Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 38
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] असमाधिः कषायसङ्क्लेशः। स्था० ४८९। कह-कथा वाक्यप्रबन्धरूपा। उत्त०४२४। कथंकसायसंलीणया- कषायसंलीनता, संलीनताया द्वितीयो | केनप्रकारेण केनान्वर्थेनेति। सूर्य० २९२। भेदः। सा च तद्दयनिरोधोदीर्णविफलीकरणलक्षणा। | कहंतरं- कथान्तरम्। आव ५९२ उत्त. ४२५ उच्चउदयस्सेव निरोहो उदयं पत्ताणं वाऽफलीकरणं, जं इत्थ | स्वरः। बृह. २१३ । कसायाणं कसायसंलीनता एसा। दशवै. २९। कहकहकं- प्रमोदभरजनितकोलाहलम्। जम्बू०४१९। कसाया- कषः, संसारस्तस्मिन् आ समन्तादयन्ते- | कहकहेंति-कहकहायमानं-प्रहसितविशेषः। प्रश्न. ५२। गच्छन्त्ये-भिरसुमन्त इति कषायाः, यद्वा कषाया इव | कहग-कथकः सरसकथाकथनेन श्रोतृरसोत्पत्तिकारकः। कषायाः। उत्त० १९०| कृषन्ति-विलिखन्ति-कर्म-क्षेत्रं | जम्बू. १२३। कथकः। अनुयो०४६। सुखदुःख-फल-योग्यं कुर्वन्ति-कलुषयन्ति वा | कहणविहि-कथनविधिः, कथनप्रकारः। आव० ८६२। जीवमिति निरुक्तविधिना कषायाः। स्था० १९३1 | कहणविही-कथनविधिः, कथनप्रकारः। आव०८०३। कलुषाः। ५८९ कषः-संसार-स्तमयन्ते | कहणा-धर्मकथालब्धिसंपन्नः। ओघ. ९३। गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः-क्रोधादयः परि- | कथनाकथनम्। आव. २३४॥ णामविशेषः। जीवा. १५ कहरत्तो-कथासु रक्तः-सक्तः कथारक्तः। ओघ० १२७। कसाहीया-मुकुलिअहिभेदविशेषः। प्रज्ञा०४६। कहल्लो-कभेल्लः-कर्परः। अन्त०१२। कसिण-कृत्स्नः -सम्पूर्णः। आव० ४९२, ५०० दशवै. कहा- संयमाराधनी या वाग्योप्रवृत्तिः । बृह. ४० अ। २३४। सूत्र० २७८१ व्यव० ३०१ आ। कृत्स्नः । भग० १४९। वाइगजोगेण संयमाराहणी कहा। निशी. १ आ। साधूवादं व्यव० ११८ आ। कृत्स्नं सर्वार्थग्राहकत्वात्। ज्ञाता० जल्पं वितडं वा एता तिण्णिवि कहा। निशी. २४० अ। १५३। कृत्स्नं कृष्णं वा उत्त०४८५ प्रधानभावम्। निशी | आख्यानकानि। सम० ११८ वचनपद्धतिः, १३६ आ। कृष्णं। क्लिष्टम्। दशवै० २३४| वण्णतो चरित्रवर्णनरूपा वा। स्था० १५६। ब्रह्मचर्यगुप्तेर्भेदः। जुत्तप्पमाणा। निशी०४९ अ। सदसं प्रमाणातिरिक्तं। आव० ५७२। कथा-वाक्यप्रबन्धः शास्त्रम्। सम०५५ निशी. १३८ आ। कथा-वार्ता। दशवै. ११४१ कसिणखंध- कृत्स्नस्कन्धः-परिपूर्णस्कन्धः। अनुयो. कहाहिगरणाइं-कथा-राजकथादिका अधिकरणानि च ४०१ यन्त्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानि। सम० ५५ कसिणधवलपडिवज्जगो-कृष्णधवलप्रतिपत्ता। आव० | कहिंथ- कुत्रात्र। उत्त० १६२ ३९४१ कहिय-कथितं-प्रबन्धेन प्रतिपादितम्। उत्त० ३४१। कसिणा-यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां कहियाइओ-कथितवान्। आव० २३७ तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्नारोपणा। सम०४७ कृत्स्ना । | कांक्षा- ऐहलौकिकपारलौकिकेष विषयेष्वाशंसा। तन्दु० यत्र झोषो न क्रियते। व्यव० १२४ आ। ७१८१ कसिणाओ- कृत्स्नाः , सम्पूर्णा अनुपहता। आचा० ३२३॥ | कांचणय- यस्मादुत्पलादीनि काञ्चनप्रभाणि कसिणे-घनमसृणानि यैः सूर्यो न दृश्यते। बृह. २४० अ। काञ्चननामानश्च देवास्तत्र परिवसन्ति ततः कसेरुगं- वनस्पतिविशेषः। आचा० ३४८१ काञ्चनप्रभोत्पलादियोगात् कसेरुमती-नदीविशेषः। व्यव. २२७ आ। काञ्चनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च सः काञ्चनकः। कसेरुया-जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ जीवा० २९१। कसेहि-परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कांचणिया-काञ्चनिका-राजधानीविशेषः। जीवा० २९२॥ कष्टतपश्चरणादिना कृशं करु, यदि वा “कष" कस्मै | कांजिक-जहण्णेणं ज्ञावे कोदवोदणो जूह, च तंदुलोदकं कर्मणेऽलमित्येवं पर्या-लोच्य यच्छक्नोषि तत्र मुद्-गरसो। निशी० ३२६ आ। नियोजयेरित्यर्थः। आचा. १९१| | काइआण-निकाय। जम्बू० ७५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [38] "आगम-सागर-कोषः" [२]

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