________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-२)
[Type text]
اوا
छुरिय-क्षुरिका। आव० ५७८1 शस्त्रविशेषः। निशी० १०५ छिवाडि-वल्लादिफलिका। प्रज्ञा० ३६३। मुगादेः फलिः। | | आचा० ३२३। मुद्गादिफलिः। दशवै. १८५१
छुरिया-क्षुरिका। उत्त०७११| छिवाडिआइ-छेवाडीनाम वल्लादिफलिका सा च छुहति-क्षिपति। आव. २२६) क्वचिद्देश-विशेषे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति। छुहाइएहिं-क्षुधातयोः। आव० ३६६) जम्बू० ३५
छुहाकुडुं- सुधाकुड्यं सुधामाष्टर्य कुड्यम्। ओघ० १२७। छिवाडी- तनुपत्र उच्छ्रितरूपः, अथवा अल्पबाहल्यः छुहातिया-क्षुधार्दिता। आव० ३२३। प्रथुलः पुस्तकः। बृह० २१९ आ। सपाटिका
छुहापरतो- क्षुधापरिगतः। आव० ८१४। यत्तनुपत्रोच्छित-रूपम्। आव० ६५२। छेवाडी
छुहालुया-क्षुधालुकाः। दशवै० ४२। वल्लादिफलिका। जीवा. १९११
छुहिय-बुभुक्षितः। ज्ञाता० १९२० छिवाडीय-सृपाटिका-तनपत्रोच्छितरूपा। स्था० २३३। छुढाणि-क्षिप्तानि। आव०६३। छिहलि-शिखा। आव०६४७।
छूढो- क्षिप्तः। प्रश्न०६० छिहली-शिखा। आव० ६२६। बृह. १०१ आ। सिहं। निशी. | छूहालू-क्षुधातः। आव० ३६६। ३५आ। छीए-क्षुतम्। आव० ७७९)
छे-छेकं, निपुणं, हितं, कालोचितम्। दशवै० १५७ छीअ-क्षवणं-क्षुतम्। आव. २५१
छेइत्ता-छित्वा-परित्यज्य। भग० १२८। छीत्कृतं- क्षुतिः। भग०६६४।
छए- छेकः-अवसरज्ञः, द्विसप्ततिकलापण्डित इति। छीर-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। औप०६५। कलापण्डितः। जम्बू. ३८८ छेकः-प्रयोगज्ञः। छीरल-क्षीरलः भुजपरिसर्पविशेषः। प्रश्न०८।
अनुयो० १७७ भग०६३१ छीरालि-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२
छेओ- छेकः असांव्यवहारिकः। आव. ५२७१ छीरिविरालिया-अनन्तकायभेदः। भग. ३०० भुजपरि- छेओवट्ठावणं- छेदोपस्थापनं-छेदश्चोपस्थापनं च सर्पविशेषः। प्रज्ञा०४६।
यस्मिंस्तत्, पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु छक्कारेति-छत्कारं करोति। जीवा० २४७।
चोपस्थापनमात्मनो यत्र तत्। आव० १९| छुट्टा-छुटिताः। आव० २२४॥
छओवट्ठावणिय-छेदे-प्राक्तनसंयमस्य व्यवच्छेदे सति छुड्ड-सुष्ठु। उत्त० २४५
यदप-स्थापनीयं-साधावारोपणीयं तच्छेदोपस्थापनीयं, छुडिया-क्षुद्रिका-आभरणविशेषः। प्रश्न. १५९। पूर्वपर्याय-च्छेदेन महाव्रतानामारोपणमित्यर्थः। भग. छुन्नमुहो- छुन्नमुखः-क्लीबमुखः। पिण्ड० १२५। ३५० छुन्ना-छिन्नाः। (संस्ता०)
छेओवट्ठावणीयं-छेदोपस्थापनीयम्। उत्त. २५८१ छुपंतु-स्पृशन्तु भवन्तित्यर्थः। भग० १२२
छेगे-छेकः-द्वासप्ततिकलापण्डितः। जीवा० १२२ छुप्पेज्ज-क्षिपतु। आव० ८२५१
छेज्जं-छेद्यम्। सूर्य. ११३। छेदयं पत्रछेदयादि। दशवै. छुब्भइ-प्रक्षिप्यते-प्रवेश्यते। बृह० १७५ अ। क्षुभ्यते- ८७। छेदनकर्म-द्विधा करणम्। दशवै० २७०। जातमहाऽद्भतशक्तिकः सन् ऊर्द्धमितस्ततो विप्रसरति। | छेज्जाछेयाणि- गच्छचिंतायां प्रमाणभतानि स्थेयानिजीवा० ३०७
अनेकशः प्रीतिकराणि। व्यव० २४१| छुभंति-प्रक्षिपन्ति। आव० १२८१
छत्तं-क्षेत्र स्थानम्। औप०४१ ज्ञाता० ३। क्षेत्रम्। ओघ. छुरं-क्षुरप्रम्। आव० ६२७
१६३ छुरघरगसंठिते-क्षुरगृहकसंस्थितम्। सूर्य. १३० छेत्तुडोअ-दव्वी। निशी० १२८ आ। छुरमुंडो-क्षुरमुण्डः। आव० ६४७।
छेत्तूण-छित्वा-दविधा विधाय। उत्त. २७३। छुरय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३
| छेद-करपत्रादिभिः पाटनम्। आव० ८१९। प्रव्रज्यापर्याय
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[169]
"आगम-सागर-कोषः" [२]