Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-२)
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कल्पकः- वैनयिकीबुद्धौ अर्थशास्त्र मन्त्री। नन्दी० १६१| कल्याणप्रापकत्वात्-अहिंसाया एकोनत्रिंशत्तमं नाम। कल्पद्वयपर्युषितः- कल्पद्वयपर्युषितस्तु
प्रश्न. ९९। शुभम्। मुक्तिहेतुः। उत्त० १२८॥ नियमाज्जिनकल्पि
तत्त्ववृत्तया तथाविधविशिष्टफलदायी, अनर्थोपशमकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दिकप्रतिमाप्रतिपन्नानामन्य कारि वा कल्याणरूपं फलविपाकं वा। जीवा. २०११ तमः। आचा० २८०
कल्याणं श्रेयः। भग० ११९। नीरोगताकारणम्। भग. कल्पनिका-शस्त्रविशेषः। भग० १९८१ सम० २९।
१२५। अनर्थोपशमहेतुत्वम्। भग० १६३। कल्योमोकल्पनी-की-शस्त्रविशेषः। उत्त० ४६०
क्षस्तमणति प्रापयतीति कल्याणं-दयाख्यं कल्पपालाः-सुरादिविक्रयकारिणः। मद्यपाः। व्यव० संयमस्वरूपम्। दशवै०१५८। गुणसम्पद्रुपः संयमः। ४२०
दशवै० १८९। तत्त्ववृत्या तथाविधविशिष्टफलदायी, कल्पस्त्रियः- कल्पयोः-देवलोकयोः स्त्रियः कल्पस्त्रियः- | अनर्थोपशमकारी। जम्बू०४७। कल्याणं-समृद्धिः। स्था. देव्यः । स्था.१००
११११ मंगलस्वरूपत्वात्-कल्याणम्। स्था० २४७। कल्पस्थितः- वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः। स्था० ३२४। अर्थप्राप्तिः । भग० ५४१। एकान्तसुखावहम्। जम्बू० कल्पा-संविग्नविहारः। बृह. ११३ अ।
११९| पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कल्यःकल्पातीतः-साधुभेदविशेषः। भग०४।
अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति अणति कल्पावतंसिका-कल्पावतंसकदेवप्रतिबद्धग्रन्थपद्धतिः। प्रज्ञापयतीति कल्याणः मुक्तिहेतुः। उत्त० १२८कल्यं निर०२११ नन्दी. २०७४
आरोग्यं अणन्ति-शब्दयन्तीति कल्याणाः। स्था० ४६४। कल्पिका-या कारणे प्रतिसेवना क्रियते सा। व्यव० ४७) नीरोगताकरणम्। ज्ञाता०७६| कल्या-नीरोगी। नन्दी. १६११
कल्लाणकार-कल्याणकरणं, मङ्गलकरणम्। ज्ञाता० कल्याणकं- यदासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः
२२० सकलसुरासुरेन्द्रा जीतमितिविधित्सवो युगपत् कल्लाणग-णाम ओहारो। निशी० ११३आ। निशी. ७६ ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते। जम्बू. १५६।
। कल्याणकं-अनुपहतं प्रवरम्। उपा० २६। कल्ल- कल्यः-अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षः। उत्त० १२८१ | कल्लाणपुक्खल-कल्यां-आरोग्यं कल्यमणतीति प्रत्यूषः। आव० १४८१ नीरोगया मोक्खो । दशवै. ७१। कल्याणं, पुष्कलं-सम्पूर्णं च कल्याणपुष्कलम्। आव. कल्यं श्वः, प्रादुः प्राकाश्ये च। ओघ० २६। सुखमारोग्यं | ७८८ शोभनत्वं वा। सूत्र० ३८३। कल्यं पूपकम्। ओघ० १७२, | कल्लाणयं- कल्याणकं-कल्याणकारि। जीवा० १६२ १७३। कल्ये। आव० ८५ कल्यं-आरोग्यम्। आव. ७८८1परमवस्त्रलक्षणोपेतम्। जीवा. २६९। श्वः। भग० १२७| कल्यः, मोक्षः। उत्त० १२८ दशवै. | कल्लाणी- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२ १५८ कल्यो-नीरोगः। चिन्तादिनापेक्षया दवितीयदिने। | कल्लालघर-कल्पपालगृहम्। अनुयो० १४२ उत्त० ४७६।
कल्लालत्तणं- कौलालत्वं-सुराविक्रेतृत्वम्। आव० ८२९। कल्लसरीरा-कल्यशरीराः, पटुशरीराः। स्था० २४७। कल्लुगा- कृन्तकाः। निशी० ८० आ। नदीपाषाणेषु कल्लाकल्लिं- प्रतिप्रभातम्। उपा०४०। प्रतिदिनम्। उत्पद्यमाना द्वीन्द्रियविशेषाः। बृह. १६२ आ। ज्ञाता० १४९। कल्ये च कल्ये च अदिनमिति
कल्लयावासा-द्वीन्द्रियविशेषः। जीवा. ३१| कल्याकल्यिं। विपा० ५१, ५८१
कल्लेदाणिं-नित्यं| निशी. १४४ आ। कल्लाणं-कल्यम्-आरोग्यं अणति-शब्दयतीति कल्लोलं- फलविशेषः। प्रश्न. १६२ कल्याणं। आव० ७८८ कल्याणं-एकान्तसुखावहम्। कल्हाडए- कल्हाडकः। गोरथकाः। बृह० १३८ आ। जीवा० २७८। इष्टार्थफलसंप्राप्तिः । सूत्र. ३८३।
कल्हारे-जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ कल्याणहेतुः। सूर्य० २६७। अर्थहेतुः। औप० ५। | कल्होडः- गोरथकः। दशवै० २१७।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [२]

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