्षीरमिव मधुरं वचनमाश्रवन्ति ये ते क्षीराश्रवाः, प्रज्ञा० ४१२। कुब्जः -वक्रः। ओघ०७४, ८२ वक्रशरीरः। लब्धिविशेषवन्तः। प्रश्न. १०५ बृह. २४२ आ। सर्वगात्रमेगपा-वहीनं कुब्जम्। निशी. खीरिज्ज-क्षीरिण्यः-गाव अत्र दह्यन्ते। आचा० ३३५। ४३ आ० अधस्तनकायम-डभ, इहाधस्तनकायशब्देन खीरिणि-क्षीरणी-एकास्थिकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३११ पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते, तद् यत्र खीरो-क्षीरः क्षीरवरद्वीपाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५३। शरीरलक्षणोक्तप्रमाणव्यभिचारि यत्पूनः शेष खीरोए-क्षीरमिवोदकं यस्य सः, क्षीरवन्निर्मलस्वभावयोः तद्यथोक्तप्र-माणं तत् कुब्जम्। स्था० ३५७। कुब्जं-यत्र सुरयोः सम्बन्धि उदकं यत्रेति वा क्षीरोदः। जीवा० ३५३। पाणिपादशि-रोग्रीवं समग्रलक्षणपरिपू समुद्रविशेषः। जीवा० ३५३। हृदयोदरपृष्ठलक्षणं कोष्ठं लक्षणहीनं तत्। अनुयो. खीरोद-क्षीरोदः, समद्रविशेषः। ज्ञाता० १२८। १०२। अधस्तनकायमडभं संस्थानम्। आव० ३३७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [92] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] कुब्जः-वक्रजङ्घः। प्रश्न० २५ | कुब्जं ग्रीवाद हस्तपादयोश्चतुरस्र लक्षणयुक्तं आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) सङ्क्षिप्तविकृतमध्यम् । भग० ६५० | खुज्जत्तं कुब्जत्वं वामनलक्षणम्। आचा० १२० खुज्जबोरी कुब्जबदरी ओघ० १०० | खुज्जसंठाण- ग्रीवाहस्तपादाश्च समचतुरस्र लक्षणयुक्ता यत्र संक्षिप्तं विकृतं च मध्ये कोष्ठं तत् कुब्जसंस्थानम् । सम० १५० | खुज्जा- कुब्जा आव• ६४ निशी० २७७ अ। कुब्जा कुब्जिकाः वक्रजङ्घाः । जम्बू० १९९॥ ज्ञाता० ४१| खज्जियं कुब्जं पृष्ठादावस्यास्तीति कुब्जी। आचा० २३३| खुहं त्रुटितम् आव. १४९| खुट्टिमा गान्धारस्वरस्य द्वितीया मूर्छना जीवा० १९३ | खुटुं • रयणिपमाणातो जं आरतो तं । निशी० २१९ | खुड्डत - कीडंत | निशी० ११५अ । खुड्ड - क्षुल्लः- लघुः । जीवा० २००१ क्षुद्रः बालः - शीलहीनो वा पार्श्वस्यादि । उत्त० ४७% बालो। निशी० ६८ आ क्षुल्लः। ओघ० १६० । खुड्डइ त्रोटयति। भग० ६६८ खुड्डए क्षुल्लकः । आव० १९५ खुइडका भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ खुड्डखुड्डगा- क्षुल्लक्षुल्लका अतिलघवः आयताश्च । जम्बू. ४४ खुड्ड (खंड) गं - मुद्रिका । आव० ४१८ | खुड्डग - मुद्रिका। आव० ६७१| आव० ४१७। क्षुल्लकःद्रव्यभावबालः । दशवै० १९५१ क्षुल्लकः, हास्ये दृष्टान्तः ॥ आव० ४०४ । क्षुल्लकः लघुः बालकः । उत्त० १०२ ॥ खुड्डगकुमारो - क्षुल्लककुमार, योगसंग्रहे अलोभोदाहरणे कण्डरीकयुवराजपत्नीयशोभद्रायाः साध्व्यवस्थायां जातपुत्रः । आव० ७०१ | खुड्डगगणी क्षुल्लकगणी, क्षुल्लकाचार्यः व्यव० २३७ आ खुड्डति प्रोटयति। भग० ६६७ खुड्डपाणा- क्षुद्रा- अधमा अनन्तरभवे सिद्ध्यभावात् प्राणा-उच्छ्वासादिमन्तः क्षुद्रप्राणाः स्था० २७३॥ खड्डय- क्षुद्रका वयसा श्रुतेन वाऽव्यक्ताः सम० ३६ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] खुड्डाग अङ्गुलीयकैः । भग० ४५९ । क्षुल्लकः । दशवै० ६१। क्षुद्रकं अड्गुलीयकाकविशेषः । जम्बू. १०५ अङ्गुलीयकम्। ज्ञाता० २७| [93] खुड्डलए स्वल्पकुटीरकः । ओघ० ४९। क्षुल्लकः । आव ३८८० ओ० १६० खुड्डा- क्षुद्रा:- अखातसरस्यः । जम्बू• ५०] लघवः । जीवा० १९७| क्षुल्लं लघु स्तोकं च जीवा० ४४२१ क्षुद्रा:- अधमाः | क्रूराः । स्था० ३६६ | खुड्डागंभवग्गहणं– क्षुल्लकभवग्रहणं-षट् पञ्चाशदधिकावलिकाश-सद्वयप्रमाणं समयोनम् । जीवा० ४३४१ खुड्डागंसव्वओअहं क्षुद्रिकासर्वतोभद्रं क्षुद्रिकामहत्यपेक्षया सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च भद्रासमसङ्ख्येति सर्वतो भद्रा तपोविशेषः । अन्त० २९| खुड्डागं सीहनिक्कीलियं क्षुल्लकं सिंहनिष्क्रीडतं वक्षमाणम-हद-पेक्षया क्षुल्लकं ह्रस्वं सिंहस्य निष्क्रीडितं विहीतंगमन-मिति, तपोविशेषः । अन्त० २८१ खुड्डाग- क्षुल्लक:- लघुः जीवा. १७७l क्षुल्लकः हस्वः । प्रज्ञा० ५९९ | ज्ञाता० ११६ | खुड्डागनियंठ क्षुल्लकनिर्यन्थीमय, उत्तराध्ययनेषु षष्ठः । भग० २५५| खुड्डागपयरेसु क्षुल्लकप्रतरयोः सर्वलघुप्रदेशप्रतरयोः । भग० ६०७ | खुड्डागभवग्गहणं- क्षुल्लं लघु स्तोकं च क्षुल्लमेव क्षुल्लकं एकायु ष्कसंवेदनकालो भवस्तस्य ग्रहणं भवग्रहणं क्षुल्लकं च तद्-भवग्रहणं च क्षुल्लकभवग्रहणम् जीवा० ४४२ | | खुड्डागसीहनिक्कीलियं क्षुल्लकसिंहनिक्रीडितं वक्ष्यमाणमहा-सिंहनिक्रीडितापेक्षया क्षुल्लकं सिंहनिक्रीडितं सिंहगमनं तदिव यत्तपस्तत् । औप- ३०| ज्ञाता० १२२॥ खुडियदुवारिया क्षुद्रद्वाराः सङ्कटद्वाराः । आचा. ३२९| खुइडिया- क्षुद्रिकाः लध्व्यः आचा० ३७० खुड्डियाओ- क्षुल्लिकाः लघवः । जीवा० १९७५ अखातसरस्यस्ता एव लघ्व्यः क्षुल्लिकाः । जम्बू• ४१॥ खुड्डीय क्षुल्लकी निशी० १३२ आ "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ८५ اواک खुण्णं-विषण्णं। बृह० २०५आ। जिवेन्द्रियसं-स्थानम्। प्रज्ञा० २९३। खुति-क्षुतं-तस्यैव सम्बन्धीशब्दः तच्चिह्न वा। ज्ञाता० खुब्भंतं-क्षुभ्यन्तं, अधोनिमज्जन्तम्। स्था० ३८५ खुरभंडं-क्षुरप्रादिभाजनम्। दशवै० १०५ खुत्तग- मनाङ् मग्नः केवलं तत उत्तरीतुमशक्तः। औप० खुल- कर्कशक्षेत्रादयः। बृह० २४३आ। खुलए-पादघुटकः जानुरित्यर्थः। बृह. १६२ आ। खुत्तो-निमग्नः। प्रश्न०६० खुलगो-उवरिकडीओ आरद्धा। निशी. १८० अ। खुद्द-क्षुद्रकर्मकारित्वात् क्षुद्रः। ज्ञाता० २३८ क्षुद्रः- खुल्मइ-क्षुभ्यति-पृथिवीं प्रविशति क्षोभयति वा पृथिवीं। द्रोहकः अधमो वा। प्रश्न. ५ बिभेति वा। भग० १८३ खुद्दए-क्षुद्रकं-विनाशयितुं शक्यत इति क्षुद्रं खुल्लग-क्षुल्लकः-कपर्दकः। प्रश्न. ३७) तदेवानुकम्प्यतया क्षुद्रकं सोपक्रमम्। उत्त० ६२८१ खुल्ला-खुल्लाः-लघवः शङ्खाः सामुद्रशङ्खाकाराः। खुद्दिमा- गान्धारग्रामस्य दवितीया मूर्छा। स्था० ३९३| प्रज्ञा० ४१| जीवा० ३१| खुद्दिया-क्षुद्रिका, जलाशयविशेषः। प्रश्न. १६०| | खुवे-क्षुवो, ह्रस्यशिखः। ज्ञाता०६५। य- भूपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि। भग० ४६८१ | खुह-क्षुरादिदुःखहेतुत्वात् क्षत्। दशवै. २६१। खुप्पंते-कर्दम एव निमज्जति। ओघ. २९।। खुहत्ते- प्रसह्य। निशी० १०६अ। खुप्पति-सचिखल्ले जले मज्जति। निशी० ७९ अ। खुहा-क्षुधा, क्षुत्परीषहः, प्रथमपरीषहः। आव०६५६| खुप्पिज्ज-निमज्जनं। ओघ० २९। खेज्जणा-खेदना-खेदसंसूचिका। ज्ञाता०२३५) खुप्पिलं-निमज्जकं। तन्दु। खेटकः-आवरणः सन्नाहः। जम्बू० २५९। खुब्भंति-क्षुभ्यन्ति राज्यविलोडनाय संचलन्ति। व्यव० खेटन-कर्षणः। जम्बू० २४३। ३३ आ। खेटय-वाहय। नन्दी० १५४ खुभाएज्ज-स्कभ्नीयात् क्षुभ्येत्। भग० २६९। खेट्यन्ते-उत्त्रास्यन्ते। उत्त० ६०५ खुभिज्जा-क्षोभं यायात्, प्रक्प्येत्। ओघ० ४०। खेडं- पांशुप्रकारनिबद्धं खेटम्। राय०११४। जीवा० २७९। खुभियं- कलहः। बृह. १९ आ। प्रकारोपेतं खेटम्। स्था० २९४१ धूलीमयप्राकारोपेतम्। खुभियजल-क्षुभितजलः, क्षुभितं जलं यस्य सः। जीवा. अनुयो० १४२। पांशुप्राकारबद्धम्। आचा० २८५। प्रज्ञा० ४७। ३२११ वेलावशात् क्षुभितजलः। भग. २८२ जीवा. ४० खेट्यन्ते-उत्त्रास्यन्तेऽस्मिन्नेव स्थितैः खुम्मिया- भूमितपनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि। ज्ञाता० शत्रव इति खेटे पांशुप्राकारपरिक्षिप्तम्। उत्त० ६०५। ४८१ खेटानि-प्रांसुप्राकारनिबद्धानि क्वचिन्नद्यद्रिवेष्टितानि। खुर-चरणे येषामधोवर्त्यस्थिविशेषः। उत्त० ३९९। जम्बू. १२१। खेटं-धूलिप्राकारम्। औप० ७४। भग० ३६। क्षुरम्-शस्त्रविशेषः। प्रश्न० १४। आव० ३७०| खुरः-शफः। विपा० ३९। प्रश्न. ५२, ६९। सूत्र० ३०९। जीवा० ३८। प्रज्ञा० ४५। खुराः-पादतलरूपा अवयवाः। धूलीप्राकारोपेतम्। प्रश्न. ९२२ खेडं नाम जम्बू० २३४। शफः। उपा०४४। क्षुरः-छूरः। स्था० २७३। धूलीपागारपरिक्खित्तं। निशी० ७० आ। धूलीपागारो खुरखुरओ-चर्ममयं भाजनं वादयम्। बृह. २३६ अ। जस्स तं। निशी० २२९ आ। खुरदुगत्ता-चर्मकीटता। सूत्र० ३५७ खेडगं-खेटकं-फलकम्। प्रश्न ७० खुरनिबद्धा-रासभबलिवादयः। पिण्ड० १०२। खेडग-खेटकं-शस्त्रविशेषः। आव० ३६० खुरपत्त-खुरपत्रं-छुरप्रम। जीवा० १०६। विपा० ७११ खेडठाणं-खेटस्थानं-उल्लका नदया एकस्मिन् तीरे यत्। खुरपत्ते-क्षुरपत्रं-छुरः। ज्ञाता० २०४१ आव० ३१७ खुरप्पं-क्षुरप्रं-प्रहरणविशेषः। प्रज्ञा० ८० जीवा० १०३ खेडत्थाम-खेटस्थाम-उल्लकायां दवितीये तीरे खरप्पसंठाणसंठितं-क्षुरप्रसंस्थानसंस्थितं, नगरविशेषः। उत्त०१६५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [94] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] खेडमारी-खेटमारी-मारीविशेषः। भग. १९७ व्यव. २६ आ। खेडय-खेटकं वंशशलाकादिमयम्। जम्बू२०५५ खेत्तोवक्कमे-क्षेत्रोपक्रमः-क्षेत्रस्य परिकर्मआवरणविशेषः। जीवा. १९३। विनाशकरणम्। अनुयो०४८॥ खेडरुवं- खेटरूपम्। भग. १९३। खेतोवसंपदा-उपसम्पदायाः भेदः। निशी० २४१ अ। खेडाउ-क्रीडनकानि। बृह. ४७ आ। खेत्तोवाय-क्षेत्रोपायस्तु लाङ्गलादिना क्षेत्रोपक्रमणे खेडाति-धूलीप्राकारोपेतानि। स्था०८६) भवति उपायभेदः। दशवै०४०। खेडाहारः-खेडग्रामस्य समासन्नो देशः परिभोग्यः खेदियं-खिन्नं-खेदः। क्लेशो वा। उत्त० ३५९। खेडाहारः। सूत्र० ३४३।। खेम-क्षेमं, विषयः। आव० ३४१। क्षेमं खेडिय-खेटितम्। दशवै० १०५ परकृतोपद्रवरहितम्। जीवा० १६०। क्षेमं, खेड्ड-यूतविशेषः जम्बू० २६४१ तदुपद्रवाद्यभावापदनम्। जीवा० २५५। क्षेमं खेड्डा-क्रीडा। आव० ३६० देशसौस्थ्यम्। उत्त० १४५। परचक्रायुपद्रवाभावः। बृह. खेत्त-क्षेत्रं-आकाशम्। अनयो० १८१। प्रज्ञा० ३२६। क्षेत्रं- १५१ अ। लब्धस्य परिपालनं क्षेमः। ज्ञाता० १०३। धान्यवपनभूमिः। प्रश्न. ३९। क्षिप्तचित्तता। आव. खेमंकरः-क्षेमकरः-पञ्चमः कुलकरः। जम्बू०१३ ७३७। क्षेत्रं-धान्यजन्मभूमिः। जम्बू. १४९। औप. ३६। अष्टाशीत्यां महाग्रहे नवषष्टितमः। स्था० ७९। तृतीयः क्षेत्र-ग्रामादि कृषिभूमिर्वा। प्रश्न०१२०१ क्षेत्रं-भौतादि कुलकरः। स्था०५१८ चतुर्थः कुलकरः। सम० १५३। भावितम्। दशवै. ११५। आर्यम्। आव० ३४१। क्षेत्रं-भार्या। क्षेमकरः-अष्टाशीत्यां महाग्रहे सप्तषष्टितमः। जम्बू० स्था० ५१६। यदाकाशखण्डमादित्यः स्वतेजसा ५३५ व्याप्नोति तत्। भग० ३९३ खेमंधर-क्षेमन्धरः षष्ठः कुलकरः। जम्बू. १३२। चतुर्थखेत्तच्छेए-क्षेत्रच्छेदः बुद्ध्याप्रतरकाण्डविभागः। जीवा० | कुलकरः। स्था० ५१८ पञ्चमकलकरः। सम० १५३। ९३ खेम-क्षेम-शिवम्। दशवै. २५८ लब्धस्य च पारपालनं खेत्तते-क्षेत्र भार्या तस्या जातः क्षेत्रजः। स्था० ५१६) क्षेमम्। उत्त० २८३। क्षेमं-राजविड्वरशून्यम्। दशवै. खेत्तपरमाणु-क्षेत्रपरमाणः-आकाशप्रदेशः। भग० ७८८ २२२। सुस्थम्। उत्त० ३१३। व्याध्यभावेन क्षेमत्वम्। खेत्तपलिओवमे-क्षेत्रं-आकाशं तद्धारप्रधानं पल्योपमं उत्त० ५१०। परचक्रायुपद्रवरहितम्। उत्त० ३५१। क्षेमःक्षेत्रपल्योपमम्। अन्यो० १८० गुणोदाहरणे जितशत्रुराज्ञो मन्त्री। आव० ८१९। खेत्तमूढो-जं खेत्तं ण याणाति जम्मि वा खेत्ते | खेम कुसल-क्षेमकुशलः-अनर्थानुद्धवानर्थप्रतिघातरूपः। मुज्झत्ति रातो वा परसंथारं अप्पणो मण्णति। निशी. ज्ञाता०८९। ४१ आ। खेमते-क्षेमकः-अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य खेत्तवत्थु-इह क्षेत्रमेव वस्तु क्षेत्रवस्तु, क्षेत्रं च वास्तु च पञ्चममध्ययनम्। अन्त०१८ क्षेमकःगृहं क्षेत्रवास्तु। उपा०४॥ गाथापतिविशेषः। अन्त०२३ खेत्तवासी-क्षेत्रवर्षी-पात्रे दान श्रुतादीनां निक्षेपकः। स्था० | खेमपया-क्षेपमदानि-रक्षणस्थानानि। आचा०४३०| २७० खेमपुरा- खेमपुरा, राजधानी। जम्बू० ३४५) खेत्ताणि-क्षेत्राणि-क्षेत्रोपमानि पात्राणि। उत्त० ३६१। | खेमपुरीओ-महाविदेहे विजयराजधानी। स्था० ८० खेत्तातिक्कंत-क्षेत्रातिक्रान्तः-क्षेत्रं सूर्यसम्बन्धि तापक्षेत्रं | खेमल्लो-क्षेमिलो नाम शक्नज्ञाता। आव० १९७९ दिनमित्यर्थः, तदतिक्रान्तः तस्य आहारः। भग० २९२। खेमा-क्षेमानाम्ना राजधानी। जम्बू० ३४४१ क्षेमाणिखेत्ताविचीमरणं-क्षेत्रावीचिमरणं-अवीचिमरणस्य परकृतोपद्रवरहितानि। जम्बू०७६। प्रज्ञा० ८६। क्षेमा दवितीयो भेदः उत्त. २३१| अशिवाभावात्। औप० २। खेत्ते-क्षेत्रिके-क्षेत्रस्वामिनि, गणावच्छेदके आचार्ये वा। | खेमाओ-महाविदेहे विजयराजधानी। स्था०८० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [95] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ४७ खेमियं-क्षेमम्। गणि खेल्लइ-क्रीडति। आव० ४०१। खेय-खेदः श्रमः संसारपर्यटनजनितः अभ्यासः। आचा. खेल्लामो-क्रीडामः। उत्त० ३८० १३२ संयमः, खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः संयमः। उत्त. | खेवणि-क्षेपिण्यः-हथनालिरिति लोकप्रसिद्धा। जम्बू० ४१९। खेदः-अग्निव्यापारः आचा०५३। २०६३ खेयण्ण-अग्निव्यापार यो जानातीति खेदज्ञः। आचा. खेवा-आरुहंतस्स उवरुवरि हत्थालंबणे खेवा। निशी० ६४ ५३। निपुणः। आचा० १५६, २७४। । जन्तुदुःखपरिच्छेत्तारः। आचा० १७९। क्षेत्रज्ञः-निपुणः। खेवियं- क्षिपितं-पापम्। उत्त०४५९। आचा०५३। खेदज्ञः। आव० ५५५ खेवो-क्षेपः, परहस्तादद्रव्यस्य प्रेरणम्। अधर्मदवारस्य खेयन्न-खेदज्ञः-निपुणः। सूत्रः० २५८। खेदः विंशति-तमं नाम। प्रश्न० ४३। अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः। आचा० १३२। खेदज्ञः- | खोअ- इक्षुरसास्वादः समुद्रः। अनुयो० ९० गीतार्थः। ओघ. २०२। ज्ञानी। निशी. २०१आ। सर्वज्ञः। | खोअवर-इक्षुवरः, द्वीपविशेषः। अन्यो० ९०| सूत्र. ३७०। तीर्थकृत्। सूत्र. २९९। क्षेत्रज्ञः-संसक्तविरु- खोइय-क्षोभितः, विसंयोजितः। उत्त.१००। द्धद्रव्यपरिहार्यकुलादिक्षेत्रस्वरूपपरिच्छेदकः। आचा० खोओदए-क्षोदोदकम्, इक्षुरससमुद्रजलम्। जीवा० २५ १३२॥ खोखरं- प्रदोतः कशा वा। आव० २६१। खेयाणुगए-खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः-संयमस्तेनानुगतो | खोखुब्भमाणो-क्षोक्षुभ्यमाणः, भृशं क्षुभ्यमाणः। औप. युक्तः खेदानुगतः। उत्त०४१९| खेल- श्लेष्मा। ओघ० १८६। उत्त० २९१। स्था० ३४३। खोटकक्षेप-हडीबन्धनम्। प्रश्न० १६४। आव० ४७, ४३२, ५६४, ६१६, ७६५। गोरसभाविता पोत्ता | खोटकाः-समयप्रसिद्धाः स्फोटनात्मकाः। उत्त० ५४११ खेलो भण्णति। निशी. १८आ। निष्ठीवनः। ओघ. १८६| | खट्टिज्जिहि-क्षेप्स्यते। आव०८५ भग. ८७ औप०२८प्रश्न १०५ सम०११। कफः। | खोट्टेउं-खटत्कर्तुम्, पिट्टितुम्। ओघ० १९४१ जम्ब० १४८। कण्ठमुखश्लेष्मा। भग० १२२। खोड-कोणः। आव० ७४२। जं रायक्लस्स हिण्णादि दव्वं मुखविनिर्गतः श्लेष्मा। उत्त०५१७ निष्ठीवनम्। दायव्वं। निशी० ८९ आ। प्रदेशः। बृह. २३५आ। खोट:ज्ञाता० १०३ राजकुले हिरण्यादि द्रव्यदातव्यम्। व्यव० ४५। खेलइ-क्रीडति। उत्त.१४७ खोडा-खोटकाः। ओघ० १०९। स्थाणौ। निशी० ७२ आ। खेलण-क्रीडा। निशी. ११९ आ। खेलति क्रीडति। व्यव० । खोटका ते च त्रयस्त्रयः प्रमार्जनानां त्रयेण ८ । त्रयेणान्तरिताः - कार्या इति। स्था० ३६१। खेलणगं-क्रीडनकम्। आव. २९० खोडि-महाकाष्ठम्। प्रश्न. ५७ खेलन्ति-क्रीडन्ति। आव. २०५१ खोडियं-नाशितम्। आव०६९४। खेलमल्लय- श्लेष्ममल्लकः। दशवै० ३७। खोडी-पेटा। आव. २९८१ खेलमल्लो- श्लेष्ममल्लकम्, श्लेष्मशरावः। आव० ४३२१ | खोडेयव्वा-निषेधयितव्या। भग० ५८३। श्लेष्मण्डिका। आव० ३२११ खोडेहामि-स्खलयिष्यामि। आव० ३२२॥ खेलसिंघाण- श्लेष्मसिङ्घानम्। आव० ८३२ खोड्डाहारा-क्षौद्राहाराः-मधुभोजिनः, क्षीणं वाखेलासव-खेलनिष्ठीवनं तदाश्रवति-क्षरतीति खेलाश्रवः। तुच्छादशिष्टं तुच्छधान्यादिकं आहारो येषां ते। जम्बू. ज्ञाता० १४७ १७| खेलूडे- अनन्तकायभेदः। भग० ३००। खोतोदए- इक्षुसमुद्रे क्षोदोदकम्। प्रज्ञा० २८१ खेलेज्ज-खेलयेत्। बृह. २३२ आ। खोद-क्षोदः-इक्षुरसः। जीवा० १९८। जम्बू० ४२ खेलौषधिः- औषधिविशेषः। स्था० ३३२ | खोद्दाहार- मधुभोजिनः भूक्षोदेन वाऽऽहारो येषां ते-क्षोदा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [96] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] किट्टविशेषः। बृह. २६८ आ। मद्याधःकर्दमः। आचा० ३४८१ खोलपक्कस-मद्यकीट्टः। निशी० ६६ आ। खोला-खोलाः, हेरिकाः, गुप्तचराः। राज्ञा नियुक्ताः। पिण्ड०४९। सीसखोला। बृह. १०२ अ। गोरसभावितानि पोतानि। बृह. १०० आ। बृह. १२६ अ। गोरस-भाविता पेत्ता। निशी. १८ आ। खोल्लं-कोत्थरं। निशी. १३३। देशीशब्दत्त्वात् कोटरम्। बृह. १५२ आ। खोसियं-खोसितं-जीर्णप्रायम्। पिण्ड. १००० ख्यातं-स्वसंवेदनतः प्रसिद्धम्। उत्त० २५८1 ख्यातसत्यवृत्ति- प्रसिद्धसत्यवृतिः। नन्दी० १५६। -x-x-x हाराः भग०३०९। खोभ-क्षोभः संभ्रमः। आव०७८४१ खोभण-क्षोभः-वेदोदयरूपः। पिण्ड० १६० खोभिअ-क्षोभितः-स्वस्थानाच्चालितः। जम्बू. ३७। खोभिए-क्षोभः आकस्मिकः संत्रासः। ओघ. १९। खोभितो-क्षोभितः। उत्त. १६८१ खोभित्तए-क्षोभयित्-एतान्येवं परिपालयाभ्युतोज्झामीति क्षोभविषयान् कर्तुं क्षोभयितुं संशयोत्पादनतः। ज्ञाता० १३४॥ खोभियं-क्षोभितं-स्वस्थानाच्चालितः। जीवा० १९२१ खोभेति-क्षोभयति, ईषद्भूमिमत्कीय तत्प्रवेशनेन। ज्ञाता०९४१ खोम-क्षौम-कार्पासिकम्। जीवा० २६९। जीवा० २३२१ देववस्त्रम्। आव० १८० दुकूलं, कासिकं वस्त्रम्, जम्बू. ५५। क्षौम, सामान्यतः कार्पासिकं अतसीमयम्। जम्बू. १०७ खोमजुअलं-क्षौमयुगलम्। आव० १२४। काासिकवस्त्रम्। प्रश्न० १३४ खोमजुगलं-क्षौमयुगलम्। आव० ५६२। खोमजुयलं-कार्पासिकवस्त्रयुगलम्। उपा०५) क्षोमयुगलम्। ज्ञाता० १२८१ खोमिते- कार्पासिकाम्। स्था० १३८१ खोमिय-क्षौमिकं, सामान्यकार्पासिकम्। आचा० ३९४१ क्षौमिकं-कार्पासिकं, वृक्षेभ्यो निर्गतं वा, अतसीमयं वा। प्रश्न. ७१। दुकूलं-कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रम्। सूर्य. २९३। कार्पासिकम्। आचा० २९२। खोमियकप्पाय-क्षौमिककार्पासः। स्था० ३३९। खोयरसघडए-इक्षुरसघटः। आव० १४५) खोयरसो-क्षोदरसः-इक्षुरसः। जीवा० ३६५, ३५१। खोयवरो-क्षोदवरः, दवीपविशेषः। जीवा० ३५५। खोरए-क्षोरकं-तापसभाजनम्। दशवै० ५६। क्षौरकम्। आव०६२५१ खोरगं- द्रव्यभृतं भाजनम्। निशी० १३६ आ। खोरयं- रूप्यमयमहाप्रमाणभाजनविशेषः। नन्दी. १५९। खोरा-भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा०४६। खोरुसताए- विरुद्धराज्यत्वेन। निशी. १०आ। खोल- राजपुरुषविशेषाः। आव० ८२१। मद्यस्य गंग- गङ्ग-यस्माद्दवैक्रिया उत्पन्ना स आचार्यः। आव. ३१२॥ वैक्रियनिह्नवगुरुर्धनगुप्तशिष्यः। आव० ३१७॥ धनगुप्तस्य शिष्यः। वैक्रियविषयो निह्नवः, पञ्चमो निह्नवः। स्था० ४१०। गाङ्गः-पुरुषपुण्डरीकधर्माचार्यः। आव० १६३। गङ्गाचार्यः। उत्त. १५३| गंगदत्त-मुनिविशेषः। भग० ७०६। निर० २२, ३६। षष्ठबलदेववासुदेवयोः पूर्वभविको धर्माचार्यः। सम० १५३। हस्तिनापुरे गृहपतिः। भग० ७०७। गङ्गादत्तः। कृष्णवासुदेव-पूर्वभवः। सम० १५३। आव० १६३। मंकातीगाहावतीए जेट्टपुत्तो। अन्त० १८१ वासुदेवपूर्वभवः। आव० ३५८१ रागान्निदानकृत्। भक्त० गंगदत्ता- गङ्गदत्ता। सागरदत्तसार्थवाहपत्नी। विपा. ७४ गंगदेवो- गङ्गदेवः-धननप्तशिष्य आचार्यः। उत्त. १६५ गंगा- गङ्गा नदीविशेषः, यत्र नन्दो नाम नाविकः। आव. ३८९, १४३। नदीविशेषः। ज्ञाता०६४। स्था०७५ हिमववर्षधरपर्वतस्य पञ्चमं कूटम्। स्था० ७१। गङ्गा वैक्रियोत्पत्तिस्थानम्। विशे० ९३४१ | गंगाकुंड-यत्र हिमवतो गङ्गा निपतति तद्गङ्गाकुण्डम्। जम्बू० ८७। कुण्डविशेषः। नन्दी० २२८१ गंगाकूलं- गङ्गाकूलं-गङ्गातटम्। उत्त० १२९। गंगादीव- गङ्गाद्वीप इति नाम्ना द्वीपः। जम्बू० २९३। | गंगादेवोकूडे- गङ्गादेवीकूटम्। जम्बू० २९६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [97] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] गंगापवायद्दहे गड़गाप्रपातग्रहःहिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्त्तिपद्म-ह्रदस्य पूर्वतोरेण निर्गत्य क्रमेण यत्र प्रपतति सः । द्रहविशेषः स्था० ७४१ गंगायडं गड्गातटम् आ०६८ गंगावत्तणकूडे - गङ्गावर्तननाम्नि कूटे। जम्बू• २९०१ गंगावालूआ- गङ्गावालूका गङ्गापुलिनगतधूली। अनुयो० १९२ | आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) गंगे - पाश्र्वपत्यः । भग० ४३९ । गंगेय भगवत्यां नवमशतके द्वात्रिंशत्तम उद्देशकः । - भग० ४२५ | गङ्गापत्यः । ज्ञाता० २०८ गंगेया- अणगारविशेषः । भग० ४५५ ६१७ गंछिय— कारुजातिविशेषः । जम्बू० १९४ । गंज- गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ भग० ८०३ | गञ्जः भोज्यविशेषः । प्रश्न ० १५३ | गंजसाला - जत्थ घण्णं दलिज्जति सा गंजसाला । गंजाजवा जत्थ अच्छंति सा गंजसाला | निशी० २७२ आ। गंजा - जवा । निशी० २७२आ। गंठ- ग्रन्थः शब्दसंदर्भः जीवा० २५५ गंठि ग्रन्थिः कार्षापणादिपुट्टलिका ऑफ स पर्वभङ्गस्थानं वा आचा० ५९ | पर्वग्रन्थिः । जीवा० ३५५१ ग्रन्थिघनो रागद्वेषपरिणामः। उत्त॰ ६५४। गंठिगो- ग्रन्थिकः- ग्रन्थिकसत्त्वः, ग्रन्थिभेदं कर्तुमसमर्थः । सूत्र. ३७३३ गठिछेयओ - ग्रन्थिच्छेदकः । आव० ७०४ | गंठिभेए- ग्रन्थिं द्रव्यसम्बन्धिनं भिन्दन्तिघुघुरकाद्विकर्ति-कादिना विदारयन्तीति ग्रन्थिभेदाः । उत्त० ३१२ गठिभेओ- ग्रन्थिभेद:- चौरविशेषः प्रश्नः ३८८ गठिभेयणो - घुघुरादिना यो ग्रन्थीः छिन्दति सः ग्रन्थिभेदकः । विपा० ५६ ॥ गंठिम- ग्रन्थिमं ग्रन्थनेन निष्पन्नं मालावत्। प्रश्नः १६०| ग्रन्थिमं-यत्सूत्रेण ग्रथितम् । जम्बू० १०४॥ यद् ग्रथ्यते सूत्रादिना ग्रन्थिमम्। ज्ञाता० ५६। गठियसत्ता- ग्रन्थिगसत्त्वाः- ये यन्थिप्रदेशं गत्वापि तद् भेदा- विधानेन न कदाचिदुपरिष्टाद् गन्तारः ते चाभव्या एव । उत्त० ६४५ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] गंठी- ग्रन्थिं - पर्व, सामान्यतो भङ्गस्थानम् । बृह० १६१ आ। ग्रन्थिपिहितम् । बृह० ८३आ। आव० ८४५| गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ ॥ ग्रन्थिः पर्व, सामान्यतो भड़गस्थानं वा प्रज्ञा० ३६ | गंड- वराङ्गः । जीवा० २१३१ पिण्ड १५४ पुरस्सरः प्रज्ञा० २५४ | जीवा० २८२॥ काण्डं समूहः, गण्डो वा दण्डः । ज्ञाता० १२५| गडु। उत्त० ३३८ । गण्डः कपोलः । भग० १७४ | गंडमाला | निशी० १८९ अ । व्रणविशेषः । सूत्र० ९८ गण्डं-अपद्रव्यम्। सूत्र० १४८। वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्द्धा गण्डं तदस्यास्तीनि गण्डीगण्डमालावा-न्। प्रश्र्न० १६१ | गोलम् । जम्बू० ४२३ | व्याधिविशेषः । आव० ६२३ | गण्डम् । आव० ८२० | गण्ड:हस्तः । भग० ३१३ | स्तना । निशी० १८० अ । कपोलः । आचा० ३८ प्रज्ञा० ८८। गण्डः कपोलैकदेशः । प्रज्ञा० १०१ | अमिलनचामरदण्ड । भग० ४८० | गण्ड:गण्डीपदश्चतुष्पद-विशेषः । जीवा• ३८१ कपोलः जीवा १६२| वारगः। जम्बू० ५७। स्तनः कुचः । पिण्ड० १२२| निशी १२८८ गंडइया - गण्डिका-नदीविशेषः आव० २१४ गंडओ - मरूकः । आव० ३७२ दंडपती । निशी० १५८ आ । गण्डकः नापितः । उद्घोषणाकारकः। ओघ० २०२१ गंडग - गंडकः - श्रवणे दृष्टान्तः । ग्रहणकाले प्राप्ते [98] दृष्टान्तः । आव० ७४५ | गंडथणी- उण्णयथणी । निशी० ९४ अ गंडभाग:- कपोलदेशः । जीवा० २७31 गंडमाणिया- गण्डयुक्ता माणिका । राज० १४९। गंडय - वनजीवाः । मरण० । गंडरेहा- गण्डरेखा- कपोलपाली । जम्बू० ११५ प्रश्न० ८४ | गंडलीतोकाउं खण्डीकृत्य उत्त० २१९ ॥ गंडलेहा- गण्डलेखा-कपोलपाली । जीवा० २७६ । कपोलपवल्ली। औप० १३। कपोलविरचितमृगमदादिरेखा । ज्ञाता० १३ | गंडच्छासु- गण्ड-गडु, इह चोपचितपिशितपिण्डरूपतया गलत्पूतिरुधिरार्द्रतासम्भवाच्च तदुपमत्वाद्गण्डे कुचावुक्तौ ते वक्षसि यासां तास्तथाभूतास्तासु । उत्तः २९७ गंडवाणिया- गण्डपाणिका-वंशमयभाजनविशेष एव यो *आगम - सागर- कोषः " [२] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गण्डेन-हस्तेन गृह्यते डल्लातो लघुतरः। भग० ३१३।। यक्षः। उत्त० ३५६। गंडविव्वोयणे-सुपरिकर्मितगण्डोपधानम्। भग० ५४०। गंडीपद-व्याधिविशेषः। आचा० ३९०| चतुष्पदभेदः। सम० गंडशैलः- ग्रावाणः। नन्दी. १५३| १३५ गंडसेल-गण्डशैलः-उपलः। उत्त०६८९| गंडीपदा- गण्डीव-सुवर्णाकाराधिकरणीस्थानमिव पदं येषां गंडा- गण्डीपदविशेषः। प्रज्ञा०४५ ते गण्डीपदाः-हस्त्यादयः। प्रज्ञा०४५ गंडाग- गण्डको-नापितः। आचा० ३२७ गंडीपया- गण्डीपदाः हस्त्यादिकाः। जीवा० २८1 गण्डीपद्मगंडाति-रोगविशेषः। निशी. १८८ आ। कर्णिका तदवृत्ततया पदानि येषां ते गण्डीपादाःगंडिआ- गण्डिका-सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिगरणी) गजादयः। उत्त०६९९। स्थापनी। दशवै० २१८१ गंडीपोत्थगो-दीहो बाहल्लपहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडिक- गंडिकानुयोगः-यस्तु कुलकरादिवक्तव्यता गंडीपोत्थगो। निशी० ६०आ। गोचरः स गण्डिकानुयोगः। स्था० २००८ | गंडीव-सुवर्णकाराधिकरणीस्थानामिव। प्रज्ञा० ४५) गंडिया- गण्डिका-खण्डविशेषः। भग० ७०५। एकवक्तव्य- | गंडुवहाण- गण्डोपधानम्। अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके तार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयः गण्डिकाः। सम. तृतीयो-भेदः। आव०६५२ गण्डोपधानम्। स्था० २३४। १३२। एकार्थाधिकारा ग्रन्थपद्धतिः। नन्दी० २४२। गंड़वहाणिगा-उवहाणगस्सोवरिगंडपदेसे जा दिज्जति सा सुवण्णगारस्स भन्नइ, जत्थुसुवण्णगं कुट्टेइ। द० १११। | गंडुवहाणिगा। निशी० ६१ अ। गंडियाणुयोगे- इक्ष्वादीनां पूर्वापरपरिच्छिन्नो मध्यभागो | गंडूकः- पुष्पमलम्बूसकः। जीवा० २५३। गण्डिका गण्डिकेव गण्डिका-एकार्थाधिकारा गंडूपदः- पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः। आचा. ५५ ग्रन्थपद्धतिः, तस्या अनुयोगो गण्डिकानयोगः। नन्दी. गंडूयलगा-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा०४१। जीवा० ३१| २४२। भरतनरप-तिवंशजानां गंडूलया-अलसाः। प्रश्न० २४१ निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्तव्यता व्याख्यानग्र-न्थः। गंडोवहाणं- गण्डोपधानं-गलमसूरिका। बृह. २२० । स्था० ४९१। गंडोवहाणियाओ- गण्डोपधानिकाः-गल्लमसूरिकाणि। गंडी- गण्डी-गण्डमालावान्। प्रश्न. १६१। जम्बू० २८५ अहिकरणविशेषः। निशी. २२अ। गंत- गत्वा। उत्त० ५९७। भग० ९३। वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्द्धा गण्डं, गंतव्वं- गन्तव्यं युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः। ज्ञाता० तदस्यास्तीति गण्डी। आचा. २३४| गण्डमस्यास्ती-ति । ६१| गण्डी गण्डमालादि। निशी. १४८ अ। गण्डम-स्यास्तीति | गंतपच्चागता-उपाश्रयान्निर्गतः सन्नेकस्यां गृहपकतौ गण्डी गण्डमालावान्। आचा. २३३। गण्डम-स्यास्तीति भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् गण्डी। यदिवोच्छनगल्फपादः स गण्डी। आचा० ३८९। पुनःद्वितीयायां गृहपकतौ यस्यां भिक्षते सा गत्वा सुवर्णकारादीनामधिकरणी गण्डिका तदवत्पदानि येषां प्रत्यागता, गत्वा प्रत्यागतं यस्यामिति च। स्था० ३६५। ते तथा ते हस्त्यादयः। स्था० २७३। निशी. १८१ अ। निशी. १२॥ पञ्चपुस्तके प्रथमः। स्था० २३३। पद्मकर्णिका। उत्त० गंतुकाम-योज्यमानम्। बृह० ७९ आ। ६९९। तुल्यबाहल्यपृथक्त्वं पुस्तकम्। बृह० २१९ आ। गंतुकामा- गन्तुकामः यः सदैव गन्तमना व्यवतिष्ठते। गण्डीपुस्तकं। यद् बाहल्यपृथक्त्वैस्तुल्यं दीर्घम्। आव० | | आव० १०० ६५२। गच्छति-प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कर्दमानो गंत्रिका- यग्यविशेषः। आचा०६० विहायो गमनेनेति गण्डिः। दुष्टा,वो दुष्टगोणो वा। । गंत्रीढञ्चनकं- इड्डरम्। भग० ३१३। उत्त०४९ गंथ- ग्रन्थः ज्ञानादिः। स्था० ४६५। परिग्रहम्। बृह. १३५ गंडीतेंदुगो- गण्डीतिन्दुकः-वाणारस्यां तिन्दुकयक्षायतने | अ। ग्रथ्यते-बध्यते कषायवशगेनात्मनेति ग्रन्थः। अथवा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [99] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ७१३ ग्रथ्नाति-बध्नात्यात्मानं कर्मणेति ग्रन्थः। उत्त० २६० | सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिक-र्मिता लघुशाटिका। जम्बू विप्रकीर्णार्थग्रन्थनाद् ग्रन्थः। अन्यो० ३८1 ग्रन्थः-अष्ट १७५,४२० प्रकारकर्मबन्धः। आचा० ३८1 सूत्रकृताङ्गस्य प्रथम-श्रुत- | गंधकासाइए- गन्धप्रधानया कषायरक्तया स्कन्धे चतुर्दशमध्ययनम्। सम० ३१ आव०६५१। शाटिकयेत्यर्थः। भग०४७७ ग्रन्थः-शालकादिसम्बद्धस्तद्भार्या तत्पुत्रादिः। प्रश्न. गंधकासाई- गन्धप्रधाना कषायेण रक्ता शाटिका १४० ग्रन्थः-ग्रथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थ इति | गन्धकषायी। उपा०४। ग्रन्थः। आव० ८६। ग्रन्थः-सूत्रकृताङ्गस्य गंधगृहणेन-पूतिर्गह्यते। आचा० १३११ चतुर्दशमध्ययनम्। उत्त०६१४। द्रव्य-भावभेदभिन्नः। | गंधचंगेरी-भाजनविशेषः। जीवा० २३४। इह तु ग्रन्थं द्रव्यभावभेदभिन्नं यः परि-त्यजति शिष्य | गंधजुत्ती- गन्धानां-गन्धद्रव्याणां श्रीखण्डादीनां आचारदिकं वा ग्रन्थः योऽधीतेऽसो अभिधी-यते। ल्हसणादीनां च युक्तयो गन्धय्क्तयः। उत्त० ३० आदानपदाद् गुणनिष्पन्नत्वाच्च ग्रन्थः। सूत्र० २४१।। गंधट्टए- गन्धाट्टकः-गन्धद्रव्यक्षोदः। स्था० ११७। गन्धद्रगंथा- ग्रन्थात्-महतो द्रव्यव्ययात्। आचा० २७२। व्याणामुपलकुष्ठादीनां अइओ' त्ति चूर्णं गोधूमचूर्णं वा गंथिअसत्ता- ग्रन्थिकसत्त्वाः-अभिन्नग्रन्थयः। उत्त० गन्ध-युक्तम्। उपा० ३।। गंधणा- गन्धना-अमानी सर्पः। सर्पजातिविशेषः। दशवै. गंथिभेयग- ग्रन्थिभेदकाः-न्यासकान्यथाकारिणः ३७। गन्धना-सर्पजातिविशेषः। उत्त०४९५१ घुर्घका-दिना वा ये ग्रन्थीन् छिन्दन्ति। ज्ञाता० २३९। गंधद्धणि- गन्धघ्राणिः-यावद्भिर्गन्धपुदगलैर्घाणेन्द्रियस्य गंथिम- ग्रन्थः-सन्दर्भः सूत्रेण ग्रन्थनं तेन निर्वृत्तं तृप्ति-रूपजायते तावती पुद्गलसंहतिरूपचाराद् ग्रन्थिमं मालादि। स्था० २८६। ग्रन्थिम-ग्रन्थननिवृत्त गन्धघ्राणिः। जम्बू. ३०| गन्धस्तेन या घ्राणिः-तृप्तिः सूत्रग्रथित-मालादि। भग०४७७। कौशलातिशयाद् गन्धघ्राणिः-गन्धो-त्कर्षः। ज्ञाता० २६। ग्रन्थिसमुदाय-निष्पादितं रूपकम्। अनुयो० १३। सुरभिगन्धगुणः। तृप्तिहेतुः। ज्ञाता० १२६) ग्रन्थनं-ग्रन्थस्तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमम्। जीवा० २५३। यावद्भिर्गन्धपुद्गलैर्गन्धविषये गन्धघ्राणिरूपजायते यत्सूत्रेणग्रथितम्। जीवा० २६७। ज्ञाता० १८० तावती गन्धपुदगलसंहतिरूपचारात् गंथी- ग्रन्थिः -या दवरकस्यादौ बध्यते। जीवा० २३७) गन्धघ्राणिरित्युच्यते। राज०७ यावद्भिर्गन्धपद गंथेहि- ग्रन्थैः-अङ्गानङ्गप्रविष्टैः। आचा० २९१। गलैर्गन्धविषये घ्राणिरूपजायते तावती गन्धपद गंधगं- गन्धाङ्गम्। उत्त० १४२ गलसंहतिरूपचाराद गन्धघ्राणिः। जीवा. १८९। गंध- गन्धः-विशोधिकोटिरूपः। सुत्र. १४५ गन्धः-कोष्ठ- | गंथपलिआमं- गंधाम-गंधपलिआमं अंवयं आदिसद्दातो पुटादिलक्षणः। आव० १२९। गन्धः वासादिः। जम्बू मात-लंगं वा पक्कं अण्णेसिं आमयाणं मज्झे छब्भति ४११। गन्धः-गन्धाङ्गम्। जीवा० १३६ गन्धः-गन्धवा- तस्स गंधेणं तं अण्णे आमया पच्चंति जं तत्थ ण सादिः। जीवा० २४४। वासः। जीवा० २४५। गन्धः-पट- पच्चंति तं गंधामं भण्णति। निशी० १२५ आ। वासादिः। पिण्ड० ९६। आमोदः। उत्त. ३६९। गन्ध्यते- यदपक्वफलं तत् गंधपर्यायाम। बृह. १४३ आ। आघ्रायत इति गन्धः। अनुयो० ११०| गन्धाः -वासाः। | गंधपुडियाइ- गन्धपुटिकादि। आव० १९८१ जम्बू. १९१। विशुद्धकोटिः। बृह. ५१ अ। गंधपुलागं- विकटपलांडुलसुणादिन्युत्कटगन्धिः। बृह० नासिकेन्द्रियम्। गन्ध्यते-आघ्रायते शुभोऽशुभो वा २११। गन्धोऽनेनेति गन्धः। प्रज्ञा० ४९९। गन्धः | गंथप्पिओ- गन्धप्रियः घ्राणेन्द्रियदृष्टान्ते कुमारविशेषः। कोष्ठपुटपाकः। भग. २००। कोष्ठपटादिः। दशवै. ९१।। आव०४०१| निशी० ११७ अ। गंधकासाइ-गन्धकाषायी। आव० १२३। गंधमादण- गन्धमादनः-गजदन्तकगिरिविशेषः। प्रश्न. गंधकासाइआ- गन्धकाषायिकी ११६ पर्वतविशेषः। स्था०६८, ३२६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [100] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ४५ ३९४१ गंधमायण-पर्वतविशेषः। प्रश्न. १६१। स्था०७१। गन्धेन | गंधव्वघरगा- गीतनृत्याभ्यासयोग्यानि गृहकाणि। जम्बू० स्वयं मादयतीव दमयति वा तन्निवासिदेवदेवीनां मनांसि इति गन्धमादनः। जम्बू. ३१५ गन्धमादनः- गंधव्वछाया- गन्धर्वछाया। प्रज्ञा० ३२७। वक्षस्कारगिरि। जम्बू. ३१२। गन्धमादनः गंधव्वणगरं- गन्धर्वनगरंवक्षस्कारपर्वतविशेषः। जीवा० २६३ सुरसदनप्रासादोपशोभितनगरा-कारतया। तथाविधनभः गंधमायणकूडे- गन्धमादनकूटम्। जम्बू. ३१३ परिणतपुद्गलराशिरूपम्। जीवा० २८३। अन्यो० १२१| गंधमायणा- गजदन्तविशेषः। स्था० ८० गंधव्वणागदत्तो- गन्धर्वनागदत्तःगंधर्वकण्ठः- गन्धर्वकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः। जीवा० कषायप्रतिक्रमणोदाहरणे गान्धर्वप्रियः श्रेष्ठितः। आव. २३४१ ५६५ गंधर्वानीकं-सैन्यविशेषः। जीवा. २१७। गंधव्वनगर- गन्धर्वनगरं-आकाशे व्यन्तरकृतं गंधवट्टए- गन्धचूर्णम्। विपा० ८६। नगराकार-प्रतिबिम्बम्। भग. १९६। गंधवट्टओ- गन्धवर्तकः। आव० १२३। गंधव्वनयर- गन्धर्वनगरं-यत् गंधवट्टयं- गन्धवर्तकं-गन्धद्रव्यचूर्णपिण्डम्। जम्बू० चक्रवादिनगरस्योत्पातसू-चनाय संध्यासमये तस्य नगरस्योपरि दवितीयं नगरं प्राकारा-ट्टलकादिसंस्थितं गंधवट्टि- गन्धवतिः-गन्धद्रव्याणां दृश्यते। व्यव० २४१ । गन्धयुक्तिशास्त्रोपदेशेन निर्वतितगुटिका। सम. १३८१ | गंधव्वपन्नगो- गन्धर्वप्रज्ञकः। आव. १४४| गंधवट्टिभूए- गन्धवर्तिभूतं-सौरभ्यातिशया गंधव्वलिवी-लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। गन्धद्रव्यगुटि-काकल्पम्। औप० ११ गंधव्वसमय-गन्धर्वसमयः-नाटयसमयः। जीवा. २६६। गंधवट्टिभूया- गन्धवतिभूतानि-सौरभ्यातिशयाद् जम्बू० १०१। गन्धद्रव्य-गुटिकाकल्पानि। प्रज्ञा०८७। सौरभ्यातिशयाद | गंधव्वा-नारुजातिविशेषः। जम्बू. १९३। वाणव्यन्तरभेदगन्धद्रव्यगु-टिकाकल्पाः। जम्बू० ५१। विशेषः। प्रज्ञा०६९। गंधवतिभूए- गन्धवतिभूतः-सौरभ्यवतिभूतः। जीवा० | गंधव्विया- गान्धर्विकाः-सङ्गीतकलानिपुणः। दशवै० ४४, २०६। गंधवासा- गन्धवर्षः-कोष्ठपुटपाकवर्षणम्। भग० २००। । गंधसमिद्धो-गन्धसमृद्धः-गन्धिलावत्यां वैताद्यपर्वते गंधवुढी- गन्धवृष्टिः-कोष्ठप्टपाकवृष्टिः। भग० १९९। गान्धा-रजनपदे नगरविशेषः। आव. ११६) गंधव्वं- गन्धर्वं नाट्यादि। जीवा० १९४| गन्धर्व-नृत्यं | गंधसमुग्गय- गन्धद्रव्यैरतिविशिष्टै परिपूर्ण भृतः समुद् गीत-युक्तम्। विपा० ४७। गान्धर्व-गीतम्। आव० ५६५। गकः गन्धसमुद्गकः। प्रज्ञा० ६०० गान्धर्वं नगरविकुर्वणम्। आव० ७३५। गन्धर्व - | गंधसमुद्धं-विद्यामन्त्रद्वारविवरणे धनदेवनगरम्। मुरजादिध्वनिसनाथं गानम्। भग० ३२३। गन्धर्वैः कृतं पिण्ड० १४१ गान्धर्वं नाट्यादि। जम्बू० ३९। गंधसयं- गन्धशतं-गन्धाङ्गशतम्। जीवा० १३५१ पदस्वरतालावधानात्मकम्। जम्बू० ३९। गन्धर्वः- गंधहत्थी- गन्धहस्ती-हस्तीविशेषः। भग०७१ गन्धर्वजातीयो देवः। प्रज्ञा. ९६। जीवा० १७२। एकविंश- | अनयोगप्रका-ण्डः। व्यव० २५८१ तितमो मुहूर्तः। जम्बू० ४९१। सूर्य. १४६। गान्धर्वः- गंधहस्ती-आचार्यविशेषः। आचा. १। विवाहविशेषः। आव० १७४। गंडहारग-गन्धहारकः-चिलातदेशनिवासी गंधव्वगणो- गन्धर्वगणः-गन्धर्वसम्दायः। प्रज्ञा. ९६। म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४१ गंधव्वघरगं- गन्धर्वगृहकं-गीतनत्याभ्यासयोग्य गंधांगगृहकम्। जीवा० २०० वालकप्रियङ्गपन्नकदमनकत्वक्कन्दनोशीरदेवदार्वादि। ४५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [101] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आचा० ६१| जातिकुसुमादिद्रव्यः । आचा० ४१८ गंधा- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५५ गंधयुक्तीकृता गंधा । निशी० १४४ आ गंधापाति नवमकूटः । स्था० ७२१ गंधावाती गन्धापाती। स्था० ७१। आगम- सागर - कोषः (भाग:-२ ) गंधार - गान्धारं - जनपदविशेषः । उत्त० २९९, ३०४ | गान्धार:- द्रव्यव्युत्सर्गे देशविशेषः आव० ७१६, ७२० गन्धो विद्यते यत्र स एव गन्धारो, गन्धवाहविशेषः । स्था॰ ३९३। गान्धारः गन्धो विद्यते यस्य स गन्धारः, स एव गान्धारः । अनुयो० २२७॥ वीतभयनगरे श्रावकः । उत्त० ९६| जनपदविशेषः। निशी० ३४८ आ । गंधारओ- श्रावकविशेषः आव. २९८१ गंधारगाम- सप्तस्वरे तृतीयः स्वरः, संगीते ग्रामविशेषः । स्था० ३९३ | गंधारजणव- गान्धारजनपदः गन्धिलावत्यां जनपदविशेषः । आव० ११६ । गंधारी- गान्धारी बलकोट्टलघुभार्या उत्त० ३४५ अन्तकृशानां पञ्चमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम् । अन्तः । १५] कृष्णवासुदेवस्य राजी। अन्तः १८० चत्वारिमहाविद्यायां द्वितीया आव० १४४१ गंधावई गन्धापाती, वृत्तवैताढ्यम्। जम्बू० ३७९१ गन्धा-पाती वृत्तवैताढ्यः हरिवर्षस्य पर्वतः जीवा० ३२६| गंधिए- गंधिकाः - गन्धावासाः । भग० ४७७ | गंधिला - विजयविशेषः । स्था० ८०| गंधिलाइ गन्धिलावत्या: | शीतोदोत्तरकूलवर्तिनोऽष्टमविजयः । जम्बू० ३१४ गंधिलावई गन्धिलावती विजय जम्बू. ३५ - । गंधिलावईकूडे गन्धिलावतीकूटम्। जम्बू० ३१३ | गंधिलावती- धातकीखण्डे विजयविशेषः । स्था. ८०| गंधिलावतीविजए - गन्धिलावतीविजयः । आव० ११६ । गंधिले गन्धिलो विजयः। जम्बू. ३५७| गंधोदय- गन्धः- आमोदस्तत्प्रधानमुदकं जलं गन्धोदकम्। उत्त• २६९॥ गन्धोदकं. कुङ्कुमादिमिश्रितम्। जम्बू० ३९४ गंधोवरए गन्धापवरकः । दशकै ९१। गंभीर- गम्भीरः-अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] चतुर्थमध्ययनम् । अन्त० १ गम्भीरः परैरलब्धमध्यो निरुपमज्ञानवत्त्वेऽपि रहः कृतपरदुश्चरितानामपरिस्रावित्वात् हर्षशोकादिकारणसद्भावेऽपि तद्विकारादर्शनाद्वा । जम्बू. १४९| अलब्धमध्य-भागः। जीवा० १८८ | अलब्धमध्यम्। ज्ञाता० २ अति-मन्द्रः । जम्बू० ५२९ | अलक्ष्यदैन्यादिविकारः प्रश्न. १३३ साणुणादि। निशी. १०९अ। अलक्ष्य-माणान्तर्वृत्तित्वम्। प्रश्र्न॰ ७४। चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ जीवा० ३२ गाम्भीर्यः अलब्धमध्यात्मको गुणः । उत्तः ३५३1 भग्नत्वादिदोषवर्जितं, शेषजनेन च प्रायेणालक्षणीयमध्यभागं स्थानं गम्भीरम् । व्यव• ६२अ अलब्धमध्यः । उत्त० ११४१ अलब्धस्ताघम् जीवा० १२३ | निपुणशिल्पिनिष्पादिततयाऽलब्धस्वरूपमध्यम् । जीवा० २६९ | मन्मथोद्दीपि जीवा० २७६ | स्वरविशेषः । निशी २७८ अ गम्भीर खेदसहः । आचा० ३ अतीवोत्कटः । जीवा० १०७ । प्रज्ञा० ८१| गम्भीरं- अप्रकाशम् । दशवै० १७५, २०४ | अवनतम् । ज्ञाता० १५ | गंभीरमालिणी- अन्तरनदी, गम्भीरं जलं मलतेधारयतीति गम्भीरमालिनी। जम्बू. ३५७। गंभीरमालिणीओ नदीविशेषः । स्था० ८०ण गंभीरलोमहरिसो- गम्भीरः अतीवोत्कटो रोमहर्षोरोमोद्धर्षो भयवशाद यस्मात् सः गम्भीररोमहर्षः जीवा० १०७ | गंभीरविजय- गम्भीरविजयः गम्भीरप्रकाशं विजय:आश्रयः । दशवै० २०४ | गंभीरशब्द- गम्भीरशब्द मेघस्येव सम० ६३ | गंभीरसाणुणाए गम्भीरसानुनाद: सामायिकदानस्य स्थानम् आव० ४७०% गंभीरा- अत्याधा निशी ३३६ अ गंमुणिग- फलविशेषः । निशी० ११९ अ । इंद - गजेन्द्रः । ज्ञाता० ६५| गड़ गतिः- पदवी आचा० २२४१ गत्यर्थानां ज्ञानार्थतया हिताहितलक्षणा स्वरूपपरिच्छितिः । उत्त० ४७२ | गमनं गतिः- देशान्तरप्राप्तिः । उत्तः प्रपश गतिशब्देनमनुष्यगते जीवापगमः । जम्बू- १५४| विहायोगतिनामोदयसम्पाद्या गतिरूपा । भग० ६४३ | [102] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] १३३ गतिः-गतिनामकर्मोदयसम्पादयो जीवपर्यायः। प्रश्न. तथापरिणामवृत्तिः। दशवै०७०। गतिः-प्रवृतिः। स्था० ९८ अनुकूलं गमनं गतिः। आव० २८१॥ ४६४। प्रज्ञापकस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र गमनम्। स्था० गइकाय- गतिकायः यो भवान्तरगतो, स च तेजसकार्मण-लक्षणः। दशवै. १३४गतिकायः गए-गजः-अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्याष्टममध्ययनम्। नारकतिर्यड्नरामरलक्षणां चर्विधां गतिमाश्रित्य अन्त० ३। गतः-व्यवस्थितः। जीवा. २४२। कायः। सर्वसत्त्वानामपान्तरालगतौ वा यः कायः। आव० | गओ-गतः-स्वस्थान प्राप्तः ज्ञाता०१६९। ७६७ गगणतलं- गगनतलं-अम्बरतलम्। सूर्य० २६४। गइचरमे- यः पृच्छासमये सामर्थ्यान्मनुष्यगतिरूपे गगणवल्लभपामोक्खा- गगनवल्लभप्रमुखाः। जम्बू. पर्याये वर्त-मानोऽनन्तरं न किमपि ७४। गतिपर्यायमवाप्स्यति किन्तु मक्त एव भविता सः गगणवल्लभो- गगनवल्लभः। आव०१४४। गतिचरमः। प्रज्ञा० २४५ गग्गर- गग्गरकः-परिधानविशेषः। जम्ब०४२९| गइतसत्त-नामकर्मोदयाभिनिवृत्तगतिलाभाद गग्गा- गौतमगोत्रस्य भेदः। स्था० ३९० गतित्रसत्वम्। आचा०६७ गग्गे- गार्ग्यः गर्गसगोत्रः। उत्त. ५५०। गइप्पवाए- गतेः प्रपातः गतिप्रपातः। गच्छति-धावन्ति। उत्त. ५०४१ गतिशब्दप्रवृत्तिरूपनि-पततीत्यर्थः। प्रज्ञा० ३२८। गच्छ- गच्छः-एकाचार्यपरिवारः। औप०४५ गइप्पवायं- गतिः प्रोद्यते-परूप्यते यत्र तद्गतिप्रवादं गच्छति-आरभते। प्रज्ञा०६०१। प्रवर्तते। उत्त. २४३। गतेर्वा प्रवृतेः क्रियायाः प्रपातः-प्रपतनसम्भवः गच्छापागहित्तणं- गच्छप्रकर्षित्वम्। बृह. ११९ अ। प्रयोगादिष्वर्थेषु वर्तनं गच्छागच्छि- एकाचार्यपरिवारो गच्छः। गच्छेन गतिप्रपातस्तत्प्रदिपादकमध्ययनं गतिप्रपातं तत्। भग० | गच्छेनभूत्वा गच्छागच्छी। औप०४५ ३८० गजचलनमलनं-अशुभकर्मफलविपाकविशेषः। सम. गइरइया- गतौ रतिः-आसक्तिः प्रीतिर्येषान्ते १२६| गतिरतिकाः। सूर्य. २८१। गजदन्तः- वनस्पतिविशेषः। जीवा० १९१। जम्बू० ३१४१ गइरतिया- गतौ रतिः-आसक्तिः प्रीतिर्येषान्ते | गजसुकुमाल- सोमिलद्विजेन मारितो मुनिविशेषः। गतिरतिकाः। जीवा० ३४६| अनुयो० १३७। धरण्यां क्षिप्तो मुनिः। संस्ता० । गइरागइ-दवयोर्दवयोः पदयोर्विशेषणं विशेष्यतयाऽनकुलं | गजसुकुमालः-कृष्णभ्राता। व्यव० १८८ आ। गमनं गतिः, प्रत्यावृत्त्या प्रातिकूल्येनागमनमागतिः।। | गजानीकं-सैन्यस्य भेदः। जीवा० २११७ गतिश्चागतिश्च गत्यागती। आव. २८१। गज्ज- गद्य-महूरं हेउनिजुत्तं गहियमपायं गइलक्खण- गमनं गतिः देशान्तर प्राप्तिः, विरामसंजुत्तं, अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गज्जति लक्ष्यतेऽनेनति लक्षणं, गतिलक्षणमस्येति गति नायव्वं। दशवै० ८७। गद्य-अच्छन्दो निबद्धम। स्था० लक्षणः। उत्त० ५५९| ર૮૮૧ गइल्लएणं- गतेन। बृह. २७ आ। गज्जफलाणि- वस्त्रविशेषः। आचा० ३९३। गइसमावण्णे- गतिसमापन्नः-गतियुक्तः। सूर्य. १९७। गज्जहाणुकूलवाए- गर्जभानुकुलवातः। आव० ३८७। गई-तत्र गम्यते-नैरयिकादिगतिकर्मोदयवशादवाप्यते गज्जिते- गर्जितं-जीमूतध्वनिः। स्था० ४७६) इति गतिः-नैरयिकत्वादिपर्यायपरिणतिः। प्रज्ञा० २८५१ गज्जियाति- गर्जितानि-स्तनितानि। भग. १९५१ गमनं गतिः-प्राप्तिरिति। प्रज्ञा०२३८। गम्यते गज्जियकरणं- गर्जितकरणम्। आव०७३५१ तथाविधकर्मसचिवैः प्राप्यते इति गतिः गहिए-तद्गतस्न्नेहतन्तुभिः सन्दर्भितः। भग० २९२। नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः। प्रज्ञा०४६९। | गडु- गण्डम्। उत्त० ३३८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [103] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] अ। गडुलं-आविलं आकुलं वा। स्था० २७८1 सम० ५३। गणणायग- गणनायकाः-प्रकृतिमहत्तराः। राज० १४०। गड्डं- गतः श्वभ्रम्। भग० ६८३। गर्ता-नीचैरुत्खातितो गणनायकाः-मल्लादिगणमुख्याः। जम्बू. १९०| भूमि-भागः। भग० १७४। गणनायकः -गणनायकाः-प्रकृतिमहत्तरः। औप० १४ गड्डरिका-ईतिः। राज०६। गणणोवगं- गणनागड्डरिया- गड्डरिका ईतिविशेषः। जम्बू० २९। करागुलिरेखास्पर्शनादिनैकद्वित्रिसंख्यागड्डा- गर्ता। बृह. ९ अ। ओघ० २० खड्डा। निशी. ९८ त्मिकामुपगच्छति-उपयाति गणनोपगम्। उत्त० ५४२। गणति- गणयति-प्रेक्षते, आलोचयति वा। आव० ५३६। गड्डाइ- गर्ता-महती खड्डा। जम्बू. १२४१ गणथेरा-ये गणस्य लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च गड्डाओ- गन्त्र्यः । बृह. २८ अ। व्यवस्था कारिणस्तद्भक्तश्च निग्राहकास्ते गुड्डाहारा-क्षुद्राहारा। जम्बू०१७१। गणस्थविराः। स्था० ५१६। गड्डी- गन्त्री। ओघ. १४१। आव० १०३। भंडी। निशी. गणधम्म-मल्लादिगणव्यवस्था जैनानां वा १८७। दुचक्का । ओघ० १४०| कुलसमदायो गणः-कोटिकादिस्तद्धर्मः-तत्सामाचारी गढिए- ग्रथित आहारविषयस्न्नेहतन्तुभिः सन्दर्भितः। गणधर्मः। स्था० ५१६। गणधर्म: भग० ६५०| लोमतन्तुभिः सन्दर्भितः। ज्ञाता०८५ मल्लादिगणव्यवस्था। दशवै० २२ गढिते-मूर्छितः। विपा० ३८१ गणधर-जिनशिष्यविशेषः। आर्यिकाप्रतिजागरकः वा गढियगिद्धो- ग्रथितगृद्धः-अत्यन्तगृद्धिमान्। प्रश्न० ३६।। साधु-विशेषः। स्था० १४३। जिनशिष्यविशेषः। गण-मूलभेदो। निशी० १५२ आ। गणः-एकसमाचार- आर्यिकाप्रतिजा-गरको वा साविशेषः समयप्रसिद्धः। जनसमूहः। प्रश्न. ८६। एकवाचनाचारक्रियास्थानां स्था० २४४। अनुत्त-रज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीति समुदायः सूत्रं वा। आव० १३४। क्लसमुदायः। बृह. २६१ । गणधरः। दशवै० १० आव०६१। अ। स्था० २९९। परिवारः। जम्बू. ३२३। एकवाचनाचार्य- गणधरता-लब्धिविशेषः। स्था० ३३२ समुदायः। जम्बू० १५३। समुदायः-निजज्ञातिः। जम्ब० । गणधरदेवकृतं- अङ्गप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः। नन्दी. १६७। शिष्यवर्गम्। भग० २३२१ गणए- गणकः-जोतिषिकः भाण्डागारिको वा। औप०१४। | गणनागुणे-द्विकादि। आचा० ८६| गणओ- गणशो-बहशोऽनेकशो वा। सूत्र० ३८९। | गणनायग- गणनायकाः-प्रकृतिमहत्तराः। भग० ३१८, गणका- गणितज्ञा भाण्डागारिका इति। ज्योतिषिका ४६३ इत्यपरे। राज० १२११ गणमूढो-जे गणे ता ऊणं अहियं वा मन्नति सो। निशी. गणग-गणकाः-गणितज्ञाः। भाण्डागारिकाः। भग०४६४। ४१ आ। गणकाः-ज्योतिषिकाः भाण्डागारिका वा। भग० ३१८१ गणराजा-सेनापतिः। आव. ५१६] जम्बू. १९० गणराया- गणराजाः-सामन्ताः । भग० ३१७। आचा० ३७७। गणचिंतगो- गणावच्छेदकादिः। बृह. २४० आ। समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना गणढकरे- गणस्य-साधसमुदायस्यार्थान्-प्रयोजनानि राजानो गणराजाः सामन्ता इत्यर्थः। भग० ३१७) करो-तीति गणार्थकरः-आहारादिभिरुपष्टम्भकः। स्था० | विशालीनगर्यां शङ्खाभिधो गणराजः। आव० २१४। २४१। गणसंठिति- गणसंस्थितिः-स्वगच्छकृता मर्यादा। स्था० गणणं- गणनं-एतावदधीतमेतावच्चाध्येतव्यमिति। २४१३ आव०६८। पाठे स्मृतौ वा गणनम्। आव०६८ गणसंमया- गणसंमताः महत्तरादयः। दशवै० १०३ गणणग्गं- गणानाग्रं-संख्या धर्मस्थानात् स्थानं, गणासोभकरे- गणस्यानवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्तनेन दशगुण-मित्यर्थः। आचा० ३१८॥ वादि-धर्मकथिनैमित्तिकविदयासिद्धत्वादिना वा २०३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [104] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] शोभाकरणशीलो गणशोभाकरः स्था० २४१| गणसोहिकरे - गणस्य यथायोगं प्रायश्चित्तदानादिना शोधि-शुद्धिं करोतीति गणशोधिकरः । स्था० २४१ | गणहर- यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग्विहरति स गणधर आचा० ३५३॥ गणं-गण-समूह धारयति-आत्मन्यवस्थापयतीति गणधरः । उत्त० ५५० । निर्बन्धीवर्त्तापकः । बृह० २०३ आ गणधर सूत्रकर्त्ता । आव० ३१४। गणधरः- आचार्यः । प्रज्ञा० ३२७ | आव० ६१ । गणहरा– गणः-एकवाचनाचारयतिसमुदायस्तं धरन्तीति गणधराः, वाचनादिभिर्ज्ञानादिसम्पदां सम्पादकत्वेन गणाधारभूता इति भावः । जम्बू० १५४ | गणधराःतन्नायका आचार्याः भगवतः सातिशयानन्तरशिष्याः । स्था० ४३० | गणा - एकक्रियावाचनानां साधूनां समुदायाः । स्था० ४३० ४५२॥ निवूढपइन्ना जोगा। दश० १५८। समानवाचनाक्रियाः साधुसमुदायाः । सम० १४ | गणाभिओगो- गणाभियोगः । आव० ८११ | गणावच्छेड़ए- गणावच्छेदकः गच्छकार्यचिन्तकः । आचा० ३५३| गणावच्छेए- गणस्यावच्छेदो विभागोSDशोऽस्यास्तीति यो हि गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति स गणावच्छेदकः । स्था० १४४ | गणावच्छेतितो- उवज्झाओ। निशी० २१२अ | गणाहिवई आर्यिकाणां गणधरः । बृह० ३०९ अ गणि- परिच्छेदः । नन्दी. १९३॥ गणाधिपतिः, आचार्यः। स्था० १७२१ अर्थपरिच्छेदः । ऑफ १४ गणिशब्दः परिच्छेदवचनः । सम. १०७ प्रज्ञा. ३२७| उवज्झाओ। निशी० ३११ आ । गणिअ - गणितं - सङ्ख्यानं, सङ्कलिताद्यनेकभेदं पाटीप्रसि-द्धम्। जम्बू० १३७। गणितं, अङ्कविद्या । जम्बू. १३६| गणिआयरिओ- गणित्वमाचार्य्यत्वं च यस्यास्त्यसौ । - आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) गणांश निशी० ३०० अ गणिका - भावस्याप्रशस्ते दृष्टान्तः । स्था० १५५ | वाराङ्गना। आव० ५५| गणितं विष्कम्भपादाभ्यस्तः परिक्षेपः। सम० १३०| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] गणितप्पहाणा- बावत्तरिकलासु प्रथमा कला । ज्ञाता० ३८ गणितानुयोग अर्हदवचनानुयोगे द्वितीयभेदः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः । आचा० १। स्था० ४८१। गणित्तिय माला आव० ४३३२ गणिपिडग- गणिनः आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं गणिपिटकम्। सम० ५| परिच्छेदसमूहो गणिपिटकम्, गुणानां गणोऽस्यास्तीति गणी आचार्यस्तस्य पिटकमिव पिटकं सर्वस्व भाजनं गणिपिटकम् । सम १०७| गणिनः- आचार्यास्तेषां पिट-कमिव पिटकंसर्वस्वाssधारो गणिपिटकम्। उत्त० ५१३ द्वादशाङ्गी । आव• १७ गुणगणोऽस्यास्तीति आचार्यस्तस्य पिटकंसर्वस्वं गणिपिटकम् | अनुयो० ३८ परिच्छेदसमूहः । नन्दी० १९३ | गणीनां अर्थपरिच्छेदानां पिटकमित पिटकं स्थानं गणिपिटकम्। औप० ३४ | पिटकमिव वालञ्जकवा-णिजकसर्वस्वाधारभाजनविशेष इव यत्तत्पिटकं, गणिन आचार्यस्य पिटकं गणिपिटकंप्रकीर्णक श्रुतादेशश्रुतनिर्यु- क्त्यादियुक्तं जिनप्रवचनम् । ऑप० ३४॥ गणिपिटकं आचार्यसर्वस्वम्। दशवै० १३ | गणिम- गणणाए गणिज्जंति। निशी• ८९आ। आव ० १८९| गणिमं-गण्यते संख्यायते वस्त्वनेनेति, एकादि रूपकादि। अनुयो० १५१ गणियं गणितं सङ्ख्यानम् आव० १२८ जाता० ३८ जीवा• ३२५| गणितविषये बीजगणितादौ परं पारमुपगतः। आधा० ३१९ | गणितं संख्यानं सङ्कलितादि अनेकभेदं प्राटीप्रसिद्धम् । सम० ८४ | एकादि। स्था० १९८ गणियधम्मो गणितधर्मः यद् बहु स्तोकेन गुण्यते । प्रज्ञा० २७५| गणियपयं- गणितपदमित्येवंप्रकारस्य गणितस्य सञ्ज्ञा । भग० ४२६ | गणियलिवी- लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ | गणियविस- गणितविषयः गणितगोचरः गणितप्रमेयः । भग० २७६। |गणियसुहुमया परिकम्मेसु गणियसुहुमया । निशी० ६७ गणियसुहुमे गणितसूक्ष्मं गणितं सङ्कलनादि तदेव सूक्ष्मं सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात्। स्था० ४७८१ [105] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] गणियाघरविहेडिओ-गणिकागृहविनिर्गतः । आव १७७ गणियापाडग- गणिकापाटकं-गणिकागृहविथिः। दशदें. १०८1 गणियायारा - गणिकाकाराः समकायाः । ज्ञाता० ६८ । गणिविज्जा- गणि-आचार्य तस्य विद्या- ज्ञानम्, सबालवृद्धो गच्छो-गणः सोऽस्यास्तीति गणिविद्या | नन्दी ० २०५/ गणिसंपइ– गणिसम्पदः- आचाराद्यष्टभेदभिन्ना, अष्टौ सम्पदः । उत्त० ३८ गणी - गच्छाधिपः । आचा० ३५३ | गणः साधुसमुदाया यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौ गणी गणाचार्य:गणनायकः । स्था० १४०) उवज्झातो अन्नो व गच्छे वुढो निशी. ६३ आ गणोऽस्यास्तीति गणी गणाचार्यः। स्था॰ १४३, २४४॥ गुणानां गणोऽस्यास्तीति गणी आचार्यः समः १०७ । आचार्यः । अनुयो० ३८ नन्दी० १९३ । उपाध्यायः । बृह० ९५ अ । बृह० ३ अ गणी गणाधिपतिः । दशवै० २४२ । गणाचार्यः । उत्त० १७ । आचार्यः । आव० २ अर्थ-परिच्छेदः । भग० ७११ | गणीउपाध्यायः। व्यव० १७१ आ| गणी- गच्छाधिपतिः । व्यव. १३७ अ गणोऽस्यास्तीतिगणी गणावच्छेदकः । व्यव० २३ अ । वृषभः । व्यव० ३६७ आ गणी आगम-सागर-कोषः (भाग - २) उपाध्यायः । बृह० १७७ आ । गणे - गणयति दृष्ट्या परिभावयति । पिण्ड० ७८ | गणेत्तिया- गणेत्रिका-कलाचिकाऽऽभरणविशेषः । भग० ११३। रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणम्। ज्ञाता० २२० हस्ताभरणविशेषः । औप० ९५| [Type text] गतिपरिणाम अजीवपरिणामे द्वितीयो भेदः । स्था० ४७५| गतिपरियाए - चलनं मृत्वा वा गत्यन्तरगमनलक्षणः, यश्च वैक्रियलब्धिमान् गर्भान्निर्गत्य प्रदेशतो बहिः सङ्क्रामयति स वा गतिपर्यायः स्था० ६६] गतिपरियातो- गतिपर्यायः चलनं जीवत एव। स्था० १३३ । गतिप्पहाणं- प्रधानगतिं मुक्तिमिति । उत्त० ४६६। गतिरतिया - गतौ रतिर्येषां ते गतिरतिकाः समयक्षेत्रवर्त्तिनः । स्था० ५७। गतिश्चङ्क्रमणं - उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपोहार्थमितस्ततः सञ्चरणम्। सम० १०७। गतिसमावन्नगा- गतिं गमनं समिति सन्ततमापन्नकाः प्राप्ताः गतिसमापन्नकाः, अनुपरतगतय इत्यर्थः । स्था० ३४४| गत्त– गात्रं-अङ्गम्। प्रश्न० ६०| उरः । ज्ञाता० ६६। श्र्वश्वम्। भग० ३०७। गात्रं स्कन्धोरुपृष्ठादि । अनुयोग १७७ | देहः । भग० ७०५ | गत्तगाई गात्राणि - ईषादीनि । राज० ९३ । गत्तपरिपुंछणं गात्रपरिपुञ्छनं पुच्छम् । जम्बू. ५२९ | गत्ता - गर्त्ता - महती खड्डा । २८२ ॥ गत्ताई- गजाणि ईषादीनि जम्बू० २८५ गत्ति - कृतिः चर्म । ओघ० ३४१ गदतियातो- गहितं निशी० १९ अ ज्ञानम्। आचा० १६७ | गतवाही- शुक्रमहाबहस्य द्वितीया विथि स्था० ४६८० गता- गदा । जीवा० ११७ | गद्दतोय- चन्द्राभविमानवासी पञ्चमो लोकान्तिकदेवः । भग० २७१ | स्था० ४३२ | आव० १३५ | गद्दभा एकखुरचतुष्पदविशेषः प्रज्ञा ४५ गद्दभाति गर्दभालिः स्कन्दकचरिते श्रावस्तीनगर्या स्कन्द-परिव्राजकस्य गुरुः । भग. ११२ ॥ अनगारविशेषः । उत्त० ४३९, ४४२॥ गहभिया गर्दभिका-शालिरत्नम् । आव. ४३५१ गतिचंचल- चञ्चलस्य प्रथमो भेदः । बृह० १२४ अ गतिचपलः- दुतचारी उत्त० ३४६ ॥ गतिनामनिहत्ताउए- गतिर्नरकगत्यादिभेदाच्चतुर्द्धा सैवा गद्दभो- यवराजस्य पुत्रः । बृह० १९१ अ । गर्दभः दृष्टान्तनाम गतिनाम तेन सह विशेषः। ओघ० ८४। एकखुरचतुष्पदः । जीवा० ३८\ निधत्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः । प्रज्ञा० २१७ । गद्दा- गर्त्ता। ज्ञाता० ६७ | गण्डक— लम्बूसकः। राज० १०४ | गणडकादिः - शरीरोद्भवो व्रणविशेषादिः । आव० ७६५ | गण्डलेखा - कपोलविरचितमृगमदादिरेखा निर० २०७१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ५८| गती- गमनं, गम्यत इति वा गतिः- क्षेत्रविशेषः । गम्यते वा अनया कर्म्मपुद्गलसंहत्येति गतिःनामकर्मोतरप्रकृतिरूपा तत्कृत्वा वा जीवावस्था। स्था० [106] "आगम- सागर-कोषः " (२) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गद्य-अच्छन्दोबद्धं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत्। जम्बू० ३५९| | १११। जासिंण तावं सीसयं। दशवै ११२॥ गब्भ- गर्भः-उदरसत्त्वः । स्था० ४२३। गर्भ: गब्भुद्देसो- गभ्भोद्देशके-गब्भसूत्रोपलक्षितोद्देशके हंसनिर्वतितः कोसिकाकारः। अन्यो० ३४। गर्भः सप्तदशपद-स्य षष्ठे सूत्रम्। भग०७६१। सजीवपुदगलपिण्डकः। भग. २१८। गर्भो-मध्यभागः। गब्भो-गर्भ:-गर्भावासः। प्रज्ञा०४४। जम्बू. १८३ गम-सदृशपाठः कृतः। स्था० १८३। इहादिमध्यावसानेषु गब्भगडंडिया- रणपट्ठगो। निशी. २४५आ। किञ्चिविशेषतो भूयोभूयस्तस्यैव सूत्रस्योच्चरणं गब्भगिहं- गर्भगृह-गेहाकारद्रमगणविशेषः। जीवा० ३६९। गमः। नन्दी. २०३। अर्थगमाः-अर्थपरिच्छेदः। नन्दी. उत्त० २१९ २११। गम्यते अनेन वस्तुरूपमिति गमः-प्ररूपणा। उत्त० गब्भघर- गर्भगृहं-सर्वतो वर्तिगृहान्तरं, अभ्यन्तगृहम्। २४०। प्रकारः। बृह. १५२ चतुर्विंशतिदण्डकादिः, जम्बू० १०६) कारणवशतो वा किञ्चद्विसदृशः सूत्रमार्गः। आव० ५९३। गब्भघरए-मोहनगृहस्य गर्भभूतानि वासभवनानीति। वाचनाविशेषः, पाठः। ज्ञाता० ३६। जम्बू. २६६। गमाःज्ञाता० १२९। तदक्षरोच्चा-रणप्रवणाभिन्नार्थाः। दशवै० ८८ गमकःगब्भघरगा- गर्भगृहकाणि-गर्भगृहाकाराणि। जीवा० २००। भङ्गः। ओघ० ३५। गमः-पाठः। जम्बू० ३२८। सदृशपाठः। जम्बू० ४५ जम्बू. २१६। योगः। पिण्ड० १२४। आगमो। निशी० २०२। गब्भहमे वासे- । ज्ञाता० ३८। सदृशः पाठः। भग०४५ गब्भमासो- गर्भमासः। कार्तिकादिर्यावत् माघमासः। गमग- गमकः-भङ्गः। ओघ० ३५ व्यव. २४०। गमणं-अवधावनम्। बृह. २१८ आ। गमनम्-आसेवनगब्भया-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। रूपतया प्रापणम्। आव० ८२३। संहितादिक्रमेण गब्भवक्कंतिय- गर्भ-गर्भाशये व्यत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां व्याख्यातुः प्रवर्तनम्। उत्त. ११। अन्यतोऽन्यत्र ते गर्भेव्युत्क्रान्तिका न संमूर्छिनजा इत्यर्थः। सम० गमनम्। दशवै. १५५ अभिगमः, मैथनासेवना वा। १३५ आव० ८२५। मैथुनासेवनम्। उपा०८ वेदनम्। स्था० गब्भवक्कंतियमणुस्सा- गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः। ३४८ वर्तनम्। आचा. २६२ प्रज्ञा०५० भिक्षादानार्थमभ्यन्तरप्रवेशः। ओघ. १६६। गब्भवक्कंतिया- गर्भे व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते, गमणगुण- गमनं गतिस्तद् गुणोअथवा गर्भात्-गर्भावासाद् व्युत्क्रान्तिः-निष्क्रमणं येषां गतिपरिणामपरिणतानां जीव-पगलानां ते गर्भव्य-त्क्रान्तिकाः। जीवा० ३५ प्रज्ञा०४४। सहकारिकारणभावतः कार्यं मत्स्यानां जीवस्येव गब्भवसही- गर्भवसतिः। आव. ३२५१ यस्यासौ गमनगुणो गमने वा गुणः-उपकारो-जीवादीनां गब्भवासो- गर्भवासः-मध्यभागविस्तारः। प्रश्न० ६२ यस्मादसौ गमनगुण इति। स्था० ३३३। गतिसामर्थ्यः। गब्भसाडणा- गर्भशातनाः-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतन- ज्ञाता०३५१ हेतवः। विपा०४२ गमणपयार- गमनप्रचारः-गतिक्रियावतिः। ज्ञाता० ३५१ गब्भसारो- गर्भसारः। आव०४१३ गमणागमण-ईर्पापथिकी। ज्ञाता०२०० गब्भाकरा- गर्भकरा गर्भाधानविधायिनी विदया। सूत्र गमयति-स्केटयति प्रापयति वा शिवम्। नन्दी० २३॥ ३१९| गमा- गमाः-अर्थगमा गृह्यन्ते अर्थपरिच्छदाः। सम० गभिआ-गर्भिता-अनिर्गतशीर्षकाः। दशवै. २१९। १०८ वस्तुपरिच्छदप्रकाराः नामादयः। उत्त० ३४२। गब्भिजा- गर्भे भवाः। गर्भजाः-नौमध्ये अर्थपरिच्छि-त्तिप्रकाराः। उत्त०७१३ प्रकाराःउच्चावचकर्मकारिण। ज्ञाता० १३७। विरुच्चारणीयाणि पदानि। बृह. १५९ आ। गब्भिया- गर्भिना जातगर्भा डोभकिता इत्यर्थः। ज्ञाता० । भङ्गगणितादयः-सदृशपाठा वा। बृह० ११० आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [107] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ७० गमागमसंववहारो- गमागमसंव्यवहारः। आव. ३९५१ गयछाया- गजछाया। प्रज्ञा० ३२७। गमि-अयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्तते। दशवै. गयणंफुसे- गगनस्पर्शा-अतिप्रबलतया नभोऽङ्गणव्यापिना। उत्त०४९। गमिओ-ज्ञापितः। आव०६२७। गयण्हाण- गजस्नानम्। दशवै० २२६। गमिक-गमा अस्य विदयन्त इति। आव २५ गयतालुए- गजतालुकम्। प्रज्ञा० ३६१। दृष्टिवादः। नन्दी. २०३। गयतेये- गततेजाः। भग०६८४१ गमित्तए- गन्तुम्। उत्त० ३४० गयदंतसंठिते- गजदन्तसंस्थितम्। सूर्य. १३० गमेइ- गमयति। आव. १७२। गयनियत्त-अनुसंपन्ना एवात्मीयेन व्यक्तविहाडादिना गमेय-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा०५५। समं गतास्तस्य च कालगततया प्रतिभग्नत्वादिना वा गमो-पकारो। निशी० ११५ आ। कारणेन प्रत्यागन्तव्यं नाभवततः प्रत्यागच्छन्तस्तं गम्मधम्म- गम्यधर्मः-यथा दक्षिणापथे मातुलहिता साधुपुत्रसंपद्यते। व्यव० ३७९अ। गम्या उत्तरापथे पुनरगम्यैव। दशवै. २२ गयपुरं- गजपुरं-कुरुजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ गम्मो- गम्मो गमनीयो वा अष्टादशानां कराणाम्, ग्रसते कुरुज-नपदे नगरविशेषः। आव० १४५१ वा बु-द्ध्यादीनगुणान्। ग्रामः। बृह. १८१ अ। गम्यः- शान्तिकुन्थूनाथजन्मभूमिः। आव० १६०| पांडवानां परिभव-स्थानम्। प्रश्न. १२० राजधानी। आव० ३६५ यत्र धन-श्रीजीव गय- गतः-स्थितः। जीवा. १६४। प्रज्ञा० ९११ गतः। ज्ञाता० इभ्यश्रावकशङ्खस्य दुहिता सर्वाङ्गसुन्दरी च्युता। ११८ चीर्णम्। सूर्य० २२गजः। प्रश्न०७३। आव० ३९४१ प्रथमस्वप्ननाम। ज्ञाता०२० गतः-आश्रितः। भग० गयमच्छर-गतमत्सरः-परस्परासहनवर्जितो निर्मसको १९१। गदा-लकुटविशेषः। प्रश्न. २१। वा। ज्ञाता०२३१ गयउर- गजरं नगरविशेषः। उत्त०१०९, ३५४, ३५५) गयमागम- गतागमः। व्यव० १५८ अ। गयकंठ- गजकण्ठः-हस्तिकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः। गयमारिणि- गच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ जीवा० २३४१ गयविक्कमसंठिते- गजविक्रमसंस्थितम्। सूर्य. १३० गयकण्णो- गजकर्णः अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४। गयसुकुमाल- गजसकुमालः-अनगारविशेषः। उत्त० ५८२ गयकन्नदीवे-अन्तरदद्वीपविशेषः। स्था० २२६। वसुदेवपुत्रः। आव० २७३। प्रद्वेषविषये दृष्टान्तः। आव० गयकन्ना-गयकन्नान्तर्दवीपे मनष्यविशेषः। स्था० | ४०४। पितृवने श्वशुरदग्धः। मरण । २२६। गजकर्णनामा अन्तर्दवीपः। प्रज्ञा० ५० गया-गदा-प्रहरणविशेषः। औप. ३१ गता-स्थिता। ज्ञाता० गयकलभे- गजकलभः-करिपोतः। प्रज्ञा० ३६० १७ गयग्गपदगं- गजाग्रपदकं गयागत-अव्यक्ता, अविहाडा, अदेशिका, अभाषिका वा योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधानदृष्टान्ते एडकाक्षनगरे अन्यं साधुमुपसंपद्यते, अस्माकममुकप्रदेशेन यथा वा पर्वतविशेषः। आव०६६९। यत्र तेषां गन्तव्यं तत्र ये गयग्गपदग्गो- गजाग्रपदकं-यत्र इन्ट्रैरावणस्य विवक्षितसाधोरन्येऽव्यक्तविहाडादयो गन्तुका-मास्तान् पदानिदेवता-प्रभावेणोत्थितानि तेन प्रसिद्ध ब्रुवते वयं युष्माभिः सह गमिष्यामस्तत्र यत्र गन्तदशार्णकूटम्। आव०६६९। कामास्ततो यदि प्रत्यागच्छन्ति तदैवत् गतागतम्। गयग्गपय- गजाग्रपदो दशार्णकटवर्ती। आचा०४१८५ व्यव. ३७९ । गयग्गपादगो- गजाग्रपादकः दशार्णकूटापरानामा। आव० | गया(ज्ज)लं-उद्वेल्यमानं परिधीयमानं वा गर्जयति। जीवा० २६९। गयग्गोपवतो-पर्वतविशेषः। निशी० ३४१ । गर-य आहारं स्तम्भयति कामर्णं वा गरः। ओघ. १६९। ३५९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [108] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गराद्यपरनाम। जम्बू४९४। गरः-विषम्। भग० १८२ | सैन्यस्य व्यूहविशेषः। भग० ३१७ गरण-करणः-विपरिणामहेतुः। भग०६५। विषम्। उत्त० । गरुडवेगः-देवविशेषः। जम्बू. ३५६| ४३९। गरुयं-गुरुकं-बादरम्। प्रश्न० ३६। गरलिगाबद्धं-णिक्खित्तं। निशी० ८३आ। गरुयनिवतितं- गुरुकनिपतितं गरहं- गर्हा-निन्दा, जुगुप्सा। उत्त०६४। विद्युदादिगुरुकद्रव्यनिपात-जनितध्वनिः। प्रश्न. ५१ गरहइ-आत्मनैव गर्हते-निन्दति। भग०५८ गरुल- गरुडः सुपर्णः। प्रश्न० ८। गरुडःगरहणय- गर्हणं-परसमक्षमात्मदोषोद्धावनम्। भग. सुपर्णकुमारजातीयः वेणुदेवः। स्था०६९। गरुडा ७२७ गरुडध्वजाः सुपर्णकुमाराः। प्रश्न०६९। गरुडलांछनत्वात् गरहणा-कुत्सनान्येव च गर्हणीयसमक्षाणि। औप० १०३। गरुडः। सम० ६२। गरुडाः-सुवर्णकुमाराः। राज० १२३। गर्हणीयसमक्षं कुत्सा। अन्त० १८१ गरुडः गरुडध्वजः। भग० १३५। सुवर्णकुमाराः। ज्ञाता० गरहणाते-कोकसमक्षदायकादिनिन्दा गर्हता। प्रश्न १०९। गरुडध्वजाः-सुपर्ण-कुमारा इत्यर्थः। सम० १५५ १०९। गरुलदेवे- गरुडदेवः-गरुडो गरुडजातीयो वेणुदेवनामा गरहणिज्जे- गर्हणीयः समक्षमेव। ज्ञाता०९६) मता-न्तरेण गरुडवेगनामा वा देवः। जम्बू०४, ३५५ गरहह-जनसमक्ष निन्दां कुरुत। भग० २१९। गरुलपक्खियं- एकत उभयतो वा स्कन्धोपरि गरहा- गुरुसाक्षिका आत्मनो निन्दा गरे। स्था० २१४। वस्त्राञ्चला-नामारोपणरूपम्। बृह० २५४ अ। एकत गरहिए- गाणि दास्यादि कलानि। आचा० ३२७ उभयतो वा स्कन्धोपरि कल्पाञ्चलानामारोपणरूपम्। गरहिज्जा- गुरुसाक्षिका। स्था० १३७) बृह० १२५ । गरहित्तए- गर्हितु गुरुसमक्षं तानेव जुगुप्सितम्। स्था० गरुलवूह- गरुडव्यूहम्। निर० १८१ ५७ गरुलासणं- गरुडासनं-यस्यासनस्याधोभागे गरुडो व्यवगरहित्ता- गर्हणं जनसमक्षं निन्दा विधाय। भग० २२७। स्थितिः सः। जीवा. २००० गराइ- गरादि गरं वा। जम्बू० ४९३। गरुलोववाए- गरुडोपपातः-कालिकसूत्रविशेषः। नन्दी. गरिद्वव- एकास्थिकभेदविशेषः। भग०८०३। २०७३ गरिहंति- गर्हन्ते-कुत्सन्ति। दशवै. १८८५ गर्जिकृत्- गर्जिता। स्था० २७० गरिहा-आलोचना, विकटना, शुद्धिः, सद्भावदायणा गतलङ्घन-दारुसंक्रमस्य भेदः। आचा. २०२। जिंदणा गरहणा विउट्टणं सल्लद्धरणं च। ओघ. २२५। गर्दभक-कुमदम्। दशवै० १८५। प्राणिविशेषः। आचा. गर्हा-जुगुप्सा। दशवै. १४४। गर्हणं गर्हा-दुश्चरितं प्रति ३७६| कुत्सा। स्था० ४३। गर्दा-गर्हणं, परसाक्षिकी कुत्सा, गर्दभिल्लः -नृपतिविशेषः। बृह. १५६ अ। षड़भेदभिन्नं प्रतिक्रमणमेव, प्रतिक्रमणस्य सप्तमं गर्भोत्पादनं- गर्भपातनम्। व्यव० १६३ आ। नाम। आव० ५५२ गलतिया- गलन्तिका गर्गरी। आव०६९२२ गरिहाहि- गहणं गुरुसमक्षं निन्दनमेव। ज्ञाता० २०६। गल-गलं-बडिशम्। विपा० ८० प्रश्न० १३, ५७ बिडिषम्। गरिहिअ- गर्हितं निन्दयम्। आव० ४७८ निन्दितः। ज्ञाता० २३४। आचा० ३८१ उत्त० ४६०। गलः। ओघ० दशवै. १९७५ १८०| दंडगस्स अतो लोहकंटगो कज्जति। निशी० २१५ गरिहिइ- गर्हति लोकसमक्षं कुत्सति। भग० १६६। । गुरु-अधःपतनहेतुरयोगोलकादिगतो गुरुः। अनुयो० ११० | गलइ-अनन्तजीववनस्पतिभेदः। भग०८०४ गन्धद्रव्यविशेषः। निशी. २७६ आ। गलओ-गलः। आव०४०५। ग्रीवा। आव. २०३। गरुडवूहो- गरुडव्यूहः कोणिकस्य युद्धे सैन्यरचना। आव० । | गलओस-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ ६८४| गरुडाकारसैन्यविन्न्यासविशेषः। प्रश्न. ४७ गलकः-स्वरभंगः। बृह. ९१ अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [109] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गलकवोला- गलकपोलौ। जीवा. २७५ गवाकृतिर्वर्तुल-कण्ठः। प्रश्न० ७। गलकुक्कुटी- गल एव कुक्कुटी। पिण्ड० १७३। द्विखुरचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा०४५। गलगहिओ- गलगृहीतः। आव० ३४६) गवलं-महिषीश्रृङ्गम्। आचा० २९। उत्त०६५२। ज्ञाता० गलच्छल्लं- गलग्रहणम्। प्रश्न०५६ १०११ माहिषं श्रृङ्गम्। जीवा. १६४१ प्रज्ञा. ९११ माहिषं गलत्थल्ला-हस्तेन गलग्रहणरूपा। ज्ञाता० १६८१ श्रुङ्ग रितनत्वग्भागापसारणे द्दष्टव्यम्। प्रज्ञा० ३६० गलयंत्र-यन्त्रविशेषः। दशवै. २७०।। श्रृङ्गम्। प्रश्न. २१ गललाय- गललातानि कण्ठे न्यस्तानि वरभूषणानि। | गवलगुलिया- तस्यैव माहिषश्रृङ्गस्य जम्बू. २६५ निबिडतरसारनिर्वर्तिना गुटिका गवलगुटिका। जम्बू. गलवृन्दं- शरीरान्तर्वर्धमानावयवविशेषः। प्रज्ञा० ४७३। ३२गवलगुलिका-महिषश्रृ-ङ्गगोलिका। ज्ञाता० २६। गलि-अविनीतः। उत्त०४८ मरालः। आव०७९७१ गवलं-महिष्यश्रृङ्गं गुलिका-नीली गवलस्य वा गुलिका गलिगर्दहा- गलिगर्दभाः-दुःशिष्याः। उत्त० ५५४१ गवलगुलिका। ज्ञाता० १०११ गलिच्चा- गलसत्कानि आभरणानि। पिण्ड० १२४। | गवलसामला- गवलं-महिषश्रुङ्ग तद्वत् श्यामलः। गलियलंबणा- गलितलम्बना-आलम्बनाम् भ्रष्टा, श्यामा। ज्ञाता० २३१। लम्ब्यन्ते इति लम्बनाः-नङ्गरास्ते गलिता यस्यां सा। | गवलेइ-माहिषं श्रृङ्गं तदपि चापसारितोपरितनत्वग्भागं ज्ञाता० १५८१ ग्राह्यम्। जम्बू. ३२॥ गली- गलिः दुष्टाश्चः। उत्त०६२। गलित्येव केवलं न तु | गवाणी- सामान्येन गवादनी। आचा० ४११। वहति-गच्छति वेति गलिः-दुष्टाश्वो दुष्टगोणो वा। गवालीयं- गवालीकं-गोविषयमनृतम्। आव० ८२० उत्त०४९। गवासं- गावश्चाश्वाश्च गवावं, गावो वाहदोहोपलक्षिताः गलेरवं-यो गलेनात्यन्तं रटति। आव०६६१। अश्वाः -तुरगाः। उत्त. १२९। गल्ल-कपिः। उपा०२१| गंवेल- गौः। अनुयो० १२९। गल्लोदए- गल्लोदकाः। दशवै. १०४। गवेलग-गवेलकः-उरभ्रः। औप० १२। ज्ञाता०२। गवं- मृगादिपशुः। सूत्र०७२। गवेलगा- गवेलकाः-ऊरणकाः। अनुयो० १२९। स्था० ३९५) गवए- गवाकृतिराटव्यो जीवविशेषः। बृह. १०६अ। गवेलकाः ऊरभ्राः। भग० १३५) गावश्चएलकाश्च गवओ-गोणागिती गवओ। निशी० ४७ आ। ऊरणका गवेलकाः। स्था०२९५४ गवक्खए- गवाक्षः। आव०६७६| गवेषणा- व्यतिरेकधर्मालोचनम्। नन्दी० १८७) गवख्खजाल- गवाक्षजालं-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषो गवेसओ- गवेषकः शोधकः। आव०४१८१ गवेषकः। आव. दामसमूहः। जीवा.१८१, २०५, ३६१। जम्ब० ५०० ३१४१ गवक्खसंठिओ- गवाक्षसंस्थितः-वातायनसंस्थितः। गवेसण-व्यतिरेकतो गवेषणम्। भग०६६३। गवेषणंजीवा. २७९ व्यतिरे-कधभैरन्वेषणम्। औप. ९५ गवक्खो- गवाक्षः-वातायनः। जीवा० २७९। प्रश्न. १३८१ व्यतिरेकधर्मालोचनम्। आव० ९९। अनुपलब्भ्यमानस्य नन्दी०७३। पदार्थस्य सर्वतः परिभावनम्। पिण्ड० २९। गवच्छ-आच्छादनम्। जम्बू०५८ गवेष्यतेऽनेनेति गवेषणं तत ऊध्वं सद्भूता - गवच्छिता- गवच्छं-आच्छादनं गवच्छा सजाता र्थविशेषाभिमुखमेव एष्विति गवच्छिकाः(ताः)। राज०७१। व्यतिरेकधर्मत्यागोड नवयधरमाधयासालोनम्। नन्दी. गवत्थिया- गवस्था-आच्छादनम्। जीवा. २१४| १७६। गवेषणं-व्यतिरेकधर्मालोचनम्। भग० ४३३। इह गवय-वनगवः। जम्ब० १२४। आटव्यः पशविशेषः। शरीरकण्डूयनादयः पुरुषधर्माः प्रायो न घटन्त इति प्रश्न० ३८१ गवयः द्विखुरश्चतुष्पदः। जीवा० ३८१ व्यतिरेकधर्मालोचनरूपम्। ज्ञाता०१२ मनि दीपरत्नसागरजी रचित [110] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गवसणा- व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा। आव. १८५ | गहणकप्पा-सुत्तं अत्थं उभयं वा गेण्हतेण नन्दी. १८७। गवेषणा-प्रार्थना। सूत्र०७२। अदिढे गवेषणा | भत्तिबहमाणा अब्भुट्ठाणाइविणओ पयुंजियव्वो। निशी० थुभि-याइचिंधेहिं गवेसणा। निशी. १९९ अ। १४६ अ। गवेसति- गवेषयति। आव. २००६ गहणगुण- ग्रहणं-औदारिकशरीरादितया ग्राह्यता गवेसमाणे- गवेषयन-व्यतिरेकधर्मपर्यायलोचनतः इन्द्रिय-ग्राह्यता व वर्णादिमत्वात् बहुजनस्य। ज्ञाता०८११ परस्परसम्बन्धलक्षणं वा तदगणो धर्मो यस्य स तथा। गव्व- गर्वः-अभियोगः। आव० ७७२। गर्व-शौण्डीर्यम्। स्था०३३४ भग. १७२। गहणजाय- यानि पुनद्रव्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि गह- ग्रहः-उत्क्षेपः प्रारम्भरसविशेषः। दशवै०८८1 भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कलीविवरप्रविष्टानि गहगज्जिय- ग्रहगर्जितं-ग्रहचारहेतुकं गर्जितम्। जीवा० गृह्यन्ते तानि चानन्त-प्रदेशिकानि, द्रव्यतः २८२। ग्रहसञ्चलादौ गर्जितं-स्तनितं ग्रहगर्जितम्। भग. क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढानि, कालत १९६| एकदवित्र्यादियावदसङ्ख्येयसमयस्थितिकानि, भावतो गहजुद्धं- ग्रहयुद्धं-यदेको ग्रहोऽन्यस्य ग्रहस्य मध्येन स्पर्श-वन्ति, तानि चैवं भूतानि ग्रहणजातमित्युच्यन्ते। याति। जीवा. २८२। आचा० ३८५ गहण- गुविलं। दशवै० १२० नन्दी० ४२। गहनं गहणविद्ग्ग- एगजातीयअणेगजाईयरुक्खाउलं सङ्कुलम्। आव० ५६७। वननिकुञ्जः। दशवै० २२९ बृह० | गहणविदुग्गं। निशी० ७० आ। सूत्र० ३०७। गहनविदुर्गः९ अ। अपूर्वस्य ग्रहणं ग्रहणम्। व्यव० ३७६ अ। गहनः- पर्वतैक-देशावस्थितवृक्षवल्ल्यादिसमुदायः। भग० ९२ गपिलः। उत्त०२९० गहणा- गह्वरा। आव०५९६। दोषविशेषः। निशी० २७२ वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदायः। भग० ९२१ सर्वांगीणं | कराभ्यामादानम्। बृह. २३० अ| गहनं-वृक्ष-गह्वरम्। | गहणाई- ग्रहणादयः-ग्रहणबन्धनताडनादयः दोषाः। विपा०६२। धवादिवृक्षैः कटिसंस्थानीयम्। सूत्र० ८९। पिण्ड० १६ गहवरम्। प्रश्न. ३९। गहनमिव गहनं दुर्लक्ष्यान्तस्त- गहणागरिस- एकस्मिन्नेव भवे ऐापथिककर्मपदगलानां त्त्वत्त्वात्। प्रथम अधर्मद्वारस्य विंशतितमं नाम। | ग्रहण-रूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षः। भग० ३८६) प्रश्न. २७। चद्सुरुवरागो गहणं भण्णति। निशी. ७० गहणी- ग्रहणी। आव०६४४| गदाशयः। औप०१६। प्रश्न आ। गृह्यत इति ग्रहणम्। प्रज्ञा० २६२। ग्रहणकम्। ८२। ग्रहणी-गुदाशयः। जम्बू० ११७ प्रश्न. ३० सम्ब-न्धनम्। जीवा०४४२॥ गहदंडा-दण्डा इव दण्डाः-तिर्यगायताः श्रेणयः सूत्रादेस्तत्प्रथमतया आदानम्। आव. २६७। ग्रहाणांमङ्ग-लादीनां त्रिचतरादिनां दण्डा ग्रहदण्डाः। भाषाद्रव्याणां कामयोगेन यत् ग्रहणम्। दशवै. २०८१ भग. १९५ सर्वाङ्गिकं तु ग्रहणम्। स्था० ३२७। ग्रहणं ग्रहस्य गहदंडो-दण्डाकार व्यवस्थितो ग्रहो ग्रहदण्डः। जीवा. वस्तुनः परिच्छेदः। अनुयो० २१६। गृहस्थस्य ૨૮રા. गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं, यस्मात्प्रदेशागण्डकं गृण्हाति | गहन- महाटवी। वनम्। सूत्र. २४५। गह्वरम्। ओघ० १८१, तं प्रदेशम्। ओघ० १६६। गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं । १६० शरावसंप्टम्। ओघ० १३९। निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्रं वा। | गहभिण्णं- ग्रहभिन्नं-मज्झेण जस्स गहो गतो तं आचा० ३८२ आक्षेपकम्। उत्त०६३०| गृह्यत इति गहभिण्णं। निशी० ९९ अ। ग्रहणं ग्राह्यम्। आव० ६३०| स्वीकरणम्। उत्त०७११। | गहभिन्नं- यस्य मध्येन ग्रहोऽगमत् तत् ग्रहभिन्नम्। ज्ञानम्। उत्त. ५०३। ग्रहणं-परस्परेण सम्ब-न्धनम्। व्यव० ६२। जीवेन वा औदारिकादिभिः प्रकारैर्ग्रहणम्। भग० १४८५ | गहमुसलं- ग्रहमुशलम्। जीवा० २८२। गृहमुशलं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [111] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ऊर्ध्वायता श्रेणिः। भग. १९६| गहियो-विडम्बयितुं प्रारब्धः। बृह० ४७ आ। गहयुद्ध- ग्रहयुद्धं ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे सम गहिल्लगवेस-ग्रहगृहीतवेषः भूतविण्ट इव श्रेणितयाऽवस्थानम्। भग. १९६| विचित्रवेसवान्। दशवै० १९। गहरा-लोमपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९। गहो- ग्रहः। आव० ३९७। राहलक्षणः। ३९। गहरो-लोमपक्षीविशेषः। जीवा०४। गां- वृषभम्। आचा० ३८४| गहसंघाडओ- ग्रहसङ्घाटकः-ग्रहयुग्मम्। जीवा० २८२।। गाइयव्वं- गातव्यम्। ओघ० १५७। गहसमं-प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतस्तत्समं | गाउअं-द्वे धनुःसहस्रे गव्यूतम्। अनुयो० १५७। गीयमानं ग्रहसमम्। अनुयो० १३२ स्था० ३९४। गीतस्य | गाउयं-क्रोशद्वयं गव्यूतिः। ओघ० २३। गव्यूतं-द्विधनुः तृतीयो भेदः। निशी. १ । सहस्रप्रमाणम्। प्रज्ञा० ४८१ जीवा० ४०| धनुःसहस्रद्वयप्रगहसिंघाडग- ग्रहसिंघाटकं-ग्रहाणां माणम् कोशः। भग० २७५। सिङ्घाटकफलाकारेणा-वस्थानम्। भग० १९६| गागरं-स्त्रीपरिधानविशेषः। प्रज्ञा० ७०| गहसुसंपउत्त- यः प्रथमं वंशतन्त्र्यादिभिः स्वरो गागरा-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। गृहीतस्तन्मा-र्गानुसारि ग्रहसुसंप्रयुक्तम्। जीवा० १९५४ | गागरि- गर्गरी। अनुयो० १५२। प्रथमतो वंशत-न्त्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतस्तत्समेन | गागरी- बृहद्वर्तुलघटिका। तन्दु० स्वरेण गीयमानं ग्रहसुसं-प्रयुक्त। जम्बू०४० गागलि- शालमहाशालभागिनेयः। उत्त० ३२४, ३२११ गहा- ग्रहाः-अङ्गारकादयो गृह्यन्ते। आव०५१९| ग्रहाः- गाङ्गलिः-तापसविशेषः। दशवै०५१। ज्योतिष्कभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। ग्रहाः-सूर्यादिकेत्वन्ता | गागली-पृष्टिचम्पायां यशोमतीपुत्रः। आव० २८६। नव, सोमस्याज्ञोयपातवचननिर्देशवर्तिनोदेवाः। भग. गाढ-निबिडम्। नन्दी०४६। अत्यर्थम्। ओघ० १२७, ३२४। १९५१ गाढं-वाढम्। भग० ३७ गहाय- गृहीत्वा-सम्प्रधार्यः। उत्त० २०६। गाढीकय- गाढीकृतम्-आत्मप्रदेशैः सह गाढबद्धम्। भग० गहावसव्व- गहापसव्वं-ग्रहाणामपसव्यगमनं, २५११ प्रतीपगमनम्। भग. १९६| गाणंगणिए- गणादगणं षण्मासाभ्यन्तर एव गहिति- गमिष्यन्ति-ग्रहीष्यन्ति वा स्वीकारिष्यन्ति। सङ्क्रामतीति गाणङ्गणिकः। उत्त० ४३५) उत्त० १९४१ गाणंगणितो-णिक्कारणे गणातो अण्णं गणं संकमंतो गहिअ- गृहीतः-अनिक्षिप्तः। ओघ. ५८१ गाणंग-णिओ। निशी० ८०आ। गहिए- धनिकः। बृह० ४९ आ। गाणंगणिया- गाणंगणिकता-गणे गणे प्रविशतीत्येवं गहिओ-गृहीतः-अवधारितः। आव० ४१५ प्रवादल-क्षणा। व्यव० ४९ अ। गहियं-पडिबद्धं । दशवै० १५१। गृहीतम्। प्रश्न ३०० गाणि- गानम्। आव०६७४। गहियगहणं- गृहीतग्रहणं-गृहीतं ग्रहणं-ग्रहणकं येन सः। | गातब्भंग- गात्राभ्यङ्गः-तैलादिनाऽङ्गम्रक्षणम्। स्था० प्रश्न. ३० २४७ गहियट्ठा-परस्मात्। भग. ५४२ अर्थावधारणात्। गातुच्छोलणाई- गात्रोत्क्षालनं-अङ्गधावनम्। स्था० २४७। गृहीतार्थम्। भग. १३५ गात्राणि- ईषादीनि। जम्बू० ५५ गहियवलंजो-सेज्जातरो खेत्तस्य अंतोबहिं वा गाधेन-उद्वेधेन। स्था० ४८० गहियवलंजो। निशी. १५८ अ। गामंतरं- ग्रामादन्यो ग्रामः ग्रामान्तरम्। आव. १४। गहियाउपहरणे- गृहीतायुधप्रहरणः-गृहीतानि आयुधानि । | गामंतिय- ग्रामस्यान्तेः समीपे वसतीति ग्रामान्तिकः। श-स्त्राणि प्रहरणाय-परेषां प्रहारकरणाय येन सः। भग. सूत्र० ३१५ ३१८१ | गाम- ग्रसति बुध्यादीन् गुणानिति गम्यो वाऽष्टादशानां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [112] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) (Type text] कराणा-मिति ग्रामः। आचा० २८५। ग्रामाः-सङ्घाताः।। | गामथेरा-ये ग्रामनगरराष्ट्रेषु व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त उत्त०६१३। ग्रसन्ति बुद्ध्यादीनगुणानिति ग्रामाः। आदेयाः। प्रभविष्णवस्ते तत्स्थविराः। स्था० ५१६) आचा० २५४। इन्द्रि-यग्रामो रूढेः। जनपदाश्रयः। स्था० गामधम्म-ग्रामधर्मः-विषयोपभोगगतो व्यापारः। आचा० ५१६। समूहः। आव०६५० ग्रसति गुणान् गम्यो ३३१। ग्रामा-जनतदाश्रयास्तेषां तेष् वा धर्मः समाचारोवाऽष्टादशानां कराणामिति ग्रामः। उत्त०६०५ ग्रामः- व्यवस्थेति ग्रामधर्मः, अथवा ग्रामः-इन्द्रियग्रामो ग्रामशब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः। आचा० २९१। रुढस्त-धर्मो-विषयाभिलाषः। स्था० ५१५। ग्रामधर्मःग्रसते बुद्ध्यादीनगुणानिति ग्रामः। अनुयो० १४२। ग्रसते | प्रतिग्राम-भिन्नः। दशवै.२२ बुद्ध्यादीनगुणान् यदि वा गम्यः शास्त्र गामधम्मतित्ति- ग्रामधर्माः-शब्दादयः कामगुणास्तेषां प्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः। राज० ११४॥ तप्तिः -गवेषणं पालनं वा ग्रामधर्मतप्तिः , ग्रसतिबुद्ध्यादीन्गुणान् यदि वा गम्यः अब्रह्मणोऽष्टादशं नाम। प्रश्न०६६। शास्त्रप्रसिद्धानामष्टा-दशानां कराणामिति ग्रामः। व्यव० गामधम्मा- ग्रामाः-इन्द्रियग्रामास्तेषां धर्माः-स्वभावा १६८ अ। करादियाण गम्मो गामो। निशी० ७०आ। यथा स्वविषयेषु प्रवर्तनं ग्रामधम्माः । आचा० २१८१ निशी. २२९ अ। ग्रामः-जनपदप्रायजनाश्रितः। प्रश्न ग्रामधाः -विषयाः। आचा० २७६। ३९। दशकुलसाह-सिको ग्रामः। ज्ञाता०४४। गामपिंडोलगं- ग्रामपिण्डोलकः-भिक्षयोदरभरणार्थ जनपदप्रायजनाश्रितः स्थानवि-शेषः। भग० ३६| ग्राममा-श्रितः तुन्दपरिमृजो द्रमकः। आचा० ३१४१ इन्द्रियग्रामः। उत्त० ११२। इन्द्रियवर्गः। प्रश्न०६३ गामभोइओ-ग्रामभोजिकः। आव० ३५५। जनपदाध्यासितः। औप०७४। ग्रसति बुद्ध्यादीन्गुणान् | गाममहो- गामे महा गाममहो यात्री इत्यर्थः। निशी. ७० गम्यो वा करादीनामिति ग्रामः। सन्निवेशविशेषः। आव. आ। ५९३। ग्रसति बुद्ध्यादीनगुणानिति यदिवा गम्यः- गाममारी-ग्राममारी। भग. १९७१ शास्त्रप्र-सिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः। जीवा० | गामरहमयहरो- ग्रामराष्ट्रमहत्तरः। आव०७३८५ ४०, २०९। ग्रसति बुद्ध्यादीन्गुणानिति ग्रामः, यदि वा । गामरोग- ग्रामरोगः। भग० १९७५ गम्यः शास्त्र-प्रसिद्धानामष्टादशकराणामिति ग्रामः। गामवधो- गामस्स वधो गामवधो ग्रामघातेत्यर्थः। निशी. प्रज्ञा० ४७। ग्रामः- इन्द्रियम्। दशवै० २६७। ७०आ। शालिग्रामादिः। दशवै० २८१। इन्द्रि-यसमूहः। भग० १०१। | गामवाह- ग्रामवाहः। भग० १९९। समूहः। ज्ञाता० ११ ग्रसति बुद्ध्यादीन्गुणानिति ग्रामः। गामा- ग्रामाः-वृत्त्यावृत्ताः कराणां गम्या वा। जम्बू. दशवै०१४७ १२११ ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव, तत्र गामउड-गाममहत्तरो। निशी० २०९ अ। ग्राममहत्तरः। करादिगम्य ग्रामाः। स्था०८६) बृह. २१२ आ। गामाणुगाम- एकस्माद् गामउडपुत्तो- ग्रामकूटपुत्रः। आव० २०२। ग्रामादवधिभूतादुत्तरग्रामाणामनतिक्रमो ग्रामानुग्रामं गामकंटए- इन्द्रियं तद्दुःखहेतुः कण्टकः स ग्रामपरम्परा। स्था० ३१०। एक ग्रामाल्लघ्पश्चाद् ग्रामकण्टकः। दशवै. २६७। ग्रामः-इन्द्रियग्रामस्तस्य भावाभ्यां ग्रामोऽणग्रामः। स्था० ३१०| मासकप्पो जत्थ कण्टका इव कण्टकाः ग्रामकण्टकाः-प्रतिकूलशब्दादयः। कतो ततो जं गम्मइ तं गामाणुगामं। निशी. १९१ अ। उत्त० ११२। ग्रामकण्ट-काः- नीचजनरूक्षालापाः। आचा० ग्रामानुग्रामम्। आव० १४२ ३११ गामाणगामो-मासकप्पविहारगामाओ गच्छतो अण्णो गामघाए- ग्रामघातः। ज्ञाता०२३६। अणुकूलो गामो गामाणुगामो। निशी० २१९ अ। गामघाय- ग्रामघातः। सूत्र० ३०९। गामायं-ग्रामाकं नाम सन्निवेशः। आव. २०८। गामतेणो- गामतो हरंतो गामतेणो। निशी० ३८ आ। | गामायारा- ग्राम्याचाराः-विषयाः। आव० १३४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [113] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गामिए-ग्राममहत्तरः। निशी. १४१ आ। गालणं- गालनं-छाणनम्। प्रश्न. २५ गामिया- ग्रामिकाः-ग्रामधर्माश्रिताः। आचा० ३०८। घनमसृणवस्त्रार्द्धान्तेन गालनम्। आचा०४२॥ गामिल्लय- ग्रामेयकः। आव० ४३५ गालणा-यैरूपायैर्गर्भो द्रवीभूय क्षरति। विपा०४२ गामील्लए-ग्रामेयकः। आव०५५४१ गालियदहियस्स- गालितस्य दनः। आव०६२४ गामेयगा- ग्रामेयकाः। उत्त. २६३। गालेमाणे- गालयन-अतिवाहयन। भग० ४६२ गामेल्लग-ग्रामेयकः-ग्रामवास्तव्यः। दशवै०५९। आव० गालो-वेगलो। निशी०६८ आ। १०३ गाव-बलीवर्दसुरभयः। प्रश्न. ३७) गामेल्लगत्तणं- ग्रामेयकत्वम्। आव०७२११ गाविकुविय- गोगवेषकः। मरण० । गामेल्लया- ग्रामवासीजनः। ओघ०४६। गाविमग्गो- गोमार्गः। आव०४१९। गामेल्लयपारद्धो- ग्रामेयकप्रारब्धः। आव० ३५१ गावी- गौ-त्रिपृष्ठवासुदेवनिदानकारणम्। आव० १६३। गायः- गात्रं-ईषादि। जीवा. २३१| कायः। दशवै०११७ गास- ग्रासं-कवलम्। उत्त० ११७ कायः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न.१४॥ गासैषणा- ग्रासैषणा। आचा० २८३। गायकम्म- गात्रकर्म गाह- गाथा। आव० ७९३। ज्ञाता० ३८१ महान् निर्बन्धः। हस्तादिगावचम्पनरूपमङ्गपरिकर्म। प्रश्न. १३७। बृह. २१ अ। ग्राहः-जलजन्तुविशेषः। प्रश्न०७ ग्राहःगायगंठिभेय- गात्रान्-मनुष्यशरीरावयवविशेषान् स्थूलदेहो जलजन्तुविशेषः। आव० ८१९। कट्यादेः सकाशाद् ग्रन्थिकार्षापणादिपोट्टलिकां गाहग- ग्राहक आचार्यः, ग्राहयतीति ग्राहकः, ग्राहको नाम भिदन्ति-आच्छिन्द-न्तीति गात्रग्रन्थिभेदाः। ज्ञाता०२।। शिष्यः गृण्हातीति ग्राहकः। व्यव० २५७ अ। ग्राहकंगायदाहं-जत्थ गाआ इज्झंति तं गायदाहं भण्णति। प्रतिपाद्यस्य विवक्षितार्थप्रतीतिजनकम्। प्रश्न. १२० निशी. १९२ आ। ग्राहकः-शिक्षयिता गुरुः। उत्त० १४५। गुरुः। आव० ३४१| गायाई- गात्राणि भरतशरीरावयवाः। जम्बू. २७५ गाहणगिरा- ग्राहयतीति ग्राहिका, ग्राहिका चासौ गीश्च गारं-अगारं गेहम्। स्था० ३७१। ग्राहकगीः। आव० २३७ गारत्थ- गृहस्थः -गृहधर्मवान्। दशवै०१० गाहगसुद्धं- ग्राहकशुद्धं-यत्र ग्रहीता चारित्रगुणयुक्तः। गारत्था-गिहत्था। निशी. ४६ आ। विपा. ९२ गारत्थिए- गृहस्थाः-पिण्डोपजीविनो धिग्जातिप्रभृतयः। | गाहण- ग्राह्यते शिष्य एतदिति बाहुलकात् कर्मण्यनट आचा० ३२४ ग्राहणं-आचारादिसूत्रं आसेवना। व्यव० २२९ । गारत्थियवयण-अगारं-गेहं तवृत्तयो अगारस्थिता- गाहवतीओ-सुकच्छमहाकच्छविजयोर्विभागकारिणी गृहिणः तेषां-यत्तदगारस्थितवचनम्। स्था० ३७०। नदी। स्था० ८० गारव- गौरवं-आदरः। प्रश्न. ३५) गौरवं-यद्गौरवनिमित्तं | गाहा- गाथा-प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य गानाद् गाथा, वन्दते तत्, कृतिकर्मणि चतुर्दशो दोषः। आव० ५४४।। गाथा वा तत्प्रतिष्ठाभूतत्वादीत मेरुनामसूत्रे गाथा गरो वः गौरवः। आव० १७९। गौरवः गमनपर्यायः। श्लोकश्च। सम० ३२ गीयत इति गाथा, सा स्था० ४५३। लब्धिमाहात्म्यम्। बृह. २६० अ। चेहार्थाद्धर्माभिधायिनी सूत्र-पद्धतिः। उत्त. ३८५। गीयतेपरिवारर्धि-धर्मकथाद्यष्टप्रकारोऽभिमानः। व्यव. २५७। शब्दयते स्वपरसमयस्वरूपम-स्यामिति गाथा गौरवः गर्वः स्था०४९६) सूत्रकृताङ्गस्य षोडशमध्ययनम्। उत्त०६१४। गाहा-घरं गारवा-गौरवाणि-ऋद्धिरससातगौरवरुपाणि। प्रश्न. ९७। गिहं वा। व्यव. २८३ अ। गाहा गेहं तत्र ऋतौ-ऋतुबद्धे गारविए- गर्वेण लब्धिसम्पन्नोऽहमितिकृत्वा एकाकी काले वर्षाकाले वा पर्युषितः। व्यव० २८३ अ। गाथाभवति। ओघ. १५० सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कंधे षोडशमध्ययनम्। आव०६५१| गारी-अगारी। ओघ० ९९। गृह्णन्ति ग्राहाः जलचरविशेषाः। उत्त०६९९। गाथा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [114] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] सूत्रकृताङ्गस्य षोडशमध्ययनम् । उत्त० ६१४ । संस्कृतेरभाषानिबद्धा आर्या । जम्बू० १३७ । प्रतिष्ठा निश्चितिश्च । आव० ८०४ गीयत इति गाथा - छन्दो विशेषरूपा। उत्त० ३३४ | गृहम् । बृह० ८६ अ । ग्राहाःजलचरपञ्चेन्द्रियति-र्यग्योनिकायां तृतीयो भेदः । प्रज्ञा० ४३ | विक्षिप्ताः सन्त एकत्रमीलिता अर्था यस्यां सा गाथा, अथवा सामुद्रेण छन्दसा वा निबद्धा वा गाथा | गीयते-पठ्यते मधुराक्षरप्रवृत्त्या गायन्ति वा तामिति गाथा | सूत्र. २६२ गाहावइ- गृहपतिः- गृहस्वामी बृह० ८६ अ गृहपतिःगृही। भग० २२८ गृहपतिः ऋद्धिमद्विशेषः । उपा० १ गृहपतयः-कुटम्बनायकाः । भग०५०२ गाहावइकरंडग- गृहपतिकरण्डकःश्रीमत्कौटुम्बिककरण्डकः स्था० २७२॥ गाहावइकुंडे - गाहावत्या अन्तरनद्याः कुण्डं प्रभवस्थानं ग्राहावतीकुण्डनाम कुण्डम् । जम्बू• ३४५॥ गाहावइकुलं– गृहपतिकुलं-पाटकं रथ्यां ग्रामादिकं वा। आचा० ३३७॥ गृहपतिकुलं- गृहिगुहम्। भग० ३७४॥ गाहावइदीवे- ग्राहवतीद्वीपः । जम्बू० ३४६ | गाहावइरयण- गृहपतिरत्नं-कौटुम्बिकरत्नम् । जम्बू. आगम- सागर - कोषः (भाग:-२ ) २४३| गाहावई - गृहपति:- माण्डलिको राजा भग० ७००% गृहस्थः। पिण्ड० ४| गृहपतिः । आचा० ३३५। गृहस्य पतिः गृहपतिः, सामान्यतः प्राकृतपुरुषः सूत्र. ३६४५ ग्राहाः-तन्तु-नामानो जलचरा महाकायाः सन्त्यस्यामिति ग्राहावती महा नदी जम्बू. ३४६६ गाहावतिरयणे- गृहपतिः- कोष्ठागारनियुक्तः । स्था. ३९८ गाहाविया कृष्ठा आव०६८७ गाहासोलसग गाथाषोडशकादीनि स्थितिसूत्रेभ्य आरात्सप्त सूत्राणि, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथम श्रुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि तेषां च गाथाभिधानं षोडशमिति गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि। सम• ३२२ गाथाषोडशकः- गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यस्मिन् श्रुतस्कन्धे सः, सूत्रकृता ङ्गस्याद्यः श्रुतस्कन्धः । सूत्र० ८ गाहासोलसमे प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य गानाद् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] गाथा, सूत्र- कृताङ्गस्य षोडशमध्ययननाम। सम० ३१॥ गाहिंति प्रज्ञापयन्ति। बृह० १९४ आ गाहिज्जति ग्राह्यन्ते आव० १०१। गाहिति ग्राहयति । आव• ३४३१ गाहिया- ग्राहिका - अक्लेशेनार्थबोधिका । औप० ७८ | गाहीकया- गाधीकृताः पिण्डीकृताः । सूत्र. २६ गाति - भावयंति। निशी० ३३८ आ । गाहेहिंति - ग्राहयिष्यन्ति प्रापविष्यन्ति स्थलेषु स्थापयिष्यन्तीत्यर्थः । भग० ३०९ | गिज्नंति- गृध्यन्ति प्राप्तस्यासन्तोषेणाप्राप्तस्यापरापरस्याका इक्षानन्तो भवन्तीति । स्था० २९३ | गिज्झ गृद्धः प्रतिबद्धः। दशकै २६८ गिज्झवओ - ग्राह्यवाक्यः । आदेयवाक्यः । आव० २३६ । गिज्झह- गृध्यत-गुद्धिं प्राप्तभोगेष्वतृप्तिलक्षणां कुरुत । ज्ञाता० १४९| गिज्झिचव्वं- गर्द्धितत्यं अप्राप्तेष्वाकाङ्क्षाकार्या । प्र० १५६ | गिज्झु ग्राह्यः संवेद्यः । उत्तः ४०२१ गिणिभमेत्तं उदाहरणं निशी. २६९ आ गिण्हमाणे बाह्यादावगे गृण्हन्। स्था० ३२७॥ गृण्हन्ग्रीवा-दाववलम्बयन्। स्था• ३५३॥ गिण्हित्तए यहीतुं आदातुं विधातुमित्यर्थः । ज्ञाता० १४९| गिण्हियव्वे- गृह्यते-उपादीयते कार्यार्थिभिरिति ग्रहीतव्यः कार्यसाधक इति । उत्तः ६० गिद्ध - गृधः पक्षिविशेषः, गृद्धो वा मांसलुब्धः श्रृगालादिर्वा । भग० १२०॥ गृद्धः प्राप्ताहारे आसक्तोऽतृप्तत्वेन वा तदाका इक्षावान्। भग० ६५० विशेषाकाङ्क्षावान् । भग० २९२ । आकाङ्क्षावान् । ज्ञाता० ८५ मूर्च्छितः । विपा० ३८१ मूर्च्छितः, कांक्षावान् । आव १८७। गृद्धं प्राप्तातृप्तिः स्था० १४५१ गिद्धपट्ठ- गृधैः स्पृष्टं-स्पर्शनं यस्मिंस्तद् गृध्रस्पृष्टं, दिवा गृधाणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरिकरभा-दिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्षोर्यस्मिंस्तत् गृध्रप्रष्ठम् । स्था० ९३ । गिद्धपठाण- गृधपृष्ठस्थानानि यत्र मुमूर्षवो [115] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गृध्रादिभक्षणार्थ-रूधिरादिदिग्धदेहा निपत्यासते। आचा० | सायाह्नकालभावीप्रकरणविशेषः। बृह० ९५आ। ४१११ गिरिणगरं-गिरिनगरं नगरविशेषः। आव० ५२ गिद्धपिट्ठ- गार्द्धपृष्ठ-अपरमांसादिहृदयन्यासाद गिरिनगरं-परदारगमने प्रम्। आव० ८२३। गृद्धादिनाऽऽत्म-व्यापादनम्। आचा० २६०| गृधैः स्पृष्टं- | गिरिणयरं-गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरम्। अनुयो० १४९। स्पर्शनं यस्मिंस्तत् गृघ्रस्पृष्टम्, यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं । | गिरितडगं-गिरितटकं सन्निवेशविशेषः। उत्त० ३७९) पृष्ठमुपलक्षणत्वाद्दरादि च मर्त्यस्मिंस्तद् गृध्रपृष्ठम्। | | गिरिपक्खो-गिरिपक्षः-पर्वतपार्श्वः। औप०८८1 उत्त० २३४। गिरिपडणे- पर्वतपातः। ज्ञाता० २०२१ गिद्धपिट्ठमरणं- गृध्रपृष्ठमरणं, मरणस्य चतुर्दशो भेदः। | गिरिपुरं- नगरविशेषः। उत्त० ३७९। सम० ३३। उत्त० २३० गिरिप्पवात-गिरिप्रपातः। आव० ३५०| गिद्धाइभक्खणं- गृद्धाः प्रतीतास्ते आदिर्येषां गिरिफुल्लिगा-नगरीविशेषः। निशी. १०० आ। शकुनिकाशिवा-दिनां तैर्भक्षणम् गम्यमानत्वादात्मनः। | गिरिफुल्लिय-गिरिपुष्पितम्, मानपिण्डदृष्टान्ते नगरम्। तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानु प्रवेशेन च | पिण्ड० १३३, १३४ गृध्रादिभक्षणम्। उत्त० २३४१ गिरिमह- पर्वतमहः। आचा० ३२८१ गिद्धापिट्ठ- गृध्रस्पृष्टं गृधैः स्पर्शनं कडेवराणां मध्ये गिरिराया-सर्वेषामपि गिरीणाम्च्चैस्त्वेन निपत्य गृधैरात्मनो भक्षणमित्यर्थः। ज्ञाता० २०५। तीर्थकरजन्माभिषे-काश्रयतया च राजा गिरिराजः, गिद्धि- गृद्धिः-गाद्ध्यममत्वं वा। सूत्र० १७१। मेरुनाम। जम्बू. ३७५। गिरिराजः, सूर्य. ७८1 गिद्धी-गृद्धिः-अभिकाइक्षा। स्था० ४४७ गिरिविडकादि-आभरणविशेषः। आचा० ३९४। गिम्ह- ग्रीष्मः-उष्णकालः। ओघ. २१२। ग्रीष्मः- गिरिसरिउवला-गिरिसरिद्पला-गिरिसरित्पाषाणाः। ज्येष्ठादिः। भग०४६२। ग्रीष्मः-उष्णकालः। भग. २११। आव०७५ ग्रीष्मः-षष्ठः ऋतुः। सूर्य. २०९। वैशाख-ज्येष्टौ। ज्ञाता० | गिरिसिद्धो-गिरिसिद्धः। दशवै.४४। १६१। ग्रीष्मकालः-उष्णकाल इत्यर्थः। सूर्य. ९१| गिरी-जत्थ पव्वए आरूढेहिं अहो पवायट्ठाणं दीसइ सो गिम्हा- ग्रीष्मा-उष्णकालामासाः। जम्बू. १५० गिरी भण्णइ। निशी. ५२ अ। गिरा-गीः-वाणी। बृह० २५५ आ। | गिला- ग्लानिः। व्यव० १८५अ। गिरि- गिरयः-गृणन्ति शब्दायन्ते जननिवासभूतत्वेनेति | गिलाइ-ग्लायति ग्लानो भवति। भग० १२६। ग्लानिःगिरयः-गौपालगिरिचित्रकूटप्रभृतयः। भग. ३०७ गिरि- | खेदः। भग. २३२॥ शब्देन क्षुद्रगिरयो ग्राह्याः। जम्बू० २२३। गिरयः-दुर्गा- । | गिलाए– ग्लानिः-खेदः। भग० २१९। दिकरणार्थ जनावासयोग्याः पर्वताः। जम्बू. २१० गिलाण- ग्लानः। आव० ७८४१ ग्लानः-पञ्चमः कुडङ्गः। गृणन्ति-शब्दायन्ते जनं निवासभूतत्वेनेति गिरयः। आव० ८५६। अनीरुजः। आव० ८४३। क्षीणहर्षः, अशक्त जम्बू. १६८ गिरिः-महापाषाणः। औप०८८१ इत्यर्थः। ज्ञाता०१८० अपगतप्रमोदः। सूत्र. १३७। गिरिकडग-गिरिकटकः-पर्वतनितम्बः। ज्ञाता० २३८५ ग्लानो नाम रोगाभिभूतः। दशवै. ३१| मन्दः। ओघ० १४ गिरिकण्णइ-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ जरादि-गहितो विमुक्को वा। निशी. १४ आ। गिरिगिह-गिरिगृह-पर्वतोपरि गृहम्। स्था० २९४। प्रश्न. विकृष्टतपसा कर्तव्यताऽशक्तो वातादिक्षोभेण वा १२७ भग. २०० आचा० ३६६| ग्लानः। आचा० २८१। मन्दोऽपगतहर्षो वा। उत्त० २४६। गिरिजण्णयं-अवरण्हसंखडी। निशी० १५अ। गिलाणभत्तं-गिलाणस्स दिज्जंति तं गिलाणभत्तं। गिरिजत्ता- गिरियात्रा-गिरिगमनम्। ज्ञाता०४६। निशी. २७२आ। ग्लानभक्तं-ग्लानस्य नीरोगतार्थं गिरिजन्नो-गिरियज्ञः-उस्सरं मत्तवालसंखडी वा। भिक्षुक-दानाय यत् कृतं तत् भक्तम्। भग० २३१। भग० गिरियज्ञः-कोंकणादिदेशेष ४६७। ग्लानः सन्नारोग्याय यद ददाति तत् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [116] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ग्लानभक्तम्। ज्ञाता०५२ औप० १०१। ग्लानो उत्त० ६६४। गृहवासं-गृहावस्थानम्। उत्त० ६६४। रोगोपशान्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद् दीयते तत्। गिहापत्तणं- गृहेष्वागमनं गहापतनम। जीवा० ३४४ स्था०४६० गिहाययणं- गृहेषु तेषामायातनं गमनं गृहायतनम्। गिलायं- ग्लानं-पर्युषितम्। बृह. ३१२ आ। जीवा० २७९। गिलायंति- ग्लायन्ति-श्राम्यन्ति। स्था० १३५ गिहि- गृही-भद्रकः। ओघ० ५७, १०५ असंयतः। दशवै. गिलासणिं-भस्मको व्याधिः। आचा. २३५। २३६। सकलत्रः। दशवै० २६० गिलासिणि-रोगविशेषः। निशी. १४८ अ। गिहिचेतियं-पडिमा। निशी० ६९ आ। गिल्लि- वाहनविशेषः। उत्त०४३८ भग० २३७। हस्तिन | गिहिजोग-गृहियोगः-गृहसम्बन्धं तद्वालग्रहणादिरूपः उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव। अनुयो० १५९। | गृहि-व्यापारो वा प्रारम्भरूपः। दशवै० २३१। गिहीहिं समं जीवा० २८१। पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता डोलिका। जम्बू० १२३ जोगं-संसग्गि, गिहिकम्मं जोगो वा। दशवै. १२२१ गिल्ली- पुरुषद्वयोक्षिप्ता झोल्लिका। सूत्र० ३३०। भग० | गिहिणिसेज्जा-पलयंकादी। निशी०६५। રરછ| गिहिधम्म- गृहस्थधर्म श्रेयानित्याभिसंधाय गिल्लीओ-हस्तिन् उपरि कोल्लराकाराः। भग० ५४७। तद्यथोक्तचारिणो गृहिधर्माः। अनुयो० २५। गृहिधर्म गिहंतरं-गिहं चेव अंतरं गिह। दशवै० ५१। एव श्रेयानित्यभिसन्धेर्दैगिहतरनिसिज्जा- गृहान्तरनिषद्या-गृहमेव गृहान्तरं वातिथिदानादिरूपगृहस्थधर्मानुगताः। औप० ९। गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्। दशवै० ११७ गृहिधर्मा-गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धाय गिह- गृह-पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयः। दशवै० २७३। गृह- | तद्यथोक्तकारी। ज्ञाता० १९५५ शरणं, लयनम्। जीवा० २६९। सकुड्डंगिह। निशी० २६५ | गिहिभायणं- गृहिभाजनं स्थाल्यादिः। सम० ३६| अ। वणरायमंडियं भवणं तं चेव वणविवज्जियं गिह।। गिहिमत्तो-घंटीकरगादि। निशी०६४ आ। गृहिमात्रंनिशी० ७० अ। गृहं-अस्मदगृहकल्पम्। जीवा० २७९| गृहस्थभाजनम्। दशवै. १९७५ गृहं-अपवरकादिमात्रम्। स्था० २९४१ अवस्थित | गिही- गृद्धि-अभिष्वङ्गलक्षणा। आव०६५८१ अधाभद्रकः। प्रसादरूपम्। उत्त० ३६८1 गृह-सामान्यवेश्म। उत्त. निशी. १४७ अ। રૂ૦૮|| गिहेलुगं- गिहेलुकः-उम्बरः। आचा० ३९७। गिहकम्म- गृहनिष्पत्त्यर्थं कर्म गृहकर्म गीअं– गीतिका-पूर्वार्द्धसद्दशाऽपरार्धलक्षणा आर्या। जम्बू. इष्टकामृदानयानादि। उत्त०६६५ १६८५ गिहत्थ- गृहस्थः-गृहलिंगे तिष्ठतीति गृहस्थः। व्यव० । | गीई-गीतेन सूत्रेण केवलेन कम्यक् पठितेन २७। गीतमस्यास्तीति गीति। बृह० ११२। गिहत्थसंसहूं- गृहस्थसंसृष्टम्। आव० ८५४। गीतत्थो- गृहीतार्थ। निशी० ७९ आ। गिहदुवारं- अग्गदारं पावेसितं तं गिहदुवारं भण्णति। गीतयशसः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० निशी. १९२ अ। गीतरतयः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७०| गिहमुहं-अग्गिमालिंदयो छद्दारुआलिंदो एतभ दो वि गीतरती- गन्धर्वेन्द्रः। उत्त० ४२५। स्था० ८५। गिहमुहं । निशी० ११२। गीतिया- गीतिका-गानविशेषः। आ० ५५७। गिहवइ- गृहपतिः धनाधिपः। आव० २९४| गृहपतिः गीय-गीतं-स्वरग्रामानगतगीतिकानिबद्धम्, शब्दितम्। अवग्रहे तृतीयो भेदः। आचा०४०२। गृहपतिः उत्त० २८७ गीतं-गानमात्रम्। भग० ३२३। ज्ञाता० ३८५ सामान्यमण्डलाधि-पतिः। बृह. १०८ अ। रागगी-त्यादिकम्। जम्बू० ३९| गिहवती-शय्यादाता। स्था० ३४० गीयजसे-गीतयशः-उत्तरनिकाये अष्टमो व्यन्तरेन्द्रः। गिहवास- गृहमेव वा पारवश्यहेत्तया पाशः गृहपाशः। भग. १५८१ स्था० ८५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [117] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गीयत्थ- गीतार्थः १९६] वस्त्रपात्रपिंडैषणाध्ययनादिच्छेदसूत्राणि च गुंजिए- गुञ्जितं-निर्घातविकारो गुञ्जावद्गुञ्जितो सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो वा येन सम्यगधीतानि स । महाध्वनिः। आव० ७३६। गीतार्थः। व्यव. २४ आ। स्वयं व्यवहारमवबुद्ध्यते | गुंजितं-निर्घातः-तस्सेव विकारो गुंजावत्। गुंजमानो प्रतिपदयमानो वा प्रतिपदयते व्यवहारं सः गीतार्थः। महाध्वनिः। निशी. ७०आ। व्यव० ९आ। सूत्रार्थ-तद्भयविदः, अन्यथा गुंजीवल्ली-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा. ३२१ हेयोपादेयपरिज्ञानयोगात् ते एतादृशा एवंविधा गीतार्था | गुंज्जित-गुंजावत् गुंजमानो महाध्वनिगुंजितम्। व्यव० गणावच्छेदिनः। व्यव० १७२ अ। २४१ आ। गीयरइपिय-गीतरतिप्रियः-गीतेन या रती-रमणं क्रीडा सा | गुंठा-मायाविनः। व्यव. २५५ गुंठा-माया। व्यव. २५६। प्रिया येषां गीतरतयो वा लोकाः प्रिया येषां ते। औप० ९२ | गुंठो- वाहणा गुंठादि गुंठो घोडगो। निशी० ३७ आ। गीयरई- गीतरतिः-दक्षिणनिकाये अष्टमो व्यन्तरेन्द्रः। घोटको महिषो वा। बृह० १२५आ। भग० १५८१ गुंडिज्जइ-गुण्डयते। आव० ६२५१ गीयसई- गीतशब्दं-पञ्चमादिकृतिरूपम्। स्था० ४०६। | गुंडिय- गुण्डित-परिकरिता। प्रश्न. ४७। गुण्डितः। ज्ञाता० गीया-गीतार्था-वृषभाः। व्यव० २५१| ६१। गुंगुयंता-कान्दिशीकाः। उत्त. १७९| गुंद- वृक्षफलविशेषः। आव० ८२८१ गुंजंत- गुञ्चन्तः शब्दविशेषं विदधानाः। जीवा. १८८१ गुग्गुलभगवं- गुग्गुलभगवान्। आव०७१२। शब्दायमानाः। ज्ञाता०२७। गुच्छ-वृन्ताकीप्रभृतिः। जीवा० २६, १८८1 गुच्छः-वृन्तागुंज-गुञ्जा-रक्तिका। जम्बू० ३४। कीसल्लकीकर्पास्यादिकः। आचा० ३०| पत्रसमूहः। भग. गुंजद्धरागे- गुञ्जा तस्या अर्धरागो गुजार्धरागः। प्रज्ञा० ३७। जम्बू. २५। गुच्छाः -वृन्ताकीप्रभृतयः। भग० ३०६| ३६१ जम्बू. ३०| जीवा० २६। गुंजा- गुञ्जा-भम्मा। आचा०७४। आतोद्यविशेषः। प्रश्नः | | गुच्छगलइअंगुलिओ- अङ्गुलिभिातो-गृहीतो गोच्छको ५१| चणोठिया। अनुयो० १५५ येन सोऽयममुलिलातगोच्छकः। उत्त० ५४०। गुंजालिका-सारिण्येव वक्रा। अन्यो० १४९। गुच्छय- गोच्छकं-पात्रकोपरिवर्त्यपकरणम्। उत्त० ५४० गुंजालिकाः- दीर्घा गम्भीराः कुटिलाः लक्ष्णाः | गुच्छा- वृन्ताक्यादयः। औप० ८। गुच्छाःजलाशयाः। आचा० ३८२ वृन्ताकीप्रभृतयः। प्रज्ञा० ३०। ज्ञाता०२८। गुंजालिया- गुजालिकाः वक्रसारिण्यः। भग० २३८ औप० | पल्लवसमूहाः। ज्ञाता० २८॥ ९३| वक्रा नदी। प्रज्ञा० २६७। वक्रसारणी। प्रश्न०६० |गच्छिय-सजातगच्छम्। भग० ३७ वक्रसारिणी। ज्ञाता०६७ नदय एव वक्रा गुञ्जालिकाः। | गुज्झ- गुह्यं-रहस्यम्। विपा० ४०| प्रज्ञा० ७२| अन्नेऽन्ने कवाडसंजुत्ताओ गुंजालिया लज्जनीयव्यवहारगोपि-तम्। ज्ञाता० १२। ग्ह्य भन्नंति। निशी. ७० आ। गोपनीयत्वात्, अब्रह्मणस्य चतुर्विं-शतितमं नाम। गुंजालियाओ- सारण्यस्ता एव वक्राः गुञ्जालिकाः। प्रश्न०६६। गुह्यःबहिर्जनाप्रकाशनीयः। राज०११६| जम्बू०४१। गुह्य-लज्जनीयव्यवहारगोपनम्। भग०७३९। गुंजावाए- गुजा-भम्मा तदवत् गुञ्जन् यो वाती स गुज्झक्खिणी-स्वामिनी। बृह० १७१ आ। गुञ्जावातः। आचा०७४। यो गुञ्जन्-शब्दं कुर्वन् वाति | गुज्झगं- गुह्यकम्। ओघ० १६०।। गुञ्जावातः। जीवा० २९। प्रज्ञा० ३० गुज्झगा-गुह्यकः। भवनवासिनः। दशवै० २४९। गुंजावाता- ये गुञ्जतो वान्ति। उत्त० ६९४। | गुज्झखगो- गुह्यकः-देवः। आव० ६३४। देवविशेषः। गुंजावाय- गुञ्जन् सशब्दं यो वाति स गुञ्जवातः। भग० | पिण्ड० १३१। वैमानिकः। आव० ८१३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [118] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २२३॥ गुज्झदेसो- गुह्यदेशः। जीवा० २७० पञ्चाश्रवविरम-णादि गुणकरणमुच्यते। उत्त० २०५। गुज्झाणुचरिअ- गुयानुचरितं सुरसेवितमित्यर्थः। दशवैः | गुणकरो- गुणकारः-गुणाः-ज्ञानादयस्तत्करणशीलः, भाव-करणविशेषः। आव०४९९। गुट्ठ-स्तम्बः। उपा०२२ गुणकारोत्ति- गुणकारस्तेन यत्सङ्ख्यानं तत्तथैवोच्यते। गुट्ठी-गोष्ठी-दत्तवासुदेवनिदानकारणम्। आव० १६३। तच्च प्रत्युपन्नमिति लोकरूढम्, अथवा यावतः कुतोऽपि गुडपसात्थं- गुडशस्त्रं-नगरविशेषः। आव०४१११ तावत एव गुणकराद्यादृच्छिकादित्यर्थः। स्था० ४९७५ गुडा-तनुत्राणविशेषः। प्रश्न० ४७। महॉस्तनुत्राणविशेषः। | गुणचंद- गुणचन्द्रः-चन्दावतंसकराज्ञः प्रियदर्शनाराज्यो विपा०४६ ज्येष्ठः पुत्रः। आव० ३६६। आधाकर्मानुमोदनायां गुण-गुण्यते-भिद्यते विशेष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः। श्रीनिलयनगरे राजा। पिण्ड० ४९। आधाकर्मपरिभोगे आचा. ९९। आत्मा वा शब्दादयपयोगानन्यत्वाद् गुणः। शतमुखपरे श्रेष्ठी पिण्ड०७४। गोचरविषयोपयुक्तायां आचा. ९९। रसना। आचा० ३६३। स्वभावः सागरदत्तश्रेष्ठितः। पिण्ड० ७८ यथोपयोगस्वभावः। सम० ११२। गुणशब्दोंऽशपर्यायः। उत्कृष्टमालापहृतविवरणे साधुः। पिण्ड० १०९। अनुयो० १११। ज्ञानादिः-रूपादिश्च। अनुयो० १०५। मानपिण्डोदाहरणे क्षुल्लकः। पिण्ड० १३४। प्रज्ञा० ४४१। ज्ञानम्। उत्त०७० आचा० ८० अनुयो० २६९। | गुणचूडः- गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तश्रेष्ठीपुत्रः। प्रशस्तता। ज्ञाता०१२ कटिसूत्रम्। ज्ञाता० ३५॥ पिण्ड० ७८ कान्तिलक्षणः। ज्ञाता० ३५क्षान्त्यादिः। आव०४९। गुणहीए-गुणार्थीविविधार्थसंवादनलक्षणः। सम० १२४। उत्तरगुणो रन्धनपचनप्रकाशातापनादयग्निग्णप्रयोजन-वान्। भावनादि-रूपः। प्रज्ञा० ३९९। स्वाध्यायध्यानादिः। आव० आचा० ५३ २६५। कडीसुत्तयं। निशी० २५४ आ। गुणतत्तिला– गुणाग्राहका। नन्दी०६४। निरवद्यानुष्ठानरूपः। आचा० ३३। सौभाग्यादिकः। | गुणदेशः- गुणोद्देशा। प्रश्न. १०२॥ भग० ११९। गुणः-गुणवतम्। भग० १३६| गुणना-परावर्तना। बृह० २३३ अ। प्रियभाषित्वादिः। ज्ञाता०४३। सौन्दर्यादिः। ज्ञाता० | गुणनिप्फन्नं- गुणनिष्यन्नम्। ज्ञाता०४१। २२०। संयमगुणः। भग० १३६। कार्यं दाक्षिण्यादिः। भग० | गुणभूई- गुणभूतिः-अचिन्त्या गुणसम्पत्। आव० २३७। १४८ निर्जराविशेषः। ज्ञाता० ७३] गुणः-शब्दादिकः। गुणमह- गुणैर्महान्-उपशमकः। आव० ८३। आचा०६२। गुणः-ज्ञानादिः। सूर्य ५। अनन्तगम- गुणमित्रः-आधाकर्मण अभोज्यतायां उग्रतेजसः पुत्रः। पर्यायवत्त्वमुञ्चारणं वा। सूत्र० ७। मूलोत्तरगुणभूतः। | पिण्ड०७१। सूत्र० ४००| उपकारः। प्रश्न० ३६। गुणव्रतम्। औप० ८२।। | गुणयारो- गुणकारः। सूर्य. ११४॥ सहवर्ती। औप. ११७। पर्यायः विशेषः। धर्मश्च। प्रज्ञा. | गुणरयणं- गुणरत्नं तपःकर्मः। अनुयो० १। १७९। रक्तसूत्ररूपः। जीवा. २०५। क्षान्त्यादिः। जीवा. गुणरत्नसंवत्सराभि-धस्तपोविशेषः, तपोविशेषः। २७४। वर्णादिः सहभागी धर्म एव। प्रश्न. ११७ अन्त०३, १८ ऐहिकामुष्मिकोपकाराः। प्रश्न० १२३। निर्विभागो भागः। | गुणरयणचच्चिका- गुणरत्नचाकचिक्याःजम्ब०१२९| धम्मेः। स्था० ३३४| गणाः-संयमगणाः। गुणरत्नमण्डिताः। चतु निर० २। गणाः-रूपादयः। उत्त० ५५७। गणं-गुणवतम्। गुणरयणसंवच्छरं- गणानां-निर्जराविशेषाणां रचनं करणं भग० ३२३। संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तद् गुणओ-गुणतः-कार्यतः-कार्यमाश्रित्येत्यर्थः। स्था० ३३३ गुणरचनसंव-त्सरम्, गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणकरणं- गुणानां करणं गुणकरणं, गुणानां कृतिः। । गुणरत्नः संवत्सरो यत्र यद् गुणरत्नसंवत्सरं तपः। भग० आव० ३६६। तपकरणं-अनशनादि संयमकरणं च १२५ ज्ञाता०७३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [119] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गुणवंतो- गुणवन्तः-पिण्डविशुद्ध्यादयुत्तरगुणोपेताः। प्रभावाः। सम० १२५ साधनभता उपकारकाः। उत्त आचा० ३५० ४१९। पिण्डविशुद्ध्यादयः ।उत्त. १६७। विपा०४५१ गुणवती- गुणचन्द्रस्य राज्ञी। पिण्ड० ४९। सन्तः-मुनयः पदार्था वा। आव०७६०। रसादिकाः गुणविरियं-जं ओसहीण संयमगुणा वा। आव० ८५०| कार्याणि। प्रश्न०७४। तित्तकडुयकसायअंबिलमहरगुणताए गुणव्रतानि। सम० १२० भग० ३६८। महर्द्धिप्राप्त्यादयः रोगावणयणसामत्थं एतं गुणविरियं। निशी. १९ । शकन्ध्वादिदर्शनात्। सम० १५७। पर्यवाः धर्माः विशेषा गुणव्वत- गुणवतः-दिग्व्रतोपभोगपरिभोगव्रतलक्षणः। वा। भग० ८८९। गुणा-करुणादयः। औप० ३३। स्था० २३६। क्षान्त्यादयः। जम्बू. ११३। गुणाःगुणशतकलितः- प्रश्नयादिगणोपेतः सूरिः। आचा० ३। सप्तविंशतिरनगारगुणाः। प्रश्न. १४५१ गुणशेखरः- गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणागुणे- ऋजुता। आचा० ८६। सागरदत्तश्रेष्ठिपुत्रः। पिण्ड० ७८१ गुणाणं विराहणा- गुणानां विराधना गुणसंकर- गुणसमुदायरूपः। ज्ञाता० १६८१ हिंस्यप्राणिगतगुणानां हिंसकजीवचारित्रगुणानां वा गुणसमिय- गुणयुक्तोऽप्रमत्ततया यतिः गुणसमितः। विराधना-खण्डना। प्रश्न०६। आचा० २१७ गुणालयं- गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तस्य गुणसमृद्धं- महाबलराजधानी। पिण्ड० ४७। वास्तव्यपुरम्। पिण्ड० ७८1 गुणसागरः- गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणचन्द्रपुत्रः। गुणिता-अधीता। ओघ० ५३ पिण्ड० ७८१ गुणत्तर-भवत्थकेवलिसुहं। निशी. २४ आ। गुणसिद्धी- गुणसिद्धिः-अन्वर्थसम्बन्धः। दशवै०७११ गुणत्तरतरं-मोक्खसुहं। निशी० २४ आ। गुणसिलं- गुणशिलं राजगृहे चैत्यविशेषः। उत्त० १५८ गुणत्तरधरो- गुणेषूत्तराः-प्रधाना गुणोत्तराः उपा०४८। विपा० ८९। गुणशिलं राजगृहनगरे चैत्यम्। ज्ञानादयस्तान् धारयतीति गणोत्तरधरः। उत्त० ३५७। भग०६, ३२३, ३७९, ५०२, ७३९, ७५०। ज्ञाता० ३९। आव० | गणद्देसो- गणोद्देशः-गणदेशः। प्रश्न. १०२॥ ३२५ अनुत्त०१७७। अन्त०१८ गणशिलः-वर्धमान- | गुण्यते-भिद्यते। आचा० ९९। स्वामिनः समवसरणस्थानम्। उद्यानविशेषः। व्यव० | गुत्त- गुप्तं-युक्तम्। प्रश्न० १३४। वृत्त्या फलहकेन वा १७४। वृत्तम्। बृह. १८१ आ। गुप्तः-अभेदवृत्तिः । भग० १९४। गुणसिलयं-राजगृहे चैत्यम्। आव० ३१४१ प्राकाराद्यावृता। भग० ३१३। न स्वामिभेदकारिणः। गुणसिला-गुणशिला-स्कन्दकचरित्ते राजगृहनगरे पराप्रवे-श्या। जीवा० २६०। प्तिभिः-वसत्यादिभिः। चैत्यम्। भग० ११२ जम्बू. १४८। तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः। सूत्र० २९८। संमूढः । गुणसेढीयं- गुणश्रेणी-क्षपणोपक्रमविशेषरूपा। सामान्यतः ओघ० ११९। प्रविष्टः। निशी० १७२ आ। गां त्रायत इति किल कर्मबह्वल्पमल्पतरमल्पतमं चेत्येवं निर्जरणाय गोत्रं-साधुत्वम्। सूत्र० ४१३। प्राकारवेष्टितत्वाद् गुप्तम्। रचयति, यदा त् परिणामविशेषात् तत्र तथैव रचिते स्था० ३१२। गोत्र-कुलम्, नामानि। स्था० २९४१ कालान्तरवेद्यमल्पं बहू बहुतरं बहुतमं चेत्येवं गुत्तदुवारा- गुप्तद्वारा-कपाटादियुक्तद्वारा। भग० ३१३। निर्जरणाय तदा सा गुणश्रेणीत्यु-च्यते। औप० ११३। | गुत्तद्वारे-वाराणां स्थगित्वाद गप्तद्वारम्। स्था० गुणसेन- गोचरविषयोपयुक्तायां सागरदत्तश्रेष्ठिपुत्रः। ३१२ पिण्ड० ७८ गुत्तपालिय- गुप्तपालिकाः-तदन्यतो गुणा-सौभाग्यादयः, अथवा लक्षणव्यञ्जनयोर्ये गणाः। । व्यावृत्तमनोवृत्तिका मण्डलिकाः। भग० १९४) गुप्ता स्था० ४६१। चारित्रविशेषरूपाः। सम० ४६। शेषमूलगुणाः । पराप्रवेश्या पालिः-सेतुर्यस्य सः। जीवा० २६० उत्तर-गणाश्च। सम० १२७। ज्ञानादयः। सम० १२४। गत्तबंभचारी- वसत्यादिनवब्रह्मचर्यगप्तियोगात्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [120] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ज्ञाता०१०३ गुम्मा- गुल्मा गुत्ता- गुप्ता-पराप्रवेश्या। राजा० ११३॥ वृत्त्या कुड्येन वा | नामहस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः। जम्बू. ९८१ परिक्षिप्ता। बृह. ३१० अ। गुल्मा-पुष्करिणी नाम। जम्बू. ३६० गुत्तागुत्तिंदिय- गुप्तागुप्तेन्द्रियः-गुप्तानि शब्दादिषु | गुम्मिय- गुल्मेन-समुदायेन चरन्तीति गौल्मिकाः। रागादिनि-रोधाद् अगुप्तानि च व्यव० १३५अ। गुल्म-स्थानं तद्रक्षपाला गुल्मिकाः। आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादि-न्द्रियाणि येषां ओघ० ८० स्थानकरक्षपालाः। ओघ० ८२ ते। औप० ३५ गुम्मी- शतपदी त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। उत्त०६९६। गुत्तिंदिय- गुप्तेन्द्रियः शब्दादिषु रागादिरहितः इत्यर्थः। | गुमुंगुमती- गुमगुमायमाना। आव० ५१४। औप० ३५ गुरु-स्वप्रयोजननिष्ठः। उत्त० ६३१ गत्ति- रक्षाः। बृह. १२९ आ। गोपनं गुप्तिः -सम्यग् पूज्यास्तीर्थकृद्गणभृ-दादय। उत्त० २३१। योगनिग्रहः। प्रवचनविधिना यथावच्छास्त्राभिधायकाः। उत्त०६२२१ अधोगमनहेतः। मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गगमननि-वारणं गुप्तिः। उत्त० स्था० २६। स्पर्शस्य चतुर्थो भेदः। ४७३। गरुणां५१४१ मात्रादिकानां। जम्बू. १६९। गुणन्ति शा-स्त्रार्थमिति गुत्तिसेण- गुप्तिसेनः। सम० १५३। गुरुः-धर्मोपदेशदाता। आव. ११९| धर्मोपदेश-कः। ज्ञाता० गुत्ती-गुप्तिः -प्रविचाराप्रविचाररूपा। आव० ५७२। सूत्र. १२३। पितामहादिलक्षणः। आव० ५१६। आचार्यः। दशवै. २४४। मनोगुप्त्यादिः वसत्यादि। प्रश्न. १३४। ४५। सारोपेतम्। दशवै० २६३। तीर्थकरादिः। पिण्ड० ११४| अशुभानां मनःप्रभृतीनां निरोधः, मातापितृधर्माचार्याः। स्था० ३९९। गौर-वार्हः। उत्त. अहिंसायास्त्रिचत्वारिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। ४४॥ वैद्यः। बृह. १४१ अ। गुरुः-धर्मा-चार्यः। उत्त. गुत्तीओ- गुप्तयः मनोवाक्कायलक्षणा १५२। आचार्यः। ब्रह. ९५अ। धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा अनवद्यप्रविचाराप्रविचा-ररूपाः। प्रश्न. १४२। धर्मप्रवर्तकः। सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुत्तीतो- गुप्तयः-रक्षाप्रकाराः। स्था० ४४५। गोपनानि गुरुरुच्यते। प्रज्ञा० १६३। आयरियो। निशी. १६४ अ। गुप्तयः-मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि दीक्षाद्याचार्यः। भग० ७२७। चैत्यसाधुः। उपा० १३॥ शुभप्रवृत्ति करणानि चेति। सम० ९| गोपनं गुप्तिः- | गुरुअब्भुट्ठाणं- गुर्वभ्युत्थानम्। आव० ८५३। मनःप्रभृतीनां कुश-लानां प्रवर्तनमकुशलानां च गुरुअमुई- गुर्वमोची-निष्ठुरं निर्भर्त्तितोऽपि निवर्तनमिति। स्था० ११२॥ गुरुणाममोचन-शीलः। बृह० १२१ आ। गदं- अपानम्। नन्दी. १५२। गुरुए- गुरुकः-भगवत्त्याः प्रथमशतके गुरुकविषयो नवम गुपिलं- गहनम्। नन्दी०४२ उद्देशः। भग०६। गुप्फ- गुल्फः-घुटिकः। जम्बू. ११०| गुरुओ- गुरुकर्मा। सूत्र० १९७। गुब्भंग- मृगीपदम्। निशी० २११ अ। | गुरुक-गुरुकः-षण्मासः। व्यव० ६। स्था० १४५। बृह० ४९ गुम्मं- गुल्म-वृन्दमात्रम्। औप० ४९। वंशजालिप्रभृतिः। | । ज्ञाता० ३६। समूहः-समुदायः बृह० २९० अ। गुच्छै- गुरुकलं- गुरोः कुलं गुरुकुलं-गुरुसान्निध्यम्। आचा० कदेशः-उपाध्यायाधिष्ठितः। औप० ४५| गुल्मः २०३ नवमालि-काप्रभृतिः। भग० ३०६। प्रज्ञा० ३०| जीवा० २६| | गुरुगतराग- गुरुतरकः-चतुर्मासपरिमाणः। व्यव० १८७। गुल्मः-नवमालिकादिः। औप०८ जीवा० १८८1 जम्बू गुरुगती-भावप्रधानत्वान्निद्देशस्य गोरवेण ३०| लतासमूहः। विशे०९०४। ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्ग-मनस्वभावेन या परमाण्वादीनां गुम्मइअ- गुल्मितं-घूर्णितचेतनम्। बृह० २३१ आ। स्वभावतो गतिः सा गुरुगतिः। स्था० ४३४। गुल्मयितं-मूढम्। औप०६४ गुरुगो- गुरुको नाम व्यवहारो मासो मासपरिमाणः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [121] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम- सागर- कोषः (भाग - २) व्यव० १८७ अ । गुरुजणं- गुरुजनः- गुणस्थसुसाधुवर्गः । आव० ५१९। गुरुतप्पओ - गुरुतल्पकः दुर्विनीतः । प्रश्र्न० ३६ । गुरुनिओगविणयरहिया - गुरुषु मात्रादिषु नियोगेन अवश्यंतया यो विनयस्तेन रहिताः गुरुनियोगविनयरहिताः । भग० ३०८ | गुरुनिग्गो - गुरुनिग्रहः । आव० ८११। गुरुपरिओसगए- गुरुपरितोषगतः-गुरुपरितोषजातः। आव० २६९ | गुरुपरिभासिय- गुरुन् परिभाषते विवदते गुरुपरिभाषिकः । उत्त० ४३४ | गुरुपर्वक्रमलक्षणः– केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति। प्रज्ञा० २ गुरुमहत्तरएहिं - गुर्वौः-मातापित्रोर्महत्तराः-पूज्याः, अथवा गौरवार्हत्वेन गुरुवो महत्तराश्च वयसा वृद्धत्वाद्ये ते गुरुमह-त्तराः । स्था० ४६३ । गुरुयत्ता- गुरुकता-विस्तीर्णता । भग० २१५| गुरुलहुपज्जव - गुरुलघुद्रव्याणि - बादरस्कन्धद्रव्याणिऔदा-रिकवैक्रियाहारकतेजसरूपाणि तत्पर्यवाः । जम्बू० १३०| गुरुवायणोवगयं - गुरुप्रदत्तया वाचनया उपगतं प्राप्तं गुरुवा-चनोपगतं न तु कर्णाघाटकेन शिक्षितम् । अनुयो० १६। गुरुविषयं - गुराविदं करणं गुरुकरणम्। आव० ४७१ | गुरुसम्भारियता - गुरोः सम्भारिकस्य च भावो भारत गुरु सम्भारिकता चेत्यर्थः। अतिप्रकर्षावस्था । भग० ४५६ | गुरुणां- आलोचनार्हाणामाचार्यादीनाम् । उत्त० २३३ | गुर्जरः- देशविशेषः । अनुयो० १३९ | गुलं- गुडम् । अनुयो० १५४ । गुल्मं- लतासमूहः । भग० ३७ गुलइय- गुल्मवान्। औप० ७ | गुलगुलाइअ - गुलगुलावित रूपेण । जम्बू० १४४| गुलदव - गुलद्रवं नाम यस्यां कवल्लिकायां गुड उत्काल्यते तस्यां-यत्तप्तमतप्तं वा पानीयं तद्गुडोपलिप्तं गुडद्रवम्। बृह० २५३अ । गुलपाणिय- गुलो जीए कवल्लीए कढिज्जति तत्थ जं पाणीयं कयं तत्तमतत्तं वा तं गुलपाणियं भण्णति । निशी० २०४ अ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] गुलया- द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । गुललावणिका - गुडपर्पटिका । स्था० ११८ । गुललावणिया - गुडलावणिका-गुडपर्पटिका गुडधाना वा । सूर्य० २९३ | भग० ३२६ | प्रश्न० १६३ | गुलवंजणी - मोदी | निशी० ६४अ । गुलिका- तुवरवृक्षचूर्णगुटिका। बृह० १०० आ, १०२अ । पिटकं बुसपुञ्जो वा पिण्डका वा । बृह० ९४ आ । गुलिगा - लोलगा| निशी० १४आ । गुलि - गुटिका । आव० २९९ । गुलियविरेयणपीओ- पीतविरेचनगुलिकः । उत्त० ३७९ गुलिया - गुटिका- द्रव्यवटिकाः । विपा० ४१| द्रव्यसंयोगनिष्पादितगोलिकाः । ज्ञाता० १८३ | आव० ६७६ । हरितालिकासारनिर्वर्त्तिता गुटिका। जम्बू० ३४ । वक्कलाणि। बृ. १०२ आ । गुटिका वटिका । उत्त० १४३ | मुखे प्रक्षेपकस्य स्वरूपपरावर्त्तादिकारिका गुटिका । पिण्ड० ९६| गुलिकाः-पीठिकाः। मनोगुलिकापेक्षया प्रमाणतः क्षुल्लाः । जीवा० ३६३ | नीली । ज्ञाता० १०१। पीठिकाः । जीवा० ३५९। गुलिकाः वर्णद्रव्यविशेषः। औप० ११। गुलियासहस्सं - गुलिकासहस्रम् । जीवा० २३३। गुलुकः- गुल्फः । जीवा० २७०| गुलुम्मातितो- सङ्गाभिलाषी । निशी० ३४८ आ । गुलू - गुरुः- आचार्यः । बृह० २८३ अ । गुल्मं- स्थानम् । ओघ० ८१| गुल्मः- रोगविशेषः । बृह० १७० अ । |गुल्मकं - लतासमूहः । जम्बू० २५| गुल्मिका - गोत्तिपालाः । ओघ० २२३ | वंति - गुप्यन्ति-व्याकुलीभवन्ति। भग०६७०। गुवल - गुप्तः | निशी० ४० आ । गुविते - गुप्येत-व्याकुलो भवेत् क्षुभेद् । स्था० १६२ गुविलं— व्याप्तम्। महाप० । गुविला - गम्भीरा । बृह० २१ अ । विलो- गहणो । निशी० १४९ अ । गुहा- कन्दरा | भग० २३७ | प्रश्र्न० २० | सुरङ्गाः । जम्बू० २०९। लयनम्। उत्त॰ ४९३। तिमिश्रागुहादयः। नन्दी॰ २२८। उष्ट्रिकाकृतिर्नरकविशेषः । सूत्र० १३०| गुह्यापवरकः- मन्त्रगृहादि रहः स्थानम् । दशवै० १६६ । | गूढं- मांसलत्वादनुद्धतम् । जीवा० २७० अनुपलक्षम्। [122] “आगम-सागर-कोषः " [२] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] प्रश्न.८० गेज्ज- गदयं-यत्र स्वरसञ्चारेण गदयं गीयते। जम्बू. गूढगब्भा- गूढगर्भा। आव. २१२१ ३९ गूढदंत-जंबुद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिष्यति उत्सर्पिण्यां गेण्हितुं- गृहीत्वा। आव० ८२७। तृतीय-श्चक्रवर्ती। सम० १५४| गूढदन्तः गेद्धावरंखी-भोयणकाले परिवेसणाए इतो बाहिति भणितो अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य ताहे गेखो इव रिखंतो भायणं उड्डेति। निशी० १०१ अ। चतुर्थमध्ययनम्। अनुत्त०२ अन्तरद्वीपवि-शेषः। गेधी-सदोसुवलद्धेवि अविरमो गेधी। निशी. ७१। जीवा० १४४ गेयं-गन्धव्यो रीत्या बद्धं गानयोग्यम्। जम्बू० २५९। गूढदंता- गूढदन्तनामा अन्तरद्वीपविशेषः। प्रज्ञा० ५० गीयत इति गेयं-तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं गूढदंतदीवे- अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। लयसमं च कव्वं। तु होइ गेयं पंचविहं गीयसन्नाए। गूढमुत्तोलिं- गूढगोणीं। तन्दु०। दशवै०८७ स्था० ३९७) गूढसामत्थो- गूढसामर्थ्यः। आव० ६४९। गेरुअ-गैरिका-धातुः। दशवै० १७०| गुढसिरागं- गूढशिराकं-अलक्ष्यमाणशिराविशेषम्। प्रज्ञा० गेरुआ-परिवायया। निशी. ९८ अ। ३७ गेरुक-मृत्तिकाभेदः। आचा० ३४२। गूढा- गूढा-बहिःसंवृत्तिमन्तः। उत्त० ५२६) गेरुय- गौरिकः-मणिविशेषः। प्रज्ञा० २७। गेरुअःगूढावत्ते- गूढश्चासावावर्तश्चेति गूढावतः। स्था० २८८१ | मणिभेदः। उत्त०६८९। गूथं- वर्चः। ओघ० १२३ गेलन्न- ग्लानत्वम्। ओघ० ८९। ग्लान्य-ग्लानत्वम्। गूहग-विष्ठा। तन्दु। स्था० ३१३ गृहणं-किंचिकहणं। दशवै० १२४। सति बलपरक्कमे | गेल्लि- हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव। अकरणं गृहणं। निशी. १८ अ। गूहनं-किञ्चित्कथनम्। भग. १८७ दशवै०२३३ गेविज्ज- ग्रैवेयकं-ग्रीवा बन्धनम्। प्रश्न. १९। ग्रैवेयं गृहे- गृहयेत्। दशवै० २३२॥ ग्रीवाभर-णविशेषः। जम्बू०१०५ ग्रीवात्राणं ग्रीवाभरणं गृहकोलिका- गृहगोधिका। दशवै. २३० वा। जम्बू. २१९। ग्रेवेयकं-कण्ठलम्। औप० ५५ ग्रैवेयंगृहजातः-दासः। उत्त. २६५ ग्रीवाभरणम्। जीवा० २५९। गृहजामाता- गृहस्थाता हितपतिः। नन्दी. १६२ गेविज्जगा-ग्रैवेयकाः। प्रज्ञा०६९। गृहपतिः- माण्डलिको राजा। आव० १५६। गृहस्थः। आचा० | गेविज्जन- लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि ग्रैवेयकानि। ३२११ स्था. १७९ गृहपत्यवग्रहः-अवग्रहपञ्चके तृतीयो भेदः। आचा. १३४ | गेविज्जा- ग्रेवेया-देवावासास्तन्निवासिनो देवा अपि। माण्डलिकावग्रहः। आव. १५६। उत्त०७०२। गृहिव्यापारः- गृहियोगः-प्रारम्भरूपः। दशवै० २३१| | गेवेज्ज- ग्रैवेयकं-ग्रीवाभरणम्। भग० १९३। लोकपुरुषस्य गृहस्थो-भिक्षां प्रयच्छन्ती गृहस्थी। ओघ० १६२ ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि। अन्यो० ९२ गृहस्थोपसम्पत्-उपसम्पतौ प्रथमो भेदः। आव० २६७।। | गेहं- गृहम्। उत्त० ३२० यत्पुनरवस्थाननिमित्तं गृहिणामनुज्ञापनं सा गेहसंठिया- गेहस्येव वास्तविदयोपनिबद्धस्य गहस्यैव गृहस्थविषया। बृह. २२२।। संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा गेहसंस्थिता। सूर्यः ६९, गृहाचारः- गार्हस्थ्यं-आगारधर्मः। उत्त. ५७८1 गृहीतव्यः-निश्चेतव्यः। व्यव. २०५। गेहागारा-गेहाकाराः भवनत्वेनोपकारिणः। सम०१८ गृहे- गृहलिंगे। व्यव० २७ आ। गेहाकारा-नामद्रुमगणाः। जम्बू० १०६। स्था० ५१७। गेंदुए- गेन्दुकः-पुष्पलम्बूसकः। जम्बू० २७५) | गेहागारो- गेहाकारः द्रुमविशेषः। जीवा० २६९। गृहाकारः ७० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [123] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २० षष्ठः कल्पवृक्षः। आव० १११॥ यदवंशदलमयं महद्भाजनं तदगोकलिजंडल्लेति। उपा० गेहावणसंठिय- गृहयुक्त आपणो गृहापणोवास्तुविद्याप्रसि-दस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्या सा | गोकुलं- परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे ग्रामविशेषः। पिण्ड. गृहापणसंस्थिता। सूर्य०६९। १२७ गेहावणाइ- गेहेषु आयतनानि आपतनानि वा गोक्षुरकं-त्रिकण्टकम्। ओघ० १२४। उपभोगार्थमाग-मनानि। जम्बू० ११९। गोखीरफेणो- गोक्षीरफेनः। जीवा० २७२। गेहावणो- गृहयुक्त आपणो वास्तुविद्याप्रसिद्धः गोधायको- गोघातकः। आव० ३९१। गृहापणः। सूर्य०६९। गोचरः-विषयः। आव० ५८९। गेही- गृद्धिः-अप्राप्ताकाङ्क्षा। प्रश्न. ९७। अप्राप्तस्य गोच्छ-भाजनवस्त्रविशेषः, वक्ष्यमाणलक्षणं प्रमार्जयति। प्राप्ति-र्वाञ्छा। प्रश्न. ४४| विषयाभिकाक्षा। उत्त. ओघ. ११७ २६४ गोच्छओ- गोच्छकः-पात्रवस्त्रप्रमार्जनहेतुः गेहिए-गेहकः-भर्ता। उत्त. १३७। कम्बलशकलरूपः। प्रश्न. १५६। कंबलमयो बद्धपात्रोपरि। गेही- गृद्धिः-प्राप्तार्थेष्वासक्तिः । भग० १७३। बृह० २३७ । गोंड-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा०५५। गोच्छकः- यः पात्रकस्योपरि दीयते सः। ओघ. १९९। गोंफा- गुल्फौ-घुण्टको। प्रश्न० ८० गोच्छिया-जातगुच्छाः। ज्ञाता० ५ गो- परित्थगतो लोगं तं गच्छतीति। दशवै. १०३। गोश- | गोजलोया-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा०४१। जीवा० ३१। ब्देन गावोबलिवर्दाः। ब्रह. १५७ आ। गो-गाविओ। निशी० | गोजिब्भा- गोजिह्वा। प्रज्ञा० ३६७। १३७ अ। गोजूति- गोचरं। निशी. १४४ अ। गोअ-गोत्रं-गुणनिष्पन्नाभिधानम। औप०५७। गोज्ज-नर्तकः। दशवै०४९। गोअम गोज्झपेक्खिया-नृत्यविशेषप्रेक्षिका। आव. ९२। विचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापय्क्तवराटकमालिका- गोडें- गोष्ठं-गोकुलम्। आव०७१९। दिचर्चितवृषभकोपायतः कणभिक्षाग्राहिणो गोतमाः। गोट्ठामाहिल- गोष्ठमाहिलः यः स्पृष्टाबद्धप्ररूपकः। उत्त. अनुयो. २५। गौतमः। आचा० ३५९। गौतमः-आगम १५३। अर्थाज्ञाविराधनायां दृष्टान्तः। नन्दी. २४८१ प्रसिद्धो गणधरविशेषः। आव०४१३। गोष्ठा-माहिलः यस्मादबद्धिका उत्पन्नाः स आचार्यः। गोअरे-सामायिकत्वाद् गोरिव चरणं गोचरः। दशवै० १८५ आव० ३१२। गोष्ठमाहिलः-गच्छप्रधानः श्रावकः। आव. गोउरं- गोभिः पूर्यत इति गोपुरं-पुरद्वारम्। जीवा० २७९। ३०८ निशी० ३३५आ। प्रतोली कपाटो वा, परदवारम्। प्रश्न० ८गोपरं- | गोहि- समवयसां समुदायो गोष्ठी। दशवै० २२॥ नगरप्रतोली परद्वारम्। भग० २३८५ जनसमुदाय-विशेषः। ज्ञाता० २०६। गोउलं-घोसं। निशी ७०आ। गोठ-गोष्ठः-गोष्ठामाहिलः-अभिनिवेशे दृष्टान्तः। व्यव० गोकण्णो- गोकर्णः-अन्तरदवीपविशेषः। जीवा० १४४ १७९ । द्विख-रचतुष्पदविशेषः। प्रश्न०७जीवा० ३८1 गोहिदासी-गोष्ठादासी। आव २०११ गोकन्न-द्विखुरचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा०४५। गोद्विधम्मो- गोष्ठीधर्मः-गोष्ठीव्यवस्था। दशवै. २२ गोकन्नदीवे- अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। गोहिलए- गोष्ठीकः। आव० ९२। विपा० ५५) गोकर्णनामा-न्तरदवीपः। प्रज्ञा० ५० गोट्ठी- गोष्ठी-जनसमुदायः। ज्ञाता० २०६। आव० ८२२, गोकर्ण-मृगभेदः। श्रृङ्गवर्णादिविशेषः। जम्बू० १२४। ८२४। उत्त० ११२। महत्तरादिपुरुषपञ्चकपरिगृहीता। गोकलिंज- डल्ला। जम्बू० ५८१ गोकलिजं नाम यत्र बृह. २०० । गोभक्तं प्रक्षिप्यते। राज० १४१। गवां चरणार्थं गोडंडेणालिया- | निशी० ४६ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [124] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गोड-गोडः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४१ | गोतित्थसंठाणसंठिए-गोतीर्थसंसथानसंस्थितः-क्रमेण गोड्ड-पौल्यं-गौल्यरसोपेतं मधुरसोपेतमितियावत्। नीचैर्नीचैस्तरमदवेधस्य भावात्। जीवा० ३२५ भग०७४८1 गोतिपाला-गुल्मिकाः। ओघ. २२३। गोण-बलीवर्दः। बृह. २४७ आ। ओघ० ९७। आव० २२६। गोत्त- गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत् तद् गोत्रंगौणं-गुणनिष्पन्नम्। प्रश्न०६। गोणाः-गावः। जम्बू० उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः, १२४१ प्रश्न. ७ गोणः-गौः। प्रज्ञा. २५२। गौः। ओघ. तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रम्, २०१| निशी. २अ। गवः। आव० १९०,८२९] यद्वाकर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते शब्द्यते उच्चावचैः गोणपोतलओ- गोपेतः। आव. १९८१ शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयाद् गोत्रम्। प्रज्ञा० गोणपोयए- गोणपोतकौ-गोपुत्रको। उपा०४९। ४५४। प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानस्तदपत्यसन्तानो गोणसं- गोनसं-सर्पजातिविशेषम्। व्यव० २३ अ। गोत्रम्। जम्बू. ५००। सज्ञा। आव० २७९। अभिधानम्, गोणस- गोणसः-निष्फणादिविशेषः। प्रश्न. ७ कर्मवि-शेषः। स्था०४५५) गां-वाचं त्रायतेगोणसखइयं- गोनसभक्षितम्। आव०७६४। अर्थाविसंवादनतः पालयतीति, समस्तागमाधारभूतः। गोणसहा- गोधरेकः। उत्त० ६९९) सूत्र. २३५। गोत्रशब्दो नाम-पर्यायः। उत्त० १८१| गोणसा-मुकुली-अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६। गौतमगोत्रादि। ज्ञाता०२२० गोणा-बलीवर्दाः। उत्त० ५४८। गोणा प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यसन्तानो गोत्रम्। विखुरचतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८१ प्रज्ञा० ४५ गावः। सूर्य० १५० प्रश्न० ३८१ गोत्ता- इतराणि त्वितराणि नामानि। स्था० ३८९। गोणाई- गवादीनि। ओघ० १४२॥ तथावि-धैकैकपुरुषप्रभवा मनुष्यसन्तानाः गोणादिचमढणा-बलीवर्दादिपादप्रहारादिः। ओघ०८१।। उत्तरगोत्रापेक्षया। स्था० ३९० गोणी- गौः। आव० ९६| | गोत्तासए– गोत्रासकः-हस्तिनापुरे भीमकूटग्राहिदारकः। गोण्णं- गुणादागतं गौणं, व्युपत्तिनिमित्तं द्रव्यादिरूपं विपा. ५० गुणमधि-कृत्य यद्वस्तुनि प्रवृत्तं नाम तद गौणनाम। | गोत्थुभ- गोस्तुभः-लवणसमुद्रमध्ये पूर्वस्यां दिशि पिण्ड० ४। गुणनिष्पन्नम्। बृह. २४८ अ। नागराजा-वासर्पवतः। भग० १४४। गोण्णनाम- गुणैर्निष्पन्नं गौणं तच्च तन्नामंच | गोथुभत्ति- कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषः। सम. गौणनाम। आचा० १९६| १५८ गोतम-भक्तिकर्तव्यतायां दृष्टान्तः। व्यव. १७२ आ। गोथभा- गोस्तुपा-दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्यापरस्यां गोतमगोत्ते- गौतमगोत्रम्। सूर्य. १५०| शक्र-देवेन्द्रस्य नवमिकाऽग्रमहिष्या राजधानी। स्था० गोतमा- गोतमस्यापत्यानि गौतमाः क्षत्रियादयः। स्था० २३१। जीवा० ३६५। पूर्वदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्य अपरस्यां ३९० गौतमः-प्रथमो गणधरः। अनुत्त० ३। ज्ञाता० दिशि पुष्करिणीविशेषः। जीवा० ३६४। ११४ पाश्चात्याञ्जनपर्वतस्य पाश्चात्यायां पुष्करिणीविशेषः। लघुतराक्षमालाचर्चितविचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापवद् स्था० २३०१ वृष-भकोपायतः कणभिक्षाग्रही। ज्ञाता० १९५४ | गोथूभे- गोस्तुभः-प्राच्यां लवणसमुद्रमध्यवर्तिनो गोतित्थं-गोतीर्थ-तडागादिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो वेलन्धरना-गराजनिवासभूतपर्वतस्य नीचतरो भूदेशः। जीवा० ३०८क्रमेण नीचो नीचतरः पौरस्त्याच्चरमान्तादपसृत्य वडवा-मुखस्य प्रवेशमार्गः। जीवा० ३२३२ प्रज्ञा०४१३। गवांतीर्थ महापातालकलशस्य पाश्चात्यश्चरमान्तो येन व्यवधातडागादाववतार-मार्गो गोतीर्थं, ततो गोतीर्थमिव नेन भवति। सम०७१। वेलन्धरनागराजस्य गोतीर्थ-अवतारवतीभूमिः। स्था० ४८० आवासपर्वतः। देवविशेषः। स्था० २२६। श्रेयांसनाथस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [125] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] प्रथमः। शिष्यः। सम० १५२।। यस्याः सा गोपुरसंस्थिता। सूर्य० ६९। गोथूभो- गोस्तूपः-भुजगेन्द्रस्यावासपर्वतः। जीवा० ३१११ | गोपेन्द्रवाचकः- द्रव्यानुयोगे परपक्षनिवर्तकः। दशवै० ५३। प्रथमो वेलन्धरनागराजः, भुजगेन्द्रो भुजगराजः। जीवा. | गोप्पतं- गोष्पदं-तत्कल्पं देशविरत्यादिकमल्पतमम्। ३११ स्था० २७९ गोदत्ता- ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां मध्ये द्वितीया। | गोप्पहेलिया- गोप्रहेल्या। आचा०४१११ उत्त० ३७९ गोफण- गोफणः-प्रस्तरप्रक्षेपकोदवरकम्पितः गोदासे- गणविशेषः। स्था०४५११ शस्त्रविशेषः। आव०६१३। गोदुह- गोदोहिका। स्था० २९९। गोफणा- चम्मदवरगमया। निशी० १०५आ। चर्मदवगोदोहिका- गोर्दोहनं गोदोहिका। स्था० ३०२। रकमयी। बृह० ६८ ॥ गोदोहिकासनं-आसनविशेषः। उत्त०६०७। गोबर- गोमयः। बृह. २७० आ। गोदोहिया- गोदोहिका। आव. २२७। गोबहुल- शरवणसन्निवेशे ब्राह्मणविशेषः। भग० ६६० गोदोही- गोदोहिका। आव०६४८१ गोबहु-लः-प्रचुरगोमान् शरवणसन्निवेशे गोधमो-अनाचारः। निशी० ११३ आ। ब्राह्मणविशेषः। आव० १९९। गोध-अलसः। उत्त० २६२। व्यवहारी। दशवै०५६। गोब्बरगाम- गूर्बरग्रामः-मगधाविषये ग्रामः। आव० ३५५ गोधणं- गोधनं-गवादिद्रव्यम्। आव० ८२५॥ गोबरग्रामः-ग्रामविशेषः। आव० २१२। वइरिसगामासन्नं। गोधा-गोधा। प्रश्न म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ बृह. २१७ आ। सन्निवेशः, इन्द्राग्निवायुभूतिगणधराणां गोधिका-वाद्यविशेषः। स्था० ३९५) जन्मभूमिः। आव० २५५ गोधूमजंतगं- गोधूमयन्त्रकम्। उत्त० २२३। गोभत्तं- गोभक्तं छगणादि। आव. ९१। गोधूमो-गोधूमः-धान्यविशेषः। आव०८५५। गोभत्तकलंदयं- | निशी. ९१ आ। गोधेरकः- गोणसहा। उत्त०६९९। गोभूमी-सदा गावश्चरति यत्र तेन गोभूमिः। आव० २११। गोनिषधिका-यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा। स्था० २९९। गोमंडलं- गोवर्गः। बृह. १५७ आ। उपवेशनविशेषः। बृह. २०० अ। गोमए- गोमयं-छगणम्। भग० २१३। गोपालओ- गोपालकः-अज्ञातोदाहरणे प्रद्योतलघुपुत्रः। गोमड- गोमृतः-मृतगोदेहः। जीवा० १०६। आव०६९९ गोमयं- गोकरिसो गोमयं। निशी. २६५आ। गोपालगिरि- गिरिविशेषः। जम्बू. १६८१ भग० ३०७ | गोमयकीडगो- गोमयकीटकः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। गोपुच्छसंठाणसंठिया- गोपुच्छस्येव संस्थानं जीवा० ३२॥ गोपुच्छसंस्थानं तेन संस्थिता गोमयकीडा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताऊर्वीकृतगोपुच्छा-कारा। गोमाणसिआ-गोमानस्यः-शय्यारूपाः स्थानविशेषाः। जीवा. १७८१ जम्बू० ३२६| गोपुट्ठए- गोपृष्ठायत्पतितम्। भग० ६८० गोमाणसिया- गोमानस्यः शय्याः। जीवा. २०४, ३५९। गोपुर- प्राकारद्वारम्। जीवा० २५८। गोपुरं-पुरद्वारम्। राज०६२। गोमानसिकाः शय्यारूपाः-स्थानविशेषाः। सूर्य०६९। औप० ३प्रश्न. ८1 जीवा० २६९। प्रतोली। जीवा० २३० ज्ञाता० २२२प्रतोलीद्वाराणां परस्परतोऽन्तराणि। गोमाणसीओ- शय्याः। जम्बू०४९। अनुयो० १५९। गोभिः पूर्यन्त इति गोपुराणि गोमाणुसी- गोमानुषी-शय्यारूपा। जीवा० ३६३। प्रतोलीद्वाराणि। उत्त० ३११| गोमाणुसी- गोमानुषी-शय्यारूपा। जीवा० ३६३। गोपुरसंठिओ- गोपुरसंस्थितः। जीवा० २७९। गोमायुः- श्रृगालः। प्रज्ञा० २५४। आचा० १६७। गोपुर पुरदवारस्येव-संस्थितं संस्थानं | गोमिज्जए- गोमेज्जकः-मणिभेदः। प्रज्ञा. २७। उत्त. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [126] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] ६८९ | गोमिनि- गोमिनि-नानादेशापेक्षया आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) गौरवकुत्सादिगर्भमामन्त्र-णवचनम्। दशकै २१६ गोमिय- गोमिकः- गोमान् प्रश्न. ३८] गोम्मिकगौल्मिक:- गुप्तिपालः। प्रश्न० ५६ ॥ गोमिया - किया । निशी० १४० अ । दंडपासिया । निशी० १९४ अ । ठाणइल्ला | निशी० ११ आ । गोमुत्तिअदड्ढ - गोमूत्रदग्धः- गोमूत्रसहितं स्थानम् । ओघ० ५४ | गोमुत्तियवहो- गोमूत्रिकाव्यूहःगोमूत्रिकाकारसैन्यविन्यासविशेषः । प्रश्न० ४७ | गोमुत्तिया गोचर्यामभिग्रहविशेषः। निशी १२अ उत्त० ६०५ | गोमुह- गोमुखनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५०। गोमुखः अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ | गोमुहदीव अन्तरद्वीपविशेषः स्था० २२६| गोमुहिए- गोमुखवदुरः प्रच्छाकत्वेन कृतानि गोमुखितानि ज्ञाता० २३७ गोमुह- गोमुखी काहिला यस्या मुखे गो श्रृङ्गादिवस्तु दीयत इति। अनुयो० १२९१ काहला स्था० ३९५ गोमूत्रिका - यस्यां तु वामग्रहाद्दक्षिणगृहे दक्षिणगृहाच्च वामगृहे भिक्षां पर्यटति सा गोमूत्राकारत्वात् गोचर भूमिरपि । बृह० २५७ अ प्रजा० ४७३१ गोमूत्रिकाबन्धः- मुद्रिकाबन्धः । ओघ० १४५। गोमेज्ज- गोमेयकः रत्नविशेषः । जीवा० २०४१ गोमेज्जए गोमेज्जकः । जीवा० २३ गोमेदकः पृथिवी भेदः । आचा० २९| गोमेयकं - रत्नविशेषः । उत्त० ४५१ । गोम्मिए गौल्मिक:-शुल्कपालः । बृह० २२८ अ गोम्मिय गुप्तिपालकः प्रश्न. ३७॥ गोमिया - बद्धस्थाना आरक्षकाः । बृह० १०६ आ । बद्धस्थाना मार्गरक्षकाः। बृह० ८३ अ । गुल्मेन समुदायेन चरन्तीति गौल्मिकाः स्थानरक्षपालः । बृह० २९० अ० गॉल्मिकाः ये राज्ञः पुरुषाः स्थानकं बद्ध्वा पन्थानं रक्षन्ति । बृह० ८३ अ गोम्ही कर्णश्रृगाली अनुयो० २१४१ कण्णसियाली। निशी ० १६३ अ । त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ जीवा. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ३२| कर्णसियालिया । प्रज्ञा० ४२ | गोय- गास्त्रायत इति गोत्रं - मौनं वाक्संयमः, जन्तूनां जी - वितम्। सूत्र० २४९। गीयते शब्दयते उच्चावचैः शब्दैः कु लालादिव मृद्द्रव्यमत आत्मेति गोत्रम् । उत्तः ६४१। गुण-निष्पन्नम्। भग० ११५ अन्वर्थिकम्। भग० ५६१। गोत्र- गुणनिष्पन्नः । निर० ७ गोत्रं अन्वर्थः । राज० १३ सरीरं । दशवै० ५९। गोत्रं - आन्वर्थिकीसञ्ज्ञा । विपा० ४२ ॥ गोयम- प्रथमो गणधरः। निशी० ७७ अ । स्थविर विशेषः । निशी ० २०७ आ । गौतमं रोहीणिगोत्रम् । जम्बू० ५००| गौतमः अन्तकृदशानां प्रथमवर्गस्य प्रथमम ध्ययनम् । अन्त॰ १। कुमारविशेषः। अन्त० २| भक्तिबहुमा तृतीयभङ्गे दृष्टान्तः निशी• ८अ हस्वोबलिवर्दस्तेन गृहीतपादपतनादिविचित्रशिक्षेण जनचित्ताक्षेपदक्षेण भिक्षामट-न्ति ये ते गौतमः औप०८९| एषणासमितिदृष्टान्ते घिग्जा तीयश्चक्रकरः । आव ० ६१६। प्रतीच्यां दिशि लवणसमुद्राधिपसुस्थितनामदेवावासभूतो द्वीपविशेषः। प्रज्ञा० ११४ गोव्र-तिका गृहीतशिक्षं लघुकायं वृषभमुपादाय धान्याद्यर्थ प्रतिगृह-मटन्ति ते गौतमाः । सूत्र० १५४१ निशी. उपरा गोयमकेसिज्जं - उत्तराध्ययनेषु त्रिंशत्तममध्ययनम् । सम० ६४ | गोयमदीव - गौतमद्वीपः द्वीपविशेषः । सम० ७९ । गोयमसामी- गौतमस्वामी, प्रथमो गणधरः, । आव० ६५। ज्ञाता० १७०, १७१, १७८, २२६ । अन्त० २२ गोयर- गोचर:- भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः सम० १०७| नन्दी० २१० भिक्षाटनम् । ज्ञाता० ६९ गोचर:भिक्षाटनम् । भग० १२२१ गोरिव चरणं गोभरः । उत्त० ११६ । गोरिव चरणं गोचर - उत्तमाधममध्यम कुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् । दशकै १६३| गोयरग्गपविट्ठो- गोरिव चरणं गोचरस्तस्यार्ग्य-प्रधानं तस्मिन् प्रविष्टः गोचराग्रप्रविष्टः । उत्त० ११६ | गोयरचरिया- गोश्र्चरणं गोचरः चरणं चर्या गोचर इव चर्या गोचरचर्या भिक्षाचर्या आव• ५७ गोयरतिअ - गोचरत्रिकं त्रिकालभिक्षाटनम् ओघ० ६५| गोयारिया गोचरचर्या निशी ९अ गोयावरी - गोदावरी नदीविशेषः । व्यव० १९३ अ । [127] *आगम - सागर- कोषः " [२] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] गोरक्खरा- एकखुरचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा० ४५१ | गोलव्वायणं- गोलव्यायनं-अनुराधागोत्रम्। जम्बू० ५००। गोरखुरो- गोरखुरः-एकखरचतुष्पदः। जीवा० ३८१ गोलांगूल-गोलागूलं-वानरः। भग० ५८२। गोरव- गौरवं-अशुभाध्यवसायविशेषः। प्रश्न०६२। ऊर्ध्वा- | गोलाकारे- गोलाकारः-वृत्ताः। सूर्य. २६७। धस्तिर्यग्गमनस्वभावः। स्था० ४३४। गोलावलिछाया- गोलनामावलिर्गोलावलिस्तस्याः छाया गोरस- गोरसं-गोभक्तादि। आव० ९१। गोरसः। आव० गोलावलिच्छाया। सूर्य. ९५५ ३४३। सूत्र. २९३। गोलिकाः- भण्डिकाः। स्था० ४१९। गोरसकुंड- गोरसकुण्डः। आव० ६४१। गोलिगि-महियविक्कया। निशी० ४५ अ। गोरसदवा- गोरसद्रवः-दध्यादिपानकम्। पिण्ड० १५० गोलियधणुयं-गोलिकधन्ः। उत्त० २४५ गोरसघोवणं- गोरसधावनम्। आव०६२४१ गोलिया- गोलिका-गन्धप्रधाना शाला। व्यव० २४८। आ। गोरहत्ति- गोरहकः-कल्होटकः। आचा० ३९१। मथितविक्रायकाः। बृह. १५४ आ। गोरहग- गोरथकः-कल्होडः। दशवै.२१७। कल्होडकः।। गोलियालिंग-अग्नेराश्रयविशेषः। जीवा. १२३ बृह. १३८ आ। गोलोममेत्तो-अहस्तप्राप्या-गोलोममात्रा। निशी० ३१४१ गोरहसंठितो-पासातो। निशी० ६९ आ। गोलोमा-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३१| प्रज्ञा०४१| गोरा-नदीपाषाणभृङ्गिका। बृह. १६२ आ। गोधूमा। गोल्लविसओ- गोल्लविषयः-गोल्लदेशः। आव० ४३३। निशी. २७ आ। गौडविषयः-गौडदेशः। आव० ८३० गोरी- गौरी-कृष्णवासुदेवस्य राज्ञी। अन्त० १८१ गोल्हाफलं-बिम्बफलम्। प्रश्न० ८१जीवा० २७२। अन्तकृद्द-शानां पञ्चमवर्गस्य दवितीयमध्ययनम्। गोवगो- गोपः। आव० ३९० अन्त०१५। चत्वारि-महाविदयायां प्रथमा। आव० १४४। गोवग्गं- गोरूपाणि। स्था० ५०२। बलकोट्टज्येष्ठभार्या। उत्त० ३४५ गोवच्छय-गोवत्सः। उत्त० ३०३। गोरीपाडलगोरा- गौरी या पाटला गोवती- गोपतिः-गवेन्द्रः। ज्ञाता० १६१। पुष्पजातिविशेषस्तद्वद्ये गौरास्ते गौरीपाटलागौराः। गोवतीते- गोव्रतिकः-गोश्चयानकारी। ज्ञाता० १९५१ ज्ञाता०२३१॥ गोवल्लं- गोवल्लायनं-पूर्वाफाल्गुन्या गोत्रम्। जम्बू. गोरुवं-गौः। आव. १८९। ५०० गोरे- गोधूमः। बृह. १२६ अ। | गोवल्लायणसगोत्ते- पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य गोत्रम्। सूर्य गोल-देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकः। आचा० ३८८१ गोलः-तत्त- | १५०| जम्बू. ५००। देशप्रसिद्धितो नैष्ठादिवाचकोऽयं शब्दः श्वा वा। दशवैः | गोवाटादि-कईमः। स्था० २१९। २१५ साधोरुपमानम्। दशवै. १९| गोले-नानादेशापेक्षया | गोवालो-यो गाः पालयति गोपालः। उत्त०४९५। गोपालः। गौरवक-त्सितादिगर्भमन्त्रणवचनमिदम्। दशवै० २१६) आव०४१८१ ज्ञाता० १६७। वृत्तपिण्डः। स्था० २७२। गोलकः-वर्तुलः | गोवलकंचु- गोवालकञ्चुकम्। बृह० १०९ अ। पाषाणादिमयः। अनुत्त०१४॥ गोवालकंचुगो-गोवालकञ्चुकः। बृह० २१७* गोलगो- गोलकः-जन्तुमयो वर्तृलाकारः। आव० ४१९। गोवालगमाया– गोपालकमाता शिवा, श्रृगालिनी। आव० आव०४२२ गोलछाया- गोलमात्रस्य छाया गोलच्छाया। सूर्य ९५ | गोवाला- गोपालाः-राजा। नन्दी० १५१। गोलपुंजछाया- गोलानां पुजो गोलपुञ्जो गोत्कर। गोवाली-गोपाली-संवरोदाहरणे श्रीपार्श्वस्वामिसाध्वी। इत्यर्थः, तस्य छाया गोलपुञ्जच्छाया। सूर्य. ९५१ आव०७१४। वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ गोलय- गोलकः-वृत्तोपलः। जम्बू. ३२६। पिण्डकः। उत्त० | गोविंद- गोविन्दः। आव०७१३। भिक्षुविशेषः। नि० ३९ ५३० अ। श्रावकविशेषः। व्यव० १७९ अ। ६७५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [128] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] गोविंददत्त - गोपेन्द्रदत्तः सद्व्यवहारकाचार्यः। तगरायामाचार्यस्याष्टमः शिष्यः । व्यव. २५६अ। गोविंदनिज्जुत्ति हेतुशास्त्रभेदः । बृह० १४२ अ गोविंदवायगो-मिच्छादिट्ठी व्रतेसु पच्छा समत्तपडिवत्तस्स सम्म आउडुस मूलं निशी० १२६ अ निशी० पृ० ८३ अ । गोविन्दवाचकः मूलप्रायश्चित्ते दृष्टान्तः। व्यव० १०३ आ । वाचकविशेषः । निशी० २९३ | आगम- सागर - कोषः (भाग:-२ ) आ । गोवृषः- बलीवर्दविशेषः । बृह० २१३ अ । गोव्रतिका:- गोचर्यानुकारिणः। अनुयो० २५ गोशालः- आजीविकमतप्रवर्त्तकः । नन्दी० २३९ | गोशालकः- जिनोपसर्गकारीनिह्नवः । विपा० ६४॥ सूत्र ३८६ | ज्ञाता० १६२| उत्त० ४७ | गोशीर्ष- चन्दनविशेषः । सम० १३८ । गोशीर्षचन्दनं - चन्दनविशेषः । ज्ञाता० १२८ गोसंखी- गोशखी कौटुम्बिक आभीराणामधिपतिः । आव० २१२ | गोसंखो (ख) डी- उज्जूहिगा । निशी. ७१ अ गोसंधिओ गोसन्धिकः-गोष्ठाधिपः । आव० ८६३ | गोस- गोषः-प्रत्यूषः। आव० ७८१ । प्रातः । व्यव० २३६ । गोसाल- मङ्खलिपुत्रः । भग० ६५२, ६६० आव० १९९ । गोसालसिस्सा - आजीवगा। निशी० ९८अ । गोसाला - गोणादि जत्थ चिट्ठति सा गोसाला | निशी० २६५अ गोसीस - गोशीर्ष - उत्तमचन्दनविशेषः । प्रश्न० १३५ ॥ चन्दन विशेषः । जीवा २२७ गोशीर्षनामकचन्दनम्। प्रज्ञा० ८६ | गोसीसचंदणं- गोशीर्षचन्दनम् । आव० ११६ गोसीसावलिसंठिते- गोशीर्षावलिसंस्थितं गोः शीर्ष गोशीर्ष तस्यावली- तत्पुद्गलानां दीर्घरुपा श्रेणिः तत्समं संस्थानम्। सूर्य॰ १२९। गोसे - प्रातः । व्यव० २३५॥ उदयमादिच्चे | निशी० ७७अ । गोषो- प्रत्यूषः । आव० ३५१| गोस्तूपा - समुद्रमध्यवर्तिनः पर्वतविशेषाः प्रश्न. ९६ गोष्ठानि - घोषाः । स्था०८त गोष्ठामाहिलः– मिथ्यादर्शनशल्ये दृष्टान्तः । आव० ५७९ । स्वाग्रहग्रस्तः कश्चित् । सूत्र० २३३ | गोष्ठामाहिलः । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] आचा० २०९ | गोह- राजपुरुषः । उत्त० १७९ । गोधः- आरक्षः । आव० २९९, ३१६। उत्त० १६२| अधमः । आव० ४१५ | गोहः - जारः । ओघ० ४६१ दण्डिकः- आरक्षकः । आव• ६९२॥ कर्मकरः । दशवें० १८१| प्राकृतः । आव० ३०१ । उपपतिः । नन्दी० १४५| गोधः । दशवै० ८९ | गोहा - गोधा । उत्त० ६९९ | गोधा भुजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः । जीवा० ४०| गोहिआ चर्मावनद्धवाद्यविशेषः । दर्दरिकेत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा । अनुयो० १२९| गोहिका - भाण्डानां कक्षाहस्तगतातोद्यविशेषः । आचा० ४१२ गोहुम- गोधूमः धान्यविशेषः । ज्ञाता० २३१ दशवै० १२३ | औषधिविशेषः । प्रज्ञा० २३३ गोहे- गोधा सरीसृपविशेषः । भग० ३५६ । गोधा । आव० ९६ । व्यवहारी । दशवै० ५९| गौतम :- रागद्वेषादिसहभावविरहितो गणधरविशेषः । उत्त० २४१ | गौतमस्वामी - प्रथमगणधरः । आचा० २१ | गौतमादिः - सूत्रत आत्मागमवान् आव० ५७ गौरवं ऋद्धा नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया । सम० ९ गौरीपुत्रा भिक्षाका जम्बू० १४२१ गौर्गलिः- असञ्जातकिणस्कन्धः । आचा० ८७ ग्रन्थः- ग्रन्थ-काव्यं धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थनिबद्धं संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसंकीर्णभाषानिबद्धं, गद्यपद्यगेयचीर्ण-पदबद्धं वा जम्बू. २५९| ग्रन्थविच्छेदविशेषः- वस्तु। नन्दी० २४१| ग्रहगृहीतः उन्मत्तः दृप्तः । पिण्ड० १६३ ग्रहणकं सूचकम्। उत्तः २४२ ग्रहणशिक्षा - प्रथा शिक्षा | नन्दी० २१० | ग्रहणाभ्यासः । आव० ८३३ | बृह० ६४ | ग्रहणा - शिक्षा आसेवनात्मिका । उत्त० २८२ ग्रहदण्डाः– दण्डाकारव्यवस्थिता ग्रहा-ग्रहदण्डाः ते चानर्थी पनिपातहेतुतया प्रतिषेध्या न स्वरूपतः । जीवा० २८२ ग्रहगर्जितानि - ग्रहचारहेतुकानि गर्जितानि, इ स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्यानि जीवा० २८रा [129] *आगम - सागर- कोषः " [२] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] ग्रामकूटः- ग्रामे महत्तरः। निशी. १७६ आ। घंटियाजाल-घण्टिकाजालं किकिणीवृन्दम्। भग० ४७८1 ग्रामणीः-आधाकर्मपरिहरणे वणिग। पिण्ड०७२ घंतु- घातुकः-हननशील इति। उत्त० ४३९। ग्रामभोगिकः- ग्रामनगरपतिः। ओघ० ४६। ठक्क्रः । घंसण-चन्दनस्येव घर्षणम्। आव. २७३। आव. २३८१ घंसिका-अनुरङ्गा यानविशेषः। बृह. १२५ आ। ग्रामरक्ष-त्रिकचत्वारादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता घंसित्ता-घृष्ट्व। आव० ८३१| उपचर-न्ति। आचा० ३०८ घंसियगा-घर्षितकाश्चन्दनमिव द्दषदि। औप० ८७। ग्रामेण-जनसमूहेन। सम०५३। घओदए-घृतोदकं-बादरः अप्कायिकविशेषः। प्रज्ञा० २८१ ग्रामेयकः- ग्राम्यः। नन्दी०१४९। घटकः-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६) ग्राहः-अभिलाषः। आव० ८१४। घटकारः-स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तः। नन्दी. १६५१ ग्राहणाकुशलः- यो बह्वीभिर्युक्तिभिः शिष्यान् बोधयति, | घटखर्पर - कपालः। आचा० ३१११ व्याख्याप्रायोग्यः सूरिः। आचा० ३। घटना-अप्रात्प्रानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना। भग. ग्राह्यवाक्यः- सर्वत्रास्खलिताज्ञः, व्याख्याप्रायोग्यः ८४८ सूरिः। आचा० २। घटाभोज्यं- महत्तरानुमहत्तरादिर्बहिरावासितः। व्यव० ग्रीवा- लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जूपरिवर्तीप्रदेशः। उत्त. ३६२। ७०२। कोटा। प्रश्न. ५६। आचा० ३८१ घटिकालयादीनि-येष्वतिसम्पीडिताङ्गा गैवेयकाणि-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि विमानानि। दुःखमाकृष्यमाणाः-बहिर्निष्क्रामन्ति जन्तवः। उत्त. आव०४०१ २४७। -X-x-x घट्टइ-सर्वदिक्षु चलति, पदार्थान्तरं वा स्पृशति। भग. १८३। घट्टते-परस्परं संघट्टमाप्नोति। जीवा० ३०७१ घंघसालगिहे-घङ्घशालागृहेः। पिण्ड० १०५ घट्टए-लिप्तपात्रमसृणताकारकः पाषाणः। बृह० २५३ अ। घंघशाला- शालाविशेषः। आचा० ३०९, ४०२१ सम० ३८ घट्टग-घट्टकः येन पाषाणकेन पात्रं नवलेपं मसृणं क्रियते। घयशाला- अनाथमण्डपम्। ओघ० २००। बृहच्छाला। ओघ. १४४। पाषाणकः येन पत्रिकं सद घृष्यते । ओघ. आव० ६५४। घट्टनं धर्मकथनं वा तत्राव्यतिरिक्ता १३०| घट्टकः। स्था० ३३९। बहकार्प-टिकासेविता वसतिर्घघशाला। व्यव० २५अ। घट्टगरइतं-घट्टकेन रचितं-मसृणितं-घृष्टम्। ओघ. १४५ घंटलोह-घंटालोहः-यस्मिन्नेव दिने यत्र लोहे घंटाकृता घट्टण-घट्टन खजागतिः। प्रज्ञा० ३२९। आव०७९१] तल्लोहं तस्मिन्नेव दिने विनष्टम्। व्यव. २०२ अ। चालकम्। दशवै०१५२। पिण्ड. १७१। चलनम्। ओघ. घंटा-सियालो। बृह. ११९ अ। किकिण्यपेक्षया १३६। आहननम्। ओघ० ५२ घट्टनं-मिथञ्चालनम्। किञ्चिन्म-हत्यो घण्टाः। जीवा० १८१। जम्बू० २३ दशवै. २२८ सजातीत्यादिन चालनम्। दशवै. १५४| घंटाजालं-किङ्किण्यपेक्षया किञ्चन्महती घण्टा घट्टनानिजालादीनि चलनानि। ओघ. १८११ आव. १४० तज्जालम्। जीवा. १८११ घट्टणया-वकगतेः प्रथमो भेदः। घट्टनता। प्रज्ञा० ३२८१ घंटापासगा-घण्टापाा -घण्टैकदेशविशेषाः। जम्ब०५३ घट्टनता-अक्ष्णि रजः प्रविष्ठं मर्दित्वा घंटापासो- घण्टापाचः। जीवा. २०७। दुःखयितुमारब्धम्, स्वयमेवाक्ष्णि गले वा किञ्चत्सा घंटिआ-घण्टिकाः-घण्टावादकाः। जम्बू. १८२ घण्टिका लुकादि उत्थितं घट्टयति। आव० ४०५ घर्घरिकाः। जम्बू० १०६। घट्टणा-घट्टना-चलनम्। ओघ. २२॥ घंटिकयक्षः- कुलदेवता। बृह० २१५अ। घट्टनता- अक्षिकणुकादेः। आचा० २५५। घंटिक्करग-स्थालः। निशी० ९१ अ। घट्टना-कदर्थना। आचा. २६३ घंटिया-घण्टिकाः। प्रश्न. १५९| भूषणविधिविशेषः। घट्टयंतं- वस्त्वन्तरं स्पृशन्तम्। स्था० ३८५ जीवा० २६९। क्षुद्रघण्टाः । जम्बू० ५२९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [130] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] घट्टिओ-घट्टितः-मुद्रितः। दशवै. ९२ घडमुहपवत्तिए-घटमुखेनेव कलशब्दनेनेव प्रवर्तितः घट्टित-घट्टितः-प्रेरितः। प्रश्न. ५९। सष्ठतरं परितापितः। प्रेरितः घटमुखप्रवर्तितः। सम० ८५। बृह० ९१ आ। घडा-गोष्ठी। बृह. १८८आ। गोट्ठी। निशी. १५६ आ। घट्टितघट्टनं-घट्टितानि-संबद्धानि घट्टनानि जालादीनि महत्तरानुमहत्तरादिगोष्ठीपुरुषसमवायलक्षणा। बृह. ९ चल-नानि यस्य सः। आव० ५४०, ५४६। ओघ० १८१। आ। घटा-समुदायः। भग० ८३। घट्टिय-घट्टितः-सुविहितोपायः। धीवरादिकृत उपायः। घडाविओ-योजितः। आव०६८८१ पिण्ड० १७१। घट्टितः-स्पष्टः। प्रश्न. ६०| परस्परं घडिगा-घटिका-मृन्मयकल्लडिका। सूत्र० ११८ घर्षयुक्ता। जम्बू० ३७ घडितव्वं-घटितव्यं-अप्राप्तु योगः कार्यः। स्था० ४४१। घट्टे-घट्टयति अगुल्या मसृणानि करोति। ओघ. १४३ | घडिय-घटितं-संयोगो जातः। आव० ८२४। कुपितम्। घट्टेइ-घट्टयति स्पृशति। ओघ० २११। हस्तस्पर्शनेन दशवै. १९५४ घट्टय-ति। ज्ञाता०९६। घडियनाती-घटितज्ञातिः-दृष्टाभाषितः। व्यव० ८५अ। घट्टे-घट्टयित्वा-तिरस्कृत्य। ओघ. १९२ घडियल्लय-घटितः। आव०४१०| घट्ट-घृष्टं पाषाणादिना उपरि घर्षिते। सूर्य. २९३। जीवा. | घडियव्वं-अप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या। १६० भग० ८४८1 अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या। ज्ञाता०६० घट्ठा-घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत्। | घडीमत्तयं-घटीमात्रकं-घटीसंस्थानं सम० १३८ प्रज्ञा० ८७ घृष्टा इव घृष्टा खरशाणया मृन्मयभाजनविशेषः। बृह. २६ आ। पाषाणवत्। जम्बू. २०॥ येषां-जङ्घे लक्ष्णीकरणार्थं | घडेति-घटयन्ति संयोजयन्ति। जम्बू० ३९४। फेनादिना घृष्टे भवतस्तेऽवयवावयविनोरभेदोपचारात् घडेमि-घटयामि। आव० ४२० धृष्टाः। अनुयो० २६। घृष्टा इव घृष्टा खरशाणया घणंगुले-घनाङ्गुलम्। अनुयो० १७३। प्रतरश्च सूच्या प्रतिमेव। औप० १० घृष्टाजवास् दत्तफेनका। ओघ० गणितो दैर्येण विष्कम्भतः पिण्डतश्च समसङ्ख्यं ५५ घृष्टा। स्था० २३२॥ घनाङ्गुलम्। अनुयो० १५८ घड-घटकारः-कर्मजायां बुद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी. १६५। | घणं-अन्यान्यशाखाप्रशाखानप्रवेशतो निबिडा। जीवा. घटा-समुदायरचना। भग० २१५ १८७| घनं-वादित्रविशेषः। जम्बू०४१२ घनम्। आव० घडओ-घटः। आव०४२३| घटकः। आव० ५५९। २०८, ८४८ घनं-कांस्यतालादि। जीवा० २६६। निविडा। घटक- घटकः। अनुयो० १५२। ओघ० ३०| निश्छिद्रम्। ज्ञाता० २ घनं-कंसकादि। जीवा. घडणं-घटनं-अप्राप्तसंयमयोगप्राप्तये यत्नः। प्रश्न. २४७। देवविमानविशेषः। सम० ३७ कोटगपड़गादिगंधा। १०९। निशी० १ अ। कलषः। बृह. १३८ । घनः- यस्य राशेर्यो घडण-घटकः-लघुर्घटः। जम्बू. १०१। वर्गः स तेन राशिना गुण्यते ततो घनो भवति। प्रज्ञा० घडणजयणप्पहाणी-घटनं-संयमयोगविषयं चेष्टनं २७५) निविडप्रदेशोपचयः। सूर्य २८६। घनाकारं यतनं-तत्रैवोपयुक्तत्त्वं ताभ्यां प्रधानः-प्रवरः वादित्रम्। सूर्य. २६७। व्याप्ताः । प्रज्ञा० ३६। घनःघटनयतनप्रधानः। उत्त० ५२२॥ सङ्ख्यानं यथा द्वयोर्घनोऽष्टौ। स्था० ४९६। घनःघडदास-घटदास। आचा० ३८८1 बहुलत्तरः। जीवा० २०७। स्त्यानीभूतोदकः पिण्डभूतो घडदासी-घटदासी-जलवाहिनी। सूत्र. २४५) वा। जीवा० ९१| घनं-काश्यतालादिकम्। भग० २९७) घडभिंगारो-घटभृङ्गारः-जलपरिपूर्णः कलशभृङ्गारः। जम्बू. १०२। चतुःषष्टिपदात्मकं तपः घनतपः। उत्त. औप०६९। ६०१ घडमुह- घटमुखं, घटकमुखमिव मुखं घणकडियकडिच्छा-अन्योऽन्यं शाखानप्रवेशाद तुच्छदशनच्छदत्वात्। भग० ३०८५ बहलनिरन्त-रच्छायः। भग०६२८। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [131] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] घणकडियकडिच्छाए- अन्योऽन्यं शाखान्प्रवेशाद् बहल | घत्तेह-प्रक्षिपत। जम्बू. २४०। निरन्तरच्छायः। औप०६। घत्थं- ग्रस्त-अभिभूतम्। आव० ५८८ घणकरणं-घनकरणं-यथायोगं निधत्तिरूपतया घत्थे- गृहीताः। पिण्ड० ४७। निकाचना-रूपतया वा व्यवस्थापनम्। पिण्ड०४१। घत्थो- ग्रस्तः। मरण | घणकुड्डा-घनकड्या-पक्वेष्टकादिमयभित्तिकाः। बहः । घन-घनतपः। उत्त०६०१|स्त्यानो हिमशिलावत्। स्था० ३१० आ। १७७ वाद्यकशब्दविशेषः। स्था०६३। हस्ततालकं घणगणियभावणा-घनगणितभावना। जीवा० ३२५१ साला-दि। आचा० ४१२। घणघणाइय- घनघनायितः घणघणायितः घनकडियकडच्छाए-कटः सजातोऽस्येति कटितःघणघणायितरूपः। जम्बू. १४४१ कटान्त-रेणोपरि आवृत इत्यर्थः कटितश्चासौ कटश्च घणदंतदीवे- अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६। कटितकटः घना-निविडा कटिततटस्येवाधो भूमौ छाया घणदंता-घनदन्तनामा अन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५०। घनकटितकटच्छायः। जीवा. १८७ घणदन्तो-घनदन्तः-अन्तरदद्वीपविशेषः। जीवा० १४४।। घनतपः-षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया घणमुइं-जस्स मुइंगस्स घणसद्दसारित्थो सद्दो सो श्रेण्या गुणितो-घनो भवति, आगतं चतुःषष्ठिः ६४ घणमुई। निशी. १७१ आ। स्थापना तु पूर्विकैव नवरं बाहल्यतोऽपि घणमुइंग- मेघसदृशध्वनिर्मुरजः। जम्बू०६३। पदचतुष्टयात्मकत्वं विशेषः, एतद्पलक्षितं तपो घनतप घणमुयंगो-घनमृदङ्गः-घनसमानध्वनिर्यो मृदङ्गः। उच्यते। उत्त०६०११ जीवा० २१७। पटुना पुरुषेण प्रवादितः घनसमानध्वनिर्यो | घनपरिमंडलं- चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं मृदङ्गः। जीवा० १६२ चत्वारिंशत्परमाण्वात्मकं च, तत्र तस्या एव विंशतेरुपरि घणवट्टे-सर्वतः समं घनवृत्तम्। भग०८६१| तथैवान्या विंशतिरवस्थाप्यते। प्रज्ञा० १२१ घणवाए-घनवातः-घनपरिणामो वातो घनोदधि-धनः-स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिःरत्नप्रभापृथिव्याद्य-घोवर्ती। जीवा० २९। घनवातो- जलनिचयः स-चासौ चेति घनोदधिः। स्था० १७७ घनपरिमाणो रत्नप्रभापृथि-व्यादयभोवत्र्ती। प्रज्ञा० ३०, । घनोपलः-करकः। प्रज्ञा०२८। घम्मपक्कं-धर्मपक्वम्। विपा०८० घणवाय-घनवातः-अत्यन्तघनः पृथिवाद्याधारतया घम्मो -घर्मः। आव० ३४९। व्यव-स्थितः हिमपटलकल्पः। आचा०७४। घय-धर्मः। आव. ३४९। घणवाया- रत्नप्रभायधोवर्तिनां घनोदधिनां विमानानां | घय-घृतवरः-क्षीरोदसमुद्रानन्तरं द्वीपः। प्रज्ञा० २०७। वाऽऽधारा हिमपटलकल्पा वायवो घनवातः। उत्त०६९४| द्वीप-विशेषः। अनुयो० ९०। घृतं-आज्यम्। दशवे. १८० घणसंताणिया- घनस्तानिका-घनतन्तुका। ओघ० ११८५ | घृतवि-क्रयी, कर्मजायां बुद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी० १६५ घणसंमद्दे- घनसम्मर्दः-यत्र चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य | घयउरा-घृतपूर्णाः। उत्त० २१०। नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति स योगः। सूर्य २३३। घटकुडो-घृतकुटः-घृतकुम्भः । आव० ३१०| घणोदधिवलए-घनोदधिवलयः-वलयाकारघनोदधिरूपः। | घयणं-भाण्डः, औत्पत्तिकीबद्धौ दृष्टान्तः। नन्दी. १५३। जीवा० ९५ घयणो-घृतान्नः। आव० ४१९। भाण्डः। बृह० २१३। घत्तह-यतध्वम्। तन्दु। घयपुण्णो-घृतपूर्णाः। उत्त० २०९। घत्तामो-क्षिमापः-दिशो दिशि विकीर्णसैन्यं कर्मः | घयमंडो-घतमण्डः-घतसारः। जीवा० ३५४॥ जम्बू. २३३ घयमेहे-घृतवत् स्निग्धो मेघो घृतमेघः। जम्बू. १७४। घत्तिय-प्रेरितः। ओघ० १३७५ घयवरो-घृतवरः द्वीपविशेषः, घृतोदकवाप्यादियोगाद् घत्तिहामि- यतिष्ये। विपा० ८३॥ घृतवर्णदेवस्वामीकत्वाच्च दवीपः। जीवा० ३५४ اواوا मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [132] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] घयविक्किणओ-घृतविक्रायकः। आव० ४२७॥ | घसिरो- बहुभक्खगो। ओघ० ९८१ निशी० २०१ अ। घरंतरं-घरंतरा उपरेण जंतं घरंतरं। निशी. १८७ घसो- भूराजिः। जीवा० २८२ स्थलादधस्तादवतरणम्। घर-गृहाणि सामान्यजनानां सामान्यानि वा। अनुयो. आचा० ३३८५ १५९। गृहम्। आव० ५८१, ८४५। गृह-सामान्यम्। प्रश्न. | घाए- घातः-गमनम्। सूर्य०८, ४९। घाओ-घाताः-प्रमाराः। ज्ञाता०६९। संपीडनम्। ओघ. घरओ- गृहम्। आव० ३९१|| १३६] घरकुटीए-बहिरवस्थितं घनकादि, अथवा घाड-घाट:-मस्तकायववविशेषः। पुरुषादिवधः। ज्ञाता० तत्कलहिकान्त-र्गतकुट्यां वा निवसति। आव० ५७ १३८ घरकोइल- गृहगोधिका। पिण्ड० १०३ घाडामुह- घाटामुख-शिरोदेवविषयः। भग० ३०८। घाटाघरकोइलओ- गृहकोकिलः-गृहगोधा। आव० ३८९। मुखं-कृकाटिकावदनम्। जम्बू. १७०| घरकोइलिआ- गृहकोकिलिका-घरोलिका। ओघ० १२६। घाडिए-मित्रम्। निशी. ७८ अ। घरकोइलिया-गिहिकोइला। निशी. १८२ आ। गृह- घाडिय-सहचारी। ज्ञाता०८९। मित्रम्। निशी. १२७। कोकिला-गृहगोधिका। आव०७११। घाणं-तिलपीडनयन्त्रम्। पिण्ड०१७ घ्राणं-गन्धः। प्रज्ञा घरकोइलो- गृहकोकिला। आव०६४१| ६०१। घ्राणो-गन्धो गन्धोपलम्भक्रिया वा। गन्धगुणः। घरघरओ-घरघरकः-कण्ठाभरणविशेषः। जम्बू०५२९। भग०७५३ घरचिडओ- चटकः। निशी. ३३ आ। घाणामाड-घ्राणमयात्। स्था० ३६९। घरछाइणिया- गृहच्छादनिका। उत्त०१४७) घाणिदिए-ध्राणेन्द्रियम्। प्रणा० २९३। घरछादणिया- गृहच्छादनिका। आव० ३४३। घात-हन्यन्ते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् घरजामाउ- गृहजामाता। ज्ञाता०२०१| घातः-नरकः। सूत्र. १२८१ घरट्ट-घंटी, यन्त्रविशेषः। ओघ० १६५। भ्रमणकल्पम्। घातिकर्म- वेदनीयादिकर्म। प्रज्ञा० ५६५) दशवै० ११४॥ घातो-घातः-देशतो घातनम्। प्रश्न. १३७। घरणी- गृहिणी। आव० २२४। घाय- घात्यन्ते-व्यापादयन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् घरवइ- गृहाणां वृतिः। बृह. १८४ । प्राणिनः स घातः-संसारः। सूत्र० १६१। घरवगडा- गृहवगडा-गृहवृतिपरिक्षेपः। बृह. ३०९ आ। घायए- चातकः-योऽन्येन घातयति। जम्बू. १२३। घरसमुदाणिया- गृहसमुदान-प्रतिग्रहम्। औप० १०६) घायओ- घातकः-योऽन्येन घातयति। जीवा० २८० घरा- गृहाणि सामान्यतः जम्बू. १०७। गृहाणिप्रसादाः। | घायणा-घातना-प्राणवधस्य षष्ठः पर्यायः। प्रश्न. ५ दशवै. १९३। गृहाणि सामान्यजनानां सामान्य वा। भग. | घालती- गृहीतभाण्डाः। निर० २५० ૨૨૮૫ घास- ग्रासम्-आहारम्। उत्त०६०६। ग्रासम्। उत्त० २९४१ घरास-घरावासो। निशी. २०५आ। गृहवासः। ब्रहः २०७ घासाः-बृहत्यो भूमिराजयः। आचा० ४११। ग्रस्यत इति ग्रासः-आहारः। सूत्र०४९। औप० ३८१ घरोइला-भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। घिसिसिखासे- ग्रीष्मकाले, शिशिरकाले, वर्षाकाले। ओघ. घरोलिका- गृहकोकिलिका। ओघ. १२६) २०५४ घरोलिया-भजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः। जीवा०४०। | प्रिंसु- ग्रीष्मे। उत्त० १२३॥ घर्मा-आद्यभूमिः। आव०६०० घिणा-घृणा-पापजुगुप्सालक्षणा। प्रश्न. ५ आव० २५१| घसा-जत्थ एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सव्वो सलइ | घिणीअण्णो-जीवदयालु। निशी० १२० अ। सा। दशवै० १०२। शुषिरभूमिः । दशवै० २०५। | घीरोलिय- गृहकोकिलिकाः-गृहगोधिकाः। प्रश्न० ८५ घसिरं- ग्रसिता-बहलक्षी। बृह. २४८ अ। | घुटकः- गुल्फः। प्रश्न० ८० । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [133] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] घंटिउ-पीत्वा। तन्दु । चट्टा। बृह० ९९ आ। बृह० ३११ अ। बृह. ३०आ। घट्टति-पिबन्ति। नन्दी०६३ घोडो-घोटः-एकखुरचतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८५ घुट्टग-घुट्टकः-लेपितपात्रमसृकारकः पाषाणः। पिण्ड० ९।। घोण-नासा। प्रश्न० ८२ घुणः-काष्ठनिश्रितो जीवविशेषः। आचा० ५५ घोणसो- सर्पः। आव०४२६| घुणकीटकः- सचित्ताचित्तवनस्पतिशरीरेऽपि घोणा-नासिका। जम्बू. २३६। कीटविशेषः। सूत्र० ३५७ घोर-घोरः-अतिनिघृणः, घुणक्खर-घुणाक्षरः-न्यायविशेषः। दशवै०१११| परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमा-श्रित्य निर्दयः, घुणखइयं-घुणखादितं-कालवासः। आव०६५६। आत्मनिरपेक्षः। भग० १२। घोरः-निघृणः घुणाक्षरकरणं-न्यायविशेषः। दशवै० १५८1 परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमधिकृत्य निर्दयः, घुणितं-घुणाणं आवासो घुणितं काष्टमित्यर्थः। निशी. अन्यैर्दुरनु-चरो वा। सूर्य० ५। घूर्णयतीति घोरः२५५ आ। निरनुकम्पः। उत्त० २१७। प्राणसंशयरूपम्। आचा० १९४। घरघरायमाणं-अन्तर्नदन्तं-गलमध्ये रवं कुर्वन्तम्। आत्मनिरपेक्षम्। स्था० २३३। घोरं-हिंस्त्रा। भग. १७५ सम० ५२ रौद्रम्। दशवै० १९७। घोरो-निघृणः घुलति- भ्राम्यति। उत्त० १५० परिषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्तव्ये। घुल्ला- घुल्लिका। जीवा० ३१| घुल्लाः-घुल्लिकाः अन्ये त्वात्मनिरपेक्ष घोरम्। ज्ञाता०८1 द्वीन्द्रिय-जीवविशेषः। प्रज्ञा०४१| घोरगत्त-घोरगात्रम्। उत्त० ३०३। घूय-घूकः-कौशिकः। ज्ञाता० १३८१ घोरगुणे-घोराः-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा ज्ञानादयो यस्स स। घूरा-जङ्घा खलका वा। सूत्र० ३२४| सूर्य०४। अन्यैर्दुरनुचरा गुणा मूलगुणादयो यस्य सः। घृत-स्निग्धस्पर्शपरिणता घृतादिवत्। प्रज्ञा० १० भग० १२१ घृतपूपः-घृतनिष्पन्नः पूपः। आव० ४५८१ घोरतवस्सी-घोरतपस्वी-घौरैस्तपोभिस्तपस्वी। भग. घृतपूर्ण- सुपक्ववस्तुविशेषः। उत्त०६१। अशनम्। आव० | १२॥ सूर्य० ४१ ८११| घोरपरक्कमो-घोरपराक्रमः-कषायादिजयं प्रति घृतोदः-घृतवरद्वीपानन्तरं समुद्रः। प्रज्ञा० ३०७ रौद्रसामर्थ्यः। उत्त. ३६५ घृतरसा-स्वादः समुद्रः। अनुयो० ९०| घोरबंभचेरवासी-घोर-दारूणं अल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वात् घेच्चिओ-पिट्टितः। आव० २०६। ब्रह्मचर्यं यत्तत्र वस्तु शीलं यस्य सा घोरब्रह्मचर्यवासी। घेच्छति- ग्रहीष्यति। आव. २३४१ सूर्य० ३। भग० १२॥ घेत्थिहि- ग्रहीष्यति। आव. २९३। घोरमहाविसदाहो- घोरा-रौद्रा महाविषा-प्रधानविषयक्ता। घोच्छामो- गर्हिताः स्म। आव. ९० दंष्ट्रा-आस्यो यस्य स घोरमहाविषदंष्ट्रः। आव० ५६६। घोड-घोटकः। गच्छा | घोटा डं(डि)गराः। व्यव. २३३ । | घोरविसं-परम्परया पुरुषसहस्रस्यापि हननसमर्थविषम्। घोडए- घोटकः-अश्वः। प्रज्ञा० २५२। भग०६७ घोडओ-घोटकः। सामान्योऽश्वः। जीवा. २८२। | घोरव्वओ- घोरव्रतः-घृतात्यन्तदुर्धरमहाव्रतः। उत्त. घोडगा- एकखुरचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा०४५।। ३६५ घोडगो-घोटकः-अश्वः। आस्व्व विसमपायं गायं ठावित्त | घोरा-झगिति जीवितक्षयकारिणी औदारिकवतां, ठाइ उस्सगे। आव० ७८९। बलीवर्दः। निशी. ३७ आ। परिजीवि-तानपेक्षा वा। प्रश्न. १७५ घोडमादी-असंखंडीदोषविशेषः। निशी० ३३२ अ। घोरासमं-घोराश्रमः-गार्हस्थ्यम्। उत्त. ३१५ घोडयगीवो-घोटकग्रीवः। आव. १७६) घोलण-घोलनंघोडा-घोट्टा-चट्टा जूअकारादिधुत्ता। निशी० २०७ आ| | अङ्गुष्ठकाङ्गुलिगृहीतसञ्चाल्यमानयूकाया इव। आव. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [134] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] २७३। | चंगेरी-चङ्गेरी-ग्रथितपुष्पसशिखाकरूपा। प्रज्ञा० ५४२। घोलिओ-घूर्णितः। आव० ३०३। महतीकाष्ठापात्री बृहत्पट्टलिका वा। प्रश्न.1 घोलियया-घोलितका दधिघट इव पट इव वा। औप० ८७ | चंगोडए-नाणककोष्ठागारम्। बृह. ९३ आ। घोषविशुद्धिकरणता चंचरिकः- भ्रमरः। प्रज्ञा० ३६१| उदात्तानुदात्तादिस्वरशुद्धिविधायिता। उत्त० ३९। चंचलायमाणं-चञ्चलायमानं सौदामिनीयमानं घोषातकी- कटुकवल्ली विशेषः। नन्दी० ७७। कान्तिझा-त्कारेणेत्यर्थः। जम्बू. २०२२ घोसं-नर्दितम्। ज्ञाता० १६१। देवविमानविशेषः। सम० | चंचले- चञ्चलः-अनवस्थितचेतः। प्रज्ञा० ९६। विमुक्त१२, १७। ज्ञाता०२५११ गोउलं। निशी. ७०आ। घोषः- स्थैर्यम्। ज्ञाता० १३८१ गोकुलम् उत्त०६०५। बृह. १८१ आ। बृह. १८३ अ। चंचा-सप्तमदशा। निशी. २८ आ। घोषः-शब्दः। उपा० २५। उदत्तादिः। भग० १७ घोषः- | चंचु- चञ्चुः-शुकचञ्जः। जम्बू० ३६५। अनुनादः। जम्बू. ११७। गोष्ठः। स्था० ८५ चंचुच्चियं- चञ्चुरितं-कुटिलगमनं, अथवा चञ्चुःघोषः-दशमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग० १५७। जीवा० शुकचञ्चुस्त-द्वद्वक्रतयेत्यर्थः, उच्चितं-उच्चिताकरणं१७०| स्तनितकुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। निनादः। पादस्योत्पादनं चंचुच्चितम्। जम्बू. २६५। चञ्चुरितंजीवा. २०७४ कुटिलगमनम्। शुक-चञ्चुस्तद्वद्वक्रतयेत्यर्थः, घोसगसद्दो-घोषकशब्दः। आव० ४२४। उच्चितं-उच्चताकरणं पादस्य उच्चितं वा-उत्पाटनं घोसण-घोषणं। आव० ११५४ पादस्यैवं चञ्चूच्चितम्। औप०७०। जम्बू. ५३०| घोसवई-घोषवती सेनाविशेषः। आव०५१४। चञ्चुरितं-कुटिलगमनम्। चञ्चुः-शुकचञ्चुघोसवती-घोषवती-प्रद्योतराज्ञो वीणा। आव०६७४। स्तदवदवक्रतया उच्चितं-उच्चताकरणं पादस्योत्पाटनं घोससम-घोषा-उदात्तादयस्तैर्वाचनाचार्याभिहितघोषैः वा (शुक) पादस्येवेतिचञ्चूच्चितम्। भग० ४८० सम-घोषसमम्। अनुयो० १५) चंचुमालइय- पुलकिता। भग० ५४१। पुलकितः। औप० घोसा- निनादः। जम्बू० ५३| ર૪. घोसाइ-घोषा-गोष्ठानि। स्था० ८६) चंड-रौद्रः। भग०४८४ चण्डः-कोपनः परुषभाषी वा। घोसाडइ-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ उत्त०४९। चण्डः-चारभटवृत्त्याश्रयणतः। उत्त०४३४| घोसाडए-घोषातकी। प्रज्ञा०६३४। क्रोधः। भक्त० चण्डं-झगिति व्यापकत्वात्। ज्ञाता० घोसाइयं-घोषातकम्। प्रज्ञा० ३७। १६२। चण्डारौद्रा। भग० १६७, २३१, ४२७। चण्डत्वं घोसाडिफलं-घोषातकीफलम्। प्रज्ञा० ३६४। संरम्भा-रब्धत्वात्। ज्ञाता०९९| चण्डः उत्कटरोषत्वात्। घोसाडियाकुसुम-घोषातकीकुसुमम्। जम्बू० ३४। जीवा० ज्ञाता०२३८५ चंडकोसिओ-चण्डकौशिकः। आव० १९६। प्रद्वेषे सर्पघोसेह-घोषयत-करुत। ज्ञाता० १०३ विशेषः। आव० ४०५। चंडकौशिकः-येन कर्मणां क्षये घ्राणं- पोथः। जम्बू० २३७) कृतेऽवाप्तं सामायिकम्। आव० ३४७ __-x-x-x दृष्टिविषसर्पविशेषः। आचा० २५५ नन्दी.१६७। चंडगं-समूहः। आव० ६७१। चंकमंत-चङ्क्रममाणः। ज्ञाता० २२१। चंडतिव्व- चण्डतीव्रः अत्यर्थतीव्रः। ज्ञाता० १६२ चंकमणं-चक्रमणं-गमनम्। आव० ५२९। चंडपिंगल-मोहान्निदानकृत्। भक्त० चण्डपिङ्गलःचंकमणगं- प्रचङ्क्रमणकं-भ्रमणम्। ज्ञाता०४१। अर्थोदा-हरणे चोरः। आव०४५२। चंकमणिया-चङ्क्रमणिका-गतागतादिका। आव० ५५८ चंडप्रदयोतः- उज्जयिन्यधिपतिः। नन्दी. १६६। प्रश्न. चंगबेरे- चङ्गबेरा-काष्ठपात्री। दशवै० २१८ चंगिकं-औदारिकम्। ओघ०९०१ १९११ ९० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [135] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चंडमेहो-चण्डभेघः-अश्वग्रीवराज्ञो दूतः। आव० १७४। चन्द्रोवक्षस्कार-पर्वतः। जम्बू० ३५७। चन्द्रःचंडरुद्दो- चण्डरुद्रः-कायदण्डोदाहरणे चन्द्राकारमर्द्धदलम्। प्रज्ञा०४११। देवविशेषः। जीवा. उज्जयिन्यामाचार्यः। आव० ५७७ चण्डरुद्रः-परुषवचने २९२ द्वीपविशेषः। जीवा० ३१७। देवविमानविशेषः। उदाहरणम्। बृह. २१८ । साधुविशेषः। ओघ० ३८।। सम०८1 चंडरुद्राचार्यः- खरपरुषवचने दृष्टान्तः। व्यव० ११८ । | चंदऊडू-चन्द्रः । सूर्य. २०९। चंडवडंसओ-चन्द्रावतंसकः-साकेतनगरे राजा, यो चंदकंतं-देवविमानविशेषः। सम० ८। माघमासे प्रतिमयास्थितः सन् कालगतः। आव० ३६६। चंदकंता-द्वितीकुलकरस्य भार्या। सम० १५० आव० १२ चंडवडिंसओ-चन्द्रावतंसकः-कोशलदेशे साकेतनगरे स्था० ३९८ नृपतिः । उत्त० ३७५ चंदकुडं-देवविमानविशेषः। सम०८1 चंडविसं-दष्टकनरकायस्य झगिति व्यापकविषम्। भग | चंदग-चन्द्रकः દીકરા. चक्राष्टकोपरिवर्तिपुत्तलिकायामाक्षिगोलकः। बृह) चंडा-वेगवती-झटित्येव मूर्योत्पादिका। स्था० ४६१। १०० अ। चण्डा-चमरासुरेन्द्रस्य मध्यमिका पर्षत्। जीवा० १६४॥ | चंदगविज्झं- राधावेधोपमम्। आउ | चमरस्य द्वितीया पर्षत्, चंदगविज्झयं-चन्द्रावेध्यकं-प्रकीर्णकविशेषः। आव. तथाविधमहत्त्वाभावेनेषत्कोपादिभा-वाच्चण्डा। भग० ७४० २०२। चण्डौ क्रोधनत्वात्। ज्ञाता०९९। स्था० १२७।। | चंदगवेज्झं-चक्राष्टसुपरिपुतलिकाक्षिचंडिकावेधयत्। चण्डा-शक्रदेवेन्द्रस्य मध्यमिका पर्षत्। जीवा० ३९०| निशी. १७ आ। चंडाए-चण्डया-रौद्रयाऽत्यत्कर्षयोगेन। ज्ञाता० ३६। चंदगवेज्झो-चन्द्रकवेधः। ओघ० २२७। चंडाल-चाण्डालः-ब्रह्मस्त्रीशूद्राभ्यां जातः। आचा०८१ चंदगुत्त-चन्द्रगुप्तः। दशवै० ९१। नन्दी. १६७। चंडालरूवे- चण्डालस्येव रूपं-स्वभावः यस्य सः। ज्ञाता० विमर्शदृष्टान्ते राजा। आव०४०५। प्रशंसाविषये ८० पाटलीपुत्रराजा। आव०८१८ चूर्णद्वारविवरणे क्समपरे चंडालियं- चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, राजा। पिण्ड० १४२| निशी० ६अ। बिन्दुसारपिता। बृह. स चातिक्रूरत्वाच्चण्डालजातिस्तस्मिन् भवं ४७ । निशी० २४३ अ। पाडलिपूत्ते राया। निशी० १०२ चाण्डालिकम्। उत्त०४७। चण्डः-क्रोधस्तद्वशादलीकं- अ। बृह. ४७ अ। अशोकस्य पितामहः। बृह. १५४ अ। अनृतभाषणं चण्डालिकम्। उत्त० ३७) चंदगोमी- चन्द्रगोमी-व्याकरणकर्ता कोऽपि। सूर्य. २९२। चंडिक्कं-चाण्डिक्यं-रौद्ररूपत्वम्। प्रश्न०१२०१ चाण्डि- । चंदघोसे- चन्द्रघोषः-चन्द्रध्वजः संवेगोदाहरणे क्यम्। सम०७१। आरक्षुराभि-धप्रत्यन्तनगरे मित्रप्रभमनुष्यः। आव. चंडिक्किए- चाण्डिकितः-सञ्जातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्र ७०९। रूपः। भग० ३२२। ज्ञाता०६८। चाण्डिक्यः-रौद्ररूपः। चंदच्छाए-चन्द्रच्छायः। ज्ञाता०१२४, १३२ जम्बू. २०२ चाण्डिक्यितः-दारूणीभूतः। विपा. ५३ चंदच्छाये- चन्द्रच्छायः-अङ्गजनपदराजश्चम्पानिवासी। चंडिक्किय-प्रकटितरौद्ररूपः। भग० १६७। स्था०४०११ चंडी- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। चंदजसा- चन्द्रयशाः कुलकरपत्नी। आव० ११२१ चंडीदेवगा-चण्डीदेवकाः-चक्रधरप्रायाः। सूत्र. १५४| संवेगोदा-हरणे चन्द्रध्वजभगिनी। आव० ७०९। चंद- तृतीयवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। निर० २११ चन्द्रः। विमलवाहनकुलकरस्य भार्या। सम० १५० स्था० ३९८। निर० ३६। धर्मकथाश्रुतस्कन्धेऽष्टमवर्गे देवः। ज्ञाता० चंदज्झयं-देवविमानविशेषः। सम०८1 २५३। स्था० ३४४| चन्द्रः। प्रज्ञा० ३६१। चान्द्रः-प्रथमो | चंदण-चंदणं मलयजम्। प्रश्न० १६२। चन्दनंद्वितीयश्चतुर्थश्च युगसंवत्सरः। सूर्य. १५४। उपकारकम्। प्रश्न. १५७ भग०८०३। चन्दनः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [136] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ९६॥ मणिभेदः। उत्त०६८९। द्रव्यविशेषः। निशी. २७६ आ। | कुण्डला-कारस्तेजः परिधि। भग० १९५५ चंदणकथा- चन्दनकन्था-गोशीर्षचन्दनमयी भेरी। आव० | चंदपरिवेसो-चन्द्रस्य परितो वलयाकारपरिणतिरूपः। जीवा. २८३ चंदणकयचच्चागा-चंदनकृतचर्चाकः-चन्दनकृतोपरागः। चंदपव्वत-वक्षस्कारपर्वतविशेषः। स्था० ३२६, ८० जीवा.२०५१ चंदपुत्तो-चन्द्रपुत्रः। आव० ३९७।। चंदणकलसा-चन्दनकलशाः-मांगल्यघटाः। जम्बू०४९, चंदप्पभ-देवविमानविशेषः। सम० ८मथुरायां ४२० औप.५ जीवा० २०५। चन्दनकलशा:-माङ्गल्य- गाथापती। ज्ञाता० २५३। चन्द्रप्रभा-सुराविशेषः। आव० कलशाः। प्रज्ञा०८६| जीवा० १६० ६९५। शीत-लनाथजिनस्य शिबिकानाम। सम० १५१। चंदणग-चन्दनकः-अक्षः। प्रश्न. २४।। चन्द्रकान्तः। जम्बू. ५१। जीवा० २३४। चन्द्रप्रभः। प्रज्ञा. चंदणघडो-चन्दनघटः-चन्दनकलशः। जीवा० २२७। २७। चन्द्रप्रभः-एकोरुकद्वीपे द्रमविशेषः। जीवा० १४६। चंदणज्जा-महावीरस्वामिनः प्रथमशिष्या। सम० १५२ चन्द्रकान्तः। मथु-रानगर्यां भिण्डवडेंसकोद्याने चंदणथिग्गलिया- चन्दनथिग्गलिका। आव० ९८५ गाथापती। ज्ञाता० २५३। धर्मकथाश्रतस्कंधेऽष्टमवर्गे चंदणपायवे-चन्दपादपः-मृगग्रामनगरे उद्यानविशेषः। देवीचन्द्रप्रभाया सिंहासनम्। ज्ञाता० २५३। विपा० ३५ चंदप्पभा-चन्द्रस्येवप्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा चंदणपुड- गन्धद्रव्यविशेषः। ज्ञाता० २३२१ सुराविशेषः। जीवा०३५१जम्बू.१००| चन्द्रस्य ज्योचंदणा-चन्दनकाः-अक्षाः। उत्त०६९४| चन्दना-शीलच- तिषेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। जीवा० ३८४| चन्द्रस्येव न्दनाया द्वितीयं नाम। आव० २२५। चन्दनकाः-अक्षाः, प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा मद्यविधिविशेषः। द्वीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा०४१। जीवा. २६५। चन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। चंदणि- वक़गृहम्। आव०६८१। जम्बू. ५३२ शिबिकाविशेषः। आव०१८४१ भग०५०५ चंदणिउदय-आचमनोदकप्रवाहभूमिः। आचा० ३४१| चन्द्र-प्रभा-चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा। प्रज्ञा० चंदणिका-चन्दनिका-व!गृहम्। उत्त० १०६। ३६४। वर्धमानजिनस्य शिबिकानाम। सम० १५१| चंदणिया-व!गृहम्। आव० ३५८, ६९६) चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा। जम्बू० चंदणो-चन्दनकः-अक्षः, वीन्द्रियजीवविशेषः। जीवा. १०० धर्मकथायाः अष्टमाध्ययने प्रथममध्ययनम्। ३१| ज्ञाता०२५२, २५३। मथुरानगर्यां चंद्रप्रभगाथापतेर्दारिका। चंददहे-द्रहविशेषः। स्था० ३२६| ज्ञाता० २५३। धर्म-कथाश्रुतस्कंधेऽष्टमवर्गे प्रथमाध्ययने चंददिण-चन्द्रदिन-प्रतिपदादिका तिथिः। सम० ५० देवी। ज्ञाता० २५३। चंददीवो-चन्द्रद्वीपः-जन्बूद्वीपसत्कचन्द्रस्य द्वीपः। । | चंदप्पह-चन्द्रप्रभः-मणिभेदः। उत्त०६९८ पृथिवीभेदः। जीवा० ३१७ आचा. २९। चन्द्रस्येव प्रभा-ज्योत्स्ना सौम्याऽस्येति, चंदद्दह-चन्द्रहृदः, चन्द्रहृदाकाराणि चन्द्रहृदवर्णानि अष्टमजिनः, यस्मिन् गर्भगते देव्याश्चन्द्रपाने दोहदः चन्द्रश्चात्र देवः स्वामीति चन्द्रहृदः। जम्बू० ३३० चन्द्रसदृ-शवर्णश्च तेन चन्द्रप्रभः। आव० ५०३। चंददं- चन्द्रा -अष्टमीचन्द्रः। जीवा० २०७१ चंदमग्गा-चन्द्रमार्गाः-चन्द्रमण्डलानि। सूर्य ९| चन्द्रस्य चंदन- चंदन-मणिविशेषः। जीवा० २३। काष्ठविशेषः। मार्गाः-चन्द्रस्य मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलरूपा जीवा० १३६। गन्धद्रव्यविशेषः। जीवा. १९१| वा मार्गा आख्याता इति चन्द्रमार्गाः। सूर्य. १३७ चंदनकं-अक्षम्। ओघ० १३५ चंदमसं- चान्द्रमसं-सौम्यापरनाम, मृगशिरोदेवता। चंदनघड-चन्दनघटः, चन्दनकलशः। प्रज्ञा०८६) जम्बू० ४९९ चंदपडिमा-चन्द्राकारा प्रतिमा चन्द्रपतिमा। व्यव० ३५६| | चंदलेसं-देवविमानविशेषः। सम०८1 चंदपरिवेस- चन्द्रपरिवेषः-चन्द्रसमन्ताज्जायमानः चंदलेहिकं-आभरणविशेषः। निशी० २५५ अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [137] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] १९६| चंदवडिंसयं-चन्द्रावतंसकं-चन्द्रविमानम्। जम्बू. ५३३॥ | चंदावली- चन्द्रावली-तडाकादिषु चंदवडिंसो-नियमस्थिरो नृपः। मरण। जलमध्यप्रतिबिम्बितचन्द्र-पक्ति। जीवा० १९१| चंदवण्णं- देवविमानविशेषः। सम०८1 तटागादिषु जलमध्ये प्रतिबिम्बिता चन्द्रपङ्क्तिः । चंदसंवच्छर-चन्द्रसंवत्सरः 'ससिसमगे' जम्बू. ३५ त्यादिलक्षणगाथा। सूर्य. १६८, १७१। चंदिमा-चन्द्रमा-ज्ञातायां दशममध्ययनम्। सम० ३६| चंदशाला-चन्द्रशाला। आव० १२३। उत्त०६९४। ज्ञाता०१० आव०६५३। चंदसालिआ- चन्द्रशालिका-शिरोगृहम्। जम्बू. १०७ अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य षष्ठमध्ययनम्। चंदसालिय-चन्द्रशालिका-प्रासादोपरितनशाला। प्रश्न. अनुत्त०२ चंद्त्तरवडिंसगं-देवविमानविशेषः। सम०८। चंदसालिया-चन्द्रशालिका। शिरोगृहम्। जीवा. २६९। | चंदोत्तरणं-कोशाम्ब्यामुद्यानविशेषः। विपा०६८। चंदसिगं-देवविमानविशेषः। सम०८1 चंदोदयं-चन्द्रोदय-चन्द्राननापर्यां चन्द्रावतंसराज्ञ चंदसिटुं-देवविमानविशेषः। सम०८। उद्यानम्। पिण्ड ७६। चंदसिरी-भथुरानगर्यां चन्द्रप्रभगाथापतेर्भार्या। ज्ञाता० चंदोयरणंसि-उइंडपुरनगरे चैत्यविशेषः। भग०६७५ २५३ चंदोवतरणे-कौशाम्बीनगर्यां चैत्यविशेषः। भग. ५५६। चंदसूरदंसणं- चन्द्रसूरदर्शनं। अन्वर्थानुसारी चंदोवराग-चन्द्रोपरागः-चन्द्रग्रहणम्। जीवा० २८३। भग. तृतीयदिवसो-त्सवः। विपा० ५११ चंदसूरदंसणिय-चन्द्रसूर्यदर्शनं-उत्सवविशेषः। ज्ञाता० चंदोवराते-चन्द्रस्य-चन्द्रविमानस्योपरागो४१। चन्द्रसूर्यदर्शनिकाभिधानं सुतजन्मोत्सवविशेषः। राहविमानतेज-सोपरञ्जनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः। औप० १०२ स्था०४७६| चंदसूरपरिवेसा- चन्द्रादित्ययोः परितो वलयाकारपुद्गल- । | चंपं- चम्पा-यत्र वासुपूज्यस्वामिपादमूले तरुणधर्मा परिणतिरूपाः सुप्रतीता। अनुयो० १२१॥ पद्मरथो राजा प्रव्रजितुं गतः। आव० ३९१। नगरीविशेषः। चंदसूरोवरागा- चन्द्रसूर्योपरागाः-राहुग्रहणानि। अनुयो आव०२१३, २२५ चंपकच्छल्ली-स्वर्णचम्पकत्वा। जीवा. १९१| चंदा-चन्द्रः-चन्द्रमाः सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्ती | चंपकदमनक- गन्धद्रव्यविशेषः। जीवा. १९११ देवः। भग० १९५१ चन्द्राः -चन्द्रराजधानी। जंबू० ५३३। चंपकपट्ट- फलकविशेषः। उत्त० ४३४१ चन्द्राः-ज्योतिष्कभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। चंपकप्पिओ- चम्पकप्रियः-पार्श्वस्थदृष्टान्ते कुमारः। चंदाणण-जम्बूदवीपे ऐरावतक्षेत्रे प्रथमो जिनः। सम. आव. ५२० १५३। चन्द्राननं-चन्द्रप्रभजन्मभूमिः। आव०१६० चंपकभेद-सुवर्णचम्पकच्छेदः। जीवा. १९११ चंदाणणा- शश्वती प्रतिमानाम। स्था० २३० चंपकलया- लताविशेषः। प्रज्ञा० ३० चन्द्राननाच-न्द्राननप्रतिमा। जीवा० २२८। चंपगकुसुम- चम्पककुसुम-सुवर्णचम्पककुसुमम्। जीवा. चंदाभ-देवविमानविशेषः। सम. १४| चन्द्राभः-कुलकर- १९१| नाम। जम्बू. १३२पञ्चमं लोकान्तिकविमानम्। भग. | चंपगजीइ-गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ २७१। स्था० ४३२॥ चंपगपट्ट- फलयविसेसो। निशी. ३५७ आ। चंदायण-चान्द्रायणः-अभिग्रहविशेषः। व्यव० ३३४ आ। चंपगपड- पुष्पजातिविशेषः। गन्धद्रव्यविशेषः। ज्ञाता० चंदालगं-चन्दालकं-देवतार्चनिकादयर्थं ताममयं ર૩રા भाजनम्। सूत्र० १९८१ चंपगवण-चम्पकवनं, वनखण्डनाम। जम्बु. ३२० स्था० चंदावत्तं-देवविमानविशेषः। सम०८1 २३० १२॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [138] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] चंपगलया लताविशेषः प्रजा० ३१ चंपगेइ– चम्पमः-सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः । जम्बू० आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) ३४| चंपगो- चम्पकः वृक्षविशेषः जीवा. २२ चंपतो- किंपुरुषाणां चैत्यवृक्षः स्था० ४४२॥ चंपय मुनिसुव्रतस्वामिजिनस्य चैत्यवृक्षः सम० १५१ चंपयकुसुमं - चम्पककुसुमं सुवर्णचम्पकवृक्षपुष्पम् । प्रज्ञा० ३६१ | चंपयछल्ली- चम्पकउल्ला सुवर्णचम्पकत्वक् प्रज्ञा० ३६१ | चंपयभेदे चम्पकभेदः सुवर्णचम्पकस्य भेदो द्विधाभावः । प्रज्ञा• ३६१। चंपयवहिंस- चम्पकावतंसकः । भग० १९४१ चंपयवणं- चम्पकवनम्। भग० ३६ आव. १८६६ चंपरमणिज्ज- चम्परमणीय उद्यानविशेषः । आव० २०२ चंपा - चम्पापुरी उत्त० ३७९, ३८० जितशत्रुराजस्य नगरी। ज्ञाता० १७३३ उत्त. १२२ शितिप्रतिष्ठितस्य पञ्चमं नाम । उत्त० १०५ पालितसार्थवाहवास्तव्या नगरी उत्त० ४८२॥ कपिलवासुदेवस्य नगरी। ज्ञाता० २२ उत्त० ३२१, ३२४१ नगरी, दत्तराजधानी । विपा० ९५ | संवेगोदाहरणे नगरी । आव ०७०९ | सङ्गपरिहरणविषये नगरी । आव० ७२३ | आर्जवोदाहरणे नगरी आव ७०४१ स्त्रीलोलुपसुवर्णकारवास्तव्यानगरी। आव० ६५॥ द्रव्यव्युत्सर्गे दधिवाहन नगरी आव ७१६। वासुपूज्यस्वामिनो जन्मभूमिः । आव० १६० | चतुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते नगरी आव ३९९| नगरी विशेषः । आव २१२ कुमारनन्दीवास्तव्या नगरी आव० २९६ । इहलोके कायोत्सर्गफलदृष्टान्ते पुरी। आव० ७९९। जिनदत्तस्य पुत्रीसुभद्रोदाहरणे नगरी दशकै ४६। कुणि-कराजो राजधानी। भग० ३१६। अङ्गेषु आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५। अन्त० १| कोणिकराजधानी । ज्ञाता० १| अन्त० २५| ज्ञात ०२५२ | भग० ४८४, ६१८, ६२० | धन्नसार्थवाहवास्तव्या नगरी। ज्ञाता० १९३ । चम्पा । ज्ञाता० १२५, १३२॥ माकन्दीसार्थवाहवास्तव्या नगरी ज्ञाता० १५६ | सागरदत्तसार्थवाहवास्तव्या नगरी। ज्ञाता० २००, २०५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] कुणिकराजधानी । निर० ४, १९ । नगरीविशेषः । उपा० १९। जितशत्रुराजो नगरी उपा० १९ सुभद्रावास्तव्या नगरी व्यव० ११७ अ अनंगसेन सुवर्णकारवास्तव्यं नगरम्। वृह. १०८ आ । अनङ्गसेनवास्तव्यं नगरम् । निशी ० ३४५ अ । खंधगरायरायहाणी । निशी० ४४ अ । योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मदृष्टान्ते नगरी आव ०६६७। सुनन्दवणिग्वास्तव्या नगरी उत्त० १२३॥ दधिवाहन राजधानी । उत्त० ३००, ३०२ | शय्यम्भवसूरिविहारभूमिः । दशकै ११ । रविविषयप्रश्ननिर्णये नगरी भग० २०६ | लोभपिण्डदृष्टान्ते पुरी । पिण्ड० १३३, १३९ | कोणिकराजधानी | विपा० ३३ प्रश्न० १| भग० ६७५ | चंपाप्रविभक्ति- त्रयोदशनाट्यभेदः । जम्बू० ४१७ | चंपे- चम्पक:- वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३६१। चमं धर्ममयं तूलिकादयुपकरणम्। बृह० १००आ। चंमतियं आस्तरप्रावरणोपवेशनोपयोगिकृत्तितूलिकावर्धरूपं वा । 98 293371 च प्रकृतमनुकर्षति । उत्त० १९७१ वा उत्त० २०९ | जम्बू० ४५९| चशब्दश्चेदित्येतस्यार्थे वर्त्तते। भग० ४९८८ उक्तसमुच्चयार्थः । आव० ८ एवकारार्थः आव १०१ च आधिक्यार्थ आचा० १५% पूरणार्थ: आव० १२ च शब्द:समाहारेतरेतरयोगसमुच्चयान्वाचयावधारणपादपूरणा धिक वचनादिष्विति । स्था० ४९५ । अपिशब्दार्थः । उत्तः ४७६| आभिनिबोधिक श्रुतज्ञानयोस्तुल्यकक्षतोद्भावनार्थः । आव० ७। पृथक् पृथक् अवग्रहादिस्वरूपस्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः । आव० ९ ॥ इवादेशः । जम्बू० २०० | अधिकवचनः । आचा० १०२ चइओ त्याजितः। ओध० ६०| चइत्ता- त्यक्त्वा, अथवा च्युत्वा कृत्वा भग० १२९ | चित्वा कृत्वेति । औप. १०१। चइय– च्यावितः-स्वत एवायुष्कक्षयेण भ्रंशितः । भग० २९३। त्याजिता-भोज्यद्रव्यात् पृथक्कारिता दायकेन । भग० २९३ च्यावितः ताभ्य एवायुः क्षेयेण भ्रंशितः । त्याजितः देयद्रव्यात्पृथक्कारितो दायकेन। प्रश्न. १०८ [139] "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चइया-त्याजिताः। ओघ. १५८१ तच्चतुष्प्रत्य-वतारः। भग० ९२६) चउक्क-चतुष्कं-रथ्याचतुष्कमेलकम्। औप०४। रथ्याच- | चउप्पय-चतुष्पदं-नवमं करणम्। जम्बू. ४९३। चत्वारि तुष्कमीलकः। औप० ५७। आव० १३६, २०७। रथ्या- पदानि येषां ते चतुष्पदाः-अश्र्वादयः। प्रज्ञा० ४४। जीवा० चतुष्कमीलनस्थानम्। भग० १३७, २००, २३८५ प्रश्न. ३८1 ५८ चतुष्पथयुक्तम्। ज्ञाता०२८१ जीवा० २५८। प्रभूत- चउप्पाइय-चतुष्प कः-भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः। गृहाश्रयश्चतुरस्रो भूभागः चतुष्पथसमागमो वा जीवा०४० चतुष्कम्। अनुयो० १५९। यत्र रथ्याचतुष्टयम्। स्था० चउप्फलं-कप्पं| निशी. १९१ आ। २९४१ चउप्फाला-| ज्ञाता०५३। चउक्का - | चक्रे। निशी० १२१ आ। चउफास-चतुःस्पर्श-सूक्ष्मपरिणामम्। भग० ९६| चउचरणगवी-चतुश्चरणगौः। आव० १०३। चउब्भाइय-घटकस्य-रसमानविशेषस्य चतुर्थभागमात्रोचउजमलपय- चतुर्यमल पदं-द्वात्रिंशदकस्थानलक्षणं, | मानविशेषः। भग० ३१३ चतुर्वि-शतेरकस्थानानामुपरितनाकाष्टकलक्षणं वा। | चउब्भागपलिओवम- चतुर्भागमात्रं पल्योपमं अनुयो० ३०६। चतुर्भागपल्यो-पमम्। जम्बू. ५३६। चउजायग- चतुर्जातकं चउब्भागमंडलं- चतुर्भागमण्डलम्। सूर्य० २१, २७। त्वगेलाकेसराख्यगन्धद्रव्यमरिचा-त्मकम्। जीवा० ३५५| | चउभाइया-चतुष्षष्ठिपलमाना चतुर्भागिका। अनुयो० चउत्थं- चत्वारि भक्तानि यत्र त्यज्यन्ते तच्चतुर्थं, इयं । १५२ चोपवासस्य संज्ञा। ज्ञाता०७३। चतुर्थं भक्तं यावद् भक्तं | चउभागपल्लोवम-चतुर्भागः पल्योपमस्य त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थं, उपवासस्य संज्ञा। भग० १२५ चतुर्भागपल्योपमम्। जीवा० ३८५। मेहणं। निशी. १६९आ। चउमासिआ- चतुर्थी भिक्षुप्रतिमा। सम० २१| चउत्थगं- चतुर्थ-एकमुपवासम्। ओघ० १३९। चउमुहं- चतुर्मुखम्। आव० १३६| चउत्थभत्त- चतुर्थभक्तं-केवलं एकं पूर्वदिने द्वे उपवास | चउम्मुह-चतुर्मुखं-देवकुलादि। स्था० २९४१ भग० २३८५ दिने चतुर्थं पारणकदिने भक्तं-भोजनं परिहरति यत्र चतुर्मुखदेवकुलिकादि। अनुयो० १५९। तपसि तत् चतुर्थभक्तम्। स्था० १४७। चतुर्थभक्तं तथाविधदेवकुलकादि। औप० ५७। प्रश्न० ५८चतुद्वारं एकदिनान्तरितः। जम्बू० १३२१ देवकुलादि। भग० २३८, औप० ४। यस्माच्चतसृष्वपि चउत्थभत्तस्स-चतुर्थभक्ते एकस्मिन् दिवसेऽतिक्रान्ते दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति। जीवा० २५८। चतुर्मुखम्। इत्यर्थः। प्रज्ञा० ५०५ भग. २००१ चउदसभत्तं- चतुर्दशभक्तं-षड्रात्रोपवासः। आव० १६८१ | चउरंग-अश्वा गौः सगड पाइक्का। निशी ८९ आ। चउदसरुवी- चतुर्दशोपकरणधारी। बृह. २३७ आ। चउरंगिज्ज- चतुरङ्गीयं-उत्तराध्ययनेषु चउदिसि-चतुर्दिक्-चतस्रो दिशः समाहृताः। जीवा० २२२। तृतीयमध्ययनम्। उत्त०९। चउपुरिसपविभत्तगती- चतुःपुरुषप्रविभक्तगती:-चतुर्दा | चउरतं- चतुरन्तं-चतुर्विभागम्। प्रश्न० ६३। चतुरन्तंपुरु-षाणां प्रविभक्तगतिः, विहायोगतेश्चतुर्दशो भेदः।। दानादिभेदेन चतुर्विभागं, चतसृणां वा प्रज्ञा० ३२७ नरकादिगतीनामन्त-कारित्वाच्चतुरन्तम्। भग०७। चउप्पडोआरे- चतुर्भु-पूर्वापरविदेहदेवकुरुत्तरकुरुरुपेषु । चउरंतगमाइया- चतुरन्तगमादिका, शारिपट्टादिका। क्षेत्र-विशेषेषु प्रत्यवतारः-समवतारः, चतुर्विधस्य पर्यायो आव० ५८११ वा। जम्बू० ३१२। चउरंतचक्कवट्टी- चतुरन्तचक्रवर्तीचउप्पडोयारे- चतुर्पा भेदलक्षणालम्बनानुप्रेक्षालक्षणेषु | त्रिसमुद्रहिमवत्परिच्छिन्नेषु चतुलन्तेषु चक्रेण वर्तितुं पदार्थेषु प्रत्यवतारः-समवतारो विचारणीयत्वेन यस्य शीलं यस्यासौ। जीवा० २७८। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [140] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चउरंस- चतुरस्र-चतुष्कोणम्। जीवा० २७६। चतुरस्रः। । ६० सम०६१। चक्रं-आज्ञा। व्यव० २२८ अ। चक्रं-अरम्। भग० ८५८| चतुरस्रः-संस्थानविशेषः। प्रज्ञा. २४२। प्रश्न०४८ चउरंससंठाणपरिणया-चतुरस्रसंस्थानपरिणताः। प्रज्ञा० | चक्कग- चक्रकं-भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९| चक्रकं११॥ चक्राकारः-शिरोभूषणविशेषः। जम्बू. १०६। चउर-चतुरः-दक्षः। स्था० ३९७। अनुयो० १३३। चक्कझया-चक्रालेखरूपचिह्नोपेताः ध्वजाः। जम्बू०६० चउरग-चकोरकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न. 1 चक्कद्धचक्कवालसंठिया-चक्रार्द्धचक्रवालसंस्थिताः। चउवग्गो-णामवत्थव्वा संजयासंजत्तीओ वि आगंतुगा सूर्य. ३६। संजता संजतीओ य। निशी. १५५आ। चक्कया-चक्रध्वजाः-चक्रालेखरूपचिह्नोपेता ध्वजाः। चउवीसइत्थय- चतुर्विंशतिस्तवः-आवश्यकसूत्रे जीवा० २१५५ द्वितीयम-ध्ययनम्। आव०४९९। चक्कपुरं- चक्रपुरं-कुन्थुजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम्। चउसद्विआ- चतुष्पलप्रमाणा-चत्षष्ठिका। अनुयो० १५१। आव० १४६। पुरुषपुण्डरीकपुरम्। आव० १६२। चउसद्विकला- चतुःषष्ठिकला। आव० ५५। चक्कपुरा- चक्रपुरा-राजधानी। जम्बू० ३५७। स्था० ८०| चउसद्विगुणा- चतुःषष्ठिगुणा। उत्त० ४८४॥ चक्कमंतो- चक्रम्यमाणः। आव० ४१२। चउसट्ठिया- चतुषष्ठिका-पलं मानविशेषः, तस्यैव चक्कमज्झभूमी- चक्रमध्यभूमिः। आव०४१७। चतुषष्ठि-तमांशस्वभावापलमिति तात्पर्यम्। भग. चक्कयरो-चक्रकरः। आव०६१६। ३१३ चक्करयणे- चक्रवतरकेन्द्रियं प्रथमं रत्नम्। स्था० ३९८१ चउसरणगमण चक्कला- पादानामधःप्रदेशः। जम्बू. ५५ जीवा. २१० अर्हत्सिद्धसाधुकेवलिप्रज्ञप्तधर्मशरणकरणम्। चतु चक्कलिकाभिन्न-तिर्यक्बृहत्कत्तलिकाकृतम्। बृह. चउसाले- निशी० २६० अ। १७५ चउसालयं-चतुःशालकम्। जीवा० २६९। चक्कलिय-चक्रम्। निशी. १२४ आ। चउसुवग्गेस्-संजतिसंजयसावगसाविगाण य एते। चक्कवट्टिविजय-पुष्कलावर्ते सप्तमो विजयः स एव निशी० २२७ आ। चक्रव-तिविजेतव्यत्वेन चक्रवर्तिविजयः। जम्ब० ३४९। चओ-चयः-स्तोकतरा वृद्धिः। पिण्ड०४१। पिण्डनेत्यर्थः। | चक्कवट्टि- ऋद्धिप्राप्तार्यभेदः। प्रज्ञा० ५५ चक्रवर्तिनः निशी. २० आ। चतु-र्दशरत्नाधिपाः, षट्खण्डभरतेश्वराः। आव०४८१ चओवचइयं-चयापचयिकं-वृद्धिहान्यात्मकम्। आचा. चक्रेण रत्नभूतप्रहरणविशेषेण वर्तितं शीलं येषां ते ६६। चक्रवर्तिनः। स्था० ९९। चकार-छकार-जकार-झकार-कार-प्रविभक्तिनाम- चक्कवाग- चक्रवाकः-रथाङ्गः। प्रश्न०८। षोडशो नाट्यविधिः। जीवा. २४७। लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। चक्क-चक्र-सुदर्शनम्। उत्त० ३५० अरघट्टयन्त्रिकाच- चक्कवालं-चक्रवालं विशेषस्य सामान्येऽनप्रवेशात्। क्राणि। ज्ञाता०श रथाङ्गम्। सूर्य०६९। रथाङ्गं समच-क्रवालम्। जम्बू० ३६७ मण्डलम्। प्रज्ञा० ६०० अरघट्टाङ्गं वा। औप० ३। चक्रम्। आव० ८२९। ओघ० १३॥ सूर्य०६९। जीवा. १७८ चक्रवालं-सर्वं परिमण्डलरूपम्। प्रहरण-विशेषः। आव० ४८७ जीवा० ११७। प्रहरणम्। जीवा. २६६। चक्रवालं-सर्वतः परिमण्डलरूपम्। जम्बू० आव०५८५। रायचिंधसहियं स-चक्कं| निशी. ३५८ ।। १०२। चक्रवालः-नगरविशेषः। आव० १४४| चक्रवालंचक्रं-तिलयन्त्रम्। बृह. १९९ आ। तिलपीडनयन्त्रम्। चक्रम्। भग० १८८। चक्रम्। आतु० चक्रवालं-जलपरिमाबह० २२१ अ। तिलपीलगं| निशी०६१ आ। चक्रः- ण्डल्यम्। सम० १२७ रत्नभूतप्रहरणविशेषः। स्था० ९९| चक्रः-वैश्रम-णस्य | चक्कवालविक्खंभ- चक्रवालविष्कम्भः-वृत्तव्यासः, इदं पत्रस्थानीयो देवः। भग० २००| चक्रं-धर्मचक्रम्। ओघ० | च प्रमाणयोजनमवसेयम्। सम०६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [141] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] चक्कवालसामायारि- सामाचारीविशेषः। निशी० २६३ आ । निशी० ३९ आ । चक्कवाला—– चक्रवाला-वलयाकृतिः । स्था० ४०७ मण्डलबन्धेन स्थिताः । ओघ ५५ चक्रवालं मण्डलं ततश्च यया मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा आगम- सागर - कोषः ( भाग :- २) चक्रवाला। भग० ८६६ । चक्कवालानि - पृष्ठस्योपरिमण्डललक्षणानि व्यव० २३अ । चक्कवूह चक्रव्यूहः-चक्राकारः सैन्यविन्यासविशेषः । प्रश्न० ४७ | ज्ञाता० ३८ \ चक्काइडो चक्राविद्धः आव० २१७ चक्कागं चक्राकं चक्राकारं एकान्तेन समम्। प्रज्ञा• ३६। चक्राकारः सम इत्यर्थः । बृह० १६१ आ । चक्रकंचक्राकारः समच्छेदो मूलकन्दादिनां भङ्गः आचा० ५११ पक्षिविशेषः । ज्ञाता० २३१ | लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ | जस्स चक्कागारा भंगो समोत्ति वृत्त भवति । निशी. १४१ अ चक्कारबद्ध- चक्रारबद्धं गन्त्र्यादि। दशवै० १९३ । चक्कियति सक्किज्जति। निशी. ७९ चक्किया— चाक्रिकाः-चक्रप्रहरणाः कुम्भकारतैलिकादयो वा। औप० ७३| चक्रिकाः-चक्रप्रहरणाः कुम्भकारादयो वा भग- ४८१। कुम्भकारतैलिकादयः । ज्ञाता० ५९॥ शक्नुयात्। भगः ३२५ चक्कलेंडा— चक्रौ लण्डिका-द्विमुखसर्पः । आव० ३५७ चक्खल्लाउडुओ- दतिको येन तीर्यते । ओघ० ३३ | चक्खिदिअत्योवगहे चक्षुषः प्रथममेव स्वरुपद्रव्यघुणक्रिया कल्पनातीतमनिर्देश्यसामान्यमात्रस्वरूपार्थावग्रहणं चक्षुरर्थावग्रहः । प्रज्ञा० ३११ । चक्खिदिए- चक्षुरिन्द्रियम् । प्रज्ञा० २९३॥ चक्खिय दृष्ट्वा आव० ४९७५ चक्खु चक्षुः विशिष्ट आत्मधर्मः तत्त्वावबोधनिबन्धनः श्रद्धा-स्वभावः । राज० १०९ । चक्षुः शब्दोऽत्र दर्शनपर्यायः । आचा० ३०२| चक्षुः-ज्ञानम्। आचा० २०८ । चक्षुरिव चक्षुःश्रुत ज्ञानम् । सम० ४१ लोचनम्। भग० ४३९ । चक्षुःश्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागोपदर्शकत्वात् । भग० जा चक्छुकता - पञ्चमकुलकरस्य भार्यानाम सम० २५० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित आव० ११२ | स्था० ३९८ । चक्षुः कान्तः कुण्डलसमुदेऽपरार्द्धा-धिपतिर्देवः । जीवा ३६८ चक्खुदंसणं- सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि चक्षुषा दर्शनंरूपसामान्यपरिच्छेदः चक्षुदर्शनम्। जीवा १८॥ चक्खुदंसणि चक्षुदशनी चक्षुदशनलब्धिमान्। अनुयो० २२०१ चक्खुद चक्षुर्दय: चक्षुरिव चक्षुः श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थवि-भागकारित्वात्तद्दयते इति चक्षुर्दयः। [Type text] सम० ४| चक्खुदये चक्षुरिव चक्षुः श्रुतज्ञानं दयत इति चक्षुर्दयः । भग०७/ चक्खुदो चक्षुरिव चक्षु विशिष्ट आत्मधर्मस्तत्त्वावबोधनिबन्धनं श्रद्धास्वभावः तद् ददातीति चक्षुदः । जीवा० २५५| चक्खुप्फास चक्षुस्पर्श:- दृष्टिस्पर्शः । भग० ७७। चक्षुःस्पर्शं स्थूलपरिणतिमत्पुद्गलद्रव्यम् । उत्त० १९६| चक्षुः स्पर्शः चक्षुर्विषयः । आचा० ३० जम्बू. ४४१ | दृष्टिपातः। भग० १३८ | दर्शनम् । ज्ञाता० ४६ । औप० ६० सूर्य० ६१। चक्षुः स्पर्शे दृग्गोचरे चक्षुः स्पर्शगो वा दृग्गोचरगतः । उत्त ५१ चक्खुभीया - चक्षुशब्दोऽत्र दर्शनपर्यायः दर्शनादेव भा दर्शनभीताः । आचा० ३०२ | चक्खुम चक्षुष्मान् द्वितीयः कुलकरनाम सम० १५०१ जम्बू० १३२ | स्था० ३९८ \ आव० १११ | चक्खुमेंटा एक्कं अत्यं उम्मल्लेति बितियं णिमिल्लेति । निशी. १२४ आ चक्खुविक्खेवो चक्षुर्विक्षेपः चक्षुर्भ्रमः । भग० १७५ चक्खुसुभ- चक्षुः शुभः कुण्डलसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ [142] - चक्खुसे चाक्षुषः चक्षुरिन्द्रियग्राहयः दशकै २०१ चक्खुहरं चक्षुर्हरति आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशय-कलितत्वाच्चक्षुर्हरम् यत्तत्। जीवा० २५३ | चक्षुर्हरं चक्षुर्द्धरं चक्षुरोधकम्। जम्बु० २०५१ चक्षुर्हरं लोचनानन्ददायक-त्वात् । चक्षू रोधकं वा घनत्वात् । भग० ४७७ | चक्खू - चक्षुः - विशिष्टआत्मधर्मस्तत्त्वावबोधनं श्रद्धास्वभावः । जीवा० २५५ | - "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चक्रवाल-प्रत्युपेक्षणादि नित्यकर्मा। बह० २२१ ।। चडावणा-आरोपणा। स्था० ३२५ जं दव्वादि परिसविभाचक्रवालसामाचारी-सामाचारीविशेषः। आव० ८३३। प्रति गेण दाणं सा आरोवणा। निशी० ८५अ। दिनक्रियाकलापरूपा। बृह. २०७ आ। चडाविओ-आरोहितः। आव०४३४| चक्रार्द्धचक्रवालं- चतुर्थनाट्यविशेषः। जम्बू० ४१५) चडाविज्जइ-चटाप्यते। ओघ० ८४ चक्षुर्मेलः- यदेकं चक्षुरुन्मीलयति। व्यव० १०१ आ। चडाविया-चटापितः। आव० ५०६। चच्चपुडा-चच्चपुटाः-आघातविशेषाः। जम्बू. २३६) चडुगे-अपवृत्य। व्यव० ३०२ आ। चच्चरं- चत्वरं-सीमाचतुष्कम्। उत्त० १०९। त्रिपथभेदि चण-चणकं-चणकक्षेत्रं, योगसंग्रहे शिक्षा दृष्टान्ते यद चत्वरम्। ज्ञाता०२८ स्थानविशेषः। विपा० ५७ आव० वास्तु-पाठकैश्चणकाभिधनगरं निवेशितम्। अपरनाम १३६, ४०२। चत्वरं-बहुतररथ्यामीलनस्थानम्। भग. क्षितिप्रतिष्ठितं, वृषभपुरं, कुशाग्रपुरं, राजगृहं च। आव० १३७। चत्वरम्। भग० २००, २३८। चतुष्पथसमागमः, ६७० षट्पथसमागमो वा चत्वरम्। अनुयो० १५९। चणगपुरं- चणकपुरं-क्षितिप्रतिष्ठितस्य द्वितीयं नाम। रथ्याष्टकमध्यम्। स्था० २९४१ उत्त० १०५ चच्चरसिवंतरितो- चत्वरशिवान्तरितः। उत्त. २२१।। चणगा-चणकाः-धान्यविशेषाः। अन्यो० १९२२ चच्चागा- उपरागाः। जम्बू. ४९| चर्चाकाः-चन्दनकृतोप- | चणगो-चणकाः, पारिणामिकीबुद्धौ गोल्लविषये रागाः। राज०६४ चणकग्रामे ब्राह्मणः, श्रावकः। आव०४३३। चच्चिअ-चर्चितं-समण्डनकृतम्। जम्बू. २७८१ चणयग्गामो-चणकग्रामः, गोल्लविषये ग्रामः। आव. चटकसूत्रं-कोशकारभवं सूत्रम्। अनुयो० ३४। ४३३॥ चटुल-चन्टुलः-विविधवस्तुषु क्षणे क्षणे चतुरंगः-सेना। आव०७६७| आकाङ्क्षादिप्रवृत्तेः। प्रश्न. ३०| चतुरय-चतुरकाः-सभाविशेषाः, ग्रामप्रसिद्धाः। सम० चटुलीः- पर्यन्तज्वलिततृणपूलिका। नन्दी० ८४ १३८ चट्टवेसो-विप्रवेषः-चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्तः। आव० ३९९। चतुर्विधशब्दः- चतुष्प्रत्यवतारम्। भग० ९२६) चट्टा- जूअकारादिधुत्ता। निशी. २०७ आ। चतुष्कल्पसेकसिक्तः- चत्वारः कल्पाः सेकविषया चट्टो-विप्रः। आव०४०० रसवती-शास्त्राभिशेभ्यो भावनीयाः। जीवा० २६८1 चडतो-आरुहन्। निशी. १३३ आ। चतुःकल्याणकं-तत्र चत्वारि चतुर्थभक्तानि चडकर-चटकरप्रधानः-विस्तरवान्। विपा० ३६। चटकर- चत्वार्याचाम्लानि चत्वारि एकस्थानानि चत्वारि वृन्दम्। जम्बू० १४५ पूर्वार्द्धानि चत्वारि निर्वृतिकानि च भवन्ति। ब्रह. १२८ चडगर-चटकर-आडम्बरः। बृह. १३० अ। विस्तारवृन्दं अ। (देशीशब्दः)। जम्बू. १९६। विस्तारवन्तः। जम्बू. २०० चत्त-जेण सरीरविभूसादिणि निमित्तं चटकरप्रधानं-विच्छईप्रधानम्। ज्ञाता० ३६। समु-दायः। हत्थपादपक्खालगादीहिं परिकम्म वदंति तं। दशवै. ज्ञाता० २००| चटकरः-विस्तारवान्। भग०३१९। १५०| त्यक्तं-निर्दयतया दत्तम्। बृह. २०० आ। च्युतःचडगरत्तण- चडकरत्त्वं-अतिप्रपञ्चकथनम्। दशवै. जीववत् क्रियातो भ्रष्टः। २९३। ११५ चत्तदेह-त्यक्तदेहःचडत्ति-झटिति। आव० ३५७। परित्यक्तजीवसंसर्गजनिताहारप्रभवोप-चयः। भग. चडप्फडत-कम्पमानम्। उत्त० ५२२ २९३। परित्यक्तजीवसंसर्गसमत्थशक्तिजनिताचडप्फड-प्रलपसि। निशी. १३२ । हारादिपरिणामप्रभवोपचयः। प्रश्न. १०८, १५५। चडप्फाडेतो- करपादौ भूमौ आस्फोटयन। निशी० २६।। चत्तरं- चत्वरं-बहरथ्यापात्तस्थानम्। जीवा० २५८ औप. चडवेला-चपेटाः। प्रश्न. १७। ४। यत्र बहवो मार्गा मिलन्ति। औप० ५७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [143] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] अनेकरथ्यापत-नस्थानम्। प्रश्न. ५८१ जीवा० २४६। चत्ता-स्वयमेव दायकेन त्यक्ता-देवद्रव्यात्पृथक्कताः। चन्द्रावलि- प्रविभक्ति - पञ्चमो नाट्यभेदः। जम्बू० प्रश्न. १०८। स्वयमेव दायकेन त्यक्ता ४१६। चन्द्रावलिप्रविभक्ति-सूर्यावलि भक्ष्यद्रव्यात्पृथक्कृता। भग० २९३। प्रविभक्तिसूर्यावलि प्रविभक्ति-वलयावलि प्रविभक्ति चनिकः- मतविशेषः। बृह. १७३ आ। आचा० १४६| हंसावली प्रविभक्ति तारावलि प्रवि-भक्ति-मुक्तावलि चन्द्रः- रत्नविशेषः। जीवा० १९१। प्रविभक्ति रत्नावलि प्रविभक्ति पुष्पावलि प्रविभक्तिचन्द्रकान्तः- चन्द्रप्रभः। जीवा० २३४। नामापञ्चमो नाट्यविधि। जीवा० २४६। चन्द्रकान्तायाः-मणयः। सम० १३६। स्था० २६३ चन्द्रास्तमयनप्रविभक्ति-चन्द्रास्तमयनप्रविभक्तिचन्द्रगुप्तः- चाणक्यस्थापितो राजा। व्यव० १४० आ। सूर्यास्तम-यनप्रविभक्त्यभिनयात्मकःनृपतिर्नाम। जम्बू. २६३। स्था० २८१। अस्तमयनास्तमयनप्रविभक्ति-नामा नवमो चन्द्रनखा-खरदूषणपत्नी। प्रश्न० ८७ नाट्यविधिः। जीवा० २४६। चन्द्रप्रतिम-प्रकीर्णतपोविशेषः। उत्त०६०११ चन्द्रिका-आधाकर्मपरिभोगे गुणचन्द्रवेष्ठिनः स्त्री। चन्द्रप्रभः- मणिविशेषः। जीवा. २६) पिण्ड०७४। चन्द्रभागा नदीविशेषः। स्था०४७७ चन्द्रोद्गमपविभक्ति-चन्द्रोद्गमप्रविभक्तिचन्द्रमण्डलप्रविभक्ति-चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति सूयोद्गमप्रविभ-क्त्यभिनयात्मकःसूर्यमण्डलप्रवि-भक्ति-नागमण्डलप्रविभक्ति उगमनोद्गमनप्रविभक्तिनामा षष्ठो नाट्यविधिः। जक्षमण्डलप्रविभक्ति-भूतम जीवा० २४६। ण्डलप्रविभक्त्यभिनयात्मकामण्डलप्रविभक्तिनामा चन्द्रोद्योतः- द्वीपः समुद्रोऽपि च। प्रज्ञा० ३०७ दशमो नाट्यविधिः। जीवा० २४६| चपलकाः- आलिसन्दकाः। जम्बू० १२४ चन्द्रमासः- मुहर्तपरिमाणमष्टौ शतानि चपलितः-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। पञ्चाशीत्यधिकानि। सूर्य. ११| चप्पडए-चप्पलकाः-चतुष्पलाः। बृह. २०३ अ। चन्द्रमुखा- मूलद्वारविवरणे धनदत्तपत्नी। पिण्ड० १४४१ | चप्पडग-चप्पडकः-काष्टयन्त्रविशेषः। प्रश्न. १७५ चन्द्ररुद्र-जो पुण खरफरुसं भणतो आयरिओ। निशी चप्पटिका-अप्सरो निपातो नाम चप्पटिका। प्रज्ञा० ६०० १३५ अ। जीवा० १०९। अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुलिकृतः आस्फोटः। चन्द्रहासं-परमासवविशेषः। जीवा. १९८१ भग. २६९। चन्द्रागमनप्रविभक्ति-चन्द्रागमन-सूर्यागमन- | चप्पुडिया-चप्पुटिका। आव० ५३६। अप्सरो निपातोचप्पुप्रविभक्त्यभिन-यात्मक-आगमनागमनप्रविभक्तिनामा टिका। जीवा० ३९९। चप्पुटिका अङ्गुलीद्वयोत्थः सप्तमो नाट्यविधिः। जीवा. २४६| शब्दः। उत्त. १०८ चन्द्रादि- गच्छविशेषः। प्रश्न. १२६। चप्फलिगाइय-कौतूहलिकं-आशीर्वादः। आव० ४३२॥ चन्द्रानना-आज्ञाऽऽराधनखण्डनादोषदृष्टान्ते चप्रलापः-नकुलः। उत्त० ६९९। पुरीविशेषः। पिण्ड०७६। मूलद्वारविवरणे चमक्कं-चमत्कारं। गच्छा० । धनदत्तनगरी। पिण्ड. १४४१ चमढण-प्रवचनोक्तैर्वचनैः खिंसनं करोति। ओघ०४३। चन्द्रावतंसः-आज्ञाराधनखण्डनादोषदृष्टान्ते राजा। निर्भर्त्सनम्। बृह. २१५ आ। पिण्ड०७६ चमढने-मर्दने। ओघ० १२६) चन्द्रावरणप्रविभक्ति-चन्द्रावरणप्रविभक्ति चमढिउं- मर्दित्वा। आव०४०५। सर्यावरणप्रविभ-क्त्यभिनयात्मक चमढियं-विनाशितम्। व्यव. १८४ अ। आवरणावरणप्रविभक्तिनामा अष्टमो नाट्यविधिः। चमत्ता -तिरस्कृत्य। आव. २०४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [144] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चमढ्यते-कदर्थ्यन्ते। ओघ० ९६। पिष्पल-कादि। ओघ० २१८१ । चमर-द्विखुरविशेषः। प्रज्ञा०४५ चमरः-प्रथमो चम्मज्झामे-चर्मध्याम-चर्म च तद्ध्यामंच-अग्निना दक्षिणनि-कायेन्द्रः। भग० १५७। पञ्चमतीर्थकरस्य ध्याम-लीकृतं-आपादितपर्यायान्तरम्। भग० २१३| प्रथमः शिष्यः। सम० १५२ चम्महिल-चर्मास्थिलः-चर्मचटकः। प्रश्न । दक्षिणात्यासुरामाराणामधिपतिः। स्था०८४१ जीवा. चम्मपक्खी-चर्मात्मकौ पक्षौ चर्मपक्षौ तौ विद्यते येषां १७०| प्रज्ञा० ९४। ज्ञाता० १९१| ते चर्म-पक्षिणः। प्रज्ञा०४९। चर्मरूपौ पक्षौ विदयेते यस्य चमरचञ्चा-देवस्थानविशेषः। भग० १४३। स चर्मपक्षी। जीवा०४११ चमरेन्द्रराजधानी। सम० ३२जम्बू. ३३९। स्था०५२४। | चम्मपट्टो- चर्मपट्टः-वर्द्धः। विपा०७१। चमरचञ्चा-चमरेन्द्रराजधानी। भग० १७१। जम्बू०४०७। चम्मपणयं- चर्मपञ्चकंभग०६१७ दाक्षिणात्यस्यासुरनिकायनायकस्य चञ्चा- अजैडकगोमहिषमृगाजिनलक्षणम्। आव०६५२ चञ्चाख्या-नगरी चमरचञ्चा। स्था० ३७६) चम्मपाय-चर्मपात्रं-स्फुरकः खड़गकोशको वा। भग. चमरा-चमरा-आरण्यगौः। प्रश्न. ७ आटव्यो गावः। १९१ जम्बू०४३। चम्मयरु-श्रेणिविशेषः। जम्बू. १९४१ चमरो-चमरी-विखुरश्चतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८५ चम्मरयणे-चक्रवतरकेन्द्रियं तृतीयं रत्नम्। स्था० ३९८ गोविशेषः। प्रश्न०७६] चम्मरुक्ख-वृक्षविशेषः। भग०८०३। चमरुप्पातो-चमरस्य-असुरकुमारराजस्योत्पतनं- चम्मिय-चर्मणि नियुक्ताश्चार्मिकाः। भग० ३१७ उर्ध्वगमनं चमरोत्पातः। स्था० ५२४। चम्मे-चर्मपक्षिणः-चर्मचटकाप्रभृतयः, चर्मरूपा एव हि चमसो-चमसः-दर्विका। औप. ९४१ तेषां पक्षा इति। उत्त०६९९। चम्म- चर्म-अगुष्ठाङ्गुल्योराच्छादनरूपम्। जीवा. चम्मेद्व- लोहमयः प्रतलायतो लोहादिकट्टनप्रयोजनो २६०| राज० ११३। पुद्गलविशेषः। आव० ८५४। लोहका-रादयुपकरणविशेषः। भग० ६१७ चर्मेष्टःसिंहादीनां चर्माणि। दशवै० १९३॥ स्फकः। भग० १९४१ चर्मनद्धपाषाणः। प्रश्न०४८। चर्मेष्टःत्वक्। प्रश्न चर्मवेष्टितपाषाणविशेषः। प्रश्न. २११ चम्मए-चर्मकृति-छवडिया। ओघ. २१७) चम्मेद्वग-चर्मेष्टकं-चर्मपरिणद्धकट्टनोपगरणविशेषः। चम्मकडे- चर्मकटः-कटस्य तृतीयभेदः। आव २८९। जम्बू० ३८७। चर्मेष्टिकावर्द्धव्यूतमञ्चकादिः। स्था० २७३। इष्टकाशकलादिभृतचर्मकुतपरूपा यदाक-र्षणेन धनुर्धरा चम्मकारा- पदकारा। निशी. ४३ आ 41 व्यायाम कुर्वन्ति। उपा० ४७। चर्मेष्टकम्। राज० २२। चम्मकिड्डं-चर्मव्यूतं-खट्वादिकम्। भग०६२८१ चर्मेष्टका। अनुयो० १७७। चर्मेष्टकम्। जीवा० १२१। चम्मकोसए-चर्मकोशकः। ओघ. २१७। चर्मकोश:- चयं-अधिकत्वेन वृद्धिः। सूर्य. १६। शरीरम्। भग० १२९। पाष्णित्रं खल्लकादिः। आचा० ३७० चयइ- ददाति। भग० २८९। त्यजति-विरहयति। भग. चम्मखंड- चर्मखण्डम्। निशी. २२७ आ। २८९। चम्मखंडिअ-चर्मपरिधानाश्चर्मखण्डिकाः, अथवा चयणं-वैमानिकज्योतिष्कमरणम्। स्था० ४६६। चयनंचर्ममयं सर्वमेवोपकरणं येषां ते चर्मखण्डिकाः। अनयो. कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्। प्रज्ञा० २५१ २९२। चम्मखंडिए-चर्मखण्डकः-चर्मपरिधानः चर्मोपकरण चयति-च्यवते। जीवा० ११० चीयते-सामान्यतश्चयमाइति। ज्ञाता० १९५४ गच्छति। प्रज्ञा० २२८१ चम्मचडिया-चर्मचटकाः-चर्मपक्षिणः। उत्त० ६९९। चयनं- व्याख्यानान्तरेणासकलनम्। स्था०४१७। कषायचम्मच्छदन-चर्मच्छेदः-वर्द्धपट्टिका, चर्मच्छेदनकं परिणतस्य कर्मपद्गलोपादानमात्रम्। स्था० १९५। कषा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [145] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] यादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्। स्था० १०१, ५० ५२७ चरगपरिव्वायय-चरकपरिव्राजकः-धाटिभैक्ष्योपजीवी चयमाणे-च्यवमानः-जीवमानः जीवन्नेव मरणकाल त्रिदण्डी। प्रज्ञा०४०५१ त्यजन् इत्यर्थः। भग० ८६। चरगा-धाटिवाहकाः सन्तो ये भिक्षां चरन्ति ते, ये च चयिका-पीठिका। पिण्ड० १०७ भूजा-नाश्चरन्ति वा ते चरकाः। अन्यो. २५। कणदाः, चयो-चीयते चयनं वा चयः, परिग्रहस्य तृतीयं नाम। धाटिवाहका वा। बृह. २४२ आ। प्रश्न. ९ चरण- चारित्रं-क्रिया। व्यव० ४५७ आ। चतुर्वेदब्राह्मणः। चयोवचयं-चयोपचयं-चयेन अधिकत्वेन वृद्धिरपचयेन बृह. ५६ अ। गमनम्। आव० ५५२। गवेषणम्। प्रश्न. हीन-त्वेनापवृद्धिः। सूर्य. १३ १०६। नित्याऽनुष्ठानम्। ओघ०७। व्रतश्रमणधर्मसंयमाचरः- उपचरकः। आचा० ३७७) द्यनेकविधम्। सम० १०९। महाव्रतादि। ज्ञाता०७) चरंतं- चरत्-विश्वं व्याप्नुवत्, अब्रह्मणस्तृतीयं नाम। औप. ३३। विशिष्टं गमनम्, गमनम्। नन्दी. १०६। प्रश्न०६६। उत्तराध्ययनेष एकत्रिंशतममध्ययनम्। उत्त०९। चरंतमेसणं-परिशुद्धाहारादिना वर्तमानम्। आचा० ४२९। व्रतादि। भग. १२२१ ज्ञाता०६१। उत्त०५६७। चरंति-आचरन्ति। प्रश्न. ९५ चरन्ति-प्रवर्तन्ते। जम्बू. उच्चावचकुलेष्वविशेषेण पर्य-टनम्। उत्त०६०७। २२७ भिक्षानिमित्तं पर्यटन्ति। उत्त० ३६२ आसेवन्ते। गतिचरणं भक्खणाचरणं, आचरणाचरणं च। निशी. १ उत्त०३६३। अ। आचारः। उत्त० ५३२ चारित्रं, सच्चेष्टेतियावत्। चरंतिअ-चरन्ति यस्यां दिशि तीर्थंकरादयो यावद उत्त० ५१९| चरणं-व्रतश्रमणधर्मादि। भग० १३६। चारित्रंयुगप्रधाना विहरन्ति सा दिक। आवा०४७० समग्रविरतिरूपम्। दशवै. ११० चरंतिया-सा इमा जाए दिसाए तित्थकरो केवली चरणकरणपारविऊ-चर्यत इति चरणं मूलगुणाः, क्रियत मणपज्ज-वणाणी ओहिणाणी चोद्दसप्व्वी जाव इति करणं-उत्तरगुणास्तेषां पारं-तीरं पर्यन्तगमनं णवपव्वी जो जम्मि वा जगपहाणो आयरियो जत्तो तवेत्तीति चरणकरणपारवित्। सूत्र. २९८१ विहरति ततो हत्तो पडिच्छति। निशी. ९९ आ। चरणकरणानुयोगः- अर्हद्वचनानुयोगस्य चतुर्थो भेदः, चरंती-विहरन्ति। व्यव० ६२आ। आचा-रादिकः। आचा० १। अनुयोगस्य प्रथमो भेदः। चर- सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरण:- स्था०४८११ प्रथम उद्देशकः। भग०६३० चरणगुणहिओ- चरणगुणस्थितः-सर्वनयविशुद्धः। उत्त चरइ-चरति-करोति। सम. ९६। आचरति। सम० १६, २१॥ ६९। चर्यत इति चरणं-चारित्रं, चरति-अटित्वा आनीतं भङ्क्ते। दशवै. २५३। गुणःसाधनमुपकारकमित्यनर्था-न्तरं, ततश्च चरणं चरए- धाटिभिक्षाचरः। ज्ञाता० १९५१ चासौ गुणश्च निर्वाणात्यन्तोपकारितयाः चरकः- मतविशेषः। उत्त० २४१। जीवा० १४३। निशी० चरणगुणस्तस्मिन् स्थितः-तदासेवितया निविष्टः। १८६अ। उत्त०६९। चरग-चरकः-धाटिभिक्षाचरः। जम्बू० २३६। चरकः- चरणगुणा- चरणान्तर्गता गुणाः, चरणं-व्रतादि गुणाः मतविशेषः। आव० ८५६। चरतीति चरकः-दंशमशकादिः। | पिण्ड-विशुद्ध्यादयश्चरणगुणाः।उत्त० १६७। सूत्र०६५। चरकः-कच्छोटकादयः। भग. ५०| कच्छोट- चरणग्गो-चरणेन अग्रः-प्रधानः चरणाग्रः। पिण्ड० ४१। कादिकः। प्रज्ञा०४०५१ चरणमालिया-चरणमालिका-भूषणविधिविशेषः। जीवा० चरगपरिव्वायग-चरकपरिव्राजकःधाटिभैक्ष्योपजीविनस्त्रि-दण्डी, अथवा चरकः चरणरिया-चरणेर्या-चरतेर्भावे ल्युट चरणं तद्रपेर्या कुच्छोटकादिः परिव्राजकस्तु कपिल-मुनिसूनुः। भगः | चरणेर्या, चरणं गतिर्गमनमित्यर्थः। आचा० ३७५) २६९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [146] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चरणविही- उत्तराध्ययनेषु एकत्रिंशत्तममध्ययनम्।। सः चर-मसमयनिर्ग्रन्थः। उत्त. २५७ सम०६४। चरमाइं-चरमाणीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृत्तत्वात्, चरति-उपपद्यते। सूर्य. १११ प्रज्ञापनाया दशमं पदम्। प्रज्ञा०६। चरमंतपएस-चरमाण्येवान्तवर्तित्वात चराइं- चराणि अनियततिथिभावित्त्वात्। जम्बू. ४९४। अन्ताश्चरमान्तास्तत्प्र-देशश्च चरमान्तप्रदेशः। प्रज्ञा० चरामि-आसेवयामि। आव. ५६७। २२९। चरि-चारिः-आजीविका। उत्त० ११९। अचारिच्चरित्वा चरम-चरम-पर्यन्तवतिः । प्रज्ञा. २२८। चरमम्। प्रज्ञा० च। उत्त० ४४८ २३४। चरमेभ्योऽल्पस्थितिकेभ्यो नारकादिभ्यः चरिअ-चरिका-नगरप्राकारान्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो परमामहा-स्थितयो महाकर्मतरा मार्गः-द्वारं व्यक्तम्। जम्बू. १०६। गृहाणां प्राकारस्य इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः। एकोनविंश-तितमशतके चान्तरेऽष्टहस्त-विस्तारो हस्त्यादि पञ्चम उद्देशकः। भग०७६१। प्रान्तं पर्यन्त-वति। भग० सञ्चारमार्गश्चरिकाः। अनुयो० १५९| ३६५आव० ८५२। शैलेशीकालान्त्यसमय-भावी। प्रज्ञा० चरिअकामो- चरितुं कामः-भक्षयितुं कामः। ओघ० ३९। ३०३। अर्वाग्भागवति स्थित्यादिभिः। भग०६३० चरिआ- ग्रामादिष्वनियतविहारित्वम्। सम०४१। चरिका चरमः-यस्य चरमो भवो भविष्यति स चरमः। भग. संदेशकारीणी दासी। आव० ३४९। चरिका-परिव्राजिका। २५९। ओघ.१९४१ चरमअचरिमसमय-चरमास्तथैव अचरमसमयाश्च चरित्त-चारित्रं-विरतिपरिणामरूपेण क्षायिकभावापन्नम् प्रागुक्तयु-क्तेरेकेन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथमसमयवर्तिनो | जम्बू. १५१। चर्यते-मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति, चर्यते ये ते चरमाचर-मसमयाः। भग० ९६९। वा गम्यते अनेन निर्वृत्ताविति चरित्रं, अथवा चयस्य चरमचरमनामनिबद्धनाम-चरमपूर्वं मनुष्यभव कर्मणां रिक्तीकर-णाच्चरित्रं निरुक्तन्यायादिति, चरमदेवलोक-भव-चरमच्यवन-चरमगर्भसंहरण चारित्रमोहनीयक्षयायाविर्भूत आत्मनो विरतिरूपः चरमभरतक्षेत्रावसर्पिणी-तीर्थकरजन्माभिषेक परिणामः। स्था० २४। चर्यते आसे-व्यते यत्तेन वा चरमबालभाव-चरमयौवन-चरमकाम-भोग चर्यते-गम्यते मोक्ष इति चरित्रं-मूलोत्तरगुण-कलापः। चरमनिष्क्रमण-चरमतपश्चरण-चरमज्ञानोत्पाद-चरम- स्था० ५२। चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चारित्रम्। अनुयो. तीर्थप्रवर्तन-चरमपरिनिर्याणाभिनयात्मकः, २२१। चरन्तिगच्छन्त्यनेन क्तिमिति चरित्रम्। उत्त. दवात्रिंशत्तमो नाट्यविधिः। जीवा. २४७। ५५६। चारित्रं चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो चरमचरमसमय-चरमाश्च ते जीवप-रिणामः। भग० ३५०। मूलोत्तरगुणरूपम्। बृह. विवक्षितसङ्ख्यानुभूतेश्चरमसम-यवर्तित्वात् १७२। चारित्रं-बाह्यं सदनुष्ठानम्। राज० ११९। चरमसमयाश्च प्रागक्तस्वरूपा इति चरमचरम-समयाः। चारित्रं-सावद्ययो-गनिवृत्तिलक्षणम्। प्रश्न. १३२ भग०९६९ चयरिक्तीकरणाच्चारित्रम्। ओघ. ९। चरमनिदाघकालसमओ- चरमनिदाघकालसमयः- चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य ज्येष्ठमास-पर्यन्तः। जीवा० १२२ भावः। इहान्यजन्मोपाताष्टविधकर्मसञ्चयापचयाय चरमपाहडिआ- चरमप्राभृतिका-बादरा। दशवै० १६२१ चरणं चारित्रं, सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपा क्रियेत्यर्थः। चरमप्रदेशजीवप्ररूपी-जीवप्रदेशो निह्नवः। आव० ३११। आव० ७८। चारित्रम्। आव०७९३। चरमसमय-चरमसमयशब्देनैकेन्द्रियाणां मरणसमयो चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयो-पशमरूपं तस्य विवक्षितः स च परभवायुषः प्रथमसमय एव तत्र च भावः चारित्रं अशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः। दशवै. २३। वर्तमानाश्चरमस-मयाः। भग० ९६९। अनुष्ठानम्। ज्ञाता०८१। चरमसमयनियंठो- यश्चरमे-अन्तिमे समये वर्तमानः | चरित्तकसायकुसील- यः कषायाच्छापं प्रयच्छति स मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [147] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ८९० चारित्रे कशीलः। भग० ८९० भव्यविशेषः। जीवा० ४४४॥ चरित्तधम्मे-चयरिक्तीकरणाच्चारित्रं तदेव चरिमभव- चरमभवः-पश्चिमभवः। प्रज्ञा० १०८। धर्मश्चारित्रधर्मः। स्था० ५१५ चरित्रधर्म: चरिमभवत्थ-चरमभवस्थः-भवचरमभागस्थः। भग. क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः। स्था० १५४१ १८१ चरित्तधम्मो-चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं चरिमा- वद्धमाणसामिणो सिस्सा। निशी. ३५३ अ। क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं अशेषकर्मक्षयाय चरिमाचरमो-नारकभवेष स एव भवो येषां ते चरमाः, चेष्टेत्यर्थः, ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्मः। दशवै. नारक-भवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः। भग० २३। प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपः। दशवै०१२०/ ६०० चरित्तपज्जवे-चरित्रपर्यवाः-चारित्रभेदाः क्षायोपशमिका चरिय-चरिका-नगरप्राकारयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः। इति। उत्त०५९ सम० १३७। चरिका-अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः। राज०३। चरित्तपुलाए- पुलाकस्य तृतीयो भेदः, चरितं-चेष्टनम्। प्रश्न. ६श चरितः-सेवितः। प्रश्न. ५१| मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनया चारित्रं विराधयति। भग० चरितं-यवृत्तम्। दशवै० ३४। चरियव्वगं-चरण-तणादनम्। आव. २२६। चरित्तपुलात- चारित्रपुलाकः-पुलाकस्य तृतीयो भेदः। चरिया-चरणं चर्या ग्रामानुग्रामविहरणात्मिका। उत्त. चारि-निस्सारत्वं य उपैति स पुलाकः। उत्त० २५६) ८३। नवमः परिषहः वर्जितालस्यो मूलोत्तर-गुणप्रतिसेवनातश्चरणप्लाकः। स्था० ३३७ ग्रामनगरकुलादिष्वनियतव-सतिर्निर्ममत्वः प्रतिमासं चरित्तभावभासा-चारित्रभावभाषा-भावभाषाभेदः, चारित्रं चर्यामाचरेदिति। आव०६५६। विहितक्रियासेवनम्। प्रतीत्योपयुक्तैर्या भाष्यते सा। दशवै. २०८। उत्त० ८११ दशविधचक्रवालसामाचारी चरित्तविणओ-चारित्रादविनयः, चारित्रविनयः। दशवै. इच्छामिच्छेत्यादिका। सूत्र०८८ चरिका२४१। नगरप्रकारयोर-न्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः। प्रश्न.1 चरित्तवीरियं-असेसकम्मविदारणसामत्थं अष्टहस्तप्रमाणो नगर प्राकारान्तरालमार्गः। औप० ३। खीरादिलद्धप्पाद-णसामत्थं च। निशी. १९ अ। जीवा० २५८, २६९। ज्ञाता०२। चरिका। आव० ६४० चरित्तसंकिलेसे- चारित्रस्य सङ्क्लेशः अविशुद्धमानता स | चरिका-परिव्राजिका। व्यव. २०५आ। ग्रहप्राकारान्तरो चारित्रसङ्क्लेशः। स्था० ४८९। हस्त्यादिप्रचारमार्गः। भग० २३८। नगरप्राकारान्तराले चरित्तायारे-चारित्राचारः-समितिगप्तिभेदोऽष्टधा। हस्ताष्टकमानो मार्गः। बृह. ५३। स्था० ३२५। समितिगुप्तिरूपोऽष्टधा। स्था०६५। चरियाचरिए-चारित्राचारित्रं-देशविरतिः चरित्तिंदे-चरित्रेन्द्रः-यथाऽऽख्यातचारित्रः। स्था० १०४। | स्थूलप्राणातिपाता-दिनिवृत्तिलक्षणम्। आचा०६८। चरिमंत-चरमान्तः-अपान्तराललक्षणः। जीवा. ९४| चरियारए-चर्यारताःचरम-रूपः पर्यन्तः । जीवा. २८६। निरोधासहिष्णुत्वाच्चङ्क्रमणशीलाः। आचा० ३६९। चरिमंतपएसा चरिसामि-चरिष्यामि-अनुष्ठास्यामि। उत्त०४०९। चरिमाण्येवान्तवर्तित्वादन्ताश्चरिमान्तास्तेषां प्रदेशाः चरु- बलम्। निर० २७। स्थालीविशेषः। औप. ९४| चरु:चरिमान्तप्रदेशाः। भग० ३६६। भाजनविशेषः। भग. ५२० चरिम-चरमोऽनन्तरभावी भवो यस्यासौ चरमः। राज. चरे-चरेः-आसेवस्व। उत्त०३४१| चरेत्-आसेवेत। उत्त. ४७। चरमः-यस्य चरमो भवः संभवी योग्यतयाऽपि सः, ५९। चरति-आचरति। दशवै० २५५। चरेत्-उद्युक्तो भव्यः। प्रज्ञा० १४३। चरमो भवो भविष्यति यस्य भवेत्। आचा० १२२१ विदध्यात्। आचा० १८०| चरेत्सोऽभेदाच्चरमो भव्यः। प्रज्ञा० ३९५ चरमसमयभावी- गच्छेत्। प्रवर्तेतेतियावत्। उत्त० ४३०| चतुर्थसमयभावीति। प्रज्ञा० ५९९। चरमभववान् चरेज्ज-चरेत्-सेवेत। भग० ३६८। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [148] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चर्चः-संहितादि चर्चः। स्था० ३८१ तोरणं। निशी० ६३आ। चर्मकारकोत्थः- क्रोधविशेषः। आव० ३९११ चलनकालः- उदयावलिका। भग०१५ चर्मदलं- चतुर्थं क्षुद्रकुष्ठम्। आचा० २३५। प्रश्न० १६१| चलमाणे-चलत्-स्थितिक्षयादुदयमागच्छत् चर्मपक्षिणः- चर्ममयपक्षाः पक्षिणः, वल्गुलिप्रभृतयः। विपाकाऽभिमु-खीभवद्यत्कर्मेति प्रकरणगम्यं तत्। स्था० २७३। खचरप्रथमो भेदः। सम० १३५१ भग०१५ चर्मपक्षौ-चर्मात्मको पक्षौ चर्मपक्षौ। प्रज्ञा० ४९। चलसत्ते-चलं-अस्थिरं परीषहादिसम्पाते ध्वंसात् सत्त्वं चर्या-वहनं गमनमित्यर्थः। स्था० २४० यस्य स चलसत्त्वः । स्था० २५१| चलंतं-स्वस्थानादन्यत्र गच्छन्। स्था० ३८५ चलहत्थो-णाम कंपणवाउणा गहितो। निशी० १०१। चलंतसंधि-चलन्तः-शिथिलीभवन्तः सन्धयो चलाचल-चलाचलं-अप्रतिष्ठितम्। दशवै. १७५ यस्मिंस्तत्। उत्त० ३३४।। चलिः- परिस्पन्दनार्थः। दशवै.७० चलं- श्लथम्। स्था० २०९। गन्तं पथि प्रवृत्तः। ओघ० चलिअ-चलितं-विलासवद्गतिः। जम्बू. २६५। २३। अनियतविहारित्वात्। आचा० २५८1 अवधिः, चलिए- चलनं-अस्थिरत्वपर्यायेण वस्तुन उत्पादः। भग० अनवस्थि-तश्च। आव० २८। गमनाभिमुखम्। ओघ. १० १४१| चलः-गमनक्रियायोगात् हारादिः। आव. १८५। चलेमाणे- गच्छन्। आचा० २६५) चलो वायुराशुग-त्वात्। जम्बू० २६५) चवइ-च्यवते-अपयाति-चरति। आचा० ४०९। चलइ-चलति-कम्पते। जीवा० ३०७। स्थानान्तरं चवणं-च्यवनं-पातः। आचा० १६३। उद्वर्तना। जीवा० गच्छति। भग० १८३ १३५ चलचल-तवए पढमं जं घयं खित्तं तत्थ अण्णं घयं अप- | चवल-चपलं-उत्सुकतयाऽसमीक्षितम्। प्रश्न. ११९| चपक्खिवंती आदिमे जे तिण्णि घाणा पयतिते चलचलेति। लत्वं कायस्य। ज्ञाता०९९| चञ्चलम्। ज्ञाता० १३८। निशी. १९६ आ। हस्तिग्रीवादिरूपकायचलनवत्। प्रश्न. १२९| चापल्यंचलचवलं-चलचपलं-अतिशयेन चपलम्। प्रज्ञा० ९६। कायौत्सुक्यम्। जम्बू० ३८८1 चपला कायतोऽपि। ज्ञाता० जीवा० १७२। ३६| चपलः। आव०१८५ चलणं-चलनं-मोटनम्। ओघ. १७७ चलनः-चलन- चवलगं-चपलकम्। आव०६२२॥ विषयको भगवत्याः प्रथमशतके प्रथमोद्देशकः। भग०५ चवलगा-धान्यविशेषः। निशी. १४४ आ। चलणमालिआ-चरणमालिका-संस्थानविशेषकृतं चवला-चपला-कायचापलोत्पेता। भग० १६७। पादाभरणं लोके पगडां इति प्रसिद्धम्। जम्बू. १०६। चवलाए- चपलया-कायचापल्येन। भग० ५२७। चलणाओ-चलनकः, भगवत्याः प्रथमशतकदशमोद्देशः। चवलिअ-चपलितः। जम्बू० १०१। भग.५ चवेडा-चपेटा-करतलाघातः। उत्त०६२ चपेटा-पञ्चाङ्गचलणाहण- पारिणामिकबुद्धौ षोडशो दृष्टान्तः। नन्दी. लीप्रहारः। उत्त०४६१। १६५ चव्वायं- चार्वाकः-रोमन्थायमाणः। व्यव० २५५ चलणि-चलनप्रमाणः कर्दमश्चलनीत्युच्यते। भग० चषकः-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। चसक-चषकः-सुरापानपात्रम्। जम्बू. १०१। चलणिगा-मल्लचलणाकृतिः। निशी. १७९ आ। चसूरि-विस्तारः। भग० ७६०। विस्तरः। ओघ० ५॥ चलणी-चलनी। ओघ. २०९। चरणमात्रस्पर्शी कर्दमः। अनुयो० १३९। नन्दी० ३३॥ जीवा० २८२ चाइया- शकिताः। उत्त०६२७। चलत-ईषत्कम्पमानम्। जीवा० १८८1 चाई-त्यागी-सङ्गत्यागवान्। भग० १२२ चलतोरणं-जेण वामं दक्खिणं वा चालिज्जति सो चल- | सर्वसङ्गत्यागः, संविग्नमनोज्ञसाधदानं वा। प्रश्न اوا30 मनि दीपरत्नसागरजी रचित [149] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम- सागर- कोषः (भाग - २) १५७ | चाउक्कालं— चतुष्कालंदिवसरजनीप्रथमचरमप्रहरेष्वित्यर्थः । आव० ५७६ । चाउग्घंट- चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिन् सः । ज्ञाता० ४५। चतस्रो घण्टाः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतश्च यस्य सः । ज्ञाता० १३२ | चाउजामो - चातुर्यामः-निर्वृत्तिधर्म एव । आव० ५६३ | चाउज्जामा- चतुर्महाव्रतानि । भग० १०१। चातुर्यामःमहा-व्रतचतुष्टयात्मको यो धर्मः । उत्त० ४९९| चाउज्जायग– चातुर्जातकं-सुगन्धद्रव्यविशेषः। उत्त॰ २१९| चाउज्जायगा- सुगंधदव्वं । निशी० ३१८ आ । चाउत्थजरो - चातुर्थज्वरः । आव० ५५९ । चाउत्थहिय- चातुर्थाहिकः- ज्वरविशेषः । भग० १९८ चाउद्दसी - चतुर्द्दशी तिथिः । ज्ञाता० १३९ । चाउप्पायं - चतुष्पदा भिषग्भैषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भा-(त्मकगा)ग चतुष्टयात्मिका । उत्त० ४७५| चाउम्मासियं– चातुर्मासिकं-चतुर्मासातिचारनिर्वृत्तं प्रतिक्र मणम् । आव० ५६३ | चाउरंगिज्जं- उत्तराध्ययनेषु तृतीयमध्ययनम् । सम ६४| निशी॰ ९अ। चातुरङ्गीयम्। दशवै० १०५| चाउरंत- चातुरन्तं-चतुर्गतिकम् । प्रश्र्न० ९१। चतुर्विभागंसंसारः। ज्ञाता० ८९| चतुरन्तः संसारः । आव० ५४६ । चतुरन्तः चतसृष्वपि दिश्र्वन्तः- पर्यन्तः, एकत्र हिमवानन्यत्र च दिक्त्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितयाऽस्येति । चतुर्भिर्वा हयगजरथनरात्मकैरन्तः-शत्रुविनाशात्मको यस्य स । उत्त ३५०। चतुर्विभागं नरकादिगतिविभागेन । स्था० ४४ चाउरंतचक्कवट्टि– चतुर्षु-दक्षिणोत्तरपूर्वापररूपेषु पृथिवीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य स चातुरन्तचक्रवर्ती। जम्बू॰ ५८ चाउरंतचक्कवट्टी- दिक्त्रयभेदभिन्नसमुद्रत्रयहिमवत् पर्वतपर्य-न्तसीमाचतुष्टयलक्षणा ये चत्वारोऽन्तास्तांश्चतुरोऽपि चक्रेण वर्त्तयति पालयतीति-चतुरन्तचक्रवर्ती-परिपूर्णषट्खण्डभरतभोक्ता । अनुयो० १७१ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] चाउरंतमुक्ख- चतुरन्तमोक्षः- संसारविनाशः । आव० ५४६ । चाउरक्क- चातुरक्यं चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तम् । जीवा० २७८, ३५३। चाउलं - तन्दुलधावनम् । बृह० २४६ आ । चालणा- जहा आफासुयं अणेसणिज्जंति तेसिं चालणा कहिज्जति । निशी० १४८ आ । चाउलपलंवं- अर्द्धपक्वशाल्यादि कणादिकमित्येवमादिकम्। आचा० ३४२ | तन्दुलाःशालिव्रीह्यादेः त एव चूर्णीकृता-स्तत्कणिका वा। आचा० ३२३| चाललोट्टो - रोट्टः | ओघ० १३७ । चाउला- तन्दुलाः-शालिव्रीह्यादेः । आचा० ३२३1 चाउलोदग– तण्डुलोदकम् । पिण्ड० १०। तन्दुलोदकंअट्ठिकरकम्। दशवै० १७७ । चाउलोदयं - तन्दुलधावनोदकम्। आचा॰ ३४६। चाउवण्णं- चातुर्वर्ण्य-ब्राह्मणादिलोकः । भग० ६९०| चावन्न - चत्वारो वर्णाः प्रकाराः श्रमणादयो यस्मिन् स तथा स एव स्वार्थिकाण्विधानाच्चातुर्वर्णः । स्था० ३२१ | चाउव्वण्णाइण्णे- चत्वारो वर्णाः श्रमणादयः समाहता इति चतुर्वर्णं तदेव चातुर्वर्ण्यं तेनाकीर्णःआकुलश्र्चातुर्वर्ण्याकीर्णः, अथवा चत्वारो वर्णाः प्रकारा यस्मिन् स तथा, दीर्घत्वं प्राकृत्वात्, चतुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिभिर्महागुणैरिति चतुर्वर्णाकीर्णः। स्था० ५०३ | चाउव्वण्णाइन्ने – चातुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिगुणैरिति चातुर्वर्णाकीर्णः । भग० ७११। चाउवेज्ज - चातुर्वैद्यः । आव० १०३, ६९५ । चाउव्वेज्जभत्तं- चातुर्वैद्यभक्तम् । आव० ८२४| चाउसालए- चतुःशालकं-भवनविशेषः। जम्बू० ३९१। चाउस्सा- - चतुःशालम् । ओघ० ४६। गृहम् । बृह० १४८। चाएइ - शक्नोति । आव० ७०३ | चाक्रिकः- यान्त्रिकः । ओघ० ७५। चाटुयार- चाटुकरः मुखमङ्गलकरः । प्रश्र्न० ३०| चाडु चाटु | आव० ९३ । चाटुकर- चाटुकरः । प्रश्र्न० ५६ | चाडुयं - हावभावम् । जीवा० ६९६ । चाणक्क— चाणक्यः कौटिल्यः । दशवै० ५२, ९१। पाशके [150] “आगम- सागर- कोषः " [२] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] दृष्टान्तः। आव० ३४२। चन्द्रगुप्तमन्त्री। निशी० ४ आ। | चारद्विइए-चारस्य-यथोक्तस्वरूपस्य स्थितिः-अभावो नीतिकारः-कौटिल्यः। चूर्णद्वारविवरणे यस्य स चारस्थितिकः-अवगतचारः। सूर्य. २८१। चन्द्रगुप्तमन्त्री। पिण्ड. १४२। उपायेनार्थोपार्जनकारको | चारहिइओ-चारकस्थितिकः-चारस्य स्थितिः-अभावो ब्राहमणः। दशवै. १०७। विमर्शदृष्टान्ते नीतिकारो यस्य सः, अपगतचारः। जीवा० ३४६) द्विजन्मा। आव० ४०५। प्रशंसाविषये पाटलीपुत्रे चारद्वितीया-चारे-ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेव येषां ते चन्द्रगुप्तराजमन्त्री। आव०८१७। गोब्बरग्रामे सुबन्धुना चार-स्थितिकाः-समयक्षेत्रबहिर्वतिनो घण्टाकृतय दग्धः। मरण| सुबन्धुप्रदीपितः। भक्त०| पाडलीपुत्ते इत्यर्थः। स्था० ५७ मंती। निशी. १०२| निशी० ११९| चाणक्यः चारणगणे-नव गणे चर्चा गणः। स्था० ४५११ पाटलीपुत्रनगरे मन्त्री। व्यव० १४० आ। चाणक्यः- चारणा-अतिशयचरणाच्चारणाःशचूदग्धोऽनशनी। संस्ता| चाणक्यः-संन्यासे विशिष्टाकाशगमनलब्धि-युक्ताः। प्रश्न. १०५। दृष्टान्तः। व्यव० २५६। स्था० २८२ पारिणामिकबुद्धौ चारणाः-जङ्घाचारणादयः। ज्ञाता० १००| चरणंद्वादशो दृष्टान्तः। नन्दी. १६७ गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्ति इति चारणाः। भग. चाणूरः- कंसराजसम्बन्धी एतदभिधानो मल्लः। प्रश्न. ७९४। ऋद्धिप्राप्तार्यभेदः। प्रज्ञा० ५५। जङ्घाचारणा ७४। विद्याचारणाश्च। सम० ३४| चारणाचातुरंतसंसारकंतारो- चातुरंतसंसारकान्तारः। आव. जङ्घाचारणविदयाधराः। जीवा० ३४४। चरणं-गमनं ७९३। तद्विद्यते येषां ते चारणाः। प्रज्ञा० ४२४। चामरगंडा- चामरदण्डाः। ज्ञाता० ५८१ चारणिका-अनेकशो भिन्नाः। ओघ. २६| चामरच्छायं-चामरच्छायनं-स्वातीगोत्रम्। जम्बू. ५०० चारते-चारकं-गुप्तिगृहम्। स्था० ३९८१ चामरधारपडिमाओ-चामरधारप्रतिमाः। जम्बू० ८११ | चारपुरिसो-चारपुरुषः। उत्त० २१४। चारंचरइ-चारञ्चरति-मण्डलगत्या परिभ्रमति। जीवा. | चारभट-सूर। प्रश्न. ११६| भटः, बलात्कारप्रवृत्तिः । औप० २। शूरः। उत्त० ३४९, ४३४। आचा० ३५३| चार-चरन्ति-भ्रमन्ति, ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो- | चारभड-अबलगकादयः। ओघ. ९२| चारभटः। प्रश्न. ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव। स्था० ५८ नियुक्ताः। ३०, ५६। औघ० १६३। निशी० १०६ अ। चरणं चारः-अनुष्ठानम्। आचा० २१२१ चारभडओ-चारभटः। आव०८३१| विहारः। भग० ३। ज्योतिषामवस्थानक्षेत्रम्। भग० ३९४१ | चारभडा-स्वामिभटाः। पिण्ड० १११। सेवगा। निशी० ३५८ स्था० ५८१ चारः-ज्योतिश्चारस्तविज्ञानम्। जम्बू. | चारभटाः-राजपुरुषाः। बृह० ३११ अ। १३९। मण्डलगत्यापरिभ्रमणम्। जीवा० ३७८। जम्बू० | चारविसेसे- चारविशेषः। सूर्य. २७६) ४६२ चरणम्। प्रश्न. ९५। फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८१ चारवृक्षः- यस्मिन् चारकुलिका उत्पद्यन्ते। अनुयो० ४७। चार-परिभ्रमणम्। सूर्य. ११। चारः। ज्ञाता० ३८। चारस्थितिकाः- समयक्षेत्रबहिर्वत्तिनो घण्टाकृतयः। चारग-चारकः-गुप्तिः । प्रश्न० ६० औप० ८७। स्था० ५८५ गुप्तिगृहम्। प्रश्न. ५६। बन्धनगृहम्। आव० ११४। चारा-हेरिकाः। भग०४॥ चारगपरिसोहणं- चारगशोधनम्। ज्ञाता० ३७ चारि-तणाति। आव. १८९। चारिकः। आव. २०२। चरः। चारगपाले-चारकपालः-प्तिपालकः। विपा०७१। उत्त० १२२। हेरिकः। बृह० ४०आ। चारगबंधणं-चारकबन्धनम्। सूत्र० ३२८१ चारिए-चारिकः। आचा० ३८८१ चारगभंडे- चारकभाण्डः-गप्त्य्प करणम्। विपा०७१। चारिगा-चारिका। उत्त. १६२ चारगभडिया-चारकभट्टिनी, भर्तृका। आव० ९३। चारित-चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं-क्षयोपशमरूपं चारगवसहि- चारकवसति-गुप्तिगृहम्। प्रश्न० १६| | तस्य भावः चारित्रं, اوایا3 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [151] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] इहान्यजन्मोपात्ताष्टविधकर्मसञ्चयाय चरण- चारोपपन्नकाः-ज्योतिष्काः। स्था० ५८१ भावश्चारित्रं, सर्वसावययोगविनिवृत्तिरूपा क्रिया वा। चारोवगो-चारोपगः-चारुयक्तः। जीवा० ३४० आव० ५९ अण्णणोवचियस्स कम्मचयस्स चारोववन्नगा-ज्योतिश्चक्रचरणोपलक्षितक्षेत्रोपपन्नाः। रित्तीकरणं चारित्तं। निशी. १८आ। चयस्य-राशेः भग. ३९४। चरन्ति-भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्र स प्रस्तावात्कर्मणां रिक्तं-विरेकोऽभाव इतियावत् चारो-ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव। तत्करोतीत्येवंशीलं चयरिक्त-करं चारित्रम्। उत्त० ५६९। | तत्रोपपन्नकाश्चारोपपन्नकाः- ज्योतिष्काः। स्था० ५७ चयरिक्तीकरणाच्चारित्रम्। ओघ. ९| बाह्य चारोववन्नो-चारः-मण्डलगत्या परिभ्रमणम्पपन्नाःसदनुष्ठानम्। ज्ञाता०७ आश्रि-तवन्तश्चारोपपन्नः। जीवा. ३४६। चारित्तबलिय-चारित्रबलिकः। औप० २८। चार्वाकिः- यथा वृषनेत्रं वृषसागारिकं नीरसमरो चारित्तभट्ठो-चारित्रभ्रष्टः-अव्यवस्थितपुराणः। आव. वृषभश्चर्वयति एवं यः कार्यः रोमन्थायमाणो निष्फलं ५३३ रचयन् तिष्ठन्-चर्वण-शीलः चार्वाकिः। व्यव० २५६ अ। चारित्र-आर्यभेदः। सम० १३५ स्था० ३३७। चालणा-क्वचित्किञ्चिदनवगच्छन् पृच्छति शिष्यः चारित्रतः- शापं ददत् चारित्रतः। स्था० ३३७। कथमेत-दिति इयमेव चालना। दशवै० २१। दूषणं चारित्रधर्मः- चारित्रसम्बन्धी धर्मः। आव० ७८८1 चाल्यते-आक्षिप्यते यया वचनपद्धत्या सा चालना। बृह. चारित्रधर्माङ्गिनि-संयमात्मप्रवचनानि। भग० ९। १३६ अ। सूत्रार्थ-गतदूषणात्मिका। उत्त० २०| चारित्रभेदाः-क्षपणवैयावृत्त्यरूपाः। स्था० ३८१| चालना-सूत्रस्य अर्थस्य वा अनुपपत्त्युद्धावनं चालना। चारित्रर्द्धिः-निरतिचारता। स्था० १७३। अनुयो० २६३। चारित्रसमाधिप्रतिमा-समाधिप्रतिमाया दवितीयो भेदः।। चालनी- यया कणिक्कादि चाल्यते चालनी। आव० १०२ सम. ९६। स्था०६५ चालित्तए- भङ्गकान्तरगृहीतान् भङ्गकान्तरेण कर्तुम् चारित्रोपसम्पत्-वैयावृत्यकरणार्थं क्षपणार्थं । ज्ञाता० १३९। चोपसम्पद्यमा-नस्य। स्था० ५०१। वैयावृत्त्यविषया चालिया-चालिताः-इतस्ततो विक्षिप्ता। जम्बू० ३७ क्षपणविषया च। आव. २६८ चालेति-चालयति-स्थानान्तरनयनेन। ज्ञाता०९४। चारिय-चारिकः-हैरिकः। प्रश्न. ३०। प्रणिधिपुरुषः। चालेमाणो-चलन्-शरीरस्य मध्यभागेन सञ्चरन्। जीवा. प्रश्न. ३८१ १२० चारिया-चारिका। आव० ३१६| चाव- चापाः-कोदण्डः। जम्बू० २०६| चापं-धनुः। जीवा० चारी-चीर्णवान्-विहृतवान्। आचा० ३१०| २७३। चारीभंडिय-चारीभण्डिकः। ओघ १४८१ चाववंसे- पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३| चारु-चारुः-प्रहरणविशेषः। राज० ११३। प्रहरणविशेषः। चावियं- च्यावितं-आयःक्षणेयं भ्रंशितम्। प्रश्न. १५५ जीवा० २६० चास-पक्षिविशेषः। उत्त०६५२ चाषः-पक्षिविशेषः। चारुदत्त- यो वेत्रवती नदीमुत्तीर्य परकुलं गतः। आव०६८७। प्रज्ञा० ३६० किकिदीवी। पक्षिविशेषः। नामविशेषः। सूत्र० १९६| चारुदत्तः-ब्रह्मदत्तपत्न्या- प्रश्न.1 वच्छयाः पिता। उत्त. ३७९। चासपिच्छए-चासस्य पत्रम्। प्रज्ञा० ३६० चारुपीणया- चारुपीनका। जम्बू. १०१। चासा-लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४१| चारुपीनकः-भाजनविधिविशेषः। जीवा० २६६। चिंचइअं- (देशी ) खचितम्। आव० १८० चारुवण्णो- चारुवर्णः सत्कीतिः चिंचणिकामयी-अम्बिलिकामयी। ओघ.३० गौरायुदात्तशरीरवर्णयुक्तः सत्प्रज्ञो वा। औप० ३३ चिंचतिया-दीप्ताः। निशी० ३४८ अ। चारू- चारुः-शोभनः। सूर्य. २९४| सम० १५२। | चिंचापाणग-पानकविशेषः। आचा० ३४७) मनि दीपरत्नसागरजी रचित [152] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) [Type text] चिञ्चापानकम् बृह० २५३ अ चिंचियंत चिंचिकुर्वन् सर्पेण ग्रस्यमानः शब्दायमानो मण्डुकः । उत्त० ५२२ चिंचियायंतं चिंचिमिति कुर्वन्तम् । उत्त- ५२१ | चिंतनिका- परिभावनीयः स्था० ३४९१ चिंता चिन्ता पूर्वकृतानुस्मरणम्। भग० १८०१ मनश्र्चेष्टा। आव॰ ५८३। ततो मुहुर्मुहुक्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगत-सद्भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता | नन्दी ० १७६| कथमिदं भूतं कथं चेदं सम्प्रति कर्त्तव्यं कथं चैतद्भविष्यतीति पर्यायलोचनम्। नन्दी. १९० चिंतापसंग चिन्ताप्रसंगः- चिन्तासातत्यम्। प्रश्न० ६१। औप० ४६१ चिंतासुविणे जाग्रदवस्थस्य या चिन्ता अर्थचिन्तनं तत्संद-र्शनात्मकः स्वप्नश्चिन्तास्वप्नः । भग० ७०९ | चिंतिए - चिन्तितः - स्मरणरूपः । भग० ११५, ४६३ । चिन्तितः। विपा० ३८] चिन्तितः चिन्तारूपश्र्चेतसोऽनव-स्थितत्वात् । जम्बू० २०३ | चिंतिय चिन्तितं- अपरेण हृदि स्थापितम्। ज्ञाता० ४१॥ चिंतियाइओ - चिन्तितवान् । आव० १५२ चिंतेमि- चिन्तयामि युक्तिद्वारेणापि परिभावयामि । प्रज्ञा० २४६ | चिंध - चिह्न स्वस्तिकादि। आव० ३२१ । लाञ्छनम् । ज्ञाता० २२२॥ चिंधत्थी - चिन्यते ज्ञायतेऽनेनेति चिह्न स्तननेपथ्यादिकं, चिह्नमात्रेण स्त्री चिह्नस्त्री, अपगतस्त्रीवेदछद्मस्थः केवली वा अन्यो वा 7 स्त्रीवेषधारी । सूत्र १०२॥ चिंधद्वय चिह्नध्वजः चक्रादिचिह्नप्रधानध्वजः । भग० ३१९| चिंधपट्ट - चिह्नपट्ट:- योधतासूचको नेत्रादिवस्त्ररूपःसौवर्णो वा पट्टो येन सः । भग० १९३ । ध्वजपटः । ज्ञाता० २७| चिह्नपट्टः योधचिह्नपट्टः । भग० ३१८ | नेत्रादिमयः । विपा० ४७ | नेत्रादिचीवरात्मकः । प्रश्न० ४७ | चिंधपुरिसे पुरुषचिन्हे:- श्मश्रुप्रभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषश्र्चि-ह्नपुरुषः। स्था० ११३ | चिंधिअ- दर्शितः आव० ९२२ चिंधे- चिंधपुरिसे- चिह्नपुरुषः । अपुरुषोऽपि मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] पुरुषचिह्नोपल-क्षितः। आव०२७७ चिह्न - केतम् । आव० ८४१ | चिअं- चितं इष्टिकादिरचितं प्रासादपीठादि । अनुयोग १५४| चिअत्ते मनः प्रणिधानम् । दश० १८० | चिह्न - कुशलकर्मणश्चयनं चितिः, रजोहरणाद्युपधिसंहतिः। आव० ५११। चिड़या - चितिका-शस्त्रविशेषः । आव० ६५१ | चिई- चयनं चितिः- प्रवेशनम् । आव० ४७४ | चियन्ते मृतक - दहनाय इन्धनानि अस्यामिति चितिःकाष्ठरचनात्मिका । उत्त० ३८९ ॥ चिउरंगरागो - चिकुराङ्गरागः- चिकुरसंयोगनिमितो वस्त्रादौ रागः । जीवा० १९९| चिउरंगराते- चिकुराङ्गरागः चिकुरसंयोगनिर्मितो वस्त्रादौ रागः । राज० ३३ | चिउर- चिकुरः- रागद्रव्यविशेषः । जम्बू. ३४ जीवा. १९१। पीतद्रव्यविशेषः। प्रज्ञा॰ ३६१ | चिकुरो - रागद्रव्य - विशेषः । राज० ३३| चिउररागे- चिकुररागः- चिकुरनिष्पादितो वस्त्रादौ रामः । प्रज्ञा० ३६१ | चिए - चयः प्रदेशानुभागादेर्वर्धनम्। भग० ५३| चिक्कण- अन्योन्यानुवेधेन गाढसंश्लेषरूपः । पिण्ड २७| चिक्कणं-दुर्विमोचम्। प्रश्नः २२॥ दारुणम्। दशवै० २०६। चिक्कणिका– नोकर्मद्रव्यलोभः, आकारमुक्तिः । आव ० ३९७ | चिक्कणीकय- चिक्कणीकृतं सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया परस्परं गाढसम्बन्धकरणतो दुर्भेदीकृतम् । भग० २५१| चिक्खल - सकर्दमः प्रदेशः । ओघ० २१९ | चिक्खलगोल - कर्दमगोलः । दशवै० ९४ चिक्खल्ल- शुष्कः ओघ० २९| यत्र निमज्जनं स्यातु सः चिक्खल्लः | ओघ० २९| चिदिति करोति खल्लं च भवतीति चिक्खल्लम्। अनुयो० १५० | कर्दमः संसार पक्षे विषयधनस्व जनादिप्रतिबन्धः समः १२७| कर्दमः । दशवै० ८७ | उत्त० १२८ प्रज्ञा० ८० आव० १९९, ६२१, ६२४ | व्यव० ९ आ । [153] "आगम- सागर-कोषः " (२) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] चिच्चं-चिच्चं नाम च्युतं वानमित्यर्थः, विशिष्टवानम। चित्तंतरलेसागा-चित्रमन्तरं लेश्या च प्रकाशरूपा येषां ते जीवा० २३१। चिच्चं नाम व्यूतं विशिष्टं वानमित्यर्थः। | चित्रान्तरलेश्याकाः। सूर्य २८१। जीवा० ३४१ जम्बू० २८५ चित्तं- चित्रं-अद्भुतम्। जीवा० १६४। आश्चर्यभूतम्। चिच्ची-चित्कारः। विपा. ५० जीवा० १७५। आलेखः। जीवा० १८९, २१४। चित्रंचिज्जंति-चीयन्त बन्धनतः, निधत्ततो वा। भग० २५३। नानारूपम्। जीवा० २०५। इत्थीमादीरूवं दर्रा चिट्ठ-भृशमत्यर्थम्। आचा० १८४१ तदंगावयवसरुवचिंतणं चित्तं। निशी । चिट्ठइ-तिष्ठति-ऊध्वस्थानेन वर्तते। जीवा. २०११ किलिजादिकं वस्तु। अनुत्त० ५। चैतन्यम्। सम० १८१ चिट्ठा-चेष्टा-व्यापाररूपा। आव०७८५१ मनोविज्ञानं च। अनुयो० ३९| भावमनः। औप०६० चिहित्तु-स्थातुं-कायोत्सर्ग कर्तुम्। आव० २७१। चित्रं-अनेकरूपवत् आश्चर्यवद्वा। सूर्य० २६३। चिट्ठियव्वं- शुद्धभूमौ ऊध्वस्थानेन स्थातव्यम्। ज्ञाता० एगतरवण्णुज्जलं। निशी० २५३। चित्रः-श्रीदामराज६११ स्यालकारिविशेषः। विपा.७० चित्रकूटः - चिहिस्सामो-स्थास्यामः-वतिष्यामः। ज्ञाता० १५९। पर्वतविशेषः। प्रश्न. ९६। शङ्खराजभागिनेयः। चिढ़े-तिष्ठन्- ऊर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि आव०२१४। नानारूपः आश्चर्यवान् वा। जीवा० २०९। विक्षिपन्। दशवै. १५६। स्थातव्यम्। ओघ० २२१ पर्वतविशेषः। जम्बू. ३५४। वाराणस्यां चिद्वेज्जा-तिष्ठेत्-ऊर्ध्वस्थानेनाऽवतिष्ठेत्। प्रज्ञा० ६०६। ब्रह्मदत्तजीवसंभूतचण्डालज्येष्ठभ्राता। उत्त० ३७६। चिद्वेमाणे- चेष्टयन-व्यापारयन चेष्टमानो वा। भग०५४। चित्रः-कर्बरः। उत्त० ३०५। प्रदेशीराज्ञो मन्त्रि। निर०९, चिडगा- लोमपक्षिविशेषः। जीवा० ४११ प्रज्ञा०४९। १५,४० चित्रं-अनेकविधः। स्था० ५१७। चित्रः चिडिग-चिटिकाः-कलम्बिकाः, पक्षिविशेषः। प्रश्न ब्रह्मदत्तराज्ञीविदयुन्मालाविदयुन्मतीपिता। उत्त. चिण-आसंकलनतः चितवन्तः। स्था० १७९| ३७९| चित्तं-सामान्योपयोगरूपम्। भग० ८९। चिणविसए- देशविशेषः। निशी० २५५ अ। प्रदेशीराज्ञः सारथिनाम। राज०११५ चित्तंचिणाइ-अनुभागबन्धापेक्षया निधत्तावस्थाऽपेक्षया वा। त्रिकालविषयं-ओघतोऽ-तीतानागतवर्तमानग्राहि। भग० १०२ दशवै० १२५। चित्रं-आलेखः। जम्बू३२ स्था० १९७१ चिणिंसु-तथाविधापरकर्मपद्गलैश्चित्तवन्तः- चेतयति येन तच्चित्तं-ज्ञानम्। आचा०६६। पापप्रकृतीर-ल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः। स्था० २८९। चित्रकूटपर्वतः। भग० ६५४। चितं- बद्धम्। ओघ० १८० चित्तकम्मे-चित्रकर्म-चित्रलिखितं रूपकम्। अन्यो. चिति-चयनं चितिः, इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पाद्यपचयः। उत्त० ३०९। चितिः भित्यादेश्चयनं, मृतकदहनार्थं चित्तकणगा- द्वितीया विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाया दारुविन्यासो वा। प्रश्न. ८० नाम। स्था० १९८। चित्रकनका। जम्बू० ३९१। चितीकया-चैत्यत्वेन स्थापिता। ब्रह. २६ आ। विदिग्रुचकवास्तव्या-विद्युत्कुमारीस्वामिनी। आव. चित्तंग-चित्राङ्गाः-पुष्पदायिनः। सम०१८ १२ चित्तंगओ-चित्राङ्गकः-द्रमगणविशेषः। जीवा. २६७। चित्तकम्माणि-चित्रकर्माणि। आचा०४१४ चित्तंगा-चित्रस्य-अनेकविधस्य चित्तकरसेणी-चित्रकरश्रेणिः। आव०५५८५ विवक्षाप्राधान्यान्माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः। स्था० | चित्तकारे-चित्रकारः-शिल्पभेदः। अन्यो० १४९। ३४८, ५१७। चित्रस्य अने-कप्रकारस्य चित्तकूड-चित्रकूटः-पर्वतविशेषः। आव० ८२७। चित्रकूटविवक्षाप्राधान्यान्माल्यस्य अङ्ग-कारणं तत्स पर्वतः। जम्बू० ३०८, ३५४। स्था० ८०। सीतामहानद्यः म्पादकत्वाद् वृक्षा अपि चित्राङ्गाः। जम्बू. १०४। आव० उत्तरे दवितीयो वक्षस्कारपर्वतः। स्था० ३२६। चीत्रकुटम् १११ | जम्बू. ३४४| पर्वतनाम। स्था०७४, १२६। गिरिवि १ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [154] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] १०६। शेषः। जम्बू. १६८। भग० ३०७। विजयविभागकारिणः । | चित्तलया-विविधवर्णवस्त्राणि। गच्छा। पर्वतविशेषः। प्रश्न. ९६। चित्तलिणो-मुकली-अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा०४६। चित्तगरसेणी-चित्रकृच्छ्रेणि। आव०६४। चित्तविचित्त-चित्रविचित्रं-मनोहारिचित्रोपेतम्। जीवा. चित्तगा-सनखपदचतुष्पदविशेषाः। प्रज्ञा०४५। चित्रकाः- | १९ एगतरेण वा णणण्णउज्जलो विचित्तो दोहिं सनखपदचतुष्पदविशेषाः, आरण्यजीवविशेषाः। जीवा.. वण्णेहिं चित्तवि-चित्तो। निशी० २२९ अ। ३८1 चित्तविभ्रमः-चित्तविल्प्तिः । ओघ. २११। चित्तगुत्ता-चित्रगुप्ता-दक्षिणरुचकवास्तव्या चित्तविलुत्ती- चित्तविलुप्तिः-चित्तविभ्रमः। ओघ. दिक्कुमारी। आव० १२२। दक्षिणरुचकवास्तव्या सप्तमी २१११ दिक्कुमारीमह-त्तरिका। जम्बू० ३९१। भग० ५०३। स्था० | चित्तसंभूइ-चित्रसंभूतिः-उत्तराध्ययनेषु २०४१ त्रयोदशमध्ययनम्। उत्त० ९। चित्तघरगं-चित्रगृहकं-चित्रप्रधानं गृहकम्। जीवा० २०० | चित्तसंभूयं- उत्तराध्ययनेषु त्रयोदशमध्ययनम्। सम० चित्तघरगा-चित्रप्रधानानि गृहकाणि। जम्बू०४५। ६४१ चित्तजीवो-चित्तमंतो। दशवै. ६० चित्तसभा-चित्रसभा-चित्रकर्मवन्मण्डपः। प्रश्न. ८ चित्तनिवाई-चित्तं-आचार्याभिप्रायस्तेन निपतितूं- आव०६३। क्रियायां प्रवर्तितं शीलमस्येति चित्तनिपाती। आचा. | चित्तसालं-चित्रशालम्। जीवा० २६९। २१५ चित्तसालयघर-चित्रशालगृह-चित्रकर्मवद्गृहम्। जम्बू. चित्तपक्खा- चतुरिन्द्रियजीवविशेषाः। जीवा० ३२ प्रज्ञा० ४२। स्था० १९७ चित्तसेणओ-चित्रसेनकः-ब्रह्मदत्तपत्न्या भद्रायाः चित्तपडयं-चित्रपटकम्। आव०६७७। पिता। उत्त० ३७९ चित्तपत्तए-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६) चित्तसुद्धे-चैत्रशुक्लः। ज्ञाता० १५४| चित्तफलयं-चित्रफलकम्। आव० १९९। चित्ता-नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा। जम्बू. ५४। चित्तभित्ति-चित्रभित्तिः-चित्रगता स्त्री। दशवै. २३७ | चित्राविदि-ग्रुचकवास्तव्याविद्युतकुमार्यः स्वामिनी। चित्तमंत-चित्रमात्रा-स्तोकचित्तेत्यर्थः। दशवै. १३८1 आव० १२२। मुसिता। निशी० ४० आ। चित्रा-चित्रवन्तः चित्तवान्-आत्मवान्। दशवै० १४० आश्चर्य-वन्तो वा। सम० १३९। भग० ५०५ चित्राचित्तरक्खडा-चित्तरक्षार्थ-मनोऽन्यथाभावनिवारणार्थं द्वादशं नक्षत्रम्। स्था० ७७। सूर्य. १३०| प्रथमा दाक्षि-ण्याद्युपेतः। पिण्ड० ४६। विद्युत्कुमारीमहत्तरिका। स्था० १९८, २०४। चित्रा। चित्तरसा-चित्रो-मधुरादिभेदभिन्नत्वेनानेकप्रकार जम्बू० ३९१। कर्बुरा। ज्ञाता० १३९। आस्वाद-यितृणामाश्चर्यकारी वा रसो ये ते। जम्बू० | चित्ताचिल्लडय-आरण्यो जीवविशेषः। आचा० ३३८॥ १०४| चित्रा-विविधा मनोज्ञा रसा-मधुरादयो येभ्यस्ते | चित्ताणुय-चित्तानुगः-चित्तं-हृदयं प्रेरकस्यानुगच्छतिचित्तरसा भोज-नाङ्गा इति भावः। स्था० ५१७। अनु-वर्तयतीति। उत्त० ४९। भोजनदायिनः। सम. १८१ आव० १११। चित्रा चित्तानुशयः- मनःप्रवेषः। उत्त० ३६८१ विचित्रारसा मधुरादयो मनोहारिणो येभ्यः सकाशात् | चित्तामूलं-चित्रमूलम्। प्रज्ञा० ३६४। सम्पद्यन्ते ते चित्ररसाः। स्था० ३९९। चित्ररसः- चित्तारा-शिल्पार्यभेदः। प्रज्ञा० ५६। द्रमगणविशेषः। जीवा. २६८१ चित्तावरक्खा-चित्तावरक्षा। आव. २२११ चित्तलंग-चित्तलाङ्गाः-कर्बावयवाः। भग० ३०८। चित्रक-एकवर्णः। निशी. पं०२२९ आ। चित्तलगा-सनखपदश्चतुष्पदविशेषाः। चित्रक्षुल्लकः- लब्धकामार्थे दृष्टान्तः। आचा. २०१। आरण्यजीवविशेषाः। जीवा० ३८ चित्रा-त्वाष्ट्रीत्यपरनाम। जम्ब० ४९९| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [155] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २४५ चिद्ध-चिह्न-पिशाचकेतुः। ज्ञाता० १३८१ चिररायं-चिररात्रं-प्रभूतकालं यावज्जीवमित्यर्थः। आचा. चिन्नं-चीर्णम्। सूर्य. २११ चिपिड-चिपटा-निम्ना। ज्ञाता० १३८ चिरसंसट्ठ-चिरं-प्रभूतकालं संसृष्टःचिप्पिउं- चिप्पित्वा-कुट्टयित्वा। बृह. २०३ अ। स्वस्वाम्यादिसम्बधेन सम्बद्धो यः। उत्त० ३२२ चिप्पित-कट्टिया। निशी० ६३आ। चिराणओ-चिरन्तनः। आव० ४२१। चियं-चित्तं-उत्तरोत्तरस्थितिष प्रदेशहान्या रसवृद्ध चिराणयं-चिरन्तनम्। याऽव-स्थापितः। प्रज्ञा०४५९। चित्तः-शरीरे चयं गतः। चिराणो-चिरन्तनः। निशी० ३३ अ। भग० २४। चितः-धान्येन व्याप्तः। अन्यो० २२३। चिरिक्का- छटा। निशी० ४४ आ। छटाः। उत्त. ११६। चियगा-चितिः। प्रश्न. ५२॥ चितिका। आव०६७५ चिरुएहिं-वृकैः। बृह. ११८ आ। चियहाणं-चितस्थानम्। आव० १६० चिर्पितः-नपुंसकभेदः। उत्त०६८३। चियत्त- लक्षणोपेततया संयतः। भग० ९२४। त्यक्तः, | चिर्भटिका-त्रपुषी। नन्दी० १४९। प्रीति-विषयो वा। भग०४९८1 संयमोपकारकोऽयमिति | चिलाइपत्त-उपशमादिपदत्रयीवान्। मरण| प्रीत्या मलिनादावप्रीत्यकरणं वा। स्था० १४९। प्रीतिकरः, | उपशमविवेकसंव-रपदत्रयवान्। भक्त। नाप्री-तिकरः। राज०१२३। नाप्रीतिकरः। ज्ञाता०१०९। चिलाइया-चिलाता-धनसार्थवाहदासी। आव० ३७०। औप. १०० आव०७९३। प्रीतिकरं त्यक्तं वा दोषैः। चिलाती-अनार्यदेशोत्पन्ना। ज्ञाता०४१। औप० ३८ लोकानां प्रीतिकरः, नाप्रीतिकरः। भग० १३५ | चिलाए-चिलातः-मूलगुणप्रत्याख्याने कोटीवर्षे नगरे त्यक्तः। भग० १३६। संयमीनां संमतः उपधिः म्ले-च्छाधिपतिः। आव०७१५। धनसार्थवाहस्य रजोहरणादिकः। स्था० १४९। दासचेटः। ज्ञाता०२३५ चियत्तकिच्च-प्रीतिकृत्यं वैयावृत्यादि। स्था० २०० | चिलातपुत्रः- मुनिविशेषः। आचा० २९४। सूत्र. १७२। त्यक्त-कृत्यः-परित्यक्तसकलसंयमव्यापारः। ब्रह. चिलातिपत्तो-कीटिकाभक्षितो मुनिः। संस्ता०। २५७ आ। चिलातीपत्रः- रागे दृष्टान्तविशेषः। व्यव० १२ । संक्षेपचियलोहिए- चित्तं-उपचयप्राप्तं लोहितं-शोणितमस्येति रुचिस्वरूपनिरूपणे दृष्टान्तः। उत्त. १६५ नन्दी. १६६) चित्तलोहितः। उत्त० २७५१ भूतभावनानायां यस्य दृष्टान्तः। आव० ५९५) चियाए-त्यागः। अशनादेः साधभ्यो दानं त्यागः। स्था. चिलातो-किरातः। आव० १५०| २३४। त्यजनं त्यागः-संविग्नैकसाम्भोगिकानां चिलाय-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा०५५। भक्तादि-दानम्। स्था० २९७। त्यागो-दानधर्म इत।। चिलायगो-चिलातकः-धनसार्थवाहदासीचिलातायाः स्था० ४७४। त्यागः-यतिजनोचितदानम्। ज्ञाता० १२३॥ | पुत्रः। आव० ३७० चियाग-त्यागः-संयतेभ्यो वस्त्रादिदानम्। आव०६४६) | चिलायपुत्त-चिलातीपुत्रः-त्यक्तदेहे दृष्टान्तः। व्यव० चिरं- वारिसितो। निशी० ६५अ। ४३२आ। चिरंतणं-चिरन्तनं आचार्यपरम्परागतम्। बृह० २४१ चिलायविसय-चिलातविषयः-म्लेच्छदेशः। प्रश्न. १४। चिलाया-म्लेच्छविशेषाः। प्रज्ञा०५५ चिरद्वितीए-चिरस्थितिकः। भग०१३२१ चिलिचिल्ल-चिलीचिविलः(ल्लः) चिलीनः। प्रश्न. ४९। चिरपरिचिअ-चिरपरिचितः-सहवासादिना स पूर्वो यः। | चिलिणे-चिलीनं-अशुचिकम्। ओघ० ८१। उत्त० ३२२ चिलिमिणिपणगं-पोते वाले रज्जु कडग इंडमती। निशी. चिरपव्वइओ-चिरप्रव्रजितः। बृह. ६अ। १८० आ। चिरपोराण-चिरपुराणं-चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणम्। भग० | चिलिमिणि- यवनिका। ओघ० ४३, ८२॥ २००३ चिलिमिलि-चिलिमिलिः। आव० ७५६। जवनिका सा आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [156] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] اواه 3 दवर-कमयी इतरा वा दृष्टव्या। व्यव. २९९ अ। चीणंसुयाणि-चीनांशुकादीनि। आचा० ३९३। चिलिमिलिणी-जवनिका। ओघ०७५ चीण-चीनः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न चिलिमिली-चिलिमिलिः। ओघ०१६। यमनिका। आचा. | १४| चीनः-ह्रस्वः। ज्ञाता० १३८ ३७० चीणअंसुअ-वल्कस्य यान्यभ्यन्तरहीरिभिर्निष्पाद्यन्ते चिलिमिलीए- यवनिकाव्यावधानं कृत्वा। ओघ०४३। सूक्ष्मा-न्तराणि भवन्ति तानि चीनांशुकानि। जम्बू. चिलिमिलीपणगं-वालवल्ककटसूत्रदणुमय्यः चिलिमिल्यः पञ्चः। बृह० २५३ । चीणपिट्ठ- सिन्दूरम्। दशवै०४७। चीनपिष्टं-सिन्दूरम्। चिलीए-चिलिमिलिका। बृह. १८१ अ। जम्बू० ३४। चिल्लग-शिशुः। आव०६७० लीनं दीप्यमानं वा। चीणापिट्ठ- चीनपिष्टम्। प्रज्ञा० ३६११ प्रश्न०७१ चीत्कारः- घोषः-ध्वनिविशेषः। जम्बू. २१२। चिल्लणा- श्रेणिकनृपस्य पट्टराणी। बृह० ३१ अ। चीनपट्टः-चीनांशकम्। नन्दी. १०२ चिल्लल-आरण्यकः पशुविशेषः। जीवा० २८२। चित्तलः- | चीनांशुकः- वस्त्रनामविशेषः। प्रज्ञा० ३०७। चीनदेशोद्भवं नाखरविशेषः। चित्रलः-हरिणाकृतिविखुरविशेषः। अंकुशम्। दशवै. ९१। चीनदेशोत्पन्नपतङ्गकीटजम्। प्रश्न. ७० चिल्ललं-चिक्खिल्लमिश्रः। ज्ञाता०६७ अनुयो० ३७। दुकूलविशेषरूपम्। जीवा० २६९। चिक्खलमिश्रोदको जलस्थानविशेषः। भग. २३८। चीनांशुकादि-विकलेन्द्रियनिष्पन्नम्। आचा० ३९२। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ चीनांसुए- कोशिकारः तद्वस्त्रं चीनदेशोद्भवं वा चिल्ललए-चिल्ललकः। आरण्यपशुविशेषः। प्रज्ञा० २५४। | जाङ्गमिकम्। बृह. २०१ आ। चिल्लालएस-छिल्लराणि-अखाताः स्तोकजलाश्रयभूता | चीयइ-चीयते-चयमुपगच्छति। जीवा० ३०६, ३२२,४०० भूप्रदेशा गिरिप्रदेशा वा। प्रज्ञा०७२। चीरं-वस्त्रम। ओघ०५३। चीरमास्तीर्य। ओघ.५३ घणं। चिल्ललग-देदीप्यमान्। राज०४९। प्रज्ञा० ९६) निशी. २२७ आ। दीप्यमानम्। ज्ञाता०२१९। सनखपदचतुष्पदविशेषाः।। चीराजिण-चीराणि च-चीवराणि अजिनं च-मृगादिचर्म प्रज्ञा० ४५ आरण्यजीवविशेषः। ज्ञाता०७०। चीराजिनम्। उत्त. २५० चिल्लिआ-दिप्यमानाः (देशी) जम्बू. १०२ चीरिए-चीरिकः-रथ्यापतितचीवरपरिधानः चीरोपकरण चिल्लिका-लीनाः-दीप्यमाना वा। प्रश्न. ७७। इति। ज्ञाता० १९५ चिल्लिय-दीप्यमानम्। भग० १४०। सूर्य. २९३। लीनं चीरिका-स्फोटकः। आव०६८० दीप्तं वा। औप. ५११ चीरिग-रथ्यापतितचीरपरिधानाचीरिकाः, येषां चिल्लिया-दीप्यमानाः। जीवा० २६७ दीप्यमाना लीना चीरमयमेव सर्वमुपकरणं ते चीरिकाः। अनुयो० २५४ वा। भग०४७८ औप०६८ भग० ८०२ चीरिय-चीरिकः-मतविशेषः। आव०८५६| चिल्ली- हरितभेदः। आचा० ५७ चीवराणि-सङ्घाट्यादिवस्त्राणि। उत्त० ४९३। चिल्लोद्रं- हट्टद्रव्यम्। निशी० ११६ आ। चुंबण- चुम्बनं-चुम्बनविकल्पः, सम्प्राप्तकामस्य चिवड-चिपटा-निम्ना। ज्ञाता० १३८ अष्टमो भेदः। दशवै० १९४१ चिहुर- केशः। व्यव० १२५ आ। चुंबनं- मुखेन चुम्बनम्। निशी० २५६ आ। चीडं- जूवयं। निशी. १९॥ चुआचुअसेणियापरिकम्मे-च्युताच्युतश्रेणिकापरिकम। चीडा-कुन्द्रुक्कः । सम० १३८ प्रज्ञा० ८७५ सम० १२८१ चीणंसुए- कोशीरः चीनविषये वा यद् भवति। स्था० ३३८1 | चुए- च्यवेत्-भ्रश्येत्। त्यजेत्। सूत्र० ३४च्युतः-निर्गतः। चीणंसुय- सुहुमतरं चीणंसुयं भण्णति, चीणविसए वा जं | जम्बू. १५५) च्युतं-विनष्टः। आचा० १६) तं चीणंसुयं। निशी० २५५अ। चीनांशुकम्। भग०४६०| | चुओ- च्युतः-आयातः। ओघ० ५०| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [157] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] चुक्क - विस्मृतम् । बृह० १०२आ। व्यव० ५२अ । मरण०। भ्रष्टः। आव० ३५१ | विस्मृतः । निशी० २९६ । चुक्कड़- भ्रश्यति । आव० ३३०, ८३४ | चुक्कखलिता- अच्चत्थं खरंटेति चुक्कखलिता वा अव-राहपदछिद्दाणि गेण्हति सेय गुरूणं कहेति पच्छते वो मे खरंटेति, अहवा अणाभोगं चुक्कखलिता भति । निशी० ९३अ । चुक्किहिसि - भ्रश्यसि (देशी ०) । आव० २६२, ५०९| चुचूयआमेलगा- चुचुकामेलको स्तनमुखशेखरौ । प्रश्न आगम-सागर-कोषः (भाग - २) ८४ | चुचूया- चुचुकाः-स्तनाग्रभागाः। राज० ९५| चुच्चुआ - चुञ्चुकाः- स्तनाग्रभागाः। जम्बू० ८१ चुच्चुओ- चुञ्चुकः-स्तनाग्रभागः । जीवा० २३४ | चुञ्चुय– चुञ्चुकः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न ०१४। चुडण - जीर्यन्ते । ओघ० १३१ | वाससां वर्षाकालादर्वागप्यधावने वर्षासु जीर्णता भवति शाटो भवतीत्यर्थः। पिण्ड०१२ | चुडलि- प्रदीप्ततृणपूलिका । भग० ४६६ । चुडली - भूरेखा | निशी० ४० अ। उल्का अग्रभागे ज्वलत्काष्ठम्। बृह० १३ आ । अलातम् । तन्दु०। चुडलीए- चुडिलिका-संस्तारकभूमिः। बृह॰ १३०अ। चुडुलि- चुडली-ज्वलत्पूलिका । उत्त० ३३०। कृतिकर्मणि द्वात्रिंशत्तमो दोषः। आव० ५४४ | डुली - उल्का | जीवा० २९| चुड्डलि– उल्कामिव पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन् वन्दते, कृतिकर्मणि द्वात्रिंशत्तमो दोषः । आव० ५४४ | चुड्डली - उल्का । आव० ५६६ । चुड्डल्ली - उल्का । प्रज्ञा० २९| चुढी- अखाताल्पोदकविदरिका। ज्ञाता० ३६। चुण्ण- चौर्णं-अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवाओवसग्गभीरं । बहु-पायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं । दशवै. ८७| मोदका-दिखाद्यकचूरिः । बृह० १२९ अ । चूर्णम् । प्रश्र्न॰ ५९। चूर्णः-गन्धद्रव्यसम्बन्धी । भग० २००| चूर्णंरजः। आचा॰ ५९| चूर्णपिण्डः-वशीकरणाद्यर्थं द्रव्यचूर्णादवाप्तः। उत्पाद-नायाः चतुर्दशो भेदः । आचा० ३५१। चूर्णो यवादीनाम्। आचा० ३६३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] चुण्णघणो- तंदुलादी चुण्णो घणीक्कतो लोलीकृत इत्यर्थः । निशी० १४१ अ चुण्णचंगेरी - चूर्णचङ्गेरी । जीवा० २३४ ॥ चुण्णजोए - द्रव्यचूर्णानां योगः स्तम्भनादिकर्म्मकारी । ज्ञाता० १८८ चुणपडलयं - चूर्णपटलकम् । जीवा० २३४ | चुणा - वसीकरणादिया चुण्णा । निशी० १०२ अ । चुणिओ- चूर्णितः श्लक्ष्णीकृतः। उत्त॰ ४६१। चुण्णियभेदे - चूर्णिकाभेदः - क्षिप्तपिष्टादिकः । प्रश्न० २६७ | चुणियय - चूर्णिकाभेदः- तिलादिचूर्णवत् यो भेदः । भग० २२४ | चुण्णियाभाग– चुर्णिकाभागः - भागभागः । जम्बू० ४४२ | सूर्य० ५६, ११५ - बदरादियाण चुण्णो । निशी० २३अ । चूर्ण:पटवासादिकः । सूर्य० २९३ | चुन्नं- चूर्ण - रजः । प्रज्ञा० ३६ । सौभाग्यादिजनको द्रव्यक्षोदः । पिण्ड० १२१ | चुन्नग - चूर्णः- ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा । भग० ५४८1 चुन्नयं - सन्त्रस्तम्। विपा० ४७। चुन्नवासा - चूर्णवर्षः- गन्धद्रव्यचूर्णवर्षणम्। भग० २००१ चुन्नवुट्ठी - चूर्णवृष्टिः- गन्धद्रव्यवृष्टिः । भग० १९९ चुन्निय- चूर्णितं-चणक इव पिष्टम्। प्रश्र्न० १३४| चुन्निया- चूर्णयित्वा । भग० ६५४ | चुन्नो- गन्धद्रव्यक्षोदैः चूर्णः । प्रश्र्न० १३७ । चुय - च्युतः- जीवनादिक्रियाभ्यो भ्रष्टः । प्रश्न० १५५| च्युतः जीवनादिक्रियाभ्यो भ्रष्टः । मृतः स्वतः परतो वा । प्रश्न॰ १०८\ च्युतः-मृतः। भग० २९३ । कुतोऽप्यनाचारात् स्वपदात् पतितः । ज्ञाता० ११८ | चुलकप्पसुयं - एकमल्पग्रन्थमल्पार्थं च । नन्दी० २०४ | चुलणिसुए - चुलनीसुतः- ब्रह्मदत्तः कौरव्यगोत्रः । जीवा० १२१| चुलणीपिया - उपासकदशानां तृतीयमध्ययनम्। उपा० १ वाणारसीनगर्यां गृहपतिनाम । उपा० ३१। चुलनी - द्रुपदराजपत्नी, द्रौपदीमाता। प्रश्न० ८७ ज्ञाता० २०७ | ब्रह्मराजस्य पट्टराज्ञी। उत्त० ३७६ । [158] “आगम-सागर-कोषः " [२] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] चुलसीइ - चतुरशीतं-चतुरशीत्यधिकम्। सूर्य॰ ८। चुलसीयं- चतुरशीतम् । सूर्य० ११। आगम-सागर-कोषः (भाग - २) चुल्ल - क्षुल्लः, क्षुद्रः, लघुः । जम्बू० २८१| महदपेक्षया लघुः। स्था० ७०। चुल्लशब्दो देश्यः क्षुल्लपर्यायस्तेन क्षुल्लो-महाहिमवदपेक्षाया लघुः। जम्बू० ६६। चुल्लकंवस्तु- वस्तुग्रन्थविच्छेदविशेषः तदेव लघुतरं चुल्लकं-वस्तु। नन्दी० २४१ | चुल्लपिउ - चुल्लपिता- चुल्लबप्पः, पितृव्यः । दशवै० २१६| चुल्लपिउए - लघुपिता- पितुर्लघुभ्रातेति। विपा० ५७। चुल्लपिता- पित्तियओ । दशवै० १०९ । चुल्लवप्प - पितृव्यः। दशवै० २१६ । चुल्लमाउगा - लघुमाता। आव० ६७५ । चुल्लमाउया - लघुमाता-पितृलघुभ्रातृजाया, मातुर्लघुसपत्नी वा । विपा० ५७। क्षुल्लमातृकाकोणिकराजपत्नी । अन्त० २५| लघुमाता । ज्ञाता० ३० अन्त० २५| चुल्लजननी-लघुमाता। निर०४। चुल्लसयए- उपासकदशानां पञ्चममध्ययम् । उपा० १। आल-भियानगर्यां गृहपतिनाम। उपा० ३६। महाशतकापेक्षया लघुः शतकः चुल्लशतकः । स्था० ५०९ | चुल्लहिमवंतकूडे - क्षुल्लहिमवद्गिरिकुमारदेवकूटम्। जम्बू० २९६ । चुल्लहिमवंत - क्षुल्लकहिमवान्। आव० १२३। क्षुल्लहिमवान्। आव० २९५| चुल्लो-महदपेक्षया लघुर्हिमवान् क्षुल्लहिमवान् । स्था० ७०| चुल्लु - चुल्ली। पिण्ड० ८४ | चुल्ल्यादीनि - मानुषरन्धनानि । आचा० ४११। चूअवण - चूतवनम् । आव० १८६ | आम्रवनं वनखण्डनाम | जम्बू० ३२० | चूए- चूतः- आम्रवृक्षः । जीवा० २२ चूचुय - चूचुकः । जीवा० २७५| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] शिरोऽलङ्काररत्नम्। उत्तः ४९०। मुकुटरत्नम् । प्रज्ञा० ८७ मुकुटे रत्नविशेषः । जीवा० १६१ । भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९| चूडामणिर्नाम सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृत निवासो निःशेषापमङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममङ्गलभूत आभरणविशेषः । जीवा० २५३| चूडोवनयणं- चूडोपनयनं शिरोमुण्डनम्। जीवा० २८१ चूण्णं- वशीकारकद्रव्यसंयोगः । बृह० १० आ। चूत - वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३०| चूतलता- लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२॥ चूतवणं- चूतवनं आम्रवनम्। भग० ३६ । स्था० २३०| [159] चूय- चूतः- सहकारतरुः, आम्रवृक्षः । भग० ३०६ | आम्रवृक्षः । उत्त० ६९२| चूयफलं– चूतफलं-फलविशेषः। सूर्य० १७३। चूर्णभेदः- चूर्णनम्। स्था० ४७५ | चूर्णि - अर्थस्य पञ्चमो भेदः । सम० १११ | भग० २ चूलणी - चुलनी - ब्रह्मदत्तमाता। आव० १६१। चूलणीपिय- चुलनीपितृनाम्ना गृहपतिः । स्था० ५०९ | चूला - सिहा | निशी० २२ आ । इह चूला शिखरमुच्यते, चूला इव चला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगेऽनुक्तार्थसङ्ग्र ग्रन्थपद्धतयः, श्रुतपर्व्वते चूला इव राजन्ते इति चूला इत्युक्ताः। नन्दी॰ २४६। उक्तशेषानुवादीनी चूडा। आचा० ६ | चूलामणि- चूडामणिर्नाम सकलनृपरत्नसारो नरामरेन्द्रमौलि-स्थायी अमङ्गलामयप्रमुखदोषहृत् परममङ्गलभूत आभरण-विशेषः। जम्बू० १०६। चूलिअंगे - चूलिकाङ्गं चतुरशीत्यालक्षैः प्रयुतैः । अनुयोο १००| चूलिआ - चुलिका-चतुरशीत्या लक्षैश्चूलिकाङ्गैः । अनुयो० १००| चूडा। दशवै० २६९| चूचुसाए - चूचुशाकः । उपा० ५| चूडा– उक्तानुक्तार्थसङ्ग्राहिकाः । आचा० ३१८| उद्योत- चूलिआवत्थू - चूलावस्तुनि त्वचाराग्रवदिति। स्था॰ ४३४। साधनम्। आचा० ६१ | सम० १३१ | चूलिए - चूलिकाः | सूर्य० ९९| भग० ८८८ चूडामणि- चूडामणिः । जम्बू० २१३ | परममङ्गलभूत आभ-रणविशेषः । राज० १०४ | चूडामणिः चूलिका - द्वादशाङ्गस्य पञ्चमो भेदः । सम० ४१ | उक्तानुक्तार्थ-सङ्ग्रहात्मिका ग्रन्थपद्धतिः। नन्दी॰ “आगम-सागर-कोषः " [२] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २०६| । जम्बू. १२३। चैत्यं-जिनायतनम्। व्यव० २०३आ। चूलियंग- चतुरशितिर्नयुतशतसहस्राणि एकं चैत्यं-प्रतिमा। राज० १२११ चूलिकाङ्गम्। जीवा० ३४५। चूलिकाङ्गः। सूर्य० ९१।। चेइयक्खंभ- चैत्यस्तम्भः। सम०६४। चैत्यवत् पूज्यः भग० ८८८ स्तम्भः चैत्यस्तम्भः। जम्बू०५३३ चूलिय-चूलिकः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। चेइयघरं- चैत्यगृहम्। औघ०३९। प्रश्न. १४१ चेइयथंभो-चैत्यस्तम्भः। जीवा० २३११ चूलिया- चूलिका-सर्वान्तिममध्ययनं विमुक्त्यभिधानम् | चेइयथूभो- चैत्यस्तूपः। जीवा० २२८१ । सम०७३। दृष्टिवादस्य पञ्चमो भेदः। सम० १२८ चेइयभत्ति-चैत्येषु भक्तिः चैत्यभक्तिः । आव० ५३५ चूलिका। भग. २७५। कालमानविशेषः। भग० २१० चेइयमहो-चैत्यमहः-चैत्यसत्क उत्सवः। जीवा. २८१। चतुरशीतिश्चू-लिकाङ्गशतसहस्राणि एका चूलिका। चेइयरुक्खा-चैत्यवृक्षाः-व्यन्तरदेवानां चैत्यवृक्षाः जीवा० ३४५ तन्नगरेषु सुधर्मादिसभानामग्रतो मणिपीठिकानामुपरि चूलियागिह-चूलिकागृह-समुद्रकः। जम्बू०४८॥ सर्वरत्नमया छत्रचामरध्वजादिभिरलङ्कृता भवन्ति। चेइअ-चैत्यं-व्यन्तरायतनम्। सम० ११७ चैत्याः- सम० १४| चैत्यवृक्षाः-सुधर्मादिसभानां प्रतिद्वारं पुरतो चित्ता-हलादकाः। जम्बू. १६३। चैत्यः मुखमण्डपप्रेक्षामण्डपचै-त्यवृक्षमहाध्वजादिक्रमतः सन्निवेशविशेषः। आव.१७१। श्रूयन्ते। स्था० ११७। चैत्यवृक्षाचेइअकडं-वृक्षस्याधो व्यन्तरादिस्थलकम्। आचा० ३८२१ मणिपीठिकानामुपरिवर्तिनः सर्वरत्नमया चेइअथूभे-चैत्याः-चित्तालादकाः स्तूपाश्चैत्यस्तूपाः।। उपरिच्छत्रध्वजादि-भिरलङ्कृताः सुधर्मादिसभानामग्रतो जम्बू. १६३ ये श्रूयन्ते त एत इति। स्था० ४४३। बद्धपीठवृक्षा चेइए- चितेः-लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यं, तच्च । येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति। सम० १५६। चैत्यसंज्ञाशब्दत्वाद्देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं वृक्षः। जीवा० २२८१ यद्दे-वताया गृहं तदप्युपचाराच्चैत्यमुच्यते। जम्बू. १४१ | चेइयवंदगो-चैत्यवन्दकः। आव० ४२११ चयनं चितिः-इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पायुपचयः, तत्र चेइयाई-चैत्यानि-भगवद्बिम्बानि। बृह० १५५ आ। साधुरित्यन्ततः प्रज्ञादेराकृतिगणत्वात् स्वार्थिकेऽणि महान्ति कृतानि। आचा० ३६६। भगवबिम्बानि चैत्यं उद्यानम्। उत्त० ३०९। उद्यानम्। उत्त० ४७२।। जिनभव-नानि वा। बृह० ४ अ। चेइज्ज- चेतयेत्-कुर्यात्। आचा० ३६१। चेइयाणि-चैत्यानि-अर्हत्प्रतिमालक्षणानि। उपा० १३। चेइदुम-चैत्यद्रुम-अशोकवृक्षम्। चेइस्सामो-चेतयिष्यामः-संकल्पयिष्यामः, चेइय-चैत्यं-इष्टदेवताप्रतिमा। सूर्य. २६७। देवतायतनम् | निर्वर्तयिष्यामः। आचा० ३५०, ३९५१ | औप.श व्यन्तरायतनम्। विपा० ३३। ज्ञाता०३ चेए-चेतयते-जानाति, चेष्टते, करोति, अभिलषयतीति। औप.५ इष्टदेवप्रतिमा। औप० ५८१ चैत्यम्। आव. ओघ० ११४१ २८७। ज्ञातम्। दशवै. ९८१ चैत्यवृक्षः। प्रश्न. ९५) चेएइ-चेतयते-अनुभवरूपतया विजानाति-वेदयति जिनबिम्बानि। बृह. २६९ । प्रतिमालक्षणम्। आव. करोति वा। आव. २६६। चेतयति-करोति। ज्ञाता० २०६। ७८७ चितेर्ले-प्यादि चयनस्य भावः कर्म वेति चैत्यं- ददाति। आचा० ३२५१ साधवे ददाति। आचा० ३६१। सज्ञाशब्दत्वाद् देवबिम्बं, देवबिम्बाश्रयत्वात्तद् | चेच्चं- च्यूतं विशिष्टं वानमित्यर्थः। जम्बू. ५५। गृहमपि च। भग०६। इष्टदेव-प्रतिमा। भग० ११५ चेच्चा-त्यकत्वा। उत्त०४४८१ चितिः-इष्टकादिचयस्तत्र साधः-योग्यः चित्यः, स एव चेटक-मन्त्रसाधनोपाय शास्त्राणि। सम०४९। राज. चैत्यः-अधोबद्धपीठिके उपरिचोच्छि-पताकः। उत्त. १२११ ३०९। ढौकितम्। बृह. २०० आ। चैत्यं इष्टदेवतायतनम् | चेटिका-मन्त्राधिष्ठितदेवविशेषः। प्रश्न. १०९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [160] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] चेट्ठा- चेष्टा। आव०७७११ दशवै.१२५ चेद्वियं-चेष्टितं-सकाममङ्गप्रत्यङ्गावयवप्रदर्शनप्रस्सरं | चेरं-चरणं। निशी. १। प्रियस्य पुरतोऽवस्थानम्। सूर्य. २९४१ चेष्टनं चेरो-पव्वावितो। निशी. २८ अ। सकाममङ्गप्रत्यङ्गोप-दर्शनादि। जीवा० २७६। चेल-वस्त्रम्। प्रज्ञा० ३५९| चेलं-वस्त्रम्। दशवै. १५४। हस्तन्यासादि। प्रश्न. १३९। वस्त्राणि। सम०४१। वासांसि। स्था० ३४३। चेड-चेटाः-पादमूलिकाः। राज०१४०। दारिकः। आव. चेलकण्ण-चेलकर्णः-वस्त्रैकदेशः। दशवै.१५४ २१२ चेटकः-बालकः। आव० ९३। चेटाः-पादमूलिकाः। द्रव्यशस्त्र-विशेषः। आचा०७५ भग. ३१८, ४६४। चेलगोलं-वस्त्रात्मकं कन्दुकम्। सूत्र. ११८ चेडओ-चेटकः-शिक्षायोगदृष्टान्ते हैहयक्लसंम्भूतो चेलणा- श्रेणिकराज्ञी। ज्ञाता० २४७। वैशा-लिकः। आव०६७६| चेलपेडा-वस्त्रमञ्जूषा। ज्ञाता०१४। भग०६९४। चेडग-चेटकः-वैशाल्यां राजा। भग. ३१६। वैशालिराजः। चेलमयं- | निशी० १ आ। भग० ५५६। बालकः। नन्दी० १५७। वैशालिनगरे राजा। चेलवासिणो- वल्कलवाससः। भग. ५१९। औप०९११ व्यव० ४२६ अ। वैशालानगर्याः राजा। निर०८। चेला-चेटिका। औप०७७ चेडगधूया-चेटकदुहिता। आव० २२३। चेलुक्खेवो-चेलोत्क्षेपकः-ध्वजोच्छायः। जम्बू० ४१९। चेडयकारिणो- वत्थसोहगा। नि० ४३ आ। चेल्लए- कलभः। आव०६८२। शिष्यः। दशवै० ३७। चेडरूवं-चेटकरूपः। दशवै० ९७। ओघ० १६३। आव० २०५। । चेल्लओ-क्षुल्लकः। आव० ३६७, ४१९। दशवै०८९। पुत्रः। आव० ३१४। क्षुल्लकः-शिष्यः। आव०४१२, ४३७, ४८४] चेडा-चेटाः-पादमूलिकाः, दासा वा। जम्बू. १९०| चेटाः- | चेल्लग-चेल्लकः। ओघ०६४१ निशी० १५। क्षुल्लकः। पादमूलिकाः। औप० १४१ उत्त० १०० चेडि-चेटी। आव० ३५७ चेल्लणा-चेल्लना-श्रेणिकराजपत्नी। आव० ९५ चेडी-चेटी-राजकन्या। आव० १७४। दासी, प्रत्याख्यान- शिक्षायोग-दृष्टान्ते हैहयकुलसंभतवैशालिकचेट सप्तमी विधौ उदाहरणः। आव. ९६| ओघ. १६३| पुत्री। आव०६७६। कूणिकजननी। निर०४। चेडो-चेटः। आव०६५। पुत्रः। आव० ८२४। चेल्ललकं-देदीप्यमानम्। जीवा. १७३। चेतितं- चैत्यं जिनादिप्रतिमेव चैत्यं, श्रमणम्। स्था० चेव-यथार्थः। प्रश्न. १३४। चैवेत्यखण्डमव्ययं १११। देवकुलम्। निशी० २६९ अ। | समुच्चयार्थं, अपिचेत्यादिवत्। जम्बू०७० चेतितथूभा-चैत्यस्य-सिद्धायतनस्य प्रत्यासन्नाः चेष्टा-ईहा। दशवै० १२५ स्तूपाः-प्रतीताश्चैत्यस्तूपाश्चित्तालादकत्वाद्वा चैत्यवन्दनं- प्रतिमावन्दनम्। नन्दी. १५७ चैत्याः स्तूपाः चैत्य-स्तूपाः। स्था० २३० चैत्यविनाशो-लोकोत्तमभवनप्रतिमाविनाशः। ब्रह. ६० चेतियं-चैत्यं-प्रतिमा। प्रश्न० ८, १६१। सामान्येन आ। प्रतिमा। ज्ञाता०४६। चोंवालय-मालः। दशवै. ९८१ चेतियघरं- चैत्यगृहम्। आव० ३५५) चोअं- गन्धद्रव्यम्। जम्बू० ३५, १००। त्वग्नामकं गन्धचेतेमाणे-चेतयन्तः-कुर्वन्तः। स्था० ३१४| द्रव्यम्। जम्बू०६० चेत्तो-वंसभेओ। निशी० २२८ आ। चोअअ-चौयआ-फलविशेषः। अन्यो० १५४। चेदो- जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५ चोइअ-चोदित-विद्धः। दशवै. २५० चेयकड-चेतः-चैतन्यं जीवस्वरूपभूता चेतनेत्यर्थः ते चोइओ-चोदितः-स्खलनायाम्। आव०७९३। कृता-निबद्धानि चेतःकृतानि। भग०७०१। चोओ-गन्धद्रव्यम्। प्रज्ञा० ३६५५ चेयण-चेतनं चेतना-प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी चेतना। चोक्ख-चोक्ष-स्वच्छम्। आव०६३१ चोक्षः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [161] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] लेपसिक्थाद्य-पनयेनेनात एव परमशुचिभूतः। भग. प्रथमं नाम। प्रश्न ४३। १६४। अहिंसायाः चतुष्पञ्चाशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। चोरियं-चौर्यम्। आव० ३५४। चोक्षाः- पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० चोरी-चौरी। दशवै.४१ चोज्जपसंगी-चौर्यप्रसक्तः-आश्चर्येषु कुहेटकेषु प्रसक्त चोरोदरणिक-देसरक्खिओ। निशी. १९५आ। इत्यर्थः। ज्ञाता० २३८१ चोल-चोलपट्टकः। ओघ.११११ चोदना- प्रोत्साहकरणम्। व्यव. २० आ। चोलक- बालचूडाकर्म, शिखाधारणमिति। प्रश्न. १४० चोद्दहजण- तरुणलोकः। ज्ञाता० २१९। चोलकादीनि-संघातिमानि। आचा०४१४। चोप्पडं-स्नेहः। ओघ. १४५ चोलगं-चूडापनयनं-बालकप्रथमम्ण्डनम्। प्रश्न. ३९। चोप्पालगो-चोप्पालको नाम प्रहरणकोशः। जीवा० २५७। | चोलपट्टको-चोलपट्टकः-परिधानवस्त्रः। प्रश्न. १५६। चोप्पाले-प्रहरणकोशः। भग. १७२। प्रहरणकोशः-प्रहरण- चोलपट्टागारो-चोलपट्टाकारः। आव०८५४। स्थानम्। राज०९३। चोला-चूडा-बालानां चूडाकर्म। आव० १२९। चोप्फाल-चोप्फालं नाम मत्तपारणम्। जम्बू. १२१| चोलोयणगं-चूडाधरणम्। भग० ५४४। चोयं- हारुणिभागाशे जे केसरा तं चोयं भण्णति। निशी० । | चोलोवणयं-चूडापनयनं-मुण्डनम्। ज्ञाता०४१। १२४ आ। भिन्नं चउभागादि तया चोयं भण्णति, चोल्लए-भोजनम्। उत्त० १४५ नक्खादिभिः अक्खं अंबसालमित्यर्थः। निशी. १२४ आ। चोल्लक-मनुष्यभवदृष्टान्ते ब्राह्मणविशेषः। आव. वंसहीरसंठितो चोयं भण्णति। निशी. २३ । त्वक्। ३४१५ बृह. १२६ । गन्धद्रव्यम्। जीवा० २६५, ३५१। त्वक्। चोल्लगं- परिपाटीभोजनम्। उत्त० १४५ प्रश्न०१६ भग०७१३ चोल्लग-चोल्लकं-भोजनम्। पिण्ड० ११३| निशी० २६९ चोयगं- गन्धद्रव्यम्। जीवा० १९१| अ। भोजनम्। आव० ३४१| चोयगसमुग्गयं-चोयकसम्द्रकम्। जीवा० २३४। चौद्दसम-चतुर्दश-उपवासषट्कम्। जम्बू. १५८ चोयगो-पीलितेक्षुच्छोदिका। आचा० ३५४। चौपग-चरः। निशी० ३२६ अ। चोयना-स्खलितस्य पुनः शिक्षणं चोदना। व्यव० ७२आ। | चौर्णं- बाहुलकविधिबहुलं, गमपाठबहुलं, निपातबहुलं, चोयपुड- त्वक्पुटं पत्रादिमयं तद्भाजनम्। ज्ञाता० २३२॥ | निपा-ताव्ययबहुलं ब्रह्मचर्याध्ययनवत्। जम्बू० २५९। चोयासव-चोयो-गन्धद्रव्यं तत्सारः आसवश्चोयासवः। -x-x-xजीवा० ३५११ चोओ-गन्धद्रव्यं तन्निष्पादय आसवः चोयासवः। प्रज्ञा० ३६४। छंटेउं-छण्टयति। आव० ८०० चोरकहा-चौरकथा-गृहीतोऽदय चौरं इत्थं च कदर्थितः छंद-छन्द-गर्वभिप्रायः। आव० १००। अभिप्रायः। दशवै. इत्या-दिका। दशवै० ११४१ १७१। स्वाभिप्रायः। आचा० ७८ अभिप्रायोबोधः। भग. चोरग्गाहो-चोरग्राहः-आरक्षकः। आव०४३५ दशवै.५२ ५०२अभिप्पाओ। निशी० २१७ आ। आयारो। निशी. उत्त. २१८ ३४ अ। गम्यागम्यविभागः। गणि०२१०। देशछ-न्दःचोरपलिकोटुं- कोलिन्दकोहूँ। निशी. १२८ अ। देशेष्ट, गम्यागम्यादिविचारः, देशकथायाः प्रथमभेदः। चोरपल्लि-चौरपल्ली। आव. ३७०।। आव० ५८१। प्रार्थनाऽभिलाषः, इन्द्रियाणां स्वविषयाभिचोरवंदपागड़ढिको-चौरवृन्दप्रकर्षकः-तत्प्रवर्तकः। लाषो वा। सूत्र. १९१। तत्तदवस्तुविषयाभिलाषात्मिका प्रश्न.५० इच्छा वा। उत्त० २२३। पद्यवचनलक्षणशास्त्रम्। औप. चोराय-चोराकं नाम सन्निवेशः। आव. २०६। चौरा। ९३। छन्दः-पद्यवचनलक्षणनिरूपकः। ज्ञाता० ११०| आव० २०२ पद्यलक्षण-शास्त्रम्। भग० ११२। छन्दनं छन्दःचोरिक्कं-चोरणं चोरिका सैव चौरिक्यं, अधर्मदवारस्य परानवृत्त्या भोगाभि-प्रायः। आचा० १२७। छन्दातस्वकीयादभिप्रायविशेषात्। स्था० ४७४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [162] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] छंदए-छन्दयति-निमन्त्रयति। बृह. २२८ आ। स्थोनिरतिशयज्ञानयुक्तः। औप० १०९। छंदणा-छन्दना प्राग्गृहीतेनाशनादिना कार्या। स्था० विशिष्टावधिज्ञान-विकलः। प्रज्ञा० ३०३। छद्मस्थः४९९। आव० २५९। पूर्वगृहीतेनाशनादिना गुर्वाज्ञया छद्मनि स्थितः छद्मस्थः-अनतिशयी। निशी. १५२ अ। यथार्हाणां निमन्त्रणं एषा ज्ञेया विशेषविषयेति छन्दना। छादयतीति छद्मज्ञा-नावरणादि तत्र तिष्ठतीति स्था० ४९९। छन्दना पूर्वगृहीतेन भक्तादिना। भग. छद्मस्थः। स्था.१७१अके-वली। स्था०५३। ९२०| पूर्वानीताशना-दिपरिभोगविषये साधूनामुत्साहना ज्ञानावरणादिघातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठतीति छन्दना। अनुयो० १०३ छद्मस्थः सकषाय इत्यर्थः। स्था० ३०५) ज्ञानाछंदणिरोहे- छन्दो-वशस्तस्य निरोधः छन्दोनिरोधः- वरणादिघातिकम-चतुष्टयं तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थ:स्वच्छ-न्दतानिषेधः। उत्त० २२२। छन्दसा वा अनु-त्पन्नकेवलज्ञानदर्शनः। स्था० ४०४। छद्मस्थ-इह गर्वभिप्रायेण निरोधः-आहारादिपरिहाररूपः निरतिशय एव दृष्टव्यः। स्था० ५०६। छन्दोनिरोधः। उत्त. २२३। छउमत्थमरणं-छद्मस्थमरणं-मरणस्यैकादशो भेदः। छदतो- परिया। निशी० १२५ आ। उत्त. २३०। अकेवलिमरणम्। मरणस्यैकादशो भेदः। छदयति-आमन्त्रयति। ओघ. १४३। सम०३३ छंदाणुवत्तणं- छंदोऽनुवर्तनं-अभिप्रायानुवृत्तिः। सम० छए-क्षतः-परवशीकृतः। सूत्र०७२। ९५। ज्ञाता० ९२ छकोडीए- षट्कोटीकः। जीवा० २३१| छंदिअ- छन्दित्वा-निमन्त्र्य। दशवै. २६६। छक्कट्ठक- षट्काष्ठकं-गृहस्थाबाह्यालन्दकं षट्दारुकं, छंदिओ-णिमंतितो। निशी० ३२ अ। छन्दितः-अनुज्ञातः। द्वारम् ज्ञाता० १४१| ओघ. १३९। छक्कमरयं-षट् कर्माणि छंदिता-णिमंतिता। निशी. १५६ अ। यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्र-तिग्रहात्मकानि तेषु छंदिया-निमंतेऊण जति पडिग्गाहिता। दशवै. १४९। रतौ-आसक्तौ षट्कर्मरतौ। उत्त०५२१। छंदेणं-स्वाभिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः। भग० ६८४१ छक्कायविउरमणं- षट्कायानां विराधनम्। ओघ०१२७। छंदसा। बृह. ७७ आ। छन्देन-द्वादशावतवन्दने छक्कायविओरमणं-षट्कायव्यपरमणम्। ओघ० १२७ गुरुवाक्यमेतत्। ओघ० १३९। छक्केहिंसमज्जिया- एकत्रसमये येषां बहनि षट्कानि छंनंति-छिप्तंति-क्षिप्यन्ते, हिंस्यन्ते। दशवै० २०४१ उत्प-न्नानि ते षट्कैः समर्जिताः। भग०७९७) छउम- छादयतीति छद्म-पिधानम्। ज्ञानादीनां | छक्कोडि- षट्कोटि शुद्धं नाम यत् स्वभावतः षट्स्वपि गुणानामावार-कत्वात्-ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म। | दिक्षु शुद्धम्। बृह० ५८ । आव० ५८३। छद्मकर्म। आव० १३४। शठत्वं, आवरणं वा। | छगं-पुरीषम्। ओघ० ४१ भग०७। छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकर्म। उत्त. छगणधम्मिय-छगणधार्मिकः-गोमयोपलक्षितो धार्मिको १२९| छादय-तीति आवरयतीति छद्म दृष्टान्तः। पिण्ड० ८२ घातिकर्मचतुष्टयम्। जीवा० २५६। छाद्यते येन तच्छद्म- । | छगणियछारो- गोमयछारेण तत्पात्रकं गुण्डयते। ओघ० ज्ञानावरणादिघातिकर्मचतुष्टयम्। स्था० ३०५। १४४॥ छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तच्छद्म। स्था० ५३। छद्म- छगडिया- गौमयप्रतरः। अनुत्त० ५ शठत्वमावरणं वा। सम०४। छद्म छगमुते- छगणमूत्रे-पुरीषप्रश्रवणे। बृह. २१४ अ। ज्ञानदर्शनावरणीयमोह-नीयान्तरायात्मकम्। आचा० छगलगगलवलया- छगलकस्य पशोर्गलं-ग्रीवां वलयन्ति३१५| छादयन्तीति छद्म-घातिकर्मचतुष्टयम्। राज. मोटयन्ति ये ते छगलकगलवलकाः। पिण्ड० ९८१ छगलपुरं- सिंहगिरिराजधानी। विपा०६५ छउमत्थ- छद्मस्थः-अवधिज्ञानरहितः। भग०६६। छद्म- छगलयं-छगलकम्। आव० २१२ ११० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [163] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] छज्जइ- राजते। जम्बू. २०२।। कभोजनदानादिरूपः। ज्ञाता०८१। छज्जीवकायसंजमु- षण्णां जीविनिकायानां छणदिवस-क्षणदिवसः-क्षणमात्रदिवसः। आव०६९२ पृथिव्यादिलक्ष-णानां संयमः-सघट्टनादिपरित्यागः षड् | छणपए-क्षणपदः-हिंसास्पदेन प्राण्युपमर्दजनितः। जीवकायसंयमः। आव.४९२१ आचा० १४७। छज्जीवणियज्झयणं- षड़जीवनिकाध्ययनं, छणिए-छगलीविशेषः। विपा०६५ दशवैकालिके चतुर्थमध्ययनम्। दशवै० १२० छणूसवे-क्षणः-प्रतिनियतः कौमुदीशक्रमहादिकः, छटुं- षष्ठं-उपवासद्वयरूपम्। जम्बू० १४५ उत्सवः-पुनरनियतो छट्ठण्णकालिओ-षष्ठान्नकालिकाः। आव० ३५२। नामकरणचूडाकरणपाणिग्रहणादिकः, अथवा यत्र छहभत्तं- षष्ठभक्तम्। आव० ३५२। पक्वान्नविशेषः क्रियते स क्षणः, यत्र तु पक्वान्नं छट्ठाण-पासत्थो उसण्णो कसीलो संसत्तो विनाऽपरो भक्तविशेषः स उत्सवः। बृह. १०४ अ। अहाछंदोणितितो य| निशी. २९१ अ। छणुसवियं-छणो ऊसवो छणसवो तम्मि जं परिहिज्जति छड्डणं- छर्दनं वातादिद्रव्यप्रयोगकृतम्। विपा०८१| तं छणूसवियं। निशी. १६२ अ। परित्यागः। ओघ०४९। छर्दनम्। ओघ० १५२छर्दनं- छण्णं-अभ्यन्तरम्। ओघ० ९१। प्रछन्नम्। स्था० ४८४॥ वमनम् ऊद्-र्वादिदोषः। ओघ० १३६। वमनम्। ओघ. छण्णकडए-छिन्नकटके। आव० ३५० १६४। उज्झनं-क्षालनजलत्यागः। दशवै० २०३। छण्णमंडवं- जस्स गामस्स णगरस्स वा उग्गहे सव्वासु परित्यागः। ओघ०४९। दिसासु अण्णो गामो नत्थि गोक्लं वा तं छण्णमंडवं। छड्डणाई-छयादयः। ओघ० ४९। निशी० ३४१ आ। छड्डणिका- छर्दने-परिष्ठापने। बृह० ८६ आ। छण्णालए- षण्नालकानि त्रिकाष्ठिकाः। औप०९५१ छड्डन- प्रोज्झनम्। ओघ० १६२ छण्णालकः-त्रिकाष्ठिका। ज्ञाता० १०५ छड्डावण- छड्डावेति-त्याजयति। ओघ. १४९। छतिपुत्तो- छातीसुतः-दाढादालः। जीवा० १२१| छड्डाविओ-त्याजितः। आव० २१२। छत्ततिय-छत्रवती। बृह. ५९ आ। छड्डिअ- छर्दितं-गृहस्थैर्दत्तम्। अनुयो० २१६। छत्तंतिया- छत्रान्तिका। बृह. ६० आ। छड्डिय-परिशाटवत्। दशम एषणादोषः। आचा० ३४५।। छत्त- छत्र-आचार्यः। बृह. १८४ आ। छादयतीति छत्रं छदितं भूमावावेडितं, दशम एषणादोषः। पिण्ड० १४७। वर्षाकल्पादि। आचा०४०३। छत्रं-आतपत्रम्। दशवै. छड्डी- छर्दी-व्याधिविशेषः। आचा० ३६२१ ११७। छत्र-छत्राकारो योगः। सूर्य० २३३। कउगो। निशी. छड्डे- त्यजति। आव०६४९। २८४ अ। ज्ञाता० ३८१ छड्डेऊण-त्यक्त्वा । आव० २२६। छत्तइल्लो- छत्रवान्। उत्त. ९७। छड्डेज्ज- छर्दि विध्यात्। आचा० ३३०| छत्तकारे- छत्रकारः-शिल्पभेदः। अनुयो० १४९। छड्डेति-त्यजेत्। आव० ३६५ छत्तग्गा-छत्राग्रा-जितशत्रुराजधानी। आव० १७७ छड्डेत्ता-त्यक्त्वा । आव० ३२४। छत्तछाया- छत्रच्छाया। आव० ३४१। प्रज्ञा० ३३७) छण-जत्थ विसिटुं भत्तपाणं उवसाहिज्जति। निशी. छत्तज्झया-छत्रध्वजाः-छत्रचिह्नोपेता ध्वजाः। १४ आ। इन्द्रोत्सवादिलक्षणः। भग०४७३। ऊसवो। जीवा०२१५१ निशी० २०० आ। जत्थ एकंतविसेसे कज्जति सो छणो। | छत्तधारो- छत्रधरः। आव. २०४। निशी. १६२क्षणं-इन्द्रमहादि। व्यव० ३४२ आ। छत्तपलासए-छत्रपलाश-स्कन्दकचरिते 'कयंगला' ज्ञाता०५६। क्षणः उत्सवः। ओघ०४९। ज्ञाता०९९| नगर्यां चैत्यम्। भग० ११२, १२३ क्षणनं क्षणः-हिंसनम्। आचा० १४८। अवसरः। आचा० छत्तयं-छत्रकम्। आव० ३०५ आतपत्रम्। भग० ११३। १४८ क्षणः। आव० २२०, २७३, ६९२ क्षणः-बहलो- छत्तरयणे- चक्रवर्तिन एकेन्द्रियं दवितीयं रत्नम्। स्था० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [164] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] ३९८१ स षट्पदिकावान्। बृह. २२२ । छत्तसंठिआ- छत्रसंस्थिताः। जीवा० २७९। छप्पय- षट्पदः-भ्रमरः। जीवा० १२३। छत्तसंठिया-छत्र-आतपत्रं तत्संस्थितमिव संस्थितं छप्पया- षट्पदिका-यूका। आव० २१३। संस्था-नमस्या इति छत्रसंस्थिताः। उत्त०६८५१ छप्पाए- पुच्छेन। ओघ० १८० छत्ताइछत्ता-छत्रातिच्छत्राणि छप्पुरिमं-पुव्वं दायव्वं। निशी. १८२ अ। उपर्युपरिस्थितातपत्राणि। सूर्य. २६३। छप्पुरिमा-तत्र वस्त्रे प्रसारिते सति चक्षुषा निरूप्य छत्राल्लोकप्रसिद्धादेकसंख्याकाद् अतिशायीनि तदर्वा-ग्भागं तत्परावर्त्य निरूप्य च त्रयः पुरिमाः विसङ्ख्यानि त्रिसङ्ख्यानि वा छत्राणि कर्तव्याः, प्रस्फो-टका इत्यर्थः। स्था० ३६१| छत्रातिच्छत्राणि। जम्बू०४४। छब्ब-छब्बकम्। पिण्ड० १५५ छत्रापर्यन्यान्यच्छत्रभावतोऽतिशायि छत्रं छत्रातिछत्रं छब्बए-वंशपिटकं शकुनिगृहकं वा। ओघ०१८४ तदाकारो योगः। सूर्य. २३३। छब्बगं- छब्बकं-पटलिकादिरूपम्। पिण्ड. ९० छत्तागारसंठिता- छत्राकारसंस्थिताः। सूर्य. ३६। छब्बगवारगमाई-छब्बकवारकादिकमनेकविधं भाजनं छत्तारा- छत्रकाराः, शिल्पार्यभेदः। प्रज्ञा० ५६। पर-स्थानम्, छब्बकं पटलिकादिरूपं वारकः-लघुर्घटः। छत्ति-दोषाच्छादनम्। आव० ७८२ छब्भागे- षड्भागः-षष्ठोभागः। जम्बू०४५६। छत्तीसमट्टिया- षट्त्रिंशच्छोघकाः। मरण छब्भामरी-वीणाविशेषः। ज्ञाता० २२९। छत्तोए- कुहुणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ छम-क्ष्मा-भूमिः । दशवै० २७५ छतोह- छत्रोपगः, वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२| भग० ८०३। छमासिआ- षण्मासिकी षष्ठिभि, क्षुप्रतिमा। ज्ञाता०७२ छत्रकं-वंशमयमातपत्रम्। बृह. २५३ अ। सम०२११ छदिसाअरो- षदिशाचरः। आव० २१४। छम्म-छद्म। आव. १७३। छद्दि- छर्दिः-दोषविशेषः। आव०८६० छम्मा -भूमि। दशवै० १५७) छद्दोसो- षड् दोषाः। स्था० ३९४१ छम्माणि- षण्माणी ग्रामविशेषः। आव. २२६) छद्मस्थवीतरागः- जिनः। आव. ५०१। छाया- जलादौ प्रतिबिम्बलक्षणा शोभा वा। ज्ञाता० १७०| छन्नं-माया। सूत्र०६९। स्वदोषाणां परग्णानां छरु-त्सरुः खड्गादिमुष्टिः। प्रश्न० ८० जीवा० २७०। वाऽऽवरणम्। प्रश्न. २७। प्रतिच्छन्नं छरुप्पगयं-त्सरुप्रगतं क्षुरिकादिमुष्टिग्रहणोपायजातम्। अतिलज्जालुतयाऽव्यक्तवचनम्। भग० ९१९) प्रश्न. ९७ दर्भादिभिरुछादितः। आचा० ३६१। छन्नं-व्याप्तः। जीवा. | छरुप्पवायं-त्सरुः खड्गमष्टिस्तदवयवयोगात् १८८1 त्सरुशब्देनात्र खड्गा उच्यते, अवयवे समुदायोपचारः, छन्नपदं- छद्मपदं-कपटजालम्। सूत्र० १०५। गुप्ताभिधानं तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तत्त्सरुप्रवादं, खड़ वा। सूत्र० १०५ गशिक्षाशास्त्रमित्यर्थः। जम्बू० १३९। ज्ञाता० ३८५ छन्नपदोपजीवी- मातृस्थानोपजीवी। सूत्र० ३९८॥ छरुहा-थासकाः-आदर्शगण्डप्रतिबद्धप्रदेशाः। छन्नपरिछन्ना-अत्यन्तमाच्छादिताः। जम्बू. ३० आदर्शगण्डानां मष्टिग्रहणयोग्याः प्रदेशाः। जम्बू० ५७। छन्ना- व्याप्ताः। जम्बू० ३० छरुकोमुष्टिग्रहण-स्थानम्। ज्ञाता० २१९। छन्नालयं- षड्नालकम् त्रिकाष्ठिका। भग० ११३। छर्दितं-उज्झितं, त्यक्तम्। पिण्ड. १६९। छपत्रिक-आभरणविशेषः। निशी० २५५ । छल-छलं-वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या, छप्पड़- षट्पदिका-यूका। आव० ५७४। सूत्रदोषविशेषः। आव० ३७५, ५५७५ छप्पओ- षट्पदः-भ्रमरः। जीवा. १९८५ अनिष्टस्यार्थान्तरस्य सम्भवतो विव-क्षितार्थोपघातः छप्पतिगिल्ले- यस्याः षट्पदिकाः प्राचुर्येण सम्मूच्छन्ति | कर्तुं शक्यते तत्। अनुयो० २६१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [165] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] छलओ- छलितो-व्यंसितोऽनर्थं प्राप्तः। ज्ञाता० १६९।। क्षयिः-व्यवस्थाविशेषः। स्था०४०९। क्षपिः-स्वपरयोराछलणं- छलनं प्रक्षेपणं। आचा० ३७५ यासः। भग. ९२५ छलणा-छलना। आव० ८५५। अशुद्धभक्तादिग्रहणरूपा। छविअइं- यत् स्निग्धत्वग्द्रव्यं पिण्ड०७० मुक्ताफलरक्ताशोकादिकं तत्। सूत्र० ३८६) छलदोस-दोषषट्कम्। मरण। छविग्गहिते- षविग्रहिकः। जीवा० २३१| छलायतणं-छलं-नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकं छविच्छदो-हस्तपादनासिकादिच्छेदः। स्था० ३९९। छलायतनम्, षडायतनं वा-उपादानकारणानि छविच्छेए- छविच्छेदः-शरीरपाटनम्। आव०८१८। आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रिया-दीनि यस्य कर्मणस्तत् छविच्छेओ- छविच्छेदः-शरीरच्छेदनम्, छलायतनम्। सूत्र. २१६) प्राणवधस्यैकविंशतितमः पर्यायः। प्रश्न०६। छलिअकहा-षट्प्रज्ञकगाथाः। ओघ० ५५ छविच्छेद-शरीरच्छेदः। भग० २१८१ छलिए-स्खलितम्। ओघ. २२५१ छवित्ताणं- छविः-त्वक्त्रायते-शीतादिभ्यो रक्ष्यतेऽनेनेति छलिकमार्ग- गीतकलायाः दवितीयो भेदः। सम० ८४| छवित्राणं वस्त्रकम्बलादि। उत्त०८ छलिय- छलितानि शृङ्गारकथाकाव्यानि। ब्रह. ५१ आ। | छविदोसो- छविः-अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं छविदोषः, छलए- द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणषट | सूत्रस्य त्रयोविंशतितमो दोषः। अनुयो० २६२। पदार्थप्र-रूपकत्वाद गोत्रेण च कौशिकत्वाद् षड्लुकः। छविपत्ता- छविः प्राप्ता जातेत्यर्थः। स्था०६७ स्था०४१३| षड्लूकः। दशवै०५८1 छविपव्वा- छवि-मतुब्लोपाच्छविमन्ति-त्वग्वन्ति छलुग- षट्पदार्थप्रणयनाद् उलूकगौत्रत्वाच्च षडुलूकः। पर्वाणि सन्धिबन्धनानि छविपर्वाणि। स्था०६७। उत्त. १५३ निशी. ९८ आ। षड्लूकः-यस्मात्त्रैराशिका छविमत्यः-औषधिविशेषाः। आचा० ३७१। उत्पन्ना स आचार्यः। आव० ३२१ छवियत्ता- छवियोगाच्छविः स एव छविकः, स चासौ छलुगा– षडुलूकात् त्रिराशिकानामुत्पत्तिस्थानम्। आव० 'अत्त' त्ति आत्मा-शरीर छविकात्मा। स्था०६७ ३१२ छवी- छविमान, उदात्तवर्णया स्कुमारया च त्वचा छलेज्जा -छलेत्। आव०६३३। युक्तः। जीवा० ७७ कलमादिसेंगा। निशी० २७३ आ। छल्लि-अभ्यन्तरं वल्कम्। स्था० १८६। छव्विया- छर्विकाः-कटादिकाराः। प्रज्ञा० ५६। छल्ली- ब्राह्या त्वक्। बृह. १६२ अ। छल्लिः -रोहिणी- छाउद्देसे- छायोद्देशः। सूर्य. ९६| प्रभृतिः। विपा०४१। ज्ञाता० १८३। छल्ली-वल्कलरूपा। छाए-सदृशः। भग०७५४। प्रज्ञा०३६। छाएउ-छदित्वा, ढंकिउं। आव०६६१। छल्ले-निस्त्वचीकृत्य। उत्त० २१९। छाएल्लय-छायार्थी। उत्त०११९ छल्ल्यः - त्वचः। प्रज्ञा० ३१| छाओ- बुभुक्षितः। ओघ० १८९। छातः-बुभुक्षितः। पिण्ड. छवडिया-चर्म। ओघ. २१७। १७६| छवि-अलङ्कारविशेषः। अन्यो० २६२शरीरम्। आव. छाण-छादनं-दर्भादिमयं पटलमिति। भग० ३७६। छाणं८१९। त्वक्। उत्त० २५१। त्वक् छाया वा। जीवा०११४। आच्छादनम्। जीवा० १८०| निशी. ७ अ। शरीरम्। स्था० ३३७। छविः-शरीरम्। भग० २१८ छाणपिंडो- छगण (गोमय) पिण्डः। आव० ४२२१ शरीरत्वम्। भग० ३०८छविदोषः-छवि: छाणविच्छय- छगणवृश्चिकः, चरिन्द्रियजन्तुविशेषः। अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं, सूत्रस्य त्रयोविंशतितमो जीवा० ३२॥ दोषः। आव० ३७४। छवी-शरीर-त्वक्। प्रश्न०६० | छाणविच्छुया- चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ त्वक्तदयोगादौदारिकशरीरं तदवती नारी तिरश्ची वा छाणिय-क्षालितो-गालितः। ब्रह. ८१ अ। तदवान्नरस्तिर्यग्वा छविरिति उच्यते। स्था० १९३। छातो-क्षुधितः। निशी० ३५४ अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [166] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] छादयति-आवरयति। जीवा० २५६। छारुज्झियं-क्षारोष्ट्रिकां-भस्मपरिष्ठापिकाम्। ज्ञाता० छायंत्ति-प्राकृत्त्वात् छायावन्तः शोभमानशरीराः। सम. ११७ १५६। छारो-अभिणवडड्ढं अपंजकयं छारो। निशी. १९२ अ। छाय-क्षुधितः। निशी. २८६अ। छावट्टे-षट्षष्टिः । सूर्य. १११ छायणं- छादनं-स्थगनम्। आव. २६४। छावण-छादनं-दर्भादिभिराच्छादनम्। बृह. ९२। दर्भादिपटलकरणम्। प्रश्न. १२७। छज्जकरणं छायणं। छाहि-छाया। आव०७०६) निशी० २३० आ। छाही-छाया। आव०४१५, ६२४। छायणओ-छादनतः-अनुष्ठानभेदः। आचा० ३६८ | छिंडिका- गृहद्वायान्तरस्थः प्रलम्बगमनमार्गः। पिण्ड. छाया-शकछाया। बृह०४२ अ। प्रभया आतपाभावल- १०५ क्षणया युक्ता। सम० १५५ आकारः। राज०७४। प्रति- | छिंडिया-छिण्डिका। आव० ३४९। छिण्डिका-वृत्तिच्छिद्रबिम्बम्। उपा० २६। छारा(ताः) रूपा। ज्ञाता०७७ कसघातव्रणाकितशरीराः। दशवै. २४८ दीप्तिः। जीवा. | छिंदंति-व्यवस्था स्थापयन्ति। बृह. ११० अ। १६१| प्रभा। बृह. १५४ आ। सन्निभा। उत्त०६५२ | छिंद-छिन्द-विधाकुरु। ज्ञाता० २३८॥ समुदायशोभा। प्रज्ञा० ८८1 आकारः छिंदइ-छेदं करोति। भग. १७५१ छायाशब्दआतपप्रतिपक्षवस्तुवाची। जीवा. १८७। जम्बू. | | छिंदति-छिनत्ति-करोति। अन्त०१६) २८। कीर्तिः । निशी. १३४ आ। दीप्तिः । औप०१६ छिंदावेमि- छेदयामि। आव. २२४। शोभा। भग. १३२ औप. ५०| छयति छिनत्ति | छिंदिज्ज-छिन्द्यात्-मार्जारीमूषकादिभिर्वा पुरतो वाऽऽतपमिति छाया। उत्त. ३८ आतपवारण-लक्षणा। यायात्। आव०७८४ प्रश्न. ७६। औप०६७ दीप्तिः । सम० १४०| शरीरप्रभा। छिपक-कारुकजातिविशेषः। प्रश्न. ३० जीवा. २७७। प्रकृतिः। भग०६८३। शैत्यग्णा । उत्त. छिपाय-कारुकजातिविशेषः। जम्बू. १९४। ५६१। कान्तिः । जम्बू. १७ छिइए-क्षुतम्। आव०७७९| छायागती- छायामनुसृत्य तद्पष्टम्भेन वा समाश्रयितुं छिक्क-स्पष्टः। आव०४१८ पिण्ड०७०| स्पष्टवान्। गतिः छायागतिः-विहायोगते वमो भेदः। प्रज्ञा० ३२७ | बृह० ६२ आ। निशी० ३४५ अ। हतः। आव० ४१७ छायाणुमाणप्पमाणं- छायानुमानप्रमाणम्। सूर्य. ९८१ | छिक्का- स्पृष्टा। आव. २०२॥ छायाणुवातगती- छायायाः स्वनिमित्तपुरुषादेरनुपातेन- छिक्कोवणा- शीघ्रकोपनः। बृह. २२५ अ। अनुसरणेन गतिः छायानुपातगतिः, विहायोगतेर्दशमो | छिज्जमाणे छिन्ने- कुठारादिना लतादिविषयच्छेदः। भेदः। प्रज्ञा० ३२७ भग०१९। छायाणुवादिणी- छायानुवादिनी। सूर्य. ९५) छिज्जेज्ज-संश्छिद्यत-द्विधा क्रियते। अन्यो० १६१| छायालीसं- षट्चत्वारिंशत्। पिण्ड० १७६) छिड्डं-छिद्रं महत्तरं रन्ध्रम्। भग० ८३। छारं-क्षारं-रक्षा। ओघ० १४२। आव० ३०८, ६२१। भस्म। अल्पपरिवारत्वम्। विपा०७३। छिद्रःआव. २१८। क्षारम्। आव० ३०८ भूतिः । ओघ० १४३। छेदनस्यास्तित्वच्छिद्रम्। भग०७७६| क्षारः-भूतिः। ओघ० १४०। क्षारः भस्मः। बृह. ८० अ। | छिड्डकुडे-छिद्रकुटः। आव० १०१। छारकयार-भस्मकचवरः। आव० २१८ छिड्डविच्छिड्डं- बृहल्लघुच्छिद्रांकितम्। (तन्दु०) छारा-भोया। निशी. १०४ । क्षाराः-क्षारावगुण्ठि- छिड्डाई-छिद्राणि। आव०६६) तवपुषः। पिण्ड० ९८१ छिड्डाणि-छिद्राणि-अल्पपरिवारादीनि। निर० १२॥ छारिए-क्षारकं-भस्म। भग० २१३। छिण्ण-स्त्यान-कठिन छारिय-क्षारराशिः। दशवै० १६४। मदीयात्यन्तानुकूलचरिताद्रवीकृत-हृदयत्वात्। ज्ञाता० 1751 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [167] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] १६७ परिश्वादिभिवृक्षात् पृथक्स्थापितम्। दशवै० १५५, १७६। छिण्णछेदयणवत्तव्वया-छिन्नच्छेदकवक्तव्यता। विभक्तः। ज्ञाता० २३८१ आव.३१६) छिन्नकडए-छिन्नकटकम्। उत्त०४९६। दशवै. ९९। छिण्णछेयणयं-छिन्नच्छेदनकं-अनुप्रवादपूर्वे छिन्नकहकहे-छिन्ना अपनीता कथं-कथमपि या वक्तव्यताविशेषः। उत्त. १६३ कथाराग-कथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंकथः, छिण्णद्धाण-छिन्नाध्वा। आव. २०८1 यदिवा कथ-महमिगितमरणप्रतिज्ञां निर्विहिष्ये छिण्णब्भं- एगं अब्भयं। निशी. १४६ आ। इत्येवंरूपा या कथा सा छिन्ना येन स छिन्नकथंकथः। छिण्णसम्म-तथाऽधिकमांसादिच्छेदाच्छिन्नसम्यक्। आचा० २८६। आचा. १७६| छिन्नग्गंथे-मिथ्यात्वादिभावग्रन्थिच्छेदः। ज्ञाता०१०४। छिण्णसोए-छिन्नश्रोताः-छिन्नसंसारप्रवाहः, छिन्नच्छेयणइयाई-इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति छिन्नशोको वा। जम्बू० १४६) स छिन्नछेदनयः। सम०४१। छिण्णसोय- छिन्नशोकः, छिन्नश्रोता वा। प्रश्न. १५७ । छिन्नमूलो-छिन्नमूलः। उत्त० २७९। छिण्णा- छिन्ना। आव० ३५८१ छिन्नरुहो-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा. छिण्णो-तंदुलघयादि जत्थ परिमाणपरिच्छिण्णा ३४॥ दिज्जंति सो छिण्णो भण्णति। निशी० १०६ आ। छिन्नसोआ-छिन्नशोकाः छिन्नश्रोतसो वा, छिण्णोवसंपय-या आवलिका सा छिन्ना यतस्तस्यां यो | छिन्नसंसारप्रवाहाः। औप. ३५ लाभ आदित आरभ्य परम्परया छिन्नसोय-छिन्नशोकः-छिन्नानि वा श्रोतांसीव छिदयमानोऽन्तिमेऽभिधार्थेऽन्यमन-भिधारयति श्रोतांसिमि-थ्यादर्शनादीनि येनासौ छिन्नश्रोताः। उत्त. विश्राम्यति सा छिन्नोपसम्पत्। व्यव०३७७। ४८७ छित्त-स्पृष्टः। आव० २७४। छिन्ना- कन्दलीकृताः। आचा० ३२३। छिन्ना हस्तादिषु। छित्तरा-छित्वराणि वंशादिमयानि ज्ञाता०२३९। छादनाधारभूतानिकिलि-जानि। भग० ३७६) छिन्नाले-तथाविधदुष्टजातिः। उत्त० ५५१। छित्ता-छित्वा-विभज्य। सूर्य० २२, २३३। छिन्नावाय-छिन्नः-अपगतः आपातः-अन्यतोऽन्यत छित्तिकाऊण-थूत्कृत्य। उत्त० ३५६) आगम-नात्मकः अर्थाज्जनस्य येषु ते छिन्नापाताः। छित्ते-क्षेत्रे। बृह. ९८ आ। उत्त०८९ छिद्द-छिद्रं-अवसरः। आव०६८२। प्रश्न. ५३। राजपरि- | छिन्नावाय-छिन्ना आपाताः सार्थगोकुलादीनां यस्यां वारविरलत्वम्। विपा० ५३। प्रदेशद्वारम्। प्रश्न. ४२। जं | सा। स्था० ३१४१ पण आभोगओ असामायारिं करेइ तं छिदं भण्णति। छिपाः-नन्तिक्ताः। व्यव. ४१९ आ। निशी० ९३ । छिद्रः-प्रविरलपरिवारत्वादिः, छिप्पतूरं- द्रुततूर्यम्। विपा० ५९| क्षिप्ततूर्यः। ज्ञाता० चौरप्रवेशावकाशः। ज्ञाता०८११ २३९। छिन्न-उर्द्धम्। उत्त० ४६०| छेदनं छिन्नं | छिया-छिव लक्ष्णलोहकुशा। जम्बू. १४७) वसनदशनदार्वादीनां, तद्विषयशुभाशुभनिरूपिका छिरा-शिरा-धमन्यः। सम० १५०| शिराः-धमनिनाडयः। विद्याऽपि छिन्नम्। उत्त० ४१६। छेदनं-कर्मणो जीवा० ३४। दीर्घकालानां स्थितीनां ह्रस्वताकरणम्। भग०१६) छिरारुहिरं-शिरारुधिरं-नाडीरुधिरम्। आव०४०२१ निर्दवारितः। ब्रह. १०२ अ। छिन्नः-खण्डितः। उत्त. छिरिया-अनन्तकायभेदः। भग० ३००। ४६० छिन्दनम्। ओघ. २०४। छिन्नं-नियमितम्। छिल्लर- पल्वलम्। दशवै. १९| पिण्ड० ७९। निपुष्पकम्। पिण्ड० १०१। छिवा- लक्ष्णकषः। प्रश्न०५७ लक्ष्ण-कषः। ज्ञाता० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [168] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] اوا छुरिय-क्षुरिका। आव० ५७८1 शस्त्रविशेषः। निशी० १०५ छिवाडि-वल्लादिफलिका। प्रज्ञा० ३६३। मुगादेः फलिः। | | आचा० ३२३। मुद्गादिफलिः। दशवै. १८५१ छुरिया-क्षुरिका। उत्त०७११| छिवाडिआइ-छेवाडीनाम वल्लादिफलिका सा च छुहति-क्षिपति। आव. २२६) क्वचिद्देश-विशेषे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति। छुहाइएहिं-क्षुधातयोः। आव० ३६६) जम्बू० ३५ छुहाकुडुं- सुधाकुड्यं सुधामाष्टर्य कुड्यम्। ओघ० १२७। छिवाडी- तनुपत्र उच्छ्रितरूपः, अथवा अल्पबाहल्यः छुहातिया-क्षुधार्दिता। आव० ३२३। प्रथुलः पुस्तकः। बृह० २१९ आ। सपाटिका छुहापरतो- क्षुधापरिगतः। आव० ८१४। यत्तनुपत्रोच्छित-रूपम्। आव० ६५२। छेवाडी छुहालुया-क्षुधालुकाः। दशवै० ४२। वल्लादिफलिका। जीवा. १९११ छुहिय-बुभुक्षितः। ज्ञाता० १९२० छिवाडीय-सृपाटिका-तनपत्रोच्छितरूपा। स्था० २३३। छुढाणि-क्षिप्तानि। आव०६३। छिहलि-शिखा। आव०६४७। छूढो- क्षिप्तः। प्रश्न०६० छिहली-शिखा। आव० ६२६। बृह. १०१ आ। सिहं। निशी. | छूहालू-क्षुधातः। आव० ३६६। ३५आ। छीए-क्षुतम्। आव० ७७९) छे-छेकं, निपुणं, हितं, कालोचितम्। दशवै० १५७ छीअ-क्षवणं-क्षुतम्। आव. २५१ छेइत्ता-छित्वा-परित्यज्य। भग० १२८। छीत्कृतं- क्षुतिः। भग०६६४। छए- छेकः-अवसरज्ञः, द्विसप्ततिकलापण्डित इति। छीर-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। औप०६५। कलापण्डितः। जम्बू. ३८८ छेकः-प्रयोगज्ञः। छीरल-क्षीरलः भुजपरिसर्पविशेषः। प्रश्न०८। अनुयो० १७७ भग०६३१ छीरालि-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ छेओ- छेकः असांव्यवहारिकः। आव. ५२७१ छीरिविरालिया-अनन्तकायभेदः। भग. ३०० भुजपरि- छेओवट्ठावणं- छेदोपस्थापनं-छेदश्चोपस्थापनं च सर्पविशेषः। प्रज्ञा०४६। यस्मिंस्तत्, पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु छक्कारेति-छत्कारं करोति। जीवा० २४७। चोपस्थापनमात्मनो यत्र तत्। आव० १९| छुट्टा-छुटिताः। आव० २२४॥ छओवट्ठावणिय-छेदे-प्राक्तनसंयमस्य व्यवच्छेदे सति छुड्ड-सुष्ठु। उत्त० २४५ यदप-स्थापनीयं-साधावारोपणीयं तच्छेदोपस्थापनीयं, छुडिया-क्षुद्रिका-आभरणविशेषः। प्रश्न. १५९। पूर्वपर्याय-च्छेदेन महाव्रतानामारोपणमित्यर्थः। भग. छुन्नमुहो- छुन्नमुखः-क्लीबमुखः। पिण्ड० १२५। ३५० छुन्ना-छिन्नाः। (संस्ता०) छेओवट्ठावणीयं-छेदोपस्थापनीयम्। उत्त. २५८१ छुपंतु-स्पृशन्तु भवन्तित्यर्थः। भग० १२२ छेगे-छेकः-द्वासप्ततिकलापण्डितः। जीवा० १२२ छुप्पेज्ज-क्षिपतु। आव० ८२५१ छेज्जं-छेद्यम्। सूर्य. ११३। छेदयं पत्रछेदयादि। दशवै. छुब्भइ-प्रक्षिप्यते-प्रवेश्यते। बृह० १७५ अ। क्षुभ्यते- ८७। छेदनकर्म-द्विधा करणम्। दशवै० २७०। जातमहाऽद्भतशक्तिकः सन् ऊर्द्धमितस्ततो विप्रसरति। | छेज्जाछेयाणि- गच्छचिंतायां प्रमाणभतानि स्थेयानिजीवा० ३०७ अनेकशः प्रीतिकराणि। व्यव० २४१| छुभंति-प्रक्षिपन्ति। आव० १२८१ छत्तं-क्षेत्र स्थानम्। औप०४१ ज्ञाता० ३। क्षेत्रम्। ओघ. छुरं-क्षुरप्रम्। आव० ६२७ १६३ छुरघरगसंठिते-क्षुरगृहकसंस्थितम्। सूर्य. १३० छेत्तुडोअ-दव्वी। निशी० १२८ आ। छुरमुंडो-क्षुरमुण्डः। आव० ६४७। छेत्तूण-छित्वा-दविधा विधाय। उत्त. २७३। छुरय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३ | छेद-करपत्रादिभिः पाटनम्। आव० ८१९। प्रव्रज्यापर्याय मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [169] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] यह्रस्वीकरणम्। भग. ९२०| छेदः-तपसा दुर्दमस्य छेयसारहि-छेकसारथिः दक्षप्राजिता। भग. ३२२।। श्रमण-पर्यायच्छेदनम्। आव०७६४। जीवादिद्रव्यस्य छेयसुय-छेदश्रुतानि-प्रकल्पव्यवहारादीनि। व्यव० ११५ विभागः। स्था० ३४६। व्यव० ३४१ आ। अ। निशी. २८१ । छेदन-क्षपणम्। उत्त०५९३। छया- छेदाः-अर्थच्छेदाः। व्यव० ९० आ। छेकाःछेदनकः-उदकाश्रितजीवः। आचा० ४६। प्रस्तावज्ञाः। उपा०४६। छेका-निपुणा। भग० १६७, ५२७। छेदारिहं-छेदार्ह दिनपञ्चकादिना क्रमेण पर्यायच्छेदनम् ज्ञाता०३६| । औप० ४२। प्रव्रज्यापर्यायह्रस्वीकरणार्हम्। भग० ९२०। | छरित्ता- हदित्वा। उत्त. १६९। आव० ३१९। छेदेत्ता-छित्वा-व्यवच्छेदय। ज्ञाता०७७ छेला- छगलकः। उत्त० १३८1 छेदोदइए- छेदश्च व्यय औदयिकश्च लाभः छेदौदयिकम् | छेलावणय-छेलापनकं-उत्कृष्टबालक्रीडापनं, । बृह० २३आ। सेण्टिताद्यर्थ-वाचकम्। आव० १२९। छेदोवट्ठावण- छेदः-पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च महाव्रतेषु । | छेलिअ-सेंटितं हर्षोत्कर्षेण सीत्कारकरणम्। जम्बू. यस्मिन् चारित्रे तच्छेदोपस्थापनम्। प्रज्ञा०६४। २०६। छेदोवद्वावणिय- छेदश्च पूर्वपर्यायस्योपस्थानं च व्रतेषु । छेलिय- सेंटितं-सीत्कारकरणम्। प्रश्न०४९। मुखवादित्रम् यत्र तत्छेदोपस्थानं तदेव छेदोपस्थापनिकं, ते वा | बृह. २४७ आ। विद्यते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकमथवा छेव- छेवकं-अशिवम्। ब्रह. १५९ आ। पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थाप्यते, आरोप्यते छेवइओ-अशिवगृहीत। बृह. १५० आ। यन्महाव्रतलक्षणं चारित्रं तच्छेदोपस्थापनीयम्। स्था. छेवग-असिवं। निशी० ७५आ। मारि। व्यव० १२६ अ। ३२३। पूर्वपर्यायच्छेदोपस्थापनीयं-आरोपणीयं छेवट्टिया- छेवट्टिका, संहननविशेषः। ओघ. २२७। छेदोपस्थापनीयं, व्यक्तितो महाव्रतारोपणम्। स्था० छेवढे- यत्रास्थीनि परस्परं छेदेन वर्तन्ते न १६८1 किलिकामात्रेणापि बन्धस्तत् छेदवति। जीवा० १५, ४२॥ छेदोवट्ठावणियकप्पद्वितो-पर्वपर्यायच्छेदोपस्थापनीयं छेवतितो-असंविग्गहितो। निशी. २९३ आ। आरो-पणीयं व्यक्तितः महाव्रतारोपणं छेवाडिया-छेवाडिनाम वल्लादिफलिका। राज० ३३। तस्थितिश्चोक्तलक्षणेष्वेव दशस स्थानकेष्ववश्यं | छेवाडी- दीहो हस्सो वा पिहलो अप्पबाहल्लो छेवाडी पालनलक्षणा। स्था० १६८१ अहवा तनपत्तेहिं उस्सीओ छेवाडी। निशी० ६१ अ। छप्प- पच्छम्। विपा०४९। छोटियं-छोटितं-स्फोटितम्। औप०१७ छेय-छेकः। औप० ४। छेदः-पुष्पफलादेः खण्डनम्। छोडिओ- छोटितः। आव० ३९९। पिण्ड० १६१। छेकः-दक्षः। आव०७०। ज्ञाता०५८। छोडिज्जति- छणिज्जति। निशी. १९२ अ। अपच्छेदः। औघ०७२। छेकः-निपुणः। ज्ञाता० २२१| छोडियं- छोटितं-घट्टितम्। प्रश्न. ८२ स्था० २००१ छोडियपडियं-छोटितपतितम्। आव. २१८१ छेयकरे-छेदनकरम्। आचा०४२५ छोड़ें- छोटयित्वा। निशी० ३७ अ। निक्षिप्य। आव. २९५ छेयगं- छेदकम्। सूर्य. ११३ स्थापयित्वा। आव. १९६| छयण-छेदनं-कर्मणः स्थितिघातः। स्था० २११ छोता- विदारणं। निशी० ५६ आ। विभजनम्। स्था० ३४६। विरहः। स्था० ३४६। छेदनं- छोभ-अभ्याख्यानम्। बृह. १६४ आ। बृह० ३१ अ। उत्तरोत्तरश-भाध्यवसायारोहणात्स्थितिहासजननम्। छोभगं-कलकम्। निशी० २५२ अ। अब्भक्खाणं। आचा० २९८१ निशी० ९४ आ। अभ्याख्यानम्। व्यव० २०४ अ। छयणग-छेदनकं-राशेरीकरणम्। अनयो. २०७। छोभगदिन्नो-अभ्याख्यानं दत्तं यस्मिन स छेयणयं- छेदनकम्। प्रज्ञा. २८१। छोभगदत्तः। व्यव. २०६ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [170] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] छोभयं-अपमानम्। दशवै.४७ छोभवंदणं-आरभट्या छोभवन्दनं क्रियते। आव०५२४। छोभिय-क्षोभितः कद कृतः। दशवै० ५८॥ छोभो- निस्सहायः क्षोभणीयो वा। प्रश्न०६४। छोय-छोकः लघुः। भग० ३१८१ छोल्लेति-निस्तषीकरोति। ज्ञाता०११६] -x-x-x जं- यत् उद्देशवचनम्। आव० ४३८। यदा। आव० ३५८। जंकयसुकया- यदेव कृतं शोभनमशोभनं वा तदेव सष्ठकृत-मित्यभिमन्यते पितपौरादिभिर्यस्याः सा यत्कृतसुकृता। अन्त०१९। जंकिंचिमिच्छखेलसिंघानाविधिनिसर्गाभोगानाभोगसहसाकारादयसंयमस्वरूपं यत्किञ्चिन्मिथ्या-असम्यक् तद्विषयं मिथ्येदमित्येव प्रतिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतकरणं यत्किञ्चिन्मिथ्या प्रतिक्रमणमिति। स्था० ३८० जंकिंचिमिच्छा-यत्किञ्चिन्मिथ्या-यत्किञ्चिदाश्रित्य मिथ्या। आव० ५४८१ जंकिंचिमिच्छामि- यत्किञ्चनानुचितं तन्मिथ्याविपरीतं दुष्ठ मे-मम इत्येवं वासनागर्भवचनरूपा एकाऽन्या गरे। स्था० २१५) जंगंध-यगन्ध-यादृशगन्धवत्। ओघ. २२३। जंगल-निर्जलः। बृह० १७५ आ। जंगला-जङ्गलाः-जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५ जंगिते-जगमाः-त्रसास्तदवयवनिष्पन्नं जाङ्गमिकंकम्ब-लादि। स्था० ३३८। जंगमजमौर्णिकादि। स्था० १३८ जंगियं-जङ्गमोष्ट्रादयुर्णानिष्पन्नम्। आचा० ३९३। वसावयव-निष्पन्नं वस्त्रम्। बृह० २०१ अ। जंगोलं-विषघातक्रियाऽभिधायकं जङ्गोलं-अगदं तत्तन्वं तद्धि सर्पकीटलतादष्टविनाशार्थ विविधविषसंयोगोपशमनार्थं चेति आयुर्वेदपञ्चमाङ्गम् | विपा०७५ जंगोली- विषविघाततन्त्रमगदतन्त्रमित्यर्थः। स्था० ४२७। जंघा-अङ्गविशेषः। आचा० ३८॥ संपूर्णजंघाच्छादकं चर्म। बृह० २२२ आ। जान्वधोवर्ती खुरावधिरवयवः। जं०२३४॥ जंघाचारणा-अतिशयचरणाच्चारणाच्चारणाः विशिष्टाकाश-गमनलब्धियुक्ताः ते च जङ्गाचारणाः। प्रश्न. १०६। ये चारि-त्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जङ्घाचारणाः। प्रज्ञा०४२५। शक्तितः किल रुचकवरद्वीपगमनशक्तिमान्। आव०४७। जङ्घाव्यापारकृतोपकाराश्चारणा जङ्घाचारणाः। भग० ७९३ जंघापरिजिय- मूलद्वारविवरणे साधुः। जंघापरिजितनामा साधुः। पिण्ड० १४४। जंघाबलपरिहीणो- परिक्षीणजङ्घाबलः। आव०५३६। जंजुका- तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३० जंत-यन्त्रम्। उत्त०११६। प्रपञ्चः । जीवा. १९९। ३५९। उच्चाटनादयाक्षरलेखनप्रकारः, जलसङ्ग्रामादियन्त्रं वा। प्रश्न० ३८ यन्त्रं-अरघट्टादि। प्रश्न० ८ नानाप्रकारम् । जीवा० १६० अरकोपरिफलकचक्रवालम्। जीवा० १९२ पाषाणक्षेपयन्त्रादि। औप०१२ यन्त्रशाला गुडादिपाकार्था। यन्त्रशालासु गुडादिनामुत्सेचनार्थमलाबूनि धार्यन्ते। बृह. २४६ अ। यन्त्रं-सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपम्। जम्बू० २९२। चारकोपरि फलकचक्रवालः। जम्बू. ३७। यन्त्रंकोल्हकादिघाणकविषयम्। पिण्ड० ११३। यन्त्रिकाः। ओघ०७५ यन्त्र-व्रीह्यादिदलनोपकरणम्। पिण्ड. १०९। गच्छन्। आव०४२० जंतकम्म-यन्त्रकर्म-बन्धनक्रिया। भग० ३२२॥ जंतग-मट्टियादी। दशवै० ७९| यातः-यायी। आव० ४३१| जंतणा-यन्त्रणा-पीडा। आव. २३४। जंतपत्थर-यन्त्रप्रस्तरः-घरट्टादिपाषाणः, यन्त्रमुक्तपाषाणो वा। प्रश्न. २०| गोफणादिपाषाणः। प्रश्न. ४८१ जंतपासय-यन्त्रपाशकः। आव० ३४२ जंतपीलग-श्रेणिविशेषः। जम्ब० १९४| जंतपीलणकम्म- यन्त्रपीडनकर्म। आव० ८२९। जंतलट्ठी-यन्त्रयष्टि-कषिकर्मोपयक्ता। दशवै० २१८ जंतवाडचुल्ली- इक्षुयन्त्रपाटचुल्ली। स्था० ४१९। यन्त्रपाट-चल्ली-इक्षुपीडनयन्त्रं तत्प्रधानः पाटकस्तस्मिन् चुल्ली। जीवा० १०४। जंताणि-पाषाणक्षेपणयन्त्राणि। सम० १३८1 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [171] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जंतिओ- यन्त्रितः। आव० २२७। ३१५ जंतुगं-जन्तुकं-जलाशयजं तृणविशेषं पर्णमित्यर्थः। जंबूद्दीवे-जम्बूवृक्षोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः। अनुयो. प्रश्न०१२ ९०| जम्ब्वा वृक्षविशेषेणोपलक्षितो द्वीपः जम्बूद्वीपः। जंतुगा- वनस्पतिविशेषः। सूत्र० ३०७। स्था० ३५। सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवर्ती द्वीपः। जंतुयं-जन्तुकं-तृणविशेषोत्पन्नम्। आचा० ३७२। प्रज्ञा० ३०७। जम्ब्वाजंदिg- यदाचार्यादिना दृष्टमपराधजातं तदेवालोचयति। सुदर्शनापरनाम्नाऽनादृतदेवावासभूतयोपलक्षितो द्वीपः भग. ९१९। स्था०४८४१ जम्बू-द्वीपः। जम्बू०४१ जंनतो-यज्ञयाजिनः। निर० २५४ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-जम्ब्वाजंपानं- युगम्। अनुयो० १५९| सुदर्शनापरनाम्न्याऽनादृतदेवावास-भूतयोपलक्षितो जंपियं-जल्पितं-मन्मनोल्लापादि। उत्त०६२६। द्वीपो जम्बूद्वीपस्तस्य प्रकर्षण-निःशेषकुतीजंबवइ-जाम्बवती, अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य र्थिकसार्थागम्य यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन षष्ठमध्ययनम्। अन्त०१५) ज्ञप्तिः- ज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ ज्ञप्तिर्ज्ञान वा यस्याः जंबवई-जम्बूमती। अन्त०१८ सकाशात् सा, अथवा जम्बूद्वीप प्रान्ति पूरयन्ति जंबवती-जाम्बूमती, कृष्णवासुदेवराज्ञी। अन्त०१८ स्वस्थित्येति जम्बूदवीपप्राः जगतीवर्षवर्षधरादयास्तेषां जंबालः- कईमः। स्था० १४५१ ज्ञप्तिर्यस्याः सकाशात् सा। जम्बू०४१ जंबुडालं-जम्बूशाखा। आव० ३१८१ जंबूपेठे-जम्बूपीठम्। जम्बू० ३३०| जंबुद्दीवे-नवमशतके जम्बूदवीपवक्तव्यताविषयः जंबूफलं-जम्बूफलं फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६० प्रथमोद्देशकः। भग०४२५। जम्ब्वपलक्षितस्तत्प्रधानो वा | जंबूफलकलिका-रिष्ठाभा या मदिरा सा। जम्बू. १०० द्वीपो जम्बूद्वीपः। आव०७८८1 जंबूफलकालिवरप्रसन्ना-सुराविशेषः। जीवा० ३५१| जंबुफलकालिया-जम्बूफलवत् कालेव कालिका जंबुवई-जम्बूवती। आव० ९५१ जम्बूफल-कालिका। प्रज्ञा० ३६४१ जंबूवणं- जम्बूवनं-जम्बूवृक्षा एव समूहभावेन यत्र जंबुवत्-सुग्रीवराजस्य मन्त्री। प्रश्न० ८९। स्थिता-स्तत्। जम्बू. १४० जंबुवती-नारायणराज्ञी। बृह. ३० आ। जंबूसंड-जम्बूखण्डं-ग्रामविशेषः। आव० २०७१ जंबू-वृक्षविशेषस्तदाकारा सर्वरत्नमयी या सा जम्बूः। जंभका-जम्भकाः तिर्यग्लोकवासिनो देवविशेषः। प्रश्न स्था० ४३७। सुधर्मस्वामिनः शिष्यः। सूत्र०७२। प्रज्ञा० । ११६ २२ जम्बूः-अपरनामसुदर्शना, वृक्षविशेषः। उत्त० ३५२। | जंभगो-जृम्भकः-व्यन्तरः। आव० १८० जम्बूः -उत्तमतरुविशेषः। प्रश्न. १३६। स्थविरः। बृह० जंभया-जम्भन्ते विज़म्भन्ते स्वच्छन्दचारितया १६६अ। सत्पुरुषत्वे दृष्टान्तः। बृह. २३० अ। चेष्टन्ते ये ते जम्भकाः-तिर्यग्लोकवासिनो सुहम्मस्स सिस्सो। निशी० २४३ अ। जम्बुणामेण व्यन्तरदेवाः। भग०६५४| पितापव्वा-वितो। निशी. २९ आ। एकास्थिवृक्षविशेषः। जंभा-ज़म्भा मत्स्यबन्धविशेषः। विपा० ८१ प्रज्ञा० ३१। भग० ८०३। ज्ञाता० ११ जंभाइए-जृम्भितं-विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमः। जंबूणय- जाम्बूनदं-रक्तसुवर्णम्। जम्बू० ३७४। सुवर्णम्। आव० ७७९। जम्बू०५९। जंभायंतं-विज़म्भमाणं-शरीरचेष्टाविशेषं विदधानम्। जंबूणया-जम्बूनदं-ईषद्रक्तस्वर्णम्, सिरिनिलयम्। ज्ञाता०१६| जम्बू० २८४। जंभियगाम-जृम्भिकाग्रामम्। आव० २२६, २२७ जंबूणयामय- जाम्बूनदमयौ-सुवर्णनिर्वृत्तौ। भग० ४५९। | जंपिय-यापितः-कालान्तरप्रापितः। ज्ञाता० २३१। जंबूदीवंतो-जम्बूद्वीपान्तः-जम्बूद्वीपदिक्। जीवा. जंपियतिलकीडगा-यापिताः कालान्तरप्रापिता ये तिलाः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [172] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] धान्यविशेषास्तेषां ये कीटकाः-जीवविशेषास्तदवद ये जकारमकारादि-असभ्यम्। आव०५८८ वर्ण-साधर्म्यात ते तथा तांश्च यापिततिलकीटकाः। जक्ख-श्र्वानः। निशी. ९९ अ। ज्ञाता० २३० जक्खकद्दमो-यक्षकर्दमो नाम जं समयं- यस्मिन् समये। जीवा. १४३। कुड्कमागुरुकर्पूरकस्तूरिकाच-न्दनमेलापकः। जीवा. जइ-यतिः उत्तमाश्रमी प्रयत्नवान् वा। दशवै० २६२। ३१४१ जइच्छा-यदृच्छा-अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिः। प्रश्न | जक्खगाह- यक्षग्रहः-उन्मत्तताहेतुः। भग० १९८। जीवा० ३५ ૨૮૪) जइण-जयिनी जयित्री। भग. १६७। जक्खघरमंडविया- यक्षगृहमण्डपिका। आव० १९५४ गमनान्तरजयवतीज-विनी वा वेगवती। औप०७०| जक्खदिन्ना-यक्षदत्ता-कल्पकवंशप्रसूतशकटालस्य जविनं-शीघ्रम्। भग०६३१। अनयो० १७७। जयिनः-शीघ्रो | दवितीया पुत्री। आव०६९३ वेगवतां मध्येऽतिशीघ्रः। औप० ६८1 जविनी-वेगवती।। | जक्खदीत्तगं- यक्षदीप्तकं-नभसि दृश्यमानाग्निसहितः ज्ञाता० २३२ पिशाचः। जीवा० २८३ जइणतरो-जवनतरः-शीघ्रतरः। आव०६०२। जक्खभद्दो- यक्षभद्रः-यक्षे दवीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जइणवेगं-जयी-शेषवेगवदवेगजयी वेगो यस्य तत्। जीवा० ३७० भग०१७५ जक्खभूय-यक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ। ज्ञाता०४६| जड़णवायाम-जविनव्यायामः-शीघ्रव्यापारः। उपा०४७। जक्खमह-यक्षमह-व्यन्तरविशेषस्य प्रतिनियत जइत-जयिकः-राजादीनां विजयकारिः शक्नः। ज्ञाता० दिवसभावी उत्सवः। जीवा. २८१। आचा० ३२८। १२५ जक्खमहाभद्दो- यक्षमहाभद्रः-यक्षे जइत्तो- जित्वा, याजयित्वा। उत्त० ३१४| द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३७०| जइत्थ-जितवान्। भग० ३१७ जक्खमहावरो-यक्षमहावरः-यक्षे। जइयव्वं- प्राप्तेष संयमयोगेष प्रयत्नः कार्यः। भग०४८४ | समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३७०| जइया- यदा च दुर्भिक्षादौ। आव० ५३९) जक्खरुवं- यक्षरूपं-श्वाकृतिः। पिण्ड० १३१| जउ- जतु-लाक्षादारुमृतिके प्रसिद्ध इति। स्था० २७२। जक्खवरो-यक्षवरः-यक्षे समद्रे पूर्वार्धादिपतिर्देवः। जीवा. जउण- यमुनः योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते ३७० द्रव्यापद्वान् मथुरायां राजा। आव० ६६७ जक्खसिरि-चंपायां सोमभूतीमाता ब्राह्मणस्य भार्या। जउणराया-मथुराए राया। निशी० ४१ अ। ज्ञाता० १९६| जउणा-नदीविशेषः। स्था० ४७७। जक्खहरिलो-यक्षहरिलः-ब्रह्मदत्तपत्नीनां जउणावक-यमुनावकं मथुरायामुद्यानविशेषः। आव. नागदत्ताऽऽदिकानां पिता। उत्त० ३७९| जक्खा- व्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। यक्षा-कल्पकवंश जए-जयः-विमलजिनप्रथमभिक्षादाता। आव. १४७ प्रसूतशकटालस्याद्या पुत्री। आव० ६९३। जयः -सामान्यो विघ्नादिविषयः। औप० २३।। जक्खादित्तं- यक्षोद्दीप्तमाकाशे भवति। आव० ७३५। परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च। राज० २३। जीवा. जक्खालितं- यक्षाद्दीप्तमाकाशे भवति एतेष स्वाध्यायं २४३। जयः-परानभिभ-वनीयत्वरूपः। जम्बू. १८७ कुर्वता क्षुद्रदेवता छलनां करोति। स्था० ४७६) जगत् जीवसमूहः जङ्गमाभि-धानः। भग०५७५ जक्खालित्तया- यक्षोदीप्तानि आकाशे जओ-यतः यत्नवान्। उत्त० ५५) व्यन्तरकृतज्वलनानि। भग. १९६] जकारचकारादिभिः- अपरैः प्रकारैः प्रकथ्य निन्दा जक्खिणी-यक्षिणी। अन्त०१७ सम० १५२ विधत्ते। आचा०२४२ | जक्खीए- यक्ष्या-अशुच्या (शुल्या)। बृह. २४० अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [173] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जक्खो- यक्षः-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च। जीवा० ३२१, | जग्गावइ-जागरयति-कुशलानुष्ठाने प्रवर्तयति। ३७०यक्षः। दशवै. ९८1 इज्यते पूज्यत इति, याति वा आचा०३०७ तथाविधर्द्धिनमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षः। उत्त.१८७ जघन्यं-अधमम्। आव० ५८५ जग-यकम्। बृह० १४६ अ। जगत्-औदारिकजन्तुग्रामः। | जघन्यः-नैश्चयिकः। आव० ११| सूत्र०५१। यकृत्-दक्षिणकुक्षौ मांसग्रन्थिः । प्रश्न. ८1 जघन्यस्थितिका-जघन्या-जघन्यसङ्ख्या समयापेक्षया जगन्ति-प्राणिनः। दशवै. १७६। जगः-जन्तुः। सूत्र-१६२ | स्थितिर्येषा ते-एकसमयस्थितिकाः। स्था० ३५॥ जगच्छब्देन सकलचराचरपरिग्रहः, सकलचराचररूपः, जच्च-जात्यः-प्रधानः। ज्ञाता०२६। जीवा० २७१। जात्यः सकलप्राणीगणपरिग्रहः। नन्दी०१३। जगच्छब्देन उत्कृष्टः। आव० १८३। जात्यः-काम्बोजादिदेशोद्भवः। सज्ञिपञ्चे-न्द्रियपरिग्रहः। नन्दी०१२ ज्ञाता०५८ लोकालोकात्मकम्। नन्दी० २३॥ जगद् जच्चकणगं- जात्यकनकं-षोडशवर्णककाञ्चनम्। जम्बू. धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायरूपम्। नन्दी० २३। १४८१ जगह-जगती-जम्बूद्वीपकोट्टम्। जम्बू. ३०३। जजुव्वेद-यजुर्वेदः-चतुर्णां वेदानां द्वितीयः। भग० ११२। जगई-जगती-प्राकारकल्पा। जम्बू. २८४१ जज्जरिते- झर्झरितो जर्जरितो वा सतन्त्रीककरटिकादि जगईपव्वया- पर्वतविशेषाः। जम्बू०४४। वाद्यशब्दवत्। स्था० ४७१। जगच्चन्द्राः-आचार्यविशेषाः। जम्बू. ५४३ जज्जियं- यावज्जीवम्। व्यव० २५१। जगढभासी-जगदर्थभाषी-जगत्यर्था-जगदा ये यस्य | जज्जीवं-यावज्जीव-जीवितपर्यन्तम्। पिण्ड० १४५। व्य-वस्थिताः पदार्थास्तानाभाषितुं शीलमस्येति। यावज्जीवम्। व्यव० २८ आ। कुष्ठिनं कुष्ठी-त्यादि यो यस्य दोषस्तं तेन खरपरुष । जट्ठि-प्रहारविशेषः। निशी. ३२अ। ब्रूयात् यः सो वा। जयार्थभाषी यथैवाऽऽत्मनो जयो जडालो-जटालः-अष्टाशीतौ महाग्रहे त्रयपञ्चाशत्तमः। भवति तथैवाविद्यमानमप्यर्थं भाषते तच्छीलश्च-येन जम्बू०५३५ केनचित्प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्या-त्मनो जडिज्जइ-बध्यते। आव०६२११ जयमिच्छतीति। सूत्र० २३४। जडियाइल्लए-अष्टाशीतौ महाग्रहे पञ्चपञ्चाशत्तमः। जगडिज्जंता-कदर्थ्यमाना। गच्छा० । स्था०७९। जगडितो- प्रेरितो। निशी. ७७ अ। जडिल-जटावती-वलितोदवलिता। भग०७०५। जगती-जम्बूद्वीपस्य प्राकारकल्पा पालीति। सम० १४।। | जडिलए- जटिलकः-पञ्चदशभेदेषु कृष्णपुद्गलेषु वेदिकाधारभूता पाली। स्था० ४३९। द्वितीयभेदः। सूर्य २८७। राहदेवस्य द्वितीयनाम। जगतीपव्वयं-जगतीपर्वतकः-पर्वतविशेषः। जीवा. २०० सूर्य २८७ जगतीसमिया-जगत्याः समा-समाना सैव जडी-जटित्वम्। उत्त० २५० जगतीसमिका। जीवा० १८० जड्ड-स्वहितपरिज्ञानशून्यत्वात् जड्डः। आव० ९१७। जगनिस्सिए-जगन्निश्रितः-चराचरसंरक्षणप्रतिबद्धः। हस्ती । बृह. २४७ आ। बृह. १०६ । बृह० २३९ आ। दशवै. २३१। पिण्ड० ११५ हत्थी। निशी०४७ आ। निशी० २०० आ। जगय- यकृतः-दक्षिणकुक्षिगतोदरावयवविशेषः। भग० निशी० १०६ आ। ओघ० ९७। ५०० जड्डतरी-बहलतरी। निशी० १४१ अ। जगारमगारं-जन्ममर्मकर्म। गच्छा। जड्ढो- शून्यः। महाप०। जगारि- | बृह. २५७ । जढं-रहितम्। व्यव. २४९ आ। परित्यक्तः । ओघ० ८४ जग्गण-जागरणं-रात्रौ प्रहरकप्रदानम्। बृह. २९० अ। बृह. १४४ आ। जग्गहो- यद्ग्रहः। आव० २२३। जढा-त्यक्ताः । ओघ० ४९, १७८१ परित्यक्ताः । दशवै. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [174] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] २०५। बृह. २१३॥ जनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिजनकतया व्यवहाजण-जनः-सामान्यो जनः। दशवै०८३। लोकः। उत्त. रहेतुत्वात् सत्या जनपदसत्या। प्रज्ञा० २५६| १९३। जायत इति जनः-लोकः। उत्त० २४४। नगरीवा- जणवह-जनवधः जनव्यथा वा। भग० ३२२॥ स्तव्यलोकः। ज्ञाता० ११ औप. राजायत इति जनः। | जणवाए-जनवादः-जनानां परस्परेण वस्विचारणम्। आव०४९। नन्दी. ११११ जनः-नगरीवास्तव्यो लोकः। । औप०५७ सूर्य. श परिजनः। दशवै. ८६। प्राणी। दशवै०६४ नगर- जणवायं-जनवाद-यूतविशेषम्। जम्बू. १३७ वास्तव्यलोकः। भग०७ जनः-नगरीवास्तव्यलोकः। | जणवूह-जनव्यूहः-चक्राद्याकारः समूहस्तस्य शब्दस्तद् जम्बू०७५ भे-दाज्जनव्यूहः। विपा० ३६| जणक्खया- लोकमरणानि। भग० १९७५ जणसंनिवाए-जनसन्निपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जणग-जनकः-मिथिलायामधिपतिः। आव. २२११ जनानां मीलनम्। भग० ११५॥ मिथि-लानगर्यां राजा। प्रश्न. ८६। जायते इति जनः जणसंमद्दे-जनसम्मर्दः उरो निष्पेषः। भग० ११३। लोकः स एव जनकः। सूत्र. १७७) जणहियाकारणए-जनहितस्याकर्तेत्यर्थः। ज्ञाता०८१| जणगा-जनकाः-मातापित्रादयो जना वा। आचा० २३९। जण्ण-यज्ञः-प्रतिदिवसं स्वस्वेष्टदेवतापूजा। जम्बू० जणजेपणयं-जनहेला। गच्छा। १२३ जणणी-जनयति-प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी। उत्त | जण्णजत्ता- यज्ञयात्रा। आव० ५७८1 ३८1 जण्णजसो- यज्ञयशाः सत्यो (शौचो)दाहरणे जणत्ता-जनता। आव० ५५९। समुद्रविजयराज्ये उच्छवृत्तिस्तापसः। आव० ७०५। जणवूहे- जनव्यूहः-चक्राद्याकारो जनसमुदायः। भग० जण्णदत्तो-यज्ञदत्तः। उत्त० १११| ११३, ४६३। जण्णवाडं- यज्ञवाटः, यज्ञपाटः वा। उत्त० ३५८१ जणमणणयणाणंदो-जनमनोनयनानन्दः। आव० ३५८। जण्णिए- यज्ञेन यजति लोकानिति याज्ञिकः। आव. जणमारि-जनमारि। आव०६३। २४० जणवओ-जनपदः-विशिष्टलोकसमुदायो वा जण्णुयं-जानु। आव० ६७० ग्रामादिवास्त-व्यजनसमुदायः। बृह. १९९ आ। जण्णू-यज्ञः-नागादिपूजारूपः। आव० १२९। जणवतो-जनपदः-जनवृन्दम्। उत्त० ११३। देशः। आव. जतणं-यजनं-अभयस्य दानं यतनं वा-प्राणिरक्षणं ३१७ प्रयत्नः। अहिंसाया अष्टचत्वारिंशत्तमं नाम। प्रश्न. जणवय-जनपदः-देशः। स्था०४८९। जनपदे भवाः जान- ९९ पदाः-कालप्रष्टादयो राजादयो वा मगधादिजनपदा वा। जति-यतिः-प्रव्रजितः। ओघ. ११६। यतिदोषः-अस्थानआचा० १६३। विच्छेदः, तदकरणं वा, सूत्रदोषविशेषः। आव. ३७४। जणवयकहा- रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा जनपदकथा। यतन्ते उत्तरगुणेषु विशेषत इति यतयोदशवै. ११४१ विचित्रद्रव्यायभिग्र-हायुपेताः साधवः। राज०४६। जणवयकुलं-जनपदकुलं-लोकगृहम्। प्रश्न. ५२| जतिणं-जयनीत्वं शेषकूर्मगतिजेतृत्वात्। ज्ञाता० ९९। जणवयवग्ग-जनपदवर्गः-देशसमूहः। भग० १९३। जतिणा-जयिन्या विपक्षजेतृत्वेन। ज्ञाता०३६। जणवयसच्च-जनपदसत्यं जतुगृह- लाक्षागृहम्। उत्त० ३७८। नानादेशभाषारूपमप्यविप्रतिपत्या जतो-जयः-अपगमः। व्यव० २२ आ। यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थम्। दशवै. २०८१ जत्त-यात्रा-सङ्ग्रामयात्रा। निर०१७। यतः। आचा० ५३| जणवयसच्चा-जनपदसत्या-पर्याप्तिकसत्याभाषायाः यात्रा। आव० १७३। वन्दनके चतुर्थस्थानम्। आव० ५४८॥ प्रथमो भेदः। तं तं यत्। उत्त०५५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [175] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) - जस्ता - यात्रा - तपोनियमादिलक्षणा, क्षायिकमिश्रोपशमिकभा- वलक्षणा वा आव० १४७५ यात्रा-विग्रहार्थं गमनम्। ज्ञाता० १४९। यात्रा । आव० २१९, २२५| संयमयात्रा। उत्त० ५५ | जत्ताभयगो- दसजोयणाणि मम सहाएण एगागिणा वा गंतव्यं एत्तिएण धणेण, ततो परं ते इच्छा, अन्ने उभयं भांति - गंतव्यं कम्मं च से कायव्वंति। निशी० ४४ अ । जत्तासिद्धो यो दवादश वाराः समुद्रमवगाहय कृतकार्य आगच्छति सो। यात्रासिद्धः । आव० ४१४ | जत्यत्यमिए यो यत्रैवास्तमुपैति सविता तत्रैव कायोत्सर्गा-दिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः । सूत्र. ६५% जन- अस्यास्मन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यति इत्यादिकरूपम् स्था० १५२१ तिर्यग्नरामरा एव जायन्त इति जनाः । आचा० २५५ । जनपदाः– जनानां-लोकानां पदानि अवस्थानानि येषु ते जनपदाः-अवन्त्यादयः साधुविहरणयोग्याः अर्द्धषड् विंशति-र्देशाः । आचा० २५४ | जनाः- जीवाः । नन्दी० १११ | जनार्दनः- कृष्णः । व्यव० १८८ आ । बृह० २३० आ । जन्न यज्ञः पूजा | बृह० १९९ आ । यज्ञः नगादिपूजा । भग० ४७३ | ज्ञाता० ५६ | प्रश्न० १४० १५५ । भावतो देवपूजा। अहिंसायाः षट्चत्वारिंशत्तमं नाम । प्रश्न. ९९ । यागः । प्रश्र्न० ३९| जन्नई - यज्ञयाजिनः । भग० ५११ । जन्नइज्जं- याज्ञीयं-उत्तराध्ययनेषु पञ्चविंशतितममध्ययनम् । उत्त० ९॥ जन्नई - यज्ञयाजिनः । औप० ९० जन्नतिज्जं उत्तराध्ययनेषु पञ्चविंशतितममध्ययनम् | सम० ६४ | जन्नदत्तो यज्ञदत्तः सत्यो (शौचो) दाहरणे यज्ञयशः - आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) सौमिज्योः पुत्रः । आव ०७०५ जन्नवाड - यज्ञपाटः । आव० २२९| उत्त० ३५८ | जन्नोवइए यज्ञोपवीतम्। आव० ३०५ जन्म - लोकः । प्रश्न० ८६ । जप-मन्त्र्याद्याभ्यासः । अनुयो० २९ | जपा- गुच्छविशेषः । आचा० पछा जपाकुसुमं पुष्पविशेषः । जीवा० १९१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] जप्प - परिगृह्यं सिद्धान्तं प्रमाणंच छलजातिनिग्रहस्थानपरं भाषणं यत्र जल्पः । निशी० २४० अ वाद एव छल जातिनिग्रहस्थानपरो जल्पः । सम• २४॥ सम्यग्हेतु दृष्टान्तैयों वादः सूत्र ९३ वाद एव विजिगीषुणा सार्धं छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भः । सूत्र० २२६ । जम- यमो दक्षिणदिक्पालः । जम्बू० ७५ | यमाः प्राणातिपातविरमणादयः । ज्ञाता० ११० | जमईए - यमकीयं- यमकनिबद्धसूत्रम् । सम० ३१ जमईयं यदतीतं सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे पञ्चदशमध्ययनम् । आव० ६५१ | जमकाइय- यमकायिकः । भग० १९७| यमकायिकःदक्षिण- दिक्पालदेवनिकायाश्रितोऽसुरः अम्बादिः । प्रश्न० १९ । जमग- यमकः शकुनिविशेषः । जीवा० २८६ । जमगपव्वए- पर्वतविशेषः । भग० ६५४ | जमगप्पभं– यमकप्रभं यमकः- शकुनिविशेषस्तत्प्रभं तदाका रम् । जीवा० २८६ | जमगवरा यमकवरौ निलवद्वर्षधरप्रत्यासन्नो शीताभिधान- महानद्युभयतटवर्तिनो पर्वती प्रश्न. ९६ । जमगसंठाणसंठिआ- यमकौ यमलजातौ भ्रातरो तयोर्यत्सं-स्थानं तेन संस्थितौ परस्परं सदृशसंस्थानों, अथवा यमका नाम शकुनिविशेषास्तत्संस्थानसंस्थितौ । जम्बू. ३१६६ जमगसमग- यमकसमकं युगपत् । विपा० ४०। जम्बू० १९२| यमकसमकं एककालम् । राज० २४ | यौगपद्येनेत्यर्थः। उपा० ३५। युगपत्। ज्ञाता० १४९ जगा-यमकाः शकुनिविशेषाः । जम्बू. ३१९| यमकी। जम्बू० ३१६। यमकौ-उत्तरकुरौ पर्वतविशेषौ । जम्बू० ३१६ | पर्वतविशेषाँ जीवा० २८६ | जमगाणं- यमकदेवाभिलापेन। जम्बू० ३१९। जमतीयं यदतीतं सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशमध्ययनम् । सूत्र० २५३ | जमदग्गिओ जामदग्न्यः परशुरामः आव. ३९१॥ जमदग्गिजडा- जमदग्निजटा वालकः । उत्त० १४२१ जमदग्गिसुओ - जमदग्निसुतः- परशुरामः । जीवा० १२१ जमदग्नि परशुरामपिता स सूत्र० १७०, १७८ [176] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जमदेवकाइय-यमदेवताकायिकः-यमसत्कदेवतानां जमालिपभवो- जमालिप्रभवः-बहरतः। आव० ३११। सम्बन्धिनः। भग. १९७। जमाली- राजकुमारनाम। निर०४०। अश्रद्धायां दृष्टान्तः। जमलं-सहवति। भग० ६७२। यमलं निशी० १२७ आ। भग० ५४८। जमालिः-भगवद्भा-गिनेयः। समसंस्थिदवयरूपम्। ज्ञाता०श यमलं-समश्रेणिकम्। विपा० ९०। बहुरतविषयो निह्नवः, सुदर्शनासुतः। उत्त. जीवा. १९९, २०७, ३५९। यस्मिन् दवौ दवौ वर्गी १५३। क्षत्रियकुण्डग्रामे कुमारविशेषः। भग० ४६१। समुदितौ एकं तत्। प्रज्ञा० २८० जमिगाओ-यमिके नाम राजधान्यौ। जम्बू. ३१९| जमलजणणीसरिच्छा-यमलजननीसदृशः। ओघ० १८५। | जम-चमरेन्द्रस्य द्वितीयो लोकपालः। स्था० १९७) जमलजुगलं- यमलयुगलं-समश्रेणिकयुगलरूपौ। जीवा. | अहिं-सादिर्यमः। प्रश्न. १३२॥ २७५ जम्बूलए-जम्बूलकाः। उपा०४०। जमलजुगलजीहालो-यमं लाति-आदत्त इति यमला, जम्बूस्वामी- गुरूपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धोपदर्शने यमला युग्मजिह्वा यस्य सः यमलयुग्मजिह्वः। आव० सुधर्मस्वामि-शिष्यः। भग० ६। अनन्तरागमवान्। आव० વૃદ્દા . १७। सुधर्म-स्वामिनः शिष्यः। नन्दी० ११४| अनुयो० जमलजुयल- यमलयुगलं-समश्रेणिकं युगलम्। राज० २१९| आचा०२५ २२। जीवा० १२२। यमलयुगलं-द्वयम्। भग० ३१८५ जम्म-जन्म-सम्भूतिलक्षणम्। जीवा०६० जमलज्जुणा- यमलार्जुनौ-कृष्णपितृवैरिणौ जम्मणमहो-जन्ममहः-जन्मोत्सवः। आव० १२१। विकुर्वितवृक्षरूपौ विद्याधरौ। प्रश्न० ७५१ जम्मणसंतिभावं-जन्म-उत्पादः जमलपयं सद्भावश्चविवक्षितक्षेत्रादन्यत्र तत्र वा जातस्य तत्र समयपरिभाषयाऽष्टानामष्टानामकस्थानानां यमल- चरणभावेनास्तित्वम्। भग० ८९५ पदमिति सज्ञा। प्रज्ञा० २८०| कालतवा। निशी. ६० जम्मा-यमा। स्था० १३३ आ। जम्मो-यमः तापसपल्ल्यां तापसविशेषः। आव० ३९१। जमलपया-तपःकालयोः सज्ञा। बृह. ९३ आ। जयंत-विमानविशेषः। आचा० २१। जयन्तःजमलपाणिणा-मष्ठिना। भग०७६७। पश्चिमदिग्वर्ति-जम्बुद्वीपस्य द्वारः। यतमानः-उद् जमला-यमं लाति-आदत्त इति यमला। आव०५६६) गमादिदोषपरिहारी। आचा० ३६० सम०८८1 जमलिय-यमलतया समश्रेणितया तत्तरूणां जम्बूद्वीपस्यचतुवारे तृतीयम्। स्था० २२५॥ व्यवस्थितत्वात् संजातयमलत्वेन यमलितम्। भग० भाविप्रथमो विष्णुः। सम० १५४। जयन्तः-अनुत्तर३७। यमलतया समश्रे-णितया व्यवस्थिताः। ज्ञाता०५१ विमानपञ्चके पश्चिमदिग्वर्ति। ज्ञाता० १२४। जमलियाओ-यमलं नाम समानजातीययोर्लतयोर्यग्मं जयंतपवर-जयन्तप्रवरं-जयन्ताभिधानं तत्स-जातमास्विति यमलिताः। जम्बू. २५० प्रवरमनुत्तरविमानम्। ज्ञाता० १४९। जमलोइया- यमलौकिकात्मनः अम्बादयः। सूत्र. जयंतपुरं-मालापहृतद्वारविवरणे नगरम्। पिण्ड० १०८ २२१॥ जयंत-जयन्त पश्चिमदिग्वर्ति जम्बूद्वीपस्य द्वारम्। जमालिः-सम्यक्शास्त्रार्थपरिज्ञानविकलः। ब्रह. २१६ जम्बू० ३०९। आ। निह्नवविशेषः। सूत्र०६८1 आव० ५२३। उत्त. १८१ जयंता-अनुत्तरोपपातिकभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। नन्दी. २४८ मिथ्यादर्शनशल्ये दृष्टान्तः। आव० ५७९। | जयन्ता-उत्तरदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्यापरस्यां प्रथमो निह्नवः। स्था०४१० भग०६१९, ६२० यस्मा- पुष्करिणी। जीवा० ३६४॥ बहरता उत्पन्नाः स आचार्यविशेषः। आव. ३११| | जयंति-जयन्ती पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। प्रथमो निह्नवः। व्यव. १७९ अ। भग०५४८ निर्गमे आव० १२२। नवमी रात्रि नाम। जम्बू० ४९१। सूर्य. १४७। दृष्टान्तः। ज्ञाता०१५२ वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [177] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] १५२ जयंती-सयाणीयभगिणी। बृह. १६८ अ। जयन्ती राज- जयसुन्दरी- गर्भाधानपरिरूपमूलदवारविवरणे धानी। जम्बू० ३५७। वैजयन्ती राजधानी। जम्बू०३५७) सिन्धुराजपत्नी। पिण्ड० १४५ उत्कृष्टमालापहृते सुरदत्तस्य वास्तव्यापुरी। पिण्ड. जयहत्थि-जयहस्ती-पट्टहस्ती। आव० ७१६) १०९। सम० १५१। स्था० २३१, २०४। महाग्रहस्य जयहत्थी-जयहस्ती। उत्त. ३००। तृतीयाऽग्र-महिषी। भग० ५०५, ५५६। जयन्ती। जम्बू० जया-यस्मादर्थे। दशवै०१५७ औषधिविशेषः। उत्त. ३९१, ५३ नन्दनबलदेवमाता। आव. १६२१ ४९०। जया-वासुपूज्यमाता। आव० १६०| सम० १५१, उत्पलभगिनी। आव. २०२२ अकम्पितमाता। आव० २५५ जर-जरा-वयोहानिलक्षणा। प्रज्ञा० ३। जय-पराभिभवः। स्था० २५०। यतः-प्रयत्नवान्। आव. जरकुमार-जराकुमारः-कृष्णवधकः। अन्त०१६। वसुदेव२८६। यतं-गवाक्षकादीनामवलोकयन। दशवै. २३११ पुत्रः। निशी. १९४ आ। चक्र-वर्तिविशेषः। उत्त० ४४८१ यतः-यत्नवान्। ओघ० । | जरग्गहिया-ज्वरग्रहिताः-सामायिकलाभे दृष्टान्तः। ३७। यतं-तदुद्वेगमनुत्पादयन्। दशवै० १८४। अत्वरितम् आव०७५ । दशवै. १७८जयनामा एकादशचक्रवर्ती। आव० १५९| | जरढं-जरठम्। जीवा. १८८ पुराणम्। औप०७ जयई-यजन्ताम्। उत्त० ३७१। जरठानि, पुराणत्वात् कर्कशानि। जम्बू. २९। जयकुञ्जर-कुञ्जरमुख्यः। भग० जरते-जरकः। स्था० ३६५ जयघोस-जयघोषः-ब्रह्मगुणनिरूपेण विप्रः। उत्त० ५२० जरला- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषाः। जीवा० ३२ जयणं-यतनं-प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्न-उद्यमः। जरा-जरा-वयोहानिलक्षणा। दशवै० २३३। वार्धक्यम्। प्रश्न.१०९। भग. १९७। वयोहानिलक्षणा। आव० १४८ जयणा-तिपरिखा अ लंभे पछा पणगहाणी। बृह. १५९ जराउ- जरायुः-गर्भवेष्टनम्। प्रश्न. ९० आ। तिपरियट्ट काऊण अप्पदुप्पणो पच्छा पणगादि जराउय-जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः, पडिसेवणा पडिसेवति एस जयणा। निशी. ३७ आ। गोमहिष्य-जाविकमनुष्यादयः। दशवै० १४१| निशी० १३६ अ। जहा जीवोवघातो न भवतीत्यर्थः। मनुष्यादयः। प्रश्न. ९०१ निशी. १८९ अ। असड्ढभावस्स अववादपत्तस्स जो जराकुणिम- जराकुणपश्च-जीर्णताप्रधानशब्दः। भग. अकप्प-पडिसेवणे जोगो तत्थिमं रागदोसवियत्तत्तणं सा जयणा। निशी. १४८ आ। यतना जराकुमार- वासुदेवजेट भाऊ। बृह० ११३ अ। बहदोषत्यागेनाल्पदोषाश्रयणम्। औप०४८1 उत्त० ५१५ जराजुण्णा-जराजीपर्णाः। व्यव० २९९ अ। प्रयत्नकरणलक्षणा। दशवै०७४। जराघुणियं-जराघुर्णितम्। उत्त० ३२९। पृथिव्यादिष्वारम्भपरिहारयत्नरूपा। दशवै. १२०० जरासन्ध-नृपविशेषः। प्रश्न. ९०| जरासन्धः। आव. जयणाए-जयिन्या विपक्षजेतृत्वेन। भग. ५२७। ३६५। राजविशेषः। दशवैः ३६। राजगृहनगरनायको जयति-कर्मक्षपण उद्यतः। ओघ० २२० नवमः प्रतिवा-सुदेवः। प्रश्न०७५ अप्रमादविषये इन्द्रियविषयकषा राजगृहनगरे राजा। आव० ७२१॥ यघातिकर्मपरिषहोपसर्गादिशत्रुगणपरिजयात् जरासिंधु-जरासिन्धः-राजगृहे नृपति। उत्त० ४९० सर्वानप्यतिशेते तं (प्रति प्रणतोऽस्मि)। नन्दी० ३। ज्ञाता० २०९। जरासिन्धुः-कृष्णवासुदेवशत्रुः, नवमः जयद्दह- हस्तीनागपुरे राजकुमारः। ज्ञाता० २०८। प्रतिवासुदेवः। आव० १५९। जयनंदा-जगन्नन्द जगत्समृद्धिकर। जम्बू० १४३। | जरु-जरायुः। आव० ७४२। जयसंधी-जयसन्धिः -अलोभोदाहरणेऽमात्यः। आव. | जरुला- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ ७०१॥ | जरो-ज्वरः। प्रश्न. १६) । ४६९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [178] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] | દર૮૧ जलंति-ज्वलन्ति-ज्वालारूपा भवन्ति भास्वराग्नितां । प्रज्ञा० ९४। प्रतिप-द्यन्त इत्यर्थः। जम्बू०४१९। जलमलं-मालिन्यम्। ज्ञाता० ३५। जलमूगो-जहा जले जलंतो-जलान्तः-जलपर्यन्तः, जलस्योपरि प्रकटः। निब्बुड्डो उल्लावेति बुडबुडे' ति वा जलं एव जलमूगो। जीवा० ३१५ निशी० ३६ आ। जल-सामायिकलाभे दृष्टान्तः। आव०७५ जलमय-जलमूकः-जलप्रविष्टस्येव 'बुडबुड' इत्येवं रूपो जलकान्तेद्रस्य प्रथमो लोकपालः। स्था० १९८१ ध्वनिर्यस्य सः। प्रश्न० २५ जलइ-ज्वलति-ज्वालामालाकुलो भवति। जीवा० २४८५ | जलमूयओ-जलमूकः-जले ब्रूडित इव भाषमाणः। आव. जलइत्तइ-ज्वालयितुं-उत्पादयितुं वृद्धिं वा नेतुम्। दशवैः । २०११ जलयं-जल-पद्मादि। जम्बू० ३९० जलकंत-जलकान्तः-पृथिवीभेदः। आचा० २९। उदधिक्- जलयर-जलचरजं-पुट्ठालविशेषः। आव० ८५४। जले माराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। जीवा० १७०| स्था० ८४, चरन्ति-पर्यटन्तीति जलचराः। प्रज्ञा० ४३। जलचरः२०५। जलकान्तेद्रस्य लोकपालः। स्था० १९८१ मणि- तन्दुलमत्स्यप्रभृतिः। जीवा. १२९| जले चरन्ति भेदः। उत्त०६८९। सप्तमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग. गच्छन्ति चरेभक्षणमित्यर्थ इति भक्षयन्ति चेति १५७। जलकान्तः-मणिविशेषः। जीवा० २३। आव० ३५५। जलचराः। उत्त०६९८१ प्रज्ञा०२७। जलरत-जलप्रभेन्द्रस्य लोकपालः। स्था० १९८१ जलकारी- चतुरिन्द्रियजीवः। उत्त० ६९६। जलराक्षसाः-राक्षसभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० जलकीड-देहशुद्धावपि जलेनाभिरतिः। निर० २६। जलरुह-जलरुहः-द्वीपः समुद्रोऽपि च। प्रज्ञा० ३०७ जले जलचर-जलचरः मत्स्यादिः। दशवै० ५५ रुहन्तीति जलरुहाः-उदकावकपनकादयः। प्रज्ञा० ३० जलचारिया-चतुरिन्द्रियविशेषाः। जीवा० ३२ प्रज्ञा०४२ जीवा. २६। जले रुहन्तीति पद्मादयः। उत्त०६९२ जलज-पद्यम्। जीवा० १३६| जलजं-पद्यम्। भग० ३०६। | जलवासिणो-जलनिमग्नाः । भग० ५१९। ये जलनिषष्णा जलणं-ज्वलनं शैत्यापनोदाय वैश्वानरस्य ज्वलनं एवासते। निर०२५१ शोधनार्थं वा प्रकाशकरणाय वा दीपप्रबोधनम्। प्रश्न. | जलविच्छुय-जलवृश्चिकः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। १२७। ज्वलयति-दहतीति ज्वलनः-क्रोधः। सूत्र० ५२। प्रज्ञा० ४२। जीवा० ३२ जलणसिहा-ज्वलनशिखा-आचारविषये जलवीरिए-जलवीर्यः। स्था० ४३० हुताशनब्राह्मणभार्या। आव०७०७ जलाभिसेयं-जलक्षरणम्। भग. ५२० जलणाइभयं-ज्वलनादिभयम्। आव०४०७। जलाभिसेयकढिणगायभूता-तत्र जलणो-ज्वलनः-आचारविषये जलाभिषेककठिनगात्रभूताः प्राप्ता ये ते। ये स्नात्वा न हुताशनब्राह्मणज्येष्ठपुत्रः। आव० ७०७) मुञ्जते, स्नात्वा स्नात्वा पाण्डुरी-भूतगात्रा इति। निर० जलधरा-वृषणौ। बृह. ९८ आ| निशी० ३२ अ। २५१ जलनं-ज्वलनं-दीपनम्। उत्त० ७११। जलुगा-जलौका-जलजन्तुविशेषः। आव० ६२३। जलपट्टणं-जलेण जस्स भंडं आगच्छति। निशी० ७० जलूगा-जलौका-अनेषणा प्रवृत्तदायकस्य आ। जलपट्टणं परिमाती। निशी. २२९ अ। जलपत्तनं- | मदभावनिवार-णार्थसचकत्वात साधोरूपमानम। दशवै. यत्र जलपथेन भाण्डानामागमस्तदाद्यम्। प्रश्न० ३८१ | १८ जलजन्तुवि-शेषः। आव० १०२। जलौकसःजलपत्तनं-जलमध्यवर्ति पत्तनम्। उत्त०६०५। आचा. | दुष्टरक्ताकर्षिण्यः। उत्त०६९५१ २८५१ जलोया-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषाः। प्रज्ञा०४१। जीवा० ३१| जलप्पभ-जलप्रभः-उत्तरनिकाये सप्तम इन्द्रः। स्था० । चर्मपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४१। जीवा०४१। ८४ जीवा० १७१। भग० १५७। उदधिकुमाराणामधिपतिः। | जलौका-जन्तुविशेषः। दशवै० १४१। मनि दीपरत्नसागरजी रचित [179] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जल्ल-शरीरमलः। ज्ञाता० २०३। जल्लाः-राज्ञः स्तोत्र- | म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ पाठकाः। राज०२। कमढीभूतो। निशी० १०८1 जवणाणिया-लिपिविशेषः। प्रज्ञा०५६। मलथिग्गलं जल्लो। निशी. १९० मलः। भग० ३९० जवणिज्ज-यापनीयम्। आव० २१९। उत्त० ८३। औप० २८१ आव० ४७। स्था० ३४३। जल्लः- जवणिया- यवनिका-तिरस्करिणी। आव० ३९८ अन्तः वरत्राखेलकः, राजस्तोत्रपाठको वा। जीवा० २८१। आव० | पट्टः। आव० ६७४। यवनिका-काण्डपटम्। ज्ञाता०२४। ६१६ औप० ३। वरत्राखेलकः। प्रश्न० १३७, १४१। अनुयो | जवणीदीवं- यवनद्वीपं, द्वीपविशेषम्। जम्बू. २२० ४६। दशवै० ११४। जम्बू० १२३। शुष्क-प्रस्वेदः। सूत्र०८२ | जवनालउ-जवनालकः-कन्याचोलकः, कुमार्या ऊवं चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न.१४॥ सरकञ्चकः। नन्दी०८९। रजोमात्रम्। औप०८६। मलविशेषः। प्रश्न. १३७ याति जवनालका-कुमार्या ऊवं सरकञ्चकः। नन्दी० ८८1 च लगति चेति जल्लः-पृषोदरादित्वान्निष्पत्तिः, कन्या-चोलकम्। प्रज्ञा० ५४२ स्वल्प-प्रयत्नापनेयः। जीवा. २७७। शरीरमलः। प्रश्न. | जवमज्झ-यवस्येव मध्यं मध्यभागो यस्य १०५। जम्बू. २४८ जल्लः -रजोमात्रम्। भग. ३७ विप्लत्वसाधा-त्तद् यवमध्यं यवाकारमित्यर्थः। देहमलः। सम० ११। भग० ८६०, २७५। अष्टौ यूका एकं यवमध्यम्। जम्बू० जल्लकहा-जल्लकथा-वरत्राखेलकसम्बन्धिनीकथा। ९४। यवमध्या। व्यव० ३५६ आ| निशी० ३०६ आ। दशवै.११४१ जवमज्झा-यवस्येव मध्यं यस्यां सा यवमध्या। औप० जल्लखउरियं-मलकलुषितम्। पिण्ड० ९३। ३१ जल्लगंडो-मलगन्धः। आव० ८१५ जवस-यवसः। आव० ४१६। यवसः-घ्रास। आव० २६१। जल्लपरीसहे- शरीरवस्त्रादिमलस्य परीषहः, अष्टादशः जवसए-गृच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ परी-षहः। सम०४० जवसजोगासणं- यवसयोगासनम्। उत्त. २२३। जल्लिय-जल्लो-मलः। उत्त०५१७। यल्लितः जवितं-यावकम्। आव० ३०२। यानलगनधर्मोपेतमलयक्तः। भग० २५४। जसंसी- यशस्वी-शुद्धपारलौकिकयशोवान्। दशवै० २०७। जल्लूसत-जलोदरः-व्याधिविशेषः। आव० ६११। ख्यातिमन्तः। भग० १३६। जल्लेसाइं-या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि जसंसे-सिद्धार्थराजस्य तृतीयं नाम। आचा० ४२२ यस्या लेश्यायाः सम्बन्धिनीत्यर्थः। भग. १८८1 | जस-यशः-पराक्रमकृतं गृह्यते, तदुत्थसाधुवाद इत्यर्थः। जव-यवाः-धान्यविशेषः। दशवै. १९३। औषधिविशेषः। आव०४९९ संघट्टनिर्वहणशौर्यलक्षणं यशः। प्रज्ञा० ३३। उज्जेणीनयरे राया। ब्रह. १९१ अ। यवः। सूत्र० १८२पराक्रमकृता सर्वदिग्गामिनी वा आव० ८५५। जवः-वेगः। आव० ६१८। यवराजर्षिः- प्रख्यातिर्यशः। औप० १०५ ख्यातिः। ज्ञाता०२४०। खंडश्लोकाध्येता। भक्त। जीवा० २१७। प्रज्ञा० ६००| श्लाघा। सूर्य. २५८ जवजव- यवयवः-यवविशेषः। भग० २७४। यशोहेतुत्वाद्यशः संयमो विनयो वा। उत्त. १८६। यशः जवजवा-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। पराक्रमकृतं सर्वदिग्गामिनी प्रसि-द्धिर्वा। प्रश्न. १३६| जवजवाइ- यवविशेषः। जम्बू. १२४। चतुर्दशजिनस्य प्रथमः शिष्यः। सम० १५२ यशः जवण-जवनं-अतिशीघ्रगतिः। जीवा० १२२ यवनः चिला- सर्वदिग्गामी। प्रश्न० ८६। सकलभवनव्यापि। जीवा० तदेशवासी म्लेच्छजातिविशेषः। प्रश्न०१४। २९९। सर्वदिग्गामिनीप्रसिद्धिः। बृह० ३६ आ। संजमो। जवणहूँ-यापनार्थ-शरीरनिर्वाहणार्थम्। उत्त० २९५) दशवै. ८८ समयपरसमयविसारत्तणेण लोगे लोगत्तरे जवणट्ठया-यापनार्थ-संयमभरोदवाहिशरीरपालनाय। य जसो। निशी. २९० अ। यशो जीवितम्। आव०४८० दशवै २५३ यशः-संयमः। दशवै. १८८ यशः-सर्वदिजवणा-यापना-वन्दके पञ्चमं स्थानम्। आव० ५४८। ग्गामिप्रसिद्धिविशेषः। ज्ञाता० १८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [180] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जसकर- यशस्करः-पराक्रमकृतं यशस्तत्करणशीलः। जम्ब्वाः सुदर्शनायाश्चतुर्थं नाम। जीवा० २९९। आव० ४९९। सकलभुवनव्यापकं यशो धरतीति यशोधरा। जम्बू. जसकारी- यशःकारी। आव० ५३९। ३३६। जसघाई-यशोघातिनः-यशोऽभिनाशकाः। आव० ५३९। जस्स- यस्य-मुमुक्षोः। आचा० १८० जसधरे- यशोधरः। जम्बू०४९० जस्समम्हि- यस्य प्रभावेण इहागतोऽस्मिजसभद्द-यशोभद्रः-शय्यम्भवप्रधानशिष्यः। दशवै०२८४) भवामीतियोगः। भग० १८० यशोभद्रः-चतुर्थदिवसनाम। जम्बू०४९०| सूर्य. १४७।। जहक्खाय-यथा सर्वस्मिन् लोके ख्यातं-प्रसिद्ध अकषायं अलोभोदाहरणे युवराजः। आव०७०१। भवति चारित्रमिति तथैव यद् तद् यथाख्यातम्। प्रज्ञा० जसभद्दा-यशोभद्रा-अलोभोदाहरणे ૬૮૫ कण्डरीकयवराजपत्नी। आव०७०११ जहणवरं-जघनवरं-वरजघनम्। जीवा० २७५। जसम- यशस्वी नवमः कुलकरनाम। जम्बू० १३२। जहण्णकसिणं-जस्सद्वारसरूवया मुल्लं तं तृतीयः -कुलकरनाम। सम० १५०| आव० १११। स्था. जहण्णकसिणं। निशी० १३९ आ। ३९८१ जहण्णेणं-जघन्यतः। अनुयो० १६३। जसमती-यशोमती-अमोघरथरथिकभार्या। उत्त० ३१३ जहन्न-हानं-त्यागः। भग. ९०४ जघन्यं सर्वस्तोकम्। जसवइ-यशोमती-यक्षहरिलस्य दवितीया सूता, आव. २९। ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त० ३७९। जहन्नए कुंभे-जघन्यकः कुम्भः-आढकषष्टिनिष्पन्नः। जसवई-यशोमती-तृतीया रात्रितिथिनाम। जम्बू०४९१। | अनुयो० १५१ सगरमाता। आव० १६१ आचा० ४२२ जहन्नजोगी-जघन्ययोगी-सर्वाल्पवीर्यः। प्रज्ञा०६०८। जसवती- यशोमती-शालमहाशालभगिनी। उत्त० ३२३।। जहन्नपएसिया-जघन्याः-सर्वाल्पाः प्रदेशाः परमाणवस्ते शालमहाशालयो राजयुवराजयोर्भगिनी। आव० २८६।। सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः। स्था० ३५। तृतीया रात्रि-तिथिनाम। सूर्य. १४८। सगरचक्रवर्तिनो जहा-यथा दृष्टान्तार्थोऽयं शब्दः। भग०८२ माता। सम० १५२ जहागयपहिय-यथागतपथिकः। उत्त. ११७ जससा-यशसा-प्रसिद्ध्या। सम० ४३। जहाजायं- रजोहरणं चोलपट्टकश्च। ओघ०७५ जसहर-अचलपुरकुटुंबीगुरुः। मरण। जहाजायपसुभूय- यथाजातपशुभूतःजसा-यशा-काश्यपभार्या। उत्त. २८६। वसिष्ठगोत्रभृग- | शिक्षारक्षणादिवर्जित-पशुसदृशः। प्रश्न० ५५ पुरोहितभार्या। उत्त. ३९५ जहाणुपुव्वी- यथानुपूर्वी-यथाऽनुक्रमम्। भग० २०२। जसोआ-यशोदा-राजकन्यानाम। आव. १८२ जहातच्चं-यथातथ्यं-यथावस्थितम्। सूत्र. १७७। जसोकामी-यशस्कामी-यो यशः कामयते अहो अयमिति | जहाथाम- यथास्थाम-यथासामर्थ्यम्। दशवै० १०६| प्रवादार्थं वा। दशवै. १८७ जहानामए- यथानामकः-यत्प्रकारनामा जलोधर- यशोधरः-पञ्चमदिवसनाम। सूर्य. १४७। स्था० देवदत्तादिनामेत्यर्थः अथवा 'यथा' इति-दृष्टान्तार्थः ६०२,४५३ 'नाम' इति-संभावनायां 'ए' इति वाक्यालंकारे। भग०८२॥ जसोधरा- यशोधरा-चतुर्थी रात्रिनाम। सूर्य. १४७। यथानामकः-अनिर्दिष्टनामकः कश्चित्। जीवा० १२११ जसोया-वर्द्धमानस्वामिनो भार्या। आचा०४२२१ जहाभागं- यथाभाग-यथाविषयम्। दशवै० १६६। जसोहरा- यशोधरा-चतुर्थी रात्रिनाम। जम्बू० ४९१। जहाभावो- यथाभावः। आव० ९६| दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२। दक्षिण- | जहाभूतं- यथाभूतं-यथावृत्तं अवितथं नत्वन्यथाभूतम्। रुचकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू० | ज्ञाता० ३४। ३९१। यशः-सकलभुवनव्यापि धरतीति यशोधरा, जहाभूयं- यथाभूतम्। आव० ४२३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [181] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] जहारायणियं यथारात्निकं यथाज्येष्टम्। प्रश्न० १११। जहावत्तं- यथावृत्तम् । आव० ३६८ । जहासमाही - यथासमाधि यथासामर्थ्यम् । आव० ८४६ । जहाहिय यथाहितं हितानतिक्रमेण यथाऽधीता वा गुरुसम्प्रदायागतवमनविरेचकादिरूपा । उत्तः ४७५% जहिं- अद्यम् । उत्त० ४०४ | जहिच्छं- इच्छाया अनतिक्रमेण यथेच्छं यदवभासत इति । उत्त० ५०१। जहिच्छियं यथेच्छितम् । आव० २१३ | जहित्ता हित्वा । उत्त० ३१५१ जहियं यत्र । आव ० ६१८ | - जाइ जाति: प्रसूतिः आचा० १५९। जातिः मालती। जम्बू० ४५| जाति: नारकादिप्रसूतिः आक ३२५ पुष्पविशेषः । उत्त० ६५४ दशव- १७४१ तापस्व्यम्, बुद्धिः । दशकै० २३३ जाइ आसोविस- जात्या - जन्मनाऽऽशीविषा जात्याशीविषा । भग० ३४१ | जाइउं- यातुम् । बृह० २७ आ । जाइकहा- ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा । स्था० २०९ | जाइकुसुम- जातिकुसुमम्। दशवै० १००| जाइतए याचितः । आव० ४२६१ आगम - सागर - कोषः ( भाग :- २) जाइत्तु - गत्वा । आव० २०९ | जाइन - एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणाम लक्षणमेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभा यत्सामान्यं सा जाति-स्तज्जनकं नाम जातिनाम प्रज्ञा० ४६९१ जाइनामनिहत्ताउए- जातिः - एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चप्रकारा सैव नाम नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषरूपं जातिनाम तेन सह निधत्तं निषिक्तं यदायुस्तज्जातिनामनिधत्तायुः प्रज्ञा० २१७ | जाइपह- जातिपन्थाः दवीन्द्रियादिजातिमार्गः। दशवै० २४४| जाइफलं स्वादिमफलविशेषः। निशी० ६० अ जाइमंता जातिमन्तः सुजातयः । आचा• ३९१ जाइमरण- जातिमरणः संसारः। दश० २५८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] जाइमा - लुणणपायोग्गाओ कीर । दशवै० १११ । जाई - मत्स्यकच्छपविशेषः । जीवा- ३२१। गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ | जातिमदः- यज्जातेर्मानम् आव० ६४६ । जातिः क्षत्रियादया, जननं वा क्षत्रियादिजन्म । उत्त० १८१। ब्राह्मणादिका । पिण्ड० १२९ । जातिभेदः । जीवा० १३६ | मातृसमुत्था आक• ३४१ पिण्ड १२९ उत्त १४५| सूत्र० २३६। जातिकुसुमवर्ण मदयम् । विपा० ४९ । मातृकः पक्षः। प्रश्र्न० ११७। ज्ञातिः-लोकैषणाबुद्धिः। आचा० १८० जाईकुलकोडी- जातिप्रधानं कुलं तस्य कोटि जातिकुलकोटिः जीवा० ३७रा जाउ - क्षीरपेया । पिण्ड० १६८ । जाकण्णियसगोत्ते- पूर्वाभाद्रपदगोत्रम् सूर्य. १५01 जाउकण्णे जातुकर्ण-पूर्वाभाद्रपदगोत्रम्। जम्बू. १००% जाउगा - यातरः- ज्येष्ठदेवरजायाः । बृह० २७०अ जाउयाओ - देवराणां जाया भार्या इत्यर्थः । ज्ञाता० १९९ | जाउलग- गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ जाए जातं स्तम्बीभूतम् । दशकै 991 जान्नओ- जातोऽभवत्। आव० १८८ जाओ - जातः प्रकारः उत्पन्नश्च । आव० ५२४ | जागरओ- जागरणम् । आव० २०४ | जागरा - जाग्रतीति जागराः असुप्ता जागरा इव जागराः । स्था० ३२० | जागरिय जागृतं षष्ठीरात्रिजागरणप्रधानमुत्सवम् । विपा० ५१ | रात्रि जागरिका । औप० १०२ श जागरूका- | आचा० १५२ | जागरे - जाग्रत् । प्रज्ञा० ४९१ । जाच्चबाहलो- जात्यबाल्हीकः - अश्वजातिविशेषः । आव ० २६१ | जाण - यानं - गन्त्रीविशेषः । प्रश्न० ९१, १६१ | गन्त्र्यादि । भग० १३५ जीवा० २८१। रथादिकम् प्रश्न. १५२ शकटादि । औप० ४। शकटम् । भग० १८७, १८८, २३७ रथादि। औप० १४ यानं हास्यादि आक ३४६६ उत्तः १४३ | शिबिकादि। आचा ६० युग्यादि । दश २१८ यानम् । आव० २३४ | जाणअं - यानकम् । आव० २२१ | जाणए- ज्ञायकः । आव० ४२८ । [182] "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जाणग-ज्ञापकः-तीर्थकृत्। आचा० २२० परिकरो यस्या न पुत्र-लक्षणः। सा जानुकूर्परमात्रा। जाणगसरीरं- ज्ञायकस्तस्य शरीरं ज्ञायकशरीरम्। सो वा | ज्ञाता०८०| जानुकूर्परमाता। आव. २१० तस्य शरीरं ज्ञशरीरम्। उत्त०७२। जाणुयपुत्ता- ज्ञायकपुत्रः-केवलशास्त्रकुशलपुत्रः। विपा० जाणणा- ज्ञानशुद्धिः, प्रत्याख्यानशुद्ध्या द्वितीयो भेदः। ४०१ आव०८४७ जाणुया-ज्ञायकाः-शास्त्रानध्यायिनोऽपि जाणरहो-यानाथ रथो यानरथः। जीवा. २८१। शास्त्रज्ञप्रवृत्तिदर्शनेन रोगस्वरूपतः चिकित्सावेदिनः। जाणवए-जानपदः-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यत्र ज्ञाता० १८० तत्। भग०७ जाणू-जानुनी-अष्ठीवन्तौ। जीवा० २७०| गदिता। स्था० जाणवत्तं-यानपत्रम्। आव० २९७) १७४ जाणवया-जनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो | जाणूक-जानु-बाहुजङ्घासन्धिरूपोऽवयवः। जम्बू० २३४॥ यत्र सा जानपदाः। सूर्य २ जानपदाः-जनपदभावाः। जात-प्रकारवाचकः। निशी० १५१ अ। भेदवाचकः। जम्बू०७५। जानपदाः। औप० २१ जानपदाः निशी० ८४ आ। प्रकारवाची। उप्पण्णवाची। निशी० ९३ जनपदभवास्तत्रा-याताः। ज्ञाता० १। जानपदाः अ। उत्पत्तिधर्मकं, व्यक्तिवस्तु। स्था० १८४१ प्रकारः। विषयलोकाः। आव० २२९। जानपदा जनपदे भवा आव. २६१। सणिसेज्ज रयोहरणं महपोत्तिया चोलपट्टो जानपदाः-अनार्याऽऽचरिणो लोकाः। आचा० ३१० य। निशी० ४६ आ। जाणविमाण-यानानि-शकटविशेषाः विमानानि जातकम्म-जातकर्म-प्रसवकर्म ज्योतिष्क-वैमानिकदेवसम्बन्धिगृहाणि। नालच्छेदननिखननादिकम्। ज्ञाता०४१। निर० ३२ यानविमानानि-पुष्पकपालका-दीनि। प्रश्न. ९५ यान जाततेए-जाततेजाः-वह्निः । प्रश्न. १५८१ विमानम्। आव० १२११ जातयः- वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि। सम०६४। जाणविही- गमनविधिः। बृह. २३३ अ। जातरूपं-स्वर्णम्। उत्त० ५२७। रूप्यम्। उत्त०६६६। जाणसंठिया-यानसंस्थिता। आव० ३९८ जातरूवे-जातरूपकाण्डं-जातरूपाणां विशिष्टो भूभागः। जाणसण्णा- ज्ञानसंज्ञाः-मत्याद्याः। आचा० १२१ जीवा० ८९। जाणसाला- यानशाला। आव० ५७८। रथादिगृहम्। प्रश्न. | जातविम्हयं-जातविस्मयः। आव० ३५९। १२७ जाति-तिर्यग्जातिः। जीवा० १३४। आसन्नलब्धप्रतिभो जाणसालिओ-यानशालिकः। आव०८९/ जातिः। दशवै०६। आर्यभेदः। सम० १३५ जाणा- यानानि-शकटादीनि। ज्ञाता०४३। जातिआसीविसा-जातित आशीविषा जात्याशीविषाःजाणाइ- शकटादीनि। भग. १४७। यानानि-गन्त्र्यादीनि। वृश्चिकादयः। स्था० २६५ जम्बू० १२३ जातिकथा-जातेः प्रशंसनं दवेषणं वा। स्त्रीकथायाः जाणियं-ज्ञातम्। आव० १४६| प्रथमभेदः। आव० ५८१] जाणुओ-ज्ञायकः-केवलशास्त्रकुशलः। विपा० ४० जातिकहा-जातिकथा-ब्राह्मणादिजातिसम्बन्धेन कथा। जाणुकोप्परे- जानुकूर्परः। उत्त० ११८१ प्रश्न. १३९ जाणुकोप्परमाता-जानुकूर्पराणामेव माता-जननी जातिकुम्भी- यस्य सागरिकं भ्रातृद्वयं वा वातदोषेण जानुकूर्पर-माता। निर० ३०१ शूनं महा-प्रमाणं भवति स जातिकुम्भी। बृह० १०० अ। जाणकोप्परमाया-जानकर्पराणामेव माता-जननी जान- | जातितः-जातितो वृश्चिकमण्ड-कोरगमनष्यजातयः। कूर्पर-माता, एतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः स्तनौ आव.४८१ स्पृशन्ति नापत्यमित्यर्थः। अथवा जानकर्पराण्येव जातिथेरा-जातिस्थविराः-षष्ठिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः। मात्रापरप्रणोदे साहाय्ये समर्थ उत्सङ्गनिवेशनीयो वा । स्था० ५१६) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [183] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जातिपत्रं-पत्रविशेषः। जीवा० १३६। जायणावत्थं-जं मग्गिज्जइ कस्सेयंति अपुच्छिय कस्स जातिपुष्पं- पुष्पविशेषः। प्रज्ञा० ३७ छट्ठा कडंति अगवेसिय। निशी. १६२ अ। जातिफलं-फलविशेषः। जीवा० १३६) जायणि-असत्यामृषाभाषाभेदः। दशवै० २१० जातिवंझा-जातेः-जन्मत आरभ्य वन्ध्या-निर्बीजा जायणिया-याचना। आव०६७७ जाति-वन्ध्या । स्था० ३१३॥ जायणी- याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणं, जातिसंपन्ने- उत्तममातृकपक्षयुक्तः। ज्ञाता०७) असत्या मृषाभाषायास्तृतीयो भेदः। प्रज्ञा० २५६। जातिस्मरण-आभिनिबोधिकविशेषः। आचा० २० मति- | जायतेअ-जाततेजः-अग्निः । दशवै. २०१। विशेषः। प्रज्ञा०५१॥ जायतेय-वह्निः । भग०१८४१ जातिहिंगुले-जात्यः-प्रधानो हिङ्गलकः जात्यहिंगलकः। जायधामे-जातस्थामा-अङ्गीकृतमहाव्रतभारोदवहने प्रज्ञा० ३६१। जात-सामर्थ्यः। प्रश्न०१५८१ जाती- याति-प्रवर्तते-अवबुध्यते। बृह. १९७ अ। जायमाण-यान्-गच्छन्। भग० १८६। गन्धद्रव्यविशेषः। जीवा० १९११ जायनिंदुया-जातानि उत्पन्नान्यपत्यानि निर्वृतानिजातीगुम्मा-जातिगुल्माः। जम्बू. ९८१ निर्यातानि मृतानि यस्याः सा जातनिर्वृता। विपा० ५१। जातीसरणं-जातिस्मरणं-मतिज्ञानभेदः। आव. ११० जायभेदे-जातभेदः-उपचितचतुर्थधातुः। उत्त० २७३। जात्यसुवर्णमय-सुवर्णविशेषः। नन्दी० १५७। जायरूव-जातरूपं-सुवर्णम्। भग. १३५ जीवा. २०४, जात्यहिंगुलकः- पुष्पविशेषः। जीवा० १९१। २२८। रूप्यम्। जम्बू. ३२४। जातरूपः-सुवर्णविशेषः। जानाति-अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते। भग. ३५७। जम्बू० २३। जातरूपं-सुवर्णम्। स्था० ४२२। जम्बू०६२। जानु-अङ्गविशेषः। आचा० ३८१ जायरुववडिंसए-जातरूपावतंसकः-उत्तरस्यामवतंसकः। जामा- याम्या-दक्षिणदिक्। आव. २१५) जीवा० ३९१| भग० २०३। जामि-यामि। आव. २९९। जायसड्ढे-जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः। जामेय-यामेव। सूर्य ३। ज्ञाता०९। जाय-बीयाणि चेव यवीभूयाणि। दशवै०६९। यागं-पूजाम् | जायसूयग-जातसूतकं नाम जन्मानन्तरदशानि यावत् | ज्ञाता०८३। यागं-पूजा यात्रा वा। विपा० ७७ यातं- । व्यव० ७ आ। अपगतम्। आव०८४४| जातं-प्रकारः। प्रश्न १२४जातः | जाया-हे पूत्र। ज्ञाता०५० जाता-अभियोगकृता विषकृता पुत्रः। उत्त० ३९९। जातः-प्रवृत्तः। सूर्य जातं-जातिः च। व्यव० ३१५आ। जाता-मूलगुणैः प्राणातिपातादिप्रकारो वा। ठाणां०४९२१ भिरशुद्धा। ओघ० १९३। चमरासुरेन्द्रस्य बाह्या पर्षत्। जायइ-जायते-कल्पते। आचा. १४० जीवा० १६४। यात्रा-संयमनिर्वहणनिमित्तम्। उत्त. जायकुंभी- वायदोषेण जस्स सागारियं वसणं वा सुज्जति २९४| जाता-प्रकृतिमहत्त्ववर्जितत्वेनास्थानकोपादीनां सो जायकुंभी रोगीत्यर्थः। निशी० ३३ अ। जातत्वा-ज्जाता, चमरस्य तृतीया पर्षत्। भग० २०२। जायकोउहल्ले-जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलः- शक्रदेवेन्द्रस्य बाह्या पर्षद्। जीवा० ३९० या जातौ-त्सुक्यः। राज० ५८१ ज्ञाता०१। दोषात्परित्यागार्हाहारविषया सा जाता। आव०६४१| जायक्खंधे-जातः-अत्यन्तोपचितीभूतः स्कन्ध यात्रा-संयमयात्रा। भग० १२२ चमरेन्द्रस्य बाह्या पर्षत्। एवास्येति जातस्कन्धः। उत्त० ३४९। स्था.१२७ जायणं-यातनं-कदर्थनम्। प्रश्न. ३७ जायाइ-अवश्यं यायजीति यायाजी। उत्त० ५२२ जाताः। जायणजीविणो-याचनेन जीवनं-प्राणधारणमस्येति आचा० ३४८१ याचन-जीवनम्। उत्त० ३६०| जायामायावित्ती-संयमयात्रामात्रार्थ वृत्तिः-भक्तग्रहणंजायणा-याचनं-मार्गणम्, चतुर्दशः परीषहः। आव०६५६| | यात्रा-मात्रावृत्तिः । औप० ३७| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [184] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] जायाहि- याचस्व | उत्त० ५३२ | जार - जारः - नाय्यविशेषः । जम्बू०४१४ | मणिलक्षणविशेषः । जीवा. १८९| जम्बू० ३९| निशी० आगम-सागर-कोषः (भाग - २) | जीवा० ३७९॥ जाला - सुभूमचक्रवर्त्तिनः माता सम० १५२ ज्वालाछिन्न- मूलानङ्गारप्रतिबद्धा आचा० ४९| महापद्ममाता। आव० १६१ | ज्वाला-अनलसंबद्धा । जीवा. १०७। अनलसंबद्धा दीपशिखा वा जीवा० २९| ज्वालाजाज्वल्यमानखादि-रादिज्वाला अनलसंबद्धा दीपशिखा । प्रज्ञा० २९| ज्वाला-अग्निशिखा । स्था० ३३६ | छिन्नमूला-ज्वलनशिखा। उत्त॰ ६९४। ज्वालाइन्धनच्छिन्ना । ज्ञाता० २०४ | जालाउया- द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा- ४१। जालाणि बन्धनविशेषरूपाण्यात्मनोनर्थहेतून्। उत्तः २९६अ। जारु अनन्तकायवनस्पतिविशेषः । भग ८०४१ जारेकण्हा– वाशिष्ठगोत्रस्यावशेषः । स्था० ३९० | जालं - आनायम् । उत्त० ४०७ जालं - मत्स्यबन्धनम् । प्रश्न० १३ | मत्स्यबन्धनविशेषः । विपा० ८१| जालकम् । प्रज्ञा० ९९| सूर्य० २६४| जीवा० १७५ जालंधर- गोत्रविशेषः । आचा. ४२११ जाल जालं सच्छिद्रो गवाक्षविशेषः । ज्ञाता० १४१ जाल:गवाक्षः । जम्बू. १८८१ मूलाग्निप्रतिबद्धा ज्वाला दशकै. १५४१] जालः समूहः । उत्त० ४६०१ जालकडए– जालानि-जालकानि भवनभित्तिषु प्रसिद्धानि तेषां कटकः समूहः जालकटकः, जालकाकीर्णा रम्यसंस्थानप्र-देशविशेषपङ्क्तिः । जीवा० १७८ । जालकडगा - जालकाकीर्णो रम्यसंस्थानौ, प्रदेशविशेषौ । जम्बू. परा जालकिड्डगंतरेण- जालकटकान्तरे आव० ६३ | जालगं- जालकं चरणाभरणविशेषः । औप० पपा जालगंठिया - जालं - मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका-जालिका । भग० २१४। सङ्कलिकामात्रम् | भग० २१५ | जालगा- द्वीन्द्रियजीवभेदः। उत्त० ६९५| जालघरगं- जालगृहं-जालकान्वितम्। ज्ञाता० ९५| जालगृ-हकं-जालकयुक्तं ग्रहम् । जीवा० २००| दार्वादिमयजालक-प्रायकुड्यं यत्र मध्यव्यवस्थितं वस्तु वहिः स्थितैदृश्यते ज्ञाता० १२९| जालघरगा - जालयुक्तानि गृहकाणि जम्बू. ४% जालपंजर - जालपञ्जरं गवाक्षम् । जीवा० २०५, ३६० गवाक्षः जम्बू. ४९॥ गवाक्षापरपर्यायाणि राज० ६२ जालयं जालकं-छिद्रान्वितो गृहावयवविशेषः प्रश्नः जालवंदं- जालवृन्दं-गवाक्षसमूहः। जीवा० २६९। जालविंद - जालवृन्दः- गवाक्षसमूहः । जम्बू० १०७ जालांतररयणं- जालानि जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तत् जालान्तररत्नम् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ४०७ | जालायुसा- द्वीन्द्रियजीवविशेषः । जीवा० ३१ | जालि - वंशसमूहः । नन्दी० १५५| जालिः-अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अन्तः १४ अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् | अनुत्त० १। जालिग जालिकं-देशकथाविशेषः आव. ५८१। जालिया - जालिका लोहकञ्चुकः प्रश्नः ४७॥ जाली - जाली । आव० ४२१ | जालो- जाल:- विच्छत्तिच्छिद्रोपेतगृहावयवविशेषः । औप०६५। [Type text] जावं- यावत्-अवधिवाचकः । जम्बू० ३८९। जावंतिया - यावन्तो भिक्षाचरा आगमिष्यन्ति तावतां दातव्य इति अभिप्रायेण यस्यां दीयते सा यावन्तिका । बृह० १४० अ । यावद्भिक्षुकाणां दानाय संखडी । बृह० १४० अ जावंते यावान्-भगवत्याः प्रथमशतके षष्ठ उद्देशः । भग० ६। जाव यावत् ऐदम्पर्यार्थः भग. २४९। यावत्-सम्पूर्णः । जम्बू. २४३ यावच्छब्दो न संग्राहकः किन्त्ववधिमात्रसूचकः। जम्बू० ३३८। यावच्छब्दो न गर्भगतसंग्रहसूचकः संग्राहापदाभावात्, किन्तु सजातीयभवनपतिसूचकः। जम्बू. १६१। जावई कन्दविशेषः । उत्त० ६९९ । जावऊसासो यावदुच्छ्वास यावदायुः आव• ८४३ जाव- यापयति वादिनः कालयापनां करोति । स्था० २६१ | [185] C "आगम- सागर-कोषः " [२] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) जानाति छाद्मस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञापकः । सम० ४ जावग- यापकः- विकल्पभेदः । दशवै० ५७ | जावज्जीवाए- यावज्जीव- आप्राणोपरमादित्यर्थः । दशवै० १४३ | जावणिज्जा यापनीया यथाशक्तियुक्ता आक० ५४७ आगम-सागर- कोषः ( भाग : - २ ) जावताव- यावद्वयम् । भग० ४६८। जावति - वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | जावतियं - आचडाला। निशी० २३० आ । जावसिआ - यावसिका-घासवाहिकाः । ओघ० ९७ | जावसिया- यवसः तत्प्रायोग्यमुद्गमाषादिरूप आहारस्तेन तद्वहनेन चरन्तीति यावसिकाः । बृह० २४७ आ जवस वहति जे ते जावसिया निशी. २०० आ जाविंत यापयन्। आव० ५३८८ जासुमणकुसुमे जपाकुसुमम् । प्रज्ञा० ३६१। जासुमणा जासुमणा नाम वृक्षः। भग० ६५६ | जासुमि (म) णा जपा वनस्पति विशेषस्तस्याः सुमनसः पुष्पाणि। अन्त० ९। जासुवण वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२१ जाहओ जाहकः तिर्यग्विशेषः । आव० १०३ | जाहग-जाहकः । व्यव० ३९३ | अ | जाहकाः कण्टकावृतशरीराः । प्रश्न न जाहाडिता - सगर्भाजाता। बृह० २५७ अ जाहिति- भविष्यति । आव० ४२२ । जाहो - भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः । जीवा- ४०| जिंघणा- जिघ्रणम् ओघ० १३८१ जिअ - जिता-परिचिता । दशकै० २३५| जिअनिद्द जिता निद्रा-आलस्य येन तत् जितनिद्र त्यक्ता-लस्यम्। जम्बू० २३७ जिअसत्तु - जितशत्रु :- अजितपिता आक० १६१। काकन्दी नगर्यधिपतिः । अनुत्तरा जिइंदिए- जितेन्द्रियः संयमी । भग० १२२ जिच्चं जीयते-हार्यते अतिरौद्रैरिन्द्रियादिभिः आत्मा तदिति ज्ञेयम् जीयेत्-हार्येत। जीयते-हार्यते । उत्त० २८२ जिच्चमाणो जीयमानो हार्यमाणः । उत्त० २८स जिच्चा- जित्वा पुनः पुनरभ्यासेन परिचितान् कृत्वा । उत्त० ८१| जिज्जूहइ - निष्काश्यते । बृह० ४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] जिज्झगारा- तुन्नाकविशेषः, शिल्पार्यभेदः । प्रज्ञा० ५६ । जिद्वयं ज्येष्ठकं अतिशयप्रशस्यमतिवृद्धं वा उत्त ४९० | जिट्ठा ज्येष्ठा सुदर्शना, अनवद्याङ्गी निशी ४६ अ जिट्ठामूले ज्येष्ठामूलः ज्येष्ठः । उत्त० ५३७ । जिणंतस्स - जयतः - अभिभवतः । दशवै० १६०| जिणंदासे- जिनदास:- विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे पञ्चममध्ययनम्। विपा० ८९ जिण- जिनः रागादिजेता | भग० ६७ | जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः । रागादिजयः । भग० ९॥ रागादीनां जेता, यद्वा मनः पर्यवज्ञानी जम्बू० १३६ | जिनः तीर्थङ्करः आव० ६६२॥ हिताप्त्यनिवर्त्तकयोगसिद्धो गणधारी । जीवा० ३ | हिताप्त्य निवर्त्तकयोगः, हितप्रवृत्त. गोत्र विशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखादिको वा । गोत्र विशुद्धो- पायाभुमुखहितप्रवृत्तादिभेदः । जीवा० ४ जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरुपानरातीनिति जिनः । सम• ४ सयोगी केवली स्था० २०२१ विशिष्ट श्रुतधरः, श्रुतजिनः अवधिजिन, मनः पर्यायज्ञानजिनः, छद्मस्थवीतरागश्च आव० ५०१। जिणड़- जयति । आव० ५०११ जिणकप्पद्विति- जिना:- गच्छनिर्गतसाधुविशेषास्तेषां कल्प- स्थितिः जिनकल्पस्थितिः । स्था० १६९, ३७४१ जिणकप्पिय - जिनकल्पिकः । आव० ३२३| जिणकप्पिया- कल्पिकविशेषः । निशी० ३३८ आ । जिणति - जयति । आव० ३४२| जिणदत्त - जिनदत्तः चम्पायां सुश्रावकः दशकै ४७ लोभो-दाहरणे पाटलीपुत्रे श्रावकः। आव. ३९७ परलोकनमस्कारफलविषये मथुरायां श्रावकः । आव० ४५४| इहलोके कायोत्सर्गफलमितिदृष्टान्ते श्रेष्ठी सुभद्रापिता आव० ७९९ | चम्पायां सार्थवाहः । ज्ञाता २००१ जिणदत्तपुत्त- जम्पायां सार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता० ९१। जिणदासो- जिनदासः मनोगुप्तिदृष्टान्ते श्रेष्ठीसुतः श्रावकः। आव० ५७८| महेश्र्वरविशेषः । आव० ३९६ । मथुरायां श्राद्धविशेषः आव-१९७३ परलोकफलविषये कुलपुत्रमित्रम् आ० ८६३| रायपुरे श्रावकविशेषः । [186] "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] महाचन्द्राभिधकुमारस्य सुतः। विपा. ९५ पञ्चधनुःशतानि जघन्यतः सप्तहस्ताः। जीवा. २२८। जिणदेवो- जिनदेवः-भावप्रणिधिविषये भृगकच्छे जिण्णकवो-जीर्णकपः। आव० १५२॥ आचार्यः। आव०७१ जिण्णुज्जाणे-जीर्णोद्यानम्। ज्ञाता० ७८। आत्मदोषोपहारविषयेऽहमित्रवेष्ठित्रः। आव०७१४१ जितं- परावर्तनं कर्व्वतः परेण वा क्वचित् पृष्टस्य मूलगुणप्रत्याख्याने कोटीवर्षे श्रावकः। आव०७१५१ यच्छीघ्रमा-गच्छति तज्जितम्। अनुयो० १५ सङ्गपरिहरणविषये चम्पायां सार्थवाहः श्रावकः। जितशत्रुः- छत्रानगर्यां नृपः। आव० १७७। मिथिलानगर्या आव०७२३ राजा। सूर्य २ सहसम्मत्यादिदृष्टान्ते वसन्तपुरे राजा। जिणधम्म-कांचनपुरश्रेष्ठी यत्पृष्ठि स्थालीदग्धा आचा. २११ विमासपर्यायः। मरण| जितसत्तू-जितशत्रुः-पञ्चालजनपदे राजा जिणपडिमा-जिनप्रतिमा। जीवा. २२८। काम्पिल्यनगर-नायक इति। स्था० ४०१। जितशत्रु:जिणपसत्थं-जिनप्रशस्तं-जिनप्रशासितम्। प्रश्न. १४७ भद्दिलपुराधिपतिः। अन्त०४१ बृह. २३१ अ। जितशत्रु:जिणपालिए-चंपायां माकन्दीभद्रायाः पुत्र। ज्ञाता० १५६। कौशाम्बीनपतिः। उत्त. २८७| चम्पायां नरपतिः। जिणमय-जिनाः-तीर्थकरास्तेषां आगमरूप प्रवचनम्। ज्ञाता० १७३। आव० ५८८ आगमः। दश. २५५५ जितारो- आनन्दपुरनगरे राजा। बृह० १०७ आ। जिणरक्खिरा-चंपायां माकन्दीभद्रायाः पुत्रः। ज्ञाता० जितारीराया-आनंदपुरे राया। निशी० ४२ अ। १५६| जिनकल्पिकः-साधुभेदविशेषः। भग०४| जिणलिंग-अचेलकत्वम्। बृह. ५५ आ। जिनकल्पिकादिसमाचारः- कल्पः। भग०६१। जिणवयणं-जिनवचनं जिनदत्तः-आधासम्भवदृष्टान्ते सङ्लग्रामे श्रावकः। वाच्यवाचकयोरभेदोपचाराज्जिनवच पिण्ड०६३ नाभिहितमनुष्ठानम्। उत्त०७०८ जिनदासः-आच्छेदयदवारविवरणे वसन्तपुरे श्रावकः। जिणवयणबाहिरो-जिनवचनबाह्यः पिण्ड० ११११ यथावस्थितागमपरिज्ञा-नरहितः। आव. ५३३| जिनप्रभसूरिः-आचार्यविशेषः। जम्बू० ५४३। जिणसकहा- जिनसकथा-जिनसक्थीनि। जम्बू. ५३३। जिनमतिः-आधोसम्भवदृष्टान्ते सङ्लग्रामे जिणसकहाओ-जिनसक्थीनि-जिनास्थिनि। भग० ५०५ | जिनदत्तभार्या। पिण्ड० ६३। जिनसक्थीनि-तीर्थकराणां मनजलोकनिर्वतानां जिनमुद्राः- मुद्राभेदः। भग. १७४१ सक्थीनि अस्थीनि। सम०६४। जिनाः- जिनकल्पिकादयः। ओघ. १६७। जिणसासण-जिनशासनं-जिनागमम्। उत्त०८८ जिन- | गच्छनिर्गतसाधु-विशेषाः। स्था० १६९। शासनं। क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनम्। दशवै. | जिनेश्वरः-अभयदेवसूरीणां गुरुः। औप. ११९। ज्ञाता० २३ २१४१ जिणा-रागदवेषमोहान् जयन्तीति जिनाः-सर्वज्ञाः। स्था० | जिब्भाडं-अतीवगिद्धो। निशी. १३५आ। १७४। ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनाः। बृह. २२९ | जिभिंदिए-जिह्वेन्द्रियम्। प्रज्ञा० २९३। आ। जिनकल्पिकाः। ओघ० २०८ गच्छनिर्गताः साधु- | जिभिआ-जिविका, प्रणाला। जम्बू० २९१। विशेषाः। बृह० २५१ ।। जिमिंत-जिमत्। आव० ३५३। जिणित्ता-जित्वा। उत्त० ३१३। जिम्मइ-जिम्यते। आव० १५० जिणियव्वं-जेतव्ययम्। आव० ३४२। जिम्ह-माया। व्यव० २४६ आ। जिणियाइओ-जितवान्। आव० ५०२। जिम्ह-लज्जनीयं। निशी. २९६ अ। बह ७३ आ। जिणुस्सेहो-जिनोत्सेधः-जिनानां उत्कर्षतः परवञ्चनाभिप्रायेण। भग० ५७३ जिमः। स्था०२७०। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [187] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जैम्हम्। सम०७१। १२४। आम्लकल्पायां नरपतिः। ज्ञाता० २४८१ जिम्हजढ-मायारहितः। व्यव० २४६ आ। जिया-जिता-अभ्यस्ता उचिता वा अनुष्ठीयमाना। आव. जियंतए-हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३| ५९४१ जिय-जीतव्यवहारः। उत्त०६४। जियारी-सम्भवजिनपिता। सम० १५०| जितारिःजियकप्प-जीतकल्पः-जिनप्रतिबोधनलक्षणः सम्भव-पिता। आव. १६१ आचरितकल्पः स्था०४६३| निशी० १०२ अ। जिवसंथव-जिनसंस्तवः 'लोगस्सज्जोअगरे' जियपडिमा-जीवप्रतिमा। आव०६६८५ इत्यादिरूपः। दशवै. १८० जियसत्तु-द्वितीयतीर्थङ्करस्य पितृनाम। सम० १५०| जितशत्रुः-राजा। आव० ३७२ मिथिलायां नृपतिः। जम्बू. | जीअं-जीतं-कल्पः, आचारः। जम्बू० १५९। कल्पः। जम्बू० ९। शिक्षायोगदृष्टान्ते प्रत्यन्तनगराधिपतिः। २५२ आव०६७८। इहलोके कायोत्सर्गफलमितिदृष्टान्ते | जीअलोग-जीवलोकं-वर्तमानभवादन्यं भवं वसन्तपुरेऽधिपतिः। आव० ७९९। क्षितप्रतिष्ठितनगरस्य | पृथिवीकायिका-दिक, अपमृत्युं प्राप्नुतेत्यर्थः। जम्बू राजा। पिण्ड. ३०| जितशत्रुर्नाम नरपतिः। व्यव. १८८ २४६। आ। श्रावस्त्यां नगर्यां राजा। राज० ११६) जीए- प्रभूतानेकगीतार्थकृता मर्यादा तत्प्रतिपादको वाणिजग्रामनगरे राजा। उपा० १। खितिपतिहिनयरे । ग्रन्थोऽ-प्युचारात् जीतम्। व्यव० ५। जीतःराया। निशी०६८आ। निशी० ३५९ आ। सावत्थिनयरे व्यवहारः। व्यव० ३६३। राया। बृह. १५२आ। वणवासीनगरीए राया। बृह. ११३ जीतं- स्थितिः कल्पो मर्यादा (सूत्र) व्यवस्था च। नन्दी. आ। जितशत्रुः चम्पा-नगर्यामधिपतिः। उत्त०९२ ४९। भग० ३८४। द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवानुवृत्त्या ज्ञाता०१९३। अचलपुरे नृपतिः। उत्त० १००। संहनन-धृत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं यो श्रावस्तिनगर्यां राजा। उत्त० ११४। मथुरायां नृपतिः। वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः आव० ३९८। उत्त० १२०| उत्त० १४८। उज्जयिन्यां प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरनृपतिः। उत्त.१९२, २१३। सर्वतोभद्रनगरा-धिपतिः। न्यैश्चानुवर्तितस्तज्जीतमिति। स्था० ३१८१ विपा०६८ नृपतिः। विपा० ९५ वसन्तरे नृपतिः। | जीभुमणा- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ आव० ३७२, ३७८, ३९३। ओघ० १५८१ जितशत्रु:- जीमूत-जीमूतः-बलाहकः। जीवा. १८९। स्था० २७० लोहार्गलराजधान्या राजा। आव० २१०| तुरु-मिणीनगर्यां | जीमूतः-प्रावृटप्रारम्भसमयभावीजलभृतः, बलाहकः। राजा। आव० ३६९। मृगकोष्ठकनगरे राजा। आव० ३९११ प्रज्ञा० ३६० पाटलीपुत्रे राजा। आव० ३९७। स्पर्शेन्द्रि-यदृष्टान्ते जीयंति-जीयन्ते-हार्यन्ते। उत्त० २७८५ वसन्तपुरे राजा। आव० ४०२। शिल्पसिद्धदृष्टान्ते जीय-जीतं-दुष्टनिग्रहविषयमाचरितम्। प्रश्न. ५८ पाटलिपुत्रे राजा। आव० ४०९। परलोके जीत-जीवितं, अवश्यं, अव्यवच्छित्तिनयाभिप्रायतः नमस्कारफलविषये वसन्तपरनगरे राजा। आव०४५३। सूत्रमेव वा। आव०६८1 जीवः-जीवितं, जीतं-कल्पतः। योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते क्षितिप्रतिष्ठित-नगरे राजा। प्रश्न. १३ आव०६७०| तितिक्षोदाहरणे मथरायामधिपतिः। आव. जयदंडो-जीतदण्डः-रूढदण्डः, जीवदण्डो वा-जीवित७०२। आत्मसंयमविराधना-ष्टान्ते क्षितिप्रतिष्ठित- निग्रहलक्षणः। प्रश्न० ५८१ नगरेऽधिपतिः। आव०७३२ राजाभियोगविषये जीया-जीवा-प्रत्यञ्चा। ज्ञाता० २२२। हस्तिनाग-पुरनृपतिः। आव० ८११। गुणोदाहरणे जीरंतो-जीर्यन्। आव. ५६९। पाटलिपुत्रे राजा। आव० ८१९। द्रव्यातकोदा-हरणे जीरकं-रसविशेषः। सूर्य.२९३। हरितकविशेषः। २९३। राजगृहे राजा। आचा० ७५। पाञ्चालाधिपती। ज्ञाता० । जीरु- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [188] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जीर्णः- हानिगतदेहः। भग० ७०५। जीवजीवक-जीवजीवकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न० ८५ जीर्णकर्पटः-कुचेलः। औप०७४। जीवणं-जीवन-तथैवाजन्मापि प्रवृत्तिः। प्रश्न. १०६। जीवंजीवा-चर्मपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। जीवदय-जीवनं जीवो जीवजीवेण-जीवजीवेन-जीवबलेन गच्छति न शरीरबले- भावप्राणधारणममरणधर्मत्वमित्यर्थस्तं दयत इति नेत्यर्थः। भग० २१६। ज्ञाता०७६। जीववीर्येण न तु जीवदयो, जीवेष वा दयः यस्य स जीवदयः। सम०४| शरीर-वीर्येणेत्यर्थः। अनुत्त०७ जीवदिहिया-अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतः या सा जीवंजीवेन-जीवबलेन न शरीरबलेनेत्यर्थः। अन्त० २७।। जीवदृष्टिका। स्था० ४२ जीवंजीवी-चर्मपक्षिविशेषः। जीवा० ४११ | जीवनं- स्थितिः-आयः कर्मानभतिरिति। प्रज्ञा. १६९। जीवंतिया- अजीविष्यत्। आव० ३६८१ जीवनिव्वत्ती-निर्वतनं जीव-आय:प्राणादिमान्। अन्यो० २४२। जीवितवान् निर्वत्तिनिष्पत्तिर्जीवस्यैकेन्द्रियादि तया निर्वत्तिः जीवति जीविष्यति चेति जीवः-प्राण-धारणधर्मा आत्मा। जीवनिर्वृत्तिः। भग० ७७२ स्था. १९। जीवसामान्यम्। जीवनिति प्राणान् जीवनेसत्थिया- राजादिसमादेशाद्यद्दकस्य धारयनित्यर्थः। जीवनपर्यायविशिष्टः। जीवा. १४० यन्त्रादिभिर्नि-सर्जनं सा जीवनैसृष्टिकी। स्था० ४३। प्राणो भूतः सत्त्वो विज्ञो वेदयिता। भग०१९२१ जीवपएसा-जीवः प्रदेशा एव येषां ते जीवप्रदेशाः। स्था. जीवाप्रत्यञ्चा। जम्बू. २०१। प्राणधारणम्। स्था० ११९। ४१० जीवः-प्रदेश एवैको येषां मतेन ते जीवप्रदेशाः। जीतम्। व्यव० ३६३आ। जीवः। भग. २२९। औप० १०६ ज्ञानाद्युपयोगः। भग० ३२५। जीवाः जीवपतेसिता-जीवः प्रदेश एव येषां ते जीवप्रदेशास्त एव गर्भव्युत्क्रान्तिकसम्मूर्छनजौपपातिक-पंचेन्द्रियाः। जीवप्रादेशिकाः, अथवा जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगतो आचा०७१। विद्यते येषां ते, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणः। स्था० ४१०। जीवअजीवमीसग-जीवाजीवमिश्रा-सत्यामृषाभाषाभेदः। | जीवपरिणामे-जीवस्य-परिणामो जीवपरिणामः। प्रज्ञा. दशवै० २०९ ૨૮૪) जीवअपच्चक्खाणकिरिया-जीवविषये जीवपाउसिया-जीवे प्रवेषाज्जीवप्रादवेषिकी। स्था०४१। प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिापारः सा जीवपाओगिअं-जीवप्रायोगिकं जीवप्रयोगेन निर्वृत्तं जीवाप्रत्याख्यानक्रिया। स्था०४१। प्रायोगि-कप्रथमभेदः। आव०४५७ जीवआरंभिया– यज्जीवानारभमाणस्य-उपमृग्दतः जीवपाओसिया-जीवस्य-आत्मपरतद्भयरूपस्योपरि कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिकी। स्था० ४१। प्रवेषाद्या क्रिया प्रवेषकरणमेव वा जीवप्रवेषिका। जीवइ- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ भग०१८२ जीवकप्पो-बहुशोऽनेकवारं प्रवृत्तः महाजनेन जीवपारिग्गहिया-जीवान् परिगृह्णाति जीवपारिग्रहिकी, वानुवर्तित एष पञ्चमको जीतकल्पः। व्यव० ४४१ । । पारि-ग्रहिकी क्रियायाः प्रथमो भेदः। आव० ६१२। जीवकिरिया-जीवस्य क्रिया-व्यापारो जीवक्रिया। स्था० | जीवफुडा-जीवेनस्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि। ४०१ स्था० २५० जीवगाहो-जीवग्राहम्। उत्त. ५११ जीवभावं-जीवभावः-जीवत्वं, चैतन्यम्। भग० १४९। जीवग्गाहो गिण्हंति-जीवतीति जीवस्तं जीवन्तं जीवमीसए-जीवविषयं मिश्रं सत्यासत्यं जीवमिश्रम्। गृहनान्ति। ज्ञाता०८७ स्था०४९० जीवघणो-जीवघनः-निचितीभतजीवप्रदेशरूपः। प्रज्ञा० जीवमीसग-जीवमिश्रा सत्यामृषाभाषाभेदः। दशवै० २०९। ६१० जीवमीस्सिया-प्रभूतानां जीवतां स्तोकानां च मतानां जीवजढं-आहाकम्म। बृह. १०६अ। शङ्ख-शङ्खनकादीनामेकत्र राशौ दृष्टे यदा कश्चिदेवं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [189] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text]] ४३ वदति अहो ! महान् जीवराशिरयमिति तदा सा जीविऊसविए-जीवितमुत्सूते-प्रसूति इति जीवितोत्सवः जीवमिश्रिता। प्रज्ञा०२५६) स एव जीवितोत्सविकः। जीवितविषये वा उत्सवो-महः जीवलोग-जीवलोक-ब्रह्माण्डम्। जम्बू. २०६। जीवलोकः | स इव यः स जीवितोत्सविकः। भग०४६८५ -जीवाधार:-क्षेत्रम्। प्रश्न. ११५ जीविए-असमयजीवितः। उत्त. २९६। आचा० १०७, जीवविप्पजढं-आत्मना विप्रमुक्तम्। ज्ञाता०८५, १९८१ १२३। यद्यस्य स्वकार्यं साधनं प्रति समर्थं रूपं तत्तस्य जीववेयारणिया-जीवं विदारयति-स्फोटयतीति, अथवा । जीवितमिति रूढम्। उत्त. २२९। जीवं पुरुषं वितारयति-प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः। स्था० | जीवियंतकरणो-जीवितान्तकरणः प्राणवधस्य दवाविंशतितमः पर्यायः। प्रश्न.६। जीवसामंतोवणिवाइया-जीवसामन्तोपनिपातिकी- जीविय-असंयमाख्यः। आचा. २५१। जीवितम्-कर्मणो समन्ताद-नपततीति सामन्तोपनिपातिकीक्रिया, तस्याः | दीर्घा स्थितिः। भग. २८९। जीविकायै। उत्त०४७८ प्रथमो भेदः। आव०६१३ जीवियकारणं-जीवितकारणं-असंयमजीवितहेतः। जीवसाहत्थिया- यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं दशवै.९६। मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी। स्था०४२ जीवियकिच्छ-कृच्छजीविता। बृह. २४२ अ। जीवा-जीविता इत्यर्थः। व्यव० १६२ । प्राणधारणम्। जीवियरसहे-साधारण बादर वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० उपा०४। जीवाः-जीवन्ति जीविष्यन्ति जीवितवन्त ३४१ इति। अनुयो०७४। पञ्चेन्द्रियाः। ज्ञाता०६१। प्रज्ञा. जीवियववरोवणं-जीवितव्यपरोपणम। ओघ. १५६। १०७ स्था० १३६। जम्बू. ५३९। जीवन्ति जीविष्यन्ति जीविया-जीवस्य-देहस्य सम्बन्धी अधिष्ठातृत्वादात्मा अजीविरिति जीवाः-नारकतिर्यग्नरामरा जीवात्मा पुरुषः, जीवात्मा तु सर्वभेदानुगामि जीवद्रव्यं, लक्षणाश्चतुर्गतिकाः। आचा०१७९। प्रत्यञ्चा जीवस्यैव स्वरूपम्। भग०७२४१ दवरिकेत्यर्थः। सूर्य. २१, २३३। उत्त० ३११। जीवाऋज्वी जीवियाइओ-जीवितवान्। बृह. २८ अ। सर्वान्तिमप्रदेशपङ्क्तिः । जम्बू०६८ जीवियारिहं-आजन्मनिर्वाहयोग्यम्। ज्ञाता०२४। जीवाओ- जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य वर्षाणां जीवियासंसप्पओगे-जीवितं-प्राणधारणं वर्षधाराणां ऋज्वीसीमा जीवोच्यते। सम०४३। तत्राभिलाषप्रयोगः-यदि बहकालं जीवेयमिति जीवाजीवमिस्सिया-मृतजीवतिजीवराशौ एतावन्तोऽत्र जीविताशंसाप्रयोगः। आव०८३९। जीवन्त एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो | जीव-जीवेत-अविकृत आस्ते। सत्र. २७८1 जीविते। स्था० विसंवादे जीवाजी-वमिश्रिता। प्रज्ञा० २५६। ५२०१ जीवाजीवमीसए-जीवाजीवविषयं मिश्रकं जीवेजीव-जीवेजीवे-इह एकेन जीव शब्देन जीव एव जीवाजीवमिश्रकम्। स्था० ४९० गृह्यते द्वितीयेन च चैतन्यम्। भग. २८५ जीवाजीवविभत्ति-जीवाजीवविभक्तिः-उत्तराध्ययनेष जीवो-जीवनं जीवः-भावप्राणधारणं, षट्त्रिं-शत्तममध्ययनम्। उत्त०९। अमरणधर्मत्वमित्यर्थः। औप० १५१ जीवाजीवविभत्ती-उत्तराध्ययनेषु षट् जीहा-जिह्वा-रसना। जीवा० २७३। त्रिंशत्तममध्ययनम्। सम०६४। जंगमच्छा-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा० ४४। जीवानां-संयमजीवितेन जीवतां जिजीविषणां च। आचा• | जंगिओ-जात्यङ्गहीनः। स्था० १६५ २५६। जुगियंग-जुगिताडं-कत्तितहस्तपादाद्यवयवः। पिण्ड. जीवाभिगमे-जीवानां ज्ञेयानां अवध्यादिनैवाभिगमो १३१| व्यङ्गितः। स्था० ३४२। जीवा-भिगमः। स्था० १३३ जंजक-तृणविशेषः। जीवा. २६। जीविआरिहं-जीविताह-आजीविकायोग्यम्। जम्बू. १८८1 | जुजणाकरणं-योजनाकरणं मनःप्रभृतीनां व्यापारकृतिः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [190] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] आव०४६६। (। शोचो।)दाहरणे वासुदेवः। आव० ७०६। झुंजुति- युञ्जति-परिसमापयन्ति। सूर्य. १७२। जुगमच्छो- युगमत्स्यः , मत्स्यविशेषः। जीवा. ३६] झुंजुकं-तृणविशेषः। उत्त० ६९२ जुगमाया- युगमात्रा दृष्टिः। भग० ७५४] जुजे- युज्यात्-सङ्घट्टयेत्। उत्त०५४ जुगयं-पृथक्। दशवै.४७ जुअणद्धे-युगनद्धः-युगमिव नद्धो-योगः, यथा युगं वृषभ- जुगलं-युगलं-द्वन्द्व म्। जीवा० १९९। स्कन्धयोरारोपितं वर्तते तदवत् योगोऽपि यः प्रतिभाति सजातीयविजातीययो-लतयोवन्द्वम्। जीवा० १८२। स युगनद्ध इत्युच्यते। सूर्य० २३३। जुगलजीहो-युग्मजिह्वःजुअल-युगलं-सजातीयविजातिययोर्लतयोवन्द्वम्। आत्मोत्कर्षपराभिभवजिह्वाद्वययुक्तः। आव० ५६६) जम्बू० २५ जुगवं-युगं-कालविशेषः तत्प्रशस्तमस्यास्तीति युगवान्। जुआणा- जुवाणा। निशी० २५८ अ। उपा० ४६। युगं-सुषमादुष्षमादिकालः स स्वेन रूपेण जुइ- युतिः, मेलः। जम्बू. १९२१ यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान्। राज० २२। युगं जुई-युक्तिः इष्ट परिवारादियोगः। उपा० २६। शरीरगता सुषम-दुष्षमादिकालः सोऽदुष्टो निरूपद्रवो आभरणगता च। जीवा० २१७ युतिः-इष्टार्थसंयोगः। विशिष्टबलहेतुर्यस्या-स्त्यसौ युगवान्। अनुयो० १७५१ भग० १३२ शरीराभरणाश्रिता। सूर्य २५८१ जुगसंवच्छरे-पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं तदेकभुदेशभूतो विवक्षितार्थयोगः। औप० ५०| शरीराभरणविषया। सूर्य वक्ष्यमा-णलक्षणश्चन्द्रादियुगसंवत्सरः। स्था० ३४४॥ २८६। प्रज्ञा० ६००। युतिः-आन्तरं तेजः। ज्ञाता० १४० युगं-पञ्चवर्षा-त्मकं तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः। जुइए- आभरणादिसम्बन्धिन्या युक्त्या वा उचितेषु सूर्य. १५३ वस्तुघटना लक्षणया। विपा. ८६। युतिः-शरीरगता | जगसन्निभ-युगसन्निभः-वत्ततया आयततया च आभरणगता च। जम्बू०६२। दतिः-दीप्तिः यूपतुल्यः । जीवा० २७१। शरीराभरणादिसम्पत् तस्याः-युतिर्वा जुगाति- युगानि-पञ्चसंवत्सराणि। स्था०८६) इष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा तस्याः। जम्बू. २०२। जुगुछितो-कोलिगजातिभेदो। निशी० ४३ आ। जुउ-पृथक् । निशी० २४३ अ। जुगुप्सना-परिस्थापना। उत्त० ४७८। जुए- युगं-पञ्चसंवत्सरमानम्। भग० २११। जुगुप्समानः- निन्दन्परिहरन्। आचा० ११४१ जुगंतरं- यूपप्रमाणभूभागः युगान्तरं। प्रश्न० ११० | जुगुप्से- निन्दामि। आव० ४५६। जुगं- बदिल्लाणखंधे आरोविज्जति। निशी० ११७ आ। | जुगुप्सितानि- चर्मकारकुलादीनि। आचा० ३२७। युगं-यूपः। भग० १४०। प्रश्न० ८१विपा० ३७। सुषमदु- | जुगेइ- षण्णवतिरङ्गुलानि युगम्। जम्बू. ९४१ ष्षमादिकालः। जीवा० १२१। य्गम्। आव० ३४५। चन्द्रा- | जुग्ग- युग्यं-गोल्लविषयप्रसिद्धं द्विहस्तप्रमाणं दिसंवत्सरपञ्चात्मकम्। सूर्य ९१। युगः-कालः। व्यव० वेदिकोपशोभितं जम्पानम्। औप.४ जीवा. १८९। २५६ आ। शरीरम्। दशवै ७४| चतुर्हस्तम्। अनुयो. गोल्लविषयप्रसिद्धं दविहस्तप्रमाणं १५४। पञ्चसंवत्सरिकम्। जम्बू० ९१, ४९५/ चतुरस्रवेदिकोपशोभितं जम्पानम्। जीवा० २८१। अन्यो। पञ्चसंवत्स-रम्। जीवा० ३४४। सम. ९८। भग० ८८८1 १५१। पुरुषोत्क्षिप्तमाकाशयानम्। सूत्र०३३०| वाहनं, यूपः। स्था० ४५० युगानि पञ्चवर्षमानानि गोल्लदेशप्रसिद्धजम्पानविशेषः। प्रश्न. ९१। वाहनमात्रं, कालविशेषाः। लोक प्रसिद्धानि वा कृतयुगादीनि। गोल्लकदेशप्रसिद्धो वा जम्पानविशेषः। प्रश्न. १५२१ पट्टपद्धतिपुरुषाः। जम्बू० १५५ वाहनं-गोल्लदेशप्रसिद्धं वा जम्पानम्। भग० ५४७ प्रश्न जुगप्पहाण- युगप्रधानः। आव० ३०२। निशी० ३४०। १६१| योग्यं-सर्वोपाधिशुद्धम्। अनुरूपम्। आव० ४७० जुगबाहु-सुविधिनाथस्य पूर्वभवनाम। सम० १५१। समनु-रूपम्। आव० ५२४। यग्यं-गोल्लविषय प्रसिद्ध जुगबाहू-युगबाहः-महाविदेहे तीर्थकरः। विपा० ९४। सत्यो | जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितम्। भग० १८७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [191] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] गन्त्रिकादि। आचा० ६०| युग्यं पुरुषोत्क्षिप्तमाकाशयानं नीतिदक्षत्वव्यवसायशरीरारोग्यरूपम्। उत्त. १४३। जम्पानमित्यर्थः। जम्बू० १२३॥ युग्यानि जुद्ध- युद्धं-बाहुयुद्धादिकं लावकादीनां वा तत्। आव० १२९। गोल्लविषयप्रसिद्धानि दविहस्त-प्रमाणानि अड्डयपच्छडियादिकरणेहिं जुद्धं । निशी० ७१ अ। युद्धं चतुरस्रवेदिकायुतानि जम्पानानि। जम्बू. ३० कुर्कुटानामिव। जम्बू० १३९। युद्धं-आयुधयुद्धम्। ज्ञाता० जुग्गछिड्डं-युगछिद्रम्। आव० ३४५ २२० जुग्गायरिय-युग्यस्य चर्या वहनं गमनमित्यर्थः। जुद्धणिजुद्धं- पव्वं जुद्धेण द्धि पच्छा संधी युग्याचार्यः। स्था० २४०। विक्खोहिज्जति जत्थ तं जुद्धणिजुद्धं। निशी० ७१ अ। जुज्जसि- युज्यसे-अर्हसि। ज्ञाता० १६७) जुद्धसज्जा- युद्धसज्जाः युद्धप्रागुणाः। ज्ञाता० ५९। जुण्णंतेपुरं-ण्हसिय जोव्वणाओ अपरिभज्जमाणीओ | जुद्धातिजुद्धं- युद्धातियुद्धं-खड्गादिप्रक्षेपपूर्वकं महायुद्धं यत्र अञ्छति एयं जुण्णतेपुरं। निशी० २७१ आ। प्रतिद्वन्द्विहतानां पुरुषाणां पातः स्यात्। जम्बू. १३९। जुण्णकुमारी- शरीरजरणाद् वृद्धा सैव जुद्धिक्कओ- युद्धीयः। आव० ७१९।। जीर्णत्वापरिणत्वाभ्यां जीर्णकुमारी। ज्ञाता० २५०। जुन्नइत्तो-जीर्णवान्। आव० ४१८। जुण्णथेरी-जीर्णस्थविरा। आव० ३४२॥ जुन्ना-जीर्णा इव जीर्णाः। ज्ञाता०१७२ जूर्णानि जुण्णा-जीर्णा-चिरकालप्रव्रजिता। व्यव. २४८। जूर्णाः- पुराणानि। ओघ० १३८१ जीर्णाः। ओघ०७१। स्थविरा। बृह. २५४ आ। जीर्णा- जुम्मपएसिए- समसङ्ख्यप्रदेशनिष्पन्नम्। भग० ८६१। शरीरजरणादवृद्धेत्यर्थः। ज्ञाता० २५० जुम्मपएसे- समसङ्ख्यप्रदेशः। भग० ८६०| जुण्णो-जीर्णः। आव० १०१। जुम्मा-सज्ञाशब्दत्वाद्राशिविशेषाः। भग० ८७३। गणितजुत्त-धर्माविरुद्धम्। निशी० ३२७ अ। युक्तम्। भग० । परिभाषया समो-राशियुग्मम्। भग०७४४। ३२२। ओघ० १४१। परस्परसम्बन्धः । भग० १९४। थोवं।। | जुम्मो-युग्मः-समः। सूर्य. १५६| निशी० २२० । युक्तः-युक्त्युपपन्नः। सूत्र०७) जयंतकरभूमी-इह युगानि-कालमानविशेषास्तानि च देशकालोपपन्नः। सूर्य. २९४। सेवकगणोपेततयोचितः। क्रम-वर्तीनि तत्साधादये क्रमवर्तिनो परस्परं बद्धो न बृहदन्तरालः। जीवा. २६० ज्ञाता०१८५ | गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः जुत्तगती-मिगती न शीघ्रं गच्छतीति। निशी. ३८ अ। | प्रमिताऽन्तकरभूमिः युगान्तकर-भूमिः। ज्ञाता० १५४। जुत्तपालिया- युक्तपालिका-निरन्तरमण्डलीकाः। जुय- यूपः-युगम्। प्रश्न० ८५ भग०१९४। युक्तः-सेवकगुणोपेततयोचिताः, परस्परं | जुयगं-पृथक्। आव० ७९९, ८१३। बद्धा न तु बृहदन्त-राला पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः। जयगो-सन्ध्याप्रभाचन्द्रप्रभयोर्मिश्रत्वमिति भावः। जीवा. २६० स्था० ४७६। जुत्तफुसिएणं-उचितबिन्दुपातेन। सम०६१। जुययं-घरं कथां सा सूर्णत्ति। दशवै० २३॥ जुत्ति- युक्तिः -मीलनम्। जम्बू. १००। जुयलं-युगलं-बालवृद्धरूपम्। बृह० १०० अ। युगलं। आव० जुत्तिलेवो- युक्तिलेपः। बृह० ८२ अ। ३०५ युगल-द्वयम्। ज्ञाता० २२१। जत्तिसेणं- एरवते अष्टमः तीर्थंकरनाम। सम० १५३ | जुवरज्जे-जुवरायाणां णाभिसिंचति ताव तं। निशी. ११ जुत्ती-युक्तिः -मीलनम्। युक्तिसुवर्णम्। दशवै० २६३। जीवा० २६५। योजन-समविषमविभागनीतिर्वा। उत्त. जुवराइ-युवराजः। आव०७०२। ३०| चतुर्थ-वर्गस्य षष्ठमध्ययनम्। निर० ३९। जुवराए-अनभिषिक्तयुवराजपदं राज्यम्। नाभिषिक्तो जुत्तीया- युक्त्या आकाशसंयोगेन। ज्ञाता० २७०/ राजा। बृह० ८२। जुद्धंग- युद्धाङ्गम्। उत्त० १४३॥ जुवराय- युवराजः-राज्यचिन्ताकारी राजप्रतिशरीरम। यानावरणप्रहरणयुद्धकुशलत्व प्रज्ञा० ३२७। उत्थिताशनः। जीवा० २८० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [192] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] जुवराया आस्थानिकामध्यगतः सन् कार्याणि प्रेक्षते चिन्तयति स युवराजः । व्यव० १६९ आ । जुवलं- बालवुड्ढा निशी. १०१ आ । जुवलगं युग्मम् । आव० ४२३३ जुवलय युगलम् । आव० ३४९। युगलतया तत्तरुणां संजातत्वेन युगलितम् । भग. २७ युगलितया स्थितः । औप० ७ जुवाणो- युवा-यौवनस्थः प्राप्तवया एव इत्येवं अतिव्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः । अनुयो० १७७| जुसिए- प्रीते स्था० ३४२ जुसिय- जूषितः क्षपितः । भग. १२७| जुहि युधि। आव० ४०७ जुहिगपुप्फा- पुष्पविशेषः। निशी. १४१ आ जुहिडिलो - युधिष्ठिरः। आक ३६५ जुहिडिल्ल युधिष्ठिरः । ज्ञाता० २०८१ जुहुणामि - जुहोमि- अन्येभ्यो ददामि। स्था० ३८१| जुहोमि आसेवाम्यनुतिष्ठामि। स्था• ३८२| जूइगारो - द्युतकारः । उत्त० २१८ | आगम-सागर- कोषः ( भाग :- २) जूईकरा - द्यूतकराः । प्रश्र्न० ४६ | जूए यूप: द्विपृष्ठवासुदेवनिदानकारणम् आव० १६३ | भग० २७५ | जूतं द्यूतम् । आव० ३४२ जूतिकरो यूतकारः आव० ४२११ जय- यूतम् । आव० ५०२१ द्यूतम् । उत्तः १४७। यूप:यज्ञस्तम्भः। जम्बू० १८३ | यूपः -युगम्। प्रश्र्न० ५६ | जूयए- सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च यद्युगपद् भवतस्तत्। स्था० ४७६ । जयक- पातालकलशविशेषः । स्था० ४८० | जूयखलयाणि यूतखलकानि-यूतस्थण्डिलानि । ज्ञाता०८१| जयगो-यूपकः । जीवा २८३ जूयपसंगी- द्यूतप्रसङ्गी-यूतासक्तः। ज्ञाता० ८१। जूया - पासंतादी। निशी० ७१ अ । त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२१ यूका अष्टलक्षाप्रमाणा। भग० २७डत जूयारो द्यूतकारः आव. ४१७ । जूरणं- वयोहानिरूपम् । सूत्र० ३६८० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] जूरति - जूरयति-गर्हति । सूत्र० ३२५| जूरह - कदर्थयथ । सूत्र० ९७ । जूरावणा शोकातिरेकाच्छरीरजीर्णता प्रापणा। भग १८४ | जूवए- पातालकलशविशेषः । स्था० २२६ । जूवगो-यूपकः सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च येन युगपद्भवतः, अमोघो वा आव० ४३५ संज्झप्पभा चंदप्पभा य जेण जुगवं भवंति तेण जुवगो निशी. ७० । अ। जूवय- जुवयं णाम चौडं, पाणियपरिक्खित्तं निशी. १९ अ शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावद्यैः सन्ध्याछेदा आनीयन्ते ते यूपकाः । भग० १९६३ जूस जूषो मुद्गतन्दुलजीरककटुभाण्डादिरसः स्था० ११८\ प्रश्र्न० १६३। जूषः । औघ ०६७। यूषः मुद्गतण्डुलजीरककडुभाण्डादिरसः । सूर्य० २९३ ॥ जूसणा- जोषणा सेवा तल्लक्षणधर्म इत्यर्थः स्था० १७ जोषणा सेवानालक्षणो यो धर्मः । स्था० २३७ | सेवा | भगο १२७| क्षपणा सेवना । सूत्र. ४२११ जूसिते- जुष्टः सेवितः क्षपितः स्था० २३७॥ जूसिया सेविताः तद्युक्ताः स्था०५७। । जूह- युथः वानरादिसम्बन्धिः । जाता० ३६ | जूहवई- युथपतिः तत्स्वामी ज्ञाता०६७। जूहवतित्तं यूथपतित्वम् । आव० ३४८ ॥ – जूहाहिवती यूथस्य गवां समूहस्याधिपतिः स्वामी यूथा. धिपतिः । उत्त० ३४९। यूथस्य [193] साध्वादिसमूहस्याधिपति आचार्यपदवीं गतः यूथाधिपतिः । उत्त० ३४९ ॥ जूहिआगुम्मा यूथिकागुल्माः। जम्बू. ९८८ जूहिया- गुल्मविशेषः प्रजा० ३२ जे निपातः । प्रश्न. १२४, १२८, १४१ पादपूर्ती आव. ६१७। निपातः सर्वत्र पूरणे। उत्त० ४५७। जे ज्येष्ठ इति प्रथमः सूर्य- ४1 परियायजाइसुण घेत्तव्वो, सुणेत्ताण जो गहणधारणाजुत्तो समत्ते वक्खाणे जो भासती, पडिभणतीत्यर्थः सो जेहो। निशी. ८१ अ जे महाजण जेष्ठार्यसमुदायः । बृह० २३८ आ जेडा षोडशो नक्षत्रः । स्था० ७७॥ ज्येष्ठा-स्वामिदुहित्ता । "आगम- सागर- कोषः " [२] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] आव० २५५, ३१२। शिक्षायोगदृष्टान्ते हैहयकुलसम्भूत- जोइसामयणं-ज्योतिषामयनं-ज्योतिः शास्त्रम। औप. वैशालिकचेटकपञ्चमी पुत्री। आव०६७६। ९३३ जेहानक्खत्ते-ज्येष्ठानक्षत्रम्। सूर्य. १३० जोइसि-ज्योतीषि-विमानानि। देवाः सूर्यादयः। प्रज्ञा. जेवामूल-जेष्ठा मूलं वा नक्षत्रं पौर्णमास्यां यत्र स्यात् स | ७| ज्योतीषि ज्योतिष्का देवास्त एव ज्योतिषिकाः। जेष्ठामूलः जेष्ठ इति। औप० ९५ जेष्ठः। ज्ञाता०६७। जम्बू. १०३ जेहमौली-ज्येष्ठामौली। सूर्य. ११९। जोइसिअ-ज्योतिषिकः-सूर्यः। जम्बू. १०३। जेट्ठोग्गहो-ठवणा। वासावासास् चत्तारि मासा तम्हा । जोइसिआ-ज्योतिष्काः-योतयन्ति-प्रकाशयन्ति उदुब-द्धियाओ वासे उठगहो जेठो भवति। निशी० ३३६ जगदिति ज्योतीषि विमानानि, तेष भवा ज्योतिष्काः। आ। यदिवा दयोतयन्ति-शिरोमकोटोपगहिभिः जेण-यया। उत्त.१३४। प्रभामण्डलकल्पैः सूर्यादिमण्डलैः प्रकाशयन्तीति जेणेव-येनेति यस्मिन्नित्यर्थे। सूर्य.६। ज्योतिषो-देवाः सूर्यादयः। प्रज्ञा०६९। ज्योतिषिका नाम जेमण-जेमनम्। ओघ. १६३। जेमनानि द्रुमगणाः। जम्बू. १०३ वटकपूरणादीनि। उपा०५ जोइसिया-ज्योतिषिकः-द्रमविशेषः। जीवा. २६७। जेमणिगा-भोजनम्। निशी. १०७ अ। जोई-योगः-धर्मशुक्लध्यानलक्षणः स येषां विदयत इति जेमेंतो-जेमन्। आव० ३०३। योगिनः साधवः। आव० ५८२ योगिनःजेया-जितः। आव० १५७ अध्यात्मशास्त्रानु-ष्ठायिनः। औप०९१| जोइ-ज्योतिः-शरावायाधारो ज्वलन्नग्निः। नन्दी०८४१ | जोईरसं-ज्योतीरसं-रत्नविशेषः। जीवा० १८० ज्योतिः-अग्निः । सम० १८ भग० ३१३ दशवै०११७ | जोईसर-योगेश्वरः-युजयन्त इति योगाः-मनोवाक्काय वहिः । भग. ३०७। देवविशेषाणामालयः। आव०१८४।। व्यापारलक्षणास्तैरीश्वरः-प्रधानः। आव० ५८२। जोइक्कं-ज्योतिष्कं-ज्योतिश्चक्रम्। जीवा. १७५ योगीश्वरः-युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति ज्योति-ष्कदेवविमानरूपम्। सूर्य २७४। योगः-धर्मशक्ल-ध्यानलक्षणः स येषां विद्यत इति जोइक्खं-ज्योतिः। आव०६२१। ज्योतिष्कम्। आव. योगिनः-साधवस्तैरीश्वरः। आव० ५८२ योगिस्मर्यः८४५। ज्योतिष्कस्पर्शः। ओघ. २०४। योगिचिन्त्यः योगिध्येयो वा। आव० ५८२। जोइक्खे-दीपः। छाइल्लयं दीवं मुणेज्जाहि। व्यव० जोएइ-(देशी०) निरुपयति। व्यव. २० आ। २५४१ जोएति-पश्यति। निशी. २०५आ। जोइजसा-ज्योतिर्यशा-आर्जवोदाहरणे वत्सपालिका। | जोएमि- गवेषयामि। निशी. १७८ अ। आव० ७०४१ जोएह-पश्यत। आव. ९८१ पश्य। ओघ. १६१ जोइयं- दृष्टम्। आव. ५६१। अवलोकितम्। दशवै. ९९। । | जोक्कारो-जोत्कारः। आव. ९० जोइरसा-ज्योतिरसं नाम रत्नम्। जम्बू. २३। ज्ञाता०३४१ | जोगंधरायणो-योगन्धरायणः, शिक्षायोगदृष्टान्ते जोइस-ज्योतिष-ज्योतिश्चकम्। सम० २११ प्रश्न. ९५० प्रद्योतराज्ञो मन्त्री। आव० ६७४। जीवा० ३७७ नक्षत्रचन्द्रयोगादिज्ञानोपायशास्त्रम्। जोग-योगः-सम्बन्धः। उपायोपेयभावलक्षणः। अवसरलप्रश्न. १०९। ज्योतिषदेवविमानरूपम्। जीवा० ३३६) क्षणः। योग्यः। स्था० ११ योगो-लब्धस्य परिपालनम्। ज्योत्सनः-शुक्लः। जीवा० ३३९। ज्योतिः-चन्द्रः। उत्त. ज्ञाता० १०३। सम्बन्धः-अवसरः। जम्बू० ३। योगः१५०| ज्योतिष्कशब्देन तारकाः। प्रश्न. १६ नवमशतके सामर्थ्यम्। दशवै० २३१। वशीकरणादि। दशवै० २३६। ज्योति-ष्कविषयो दवितीय उद्देशः। भग०४२५। ज्योतिः- सम्बन्धः। प्रज्ञा०२५८१ स्था० ४८९। व्यापारः। निशी. अग्निः। जम्बू०७४। द्योतयन्तीति ज्योतीषि ९११ जोगः- आकाशगमनादिफलो द्रव्यसङ्घातः। पिण्ड. विमानानि। उत्त०७०१॥ २११ योगः- अन्तःकरणादिः। दशवै०१७। बीजा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [194] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] धानोद्धेदपोषणकरणम्। जीवा. २५५ क्षीराश्रवादीलब्धि- सङ्ग्रहणानि योगस-ङ्ग्रहाः। आव० ६६३। योगानां कलापसम्बन्धः। सूत्र०७। दिग्योगः। जम्बू०४९६ प्रशस्तव्यापाराणां सङ्ग्रहाः योगसङ्ग्रहाः। प्रश्न. १४६| मिथ्यात्वादिः। आव० ४७८1 द्रव्योपचारः। आव० १६९। योगसंग्रहः। दशवै० १०७। योग-सङ्ग्रहःमनोवाक्कायव्यापारलक्षणः धर्मशक्लध्यानलक्षणो वा। मनोवाक्कायव्यापारसङ्ग्रहः। आव०६६३। आव० ५८२। औदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्थ जोगसंलीणया-योगसंलीनता-अपसत्थाण निरोहो आत्मपरिणामविशेष-व्यापारः। आव० ५८३। जोगाण-मुदीरणं च कुसलाणं| कज्जंमि य विहिगमणं ज्ञानादिभावनाव्यापारः, सत्त्वसू-त्रतपः प्रभृतिर्वा। आव. जोए संलीणया भणिआ ||१|| दशवै. २९। ५९३। मनःप्रभृति। आव०६०७५ मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः - प्रत्युपेक्षणादिरूपसंयमयोगः। पिण्ड० १६७। कुशलानामुदीरणमित्येवंभूता योगसंलीनता। दशवै. २९। भावाध्ययन-चिन्तनादिशभव्यापारः। उत्त०८ जोगसच्च-योगसत्यं नाम छत्रयोगाच्छत्री मनोवाक्कायव्यापारः। प्रज्ञा० ३८२ किरिया। निशी० ७९ | दण्डयोगाद्दण्डी-त्येवमादि। दशवै. २०९। आ। दो घयपला मधुपलं दहियस्स य आढयं मिरियवासा | जोगसच्चा-पर्याप्तिकसत्यभाषाया नवमो भेदः। योगः खंडगुलदभागास-डसालूनि च, विद्देसणवसीकरणाणि सम्बन्धः तस्मात् सत्या योगसत्या। प्रज्ञा० २५६। वा। दशर्के १२६। श्रुताध्ययननिबन्धनतपोविशेषः। बृह० | जोगहाणी-योगहानिः-प्रत्युपेक्षणादिरूपसंयमयोगभ्रंशः। ११८ पिण्ड० १६७ जोगच्छेयपलिभागा-योगः-मनोवाक्कायविषयं वीर्य | जोगहीणं- योगहीनं-योगरहितं-सम्यग्कृतयोगोपचारम्। तस्य केवलिप्रज्ञाच्छेदेन प्रतिविशिष्टा निर्विभागा भागाः आव० ७३१| योगच्छेद-प्रतिभागाः। अनुयो० २४०। जोगा-योगाः-आवश्यकव्यापाराः। बृह. १४६ आ। जोगजुंजणा-योगयोजनाः-वशीकरणादि योगाः। प्रज्ञा० दुगमादिदव्वनियरा विद्देसणवसीकरणउच्छादण ९५ रोगावण-यणकरा व जोगा। निशी० ४४ अ। योगा:जोगजुत्तया-योगयुक्तता-संयमयोगयुक्तता। वशीक-रणादिप्रयोजनाः। प्रश्न. ११६) पंचविंशतितमोऽ-नगारगुणः। आव० ६६०/ जोगाणुजोगे- वशीकरणादियोगाभिधायकानि जोगधूवधूविओ- योगधूपधूपितः। आव० ११६। हरमेखलादि-शास्त्राणि। सम०४९। जोगपरिवुड्ढी- योगपरिवृद्धिः-अभिगृहीतेतरतपसोवृद्धिः। | जोगाणुभावजणियं- योगानुभावजनितं-मनोयोगादिगुणबृह० १५० । प्रभवम्। आव०५६८1 जोगपरिव्वाइया-योगपरिव्राजिका-समाधिप्रधानवतिनी- | जोगियं-यौगिकं-यदेतेषामेव दवयादिसंयोगवत्। प्रश्न. विशेषः। ज्ञाता०१५८१ ११७ जोगभूमी-विरायणजोगभूमीए विजे केति दिवसा सेसा जोगी-वेज्जो। निशी. १३९ अ। जोग-भूमयन्तो भण्णति। निशी. १९७ आ। जोग्गं- यग्य-गोल्कदेशप्रसिद्धो दविहस्तप्रमाणो जोगवड्ढी-जाव दिणे दिणे आहारेओ जोगवढीए इमा वेदिकोपशो-भितो जम्पानविशेषः। प्रश्न 1 जोगवड्ढी। निशी. ३४२। जोग्गा-योग्या-मण्डलीकरणाभ्यासः। जम्बू. २३५ जोगवहणं-योगवहनम्। दशवै. १०८1 योग्या। पिण्ड. ३३| गणनिका। औप०६५ जोगवाही- योगवाही। आव०८५४| जोणए-जोनकः-म्लेच्छविशेषः। जम्बू. २२० जोगविही-योगविधिः। ओघ. १७८ जोणगं-योनकम्। आव. १४७ जोगसंगहा- युज्यन्त इति योगाः-मनोवाक्कायव्यापाराः, | जोणि-योनिः-गर्भनिर्गमनद्वारम्। भग० २९८, ४९६| ते चाशुभप्रतिक्रमणात्प्रशस्ता एव गृह्यन्ते, तेषां | जोणिप्पमूहं- योनिप्रमुखं-योनिप्रवाहम्। जीवा० ३७२। शिष्याचार्यगता-नामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण अविध्वस्तयोनि, प्ररोहसमर्थम्। जागण मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [195] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] दशवै०१४० जीवा० ४०। भग० २७५। प्रज्ञा० ४८१ जोणिसूल-योनिशूलम्। भग० १९७ जोयणणीहारि-योजननिर्हारि-योजनव्यापि। आव. २३४, जोणी-योनिः-प्रज्ञापनाया नवमं पदम्। प्रज्ञा०६। युवन्ति २३७ तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त जोयणनीहारिणा सरेण-योजनातिक्रामिणा शब्देन। औदारिकादिशरीरप्रायोग्य- पुद्गलस्कन्धसमुदायेन उपा०२८ मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनिः- उत्पत्तिस्थानम्। प्रज्ञा. | जोयणनीहारी-योजनातिक्रमी स्वर इति। सम०६२ २२५। उप्फत्तिट्ठाणं। निशी० ५६ आ। योनिः-यौति- जोयसा-सतिसामत्थो, जं पमाणं भणितं तो पमाण मिश्रीभवति कार्मणशरीरिण औदा-रिकादि शरीरैरस्यां, उणहा-णमहि वा। दशवै० १२११ जन्तवो जुषन्ते सेवन्त इति वा। उत्त० १८३ जोयाविया-दर्शिताः। बृह. ५७ अ। जोणीओ- यौति-मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापद् जोवणं- शकटे गवादेर्योजनम्। बह. ५० अ। धान्यगलैर-समान् यस्यां ता योनयः प्रकारः। ओघ०७५ प्राणिनामुत्पतिस्थानानि। आचा० २४१ जोव्वण-यौवनम्। आव० ५६९। यौवनं-तारुण्यम्। ज्ञाता० जोणीपमुहं- योनिप्रमुखं-योनिप्रवाहम्। जीवा० १३४। २०| परमस्तरुणिमा। प्रज्ञा० ५५१| जाणापय-यानिपद-प्रज्ञापनाया नवम पदम्। भग०४९६) | जोसेमाणे-जुषन्-आचरन्। आचा०२६५। जोणीपोसगो-योनिपोषकः। आव० ८३० जोह-योधः-अतिशयशौर्यवान्। भग० ११५ जोणीसंगहे-योनिः उत्पत्तिहेर्जीवस्य तया सङ्ग्रह जोहा- योधाः-भटेभ्यो विशिष्टतराः। सहस्रयोधादयः। अनेके-षामेकशब्दाभिलाप्यत्वं योनिसङ्ग्रहः। भग. औप० २७ ३०३। योन्या सङ्ग्रहणं योनिसङ्ग्रहो योन्युपलक्षितं जोहारो-जुहारः-जयोत्कारः। आव० १०१। ग्रहणम्। जीवा०१३३ जोहि ढिल्लो-युधिष्ठिरः-पाण्डवपञ्चकानां मध्ये जोण्हा-ज्योत्स्ना-चन्द्रिका। ज्ञाता० १६१| ज्येष्ठः। अन्त०१५ जोण्हिया-चिलातदेशोत्पन्नम्लेच्छविशेषः। भग० ४६०। ज्झ-ध्याननिर्देशे। आव० ४४९। जोण्हे- ज्योत्स्नः-शुक्लपक्षः। सूर्य. १४९। शुक्लः। सूर्य ज्झामि-ध्याम-ध्यामलीकृतं१७९। आपादितपर्यायान्तरमित्यर्थः। भग० २१३। जोति-ज्योतिः-अग्निः। सौम्यप्रकाशः। स्था० ५१७। ज्झामिय-ध्यानमितं-श्यामीकृतम्। भग. २१३। जोतिरसे-ज्योतिरसकाण्डं-ज्योतरसाणां विशिष्टो ज्झुक्खुरं- शाखा। आव० ५१३॥ भूभागः। जीवा० ८९। ज्यूसिय-सेवितं-शोषितम्। भग० ११३। जोतिष्मती-तैलविधानोपयोगे वनस्पतिविशेषः। आव. ज्ञप्तिः - ज्ञापनं-ज्ञानम्। जम्बू०४१ ६१ ज्ञा–संवित्तिः । आव० २८२ जोतिसामयणे-ज्योतिषामयनं-ज्योतिः शास्त्रम्। ज्ञातं- उदाहरणम्। नन्दी० २३० अध्ययनम्। प्रश्न. २ भग०११२ ज्ञातपुत्रीयम्- महावीरसम्बन्धि। आचा० ४६| जोती-उद्दित्तं। निशी० ४८ अ। ज्ञाता-महावीरशान्तिजिनपूर्वजाः। स्था० ३५८। जोत्तं- योत्रम्। सूत्र० ३१२। योक्त्रं-यूपे वृषभसंयमनम्। ज्ञातिः- लोकैषणाबद्धिः। आचा० १८० प्रश्न. १६४। योक्त्रं-कण्ठबन्धनरज्जू। उपा०४४। ज्ञान-चेतना। आव० २४। सम० १३५) जोत्तयं-योक्त्रकम्। जम्बू० ५२७ ज्ञानपिण्डो-ज्ञानं स्फातिं नीयते येन। ओघ. १४७ जोनिक्यः-जोनकनामकदेशजः। जम्बू. १९१। ज्ञानविसंवादयोगः-अकालस्वाध्यायादिना। आव. ५८० जोयइ- योजयति। आव०६१४१ ज्ञानशुद्धं- यस्मिन् काले यत्प्रत्याख्यानं जोयण- चत्वारि गव्यूतानि योजनम्। अनुयो० १५६| | मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वा कर्तव्यं भवति तत् जानाति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [196] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] तज्ज्ञानशुद्धम्। स्था० ३५० झंपित्ता-झंपयित्वा-अनिष्टवचनावकाशं कृत्वा। सम० ज्ञानसंज्ञा-संज्ञाभेदः। जीवा० १५१ ५३ ज्ञानोपसम्पत्-सूत्रार्थयोः पूर्वगृहीतयोः स्थिरीकरणार्थं | झगिति-झटिति कृत्वा। भग० १७५१ तथा। विटितसन्धानार्थं तथा प्रथमतो झडिज्झति-क्लिश्यति। आव. २६२ ग्रहणार्थमुपसम्पद्यते। स्था० ५०१| आव० २७०। झडिति-झटिति। आव०६९० ज्ञापकम- अनुमानम्। नन्दी० १६५ झडियंगा-क्षपिताङ्गः। मरण। ज्येष्ठामूले-ज्येष्ठमास इत्यर्थः। ओघ० १५९। झड्डरविड्डरं-कण्डलविण्टलादि। व्यव० २४६। ज्योतिः-नक्षत्रः। स्था०६६। उदयोतः। ओघ० २०११ झत्ति- झटितीकृत्वा। भग० १७५ झटिति। उत्त. २२३। ___-x-x-x झय-ध्वजाः-सिंहगरुडादिरूपकोपलक्षिता बृहत्पट्टरूपा। जम्बू. १८८1 ज्ञाता०२० झंख-झषः-वारंवारं जल्प। पिण्ड० ९२ झयसंठिओ-ध्वजसंस्थितः। जीवा. २७९। झंझकरे- येन तेन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करो, येन वा झया- ध्वजा-गरुडादिध्वजा। प्रश्न. ४८१ विपा० ४६। गणस्य मनोदुःख समुत्पद्यते तद्भाषी, झरंति-स्वाध्यायं कुर्वन्ति। बृह. १७६अ। अष्टादशमसमाधि-स्थानम्। सम० ३७ झञ्झाकरः-येन झरए-झरति-परावर्तयति। व्यव० १०८ आ। येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करी, येन च गणस्य झरओ-स्मारकः। आव० ३०७ मनोदुःखमुत्पद्यते तद्भाषी। प्रश्न० १२५। झरित-क्षरितः-पतितः। ओघ० २२२ झंझकारी-झञ्झकारी-यो येन तेन गणस्य भेदो भवति । झरिय-स्थितसारः। व्यव. २५७। ज्ञातं निश्चितम्। सर्वो वा गणो झञ्झितो वर्तते तादृशं भाषते करोति वा। मरण। अष्टादश-मसमाधिस्थानम्। आव०६५५१ झलज्झला-उदकशब्दविशेषः। ओघ. १६७। झंझडिया-झंझडिया-रिणे अदिज्जते वणिएहिं झल्लरि-झल्लरी-चौवनद्धा विस्तीर्णा वलयाकारा। अणेगप्पका-रेहिं व्ययणेहिं झडिया। निशी० ४३ अ। राज० २५,४९। झल्लरिः-वलयाकारो वाद्यविशेषः। भग. झंझडिया-लतकसादिएहिं वा झडिता। निशी० ४३ अ। २१७ झल्लरी-चतुरङ्ग्लनालिः करटीसदृशी झंझविओ-झञ्झितः-उद्विग्नः। आव० ६५५ वलयाकारा। जम्बू. १९२। अल्पोच्छया महाम्खा झंझा-झञ्झा -कलहः। आव० ६६२| तृष्णा । सूत्र० ३२६) चर्मवनद्धा। भग०४७६| क्रोधो माया वा। सूत्र० २३५ माया लोभेच्छा वा। आचा० झल्लरी-वल्लयाकारा। औप०७३। चर्मावनद्धविस्तीर्ण २१०। कलहः। बृह. १९ । विप्रकीर्णा कोपविशेषाद्व वलया-कारा आतोद्यविशेषरूपा। प्रज्ञा० ५४२। चनपद्धतिः अणत्थ बहुप्पलावित्तं। भग० ९२४। चर्मावनद्धा विस्ती-र्णवलयाकारा। जीवा.१०५१ झंझाए- व्याकुलितमतिर्भवेत, व्याकुलतां परित्यजेत्। चर्मावनद्धाविस्तीर्णा वलयरूपा। जीवा० २४५ चर्मावनद्धा आचा० १७० विस्तीर्णवलयाकारा आतोदयवि-शेषरूपा। नन्दी०८८1 झंझाकारित्वम्- गणस्य चित्तभेदकारित्वं चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा आतोदयविशेषः। आव. मनोदुःखकारिवचन-भाषित्वं वा। ४१। अष्टादशमसमाधिस्थानम्। पञ्चमाधर्मदवारेऽष्टाद झल्लरीसंठिय-झल्लरीसंस्थितः-आवलिकाबाह्यस्य शमसमाधिस्थानम्। प्रश्न. १४४। विंशतितमं संस्थानम्। जीवा० १०४। झंझावाए-झञ्झावातः-यः सवृष्टिको वातः, झवंति-विध्यापयन्ति। बृह. १२ अ। अशुभनिष्ठुरो वा। जीवा० २९। झञ्झावातः झविया-क्षपिताः-निर्मूलिताः। उत्त० ४३८॥ सवृष्टिरशुभनिष्ठुरः। प्रज्ञा० ३० झस-झषः-मत्स्यः । ज्ञाता० १६८१ अरुणशिखेनाहतोऽनझंझावाया- झञ्झावाताः-अशुभनिष्ठुरा वाताः। भग० शनी मत्स्यः । मरण | झषः-मत्स्यविशेषः। प्रश्न.७ १९६| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [197] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] जीवा० २७० झामवन्ना-ध्यामवर्णाः-अनज्ज्वलवर्णाः। भग० ३०८। झसोदरो-झषो-मत्स्यस्तदरमिव तदाकारतयोदरं झामिअं-ध्मातम्। आव० ९११ यस्या सौ झषोदरः। उत्त० ४९० झामिता-दग्धा। आव० ३४५ झाइ-ध्यायति-प्रज्वलयति। ब्रह. २०१ अ। झामिया-दड्ढा। निशी० ११० अ| ध्माता-दग्धा। उत्त. झाएज्ज-प्रज्वलेत्। बृह. ११३ आ। १५० झाटनं-इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्ततः षण्णां झामेह-ध्मापयत-स्ववर्णत्याजनेन वर्णान्तरमापादयत। मासानुपरि-यान् मासानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपणं- अग्निसंस्कृतानि कुरुत। जम्बू० १६२१ अनोरोपणं, प्रस्थे चतुःसेतिकातिरिक्तधान्यस्येव। स्था० | झावण-ध्यापनं दाहः-भस्मसात्करणमिन्धनैः। आचा. ३२६॥ ६११ झाटयन-प्रस्फोटनं कारयन्। स्था० ३२९। झावणया-प्रदीपनकम्। ओघ० ११२ झाणं-अभ्यन्तरतपभेदः। भग. ९२२। ध्यानं-एकाग्रतया झावणा- घ्मापना-अग्निसंस्कारः। आव. १२९। करणम्। बृह. १४७आ। ध्यानं-दृढमध्यवसानं, झिंखिता-झिखित्वा-प्रभाष्य। आव. ५५ एकाग्रस्य चिन्तानिरोधश्च। दशवै. १४ झिंगिरा-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। जीवा० ३२१ ध्यातिानमिति भावसाधनः। आव० ५८१। चित्त- | झिंगिरिडा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ निरोधलक्षणं धर्मध्याना-धिकम्। सूत्र. १७५। चित्त- झिंझिए-बुभुक्षातः। बृह. १५६ आ। निरोधरूपम्। प्रश्न. १०७| चित्तनिरोधः। प्रश्न. १२८ झिज्जिए-क्षितः क्षीणशरीरः। जीवा० १२२१ एकाग्रतालक्षणम्। आतरौद्रध-र्मशुक्लाभिधानकम्।। झिज्झिरी-वल्लीपलाशः। आचा० ३४८१ प्रश्न.१४३ झिमियं- जाड्यता सर्वशरीरावयवानामवशित्वमिति। झाणंतरिआ-अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका, आचा० २३५ अथवा अन्तरमेवान्तर्य, ध्यानस्यान्तरिका झियाइ-ध्यायति-चिन्तयति। भग. १७५१ ध्यानान्तरिका-आरब्ध-ध्यानस्य झियायंति-ध्यायन्ति इन्धनैर्दीप्यन्त इति। स्था० ४२० समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणम्। जम्बू. १५०| झियायमाण-ध्यायमानः, ध्मायन वा दह्यमान इत्यर्थः। झाणंतरिया-ध्यानान्तरिका। आव. २२७। भग०१२१ आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणम्। जम्बू० झिल्लिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। जीवा. ३२१ १५१| अन्तरस्य, विच्छेदस्य करणमन्तरिका झिल्लिरी-मत्स्यबन्धनविशेषः। विपा. ८१| ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य झिल्ली- झिल्लिका-वनस्पतिविशेषरूपा। प्रज्ञा० ३७ समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः। भग. २२१। | झुंझिय- बुभुक्षितः। प्रश्न. ५२ झाणणिग्गहो-ध्याननिग्रहः। उत्त० ३३२ | झुसिर- झुषेःशोषस्य दानात् शुषिरम्। भग० ७७६। झाणसंताणो-ध्यानसन्तानः-ध्यानप्रवाहः। आव० ५८४। शुषिरम्। आव० ६२५। शुषिरं-शुषिरशतकलितम्। जीवा. झाणसंवरजोगे- ध्यानमेव संवरयोगः ध्यानसंवरयोगः। ११४। वादित्रविशेषः। जम्बू० ४१२। शुषिरं द्वात्रिं-शद्योगसङ्ग्रहेऽष्टाविंशतितमो योगः। आव. अन्तःसाररहितम्। दशवै० १७५ पलालादिच्छन्नम्। ६६४। ओघ० १२३। शुषिरं-वंशादिकम्। भग० २१७। शुषिरःझात्कारं-झल्लरीशब्दः। नन्दी० १७१। असारकायः। प्रश्न० ४१। शुषिरं-वंशादिकम्। जम्बू० झाप-ध्यायं-स्वाध्यायम्। बृह. १४५ आ। १०२। शुषिरः। गच्छा। झाम-ध्याम-दग्धच्छायम्। जीवा० ११४। दग्धम्। आचा. | झूसणं-जोषणं-सेवनम्। आव० ८४० ३२२| ध्यामः-अनुज्ज्वलच्छायः। प्रश्न०४१। झूसणा-जोषणा-सेवणा। उपा० १२ झामल-ध्यामलम्। आव०१४९। | झूसिए-जुष्ठः-सेवितः। झूषितः-क्षपितः। जम्बू० २८० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [198] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] झूसिया-झूषिताः-क्षीणा वा। जुष्टाः सेवितः। औप० ९६) झोडा-झोड:-पत्रादिशाटनं, तदयोगात्तेऽपिझोडाः। ज्ञाता०१७३। झषिः-इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्ततः षण्णां मासाना-मुपरि यान् मासानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपणं अनारोपणं, प्रस्थे चतुःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव जाटनमित्यर्थः। स्था० ३२५ झोसित्ता-क्षपयित्वा। ज्ञाता० ७७। झोषिताः-क्षपिताः क्षपितदेहाः। स्था०५७। झोसइ-झोषयति-शोषयति, क्षयं नयति। आचा० १६२१ झोसणं-जोषणाः-सेवनाः कारणानि। सम० १२० झोसमाणे-झोषयन्-क्षपयन्। आचा० २०४। झोसिए-झोषितः-क्षपितः। आचा. २०९। झोसिओ-सेवितः। आचा० २०९। क्षपितः। आचा० २२४। झोसेथ- गवेषयत(देशी)। बृह. १६२ आ। -x-x-x। इति द्वितीयो विभागः समाप्तः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [199] "आगम-सागर-कोषः" [२] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरुभ्यो नमः आगम-सागर-कोष: 2 [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि]