Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-२)
[Type text]
एकान्तरितादिक्षपण-कर्ता। बृह. ९४ आ।
खरंटो-3 जो मलो कमढं भण्णति। निशी. १९०आ। खमग-क्षपकं-मासक्षपकादिकम। ओघ०६४ अनशनी। खरंडिय-संतयं, निर्भय॑। आव० ४३१| भक्त०। उपोषिताः। बृह. २४४ आ। निशी. ५५। खर-खरस्थानम्। स्था० ३९७| निलम्। आ०८५४। क्षपकः। आ० १९५
गर्दभः। प्रज्ञा० २५२। जीवा० २८२। दासः। बृह. १६७ अ। खमणं- उपवासः। बृह. ९४ आ। क्षपण-अभक्तार्थः। व्यव० खरसन्नय। ओघ. १४६] १९१ आ।
खरउ-शातवाहनस्यामात्यः। व्यव० १९३ अ। खमणाइयं-क्षापणादि-अनशनतादि। आव० ८४० खरए-राह्वाप्रलापीमते कृष्णपुद्गलविशेषाः। सूर्य० २८७ खमया-क्षमा-क्रोधनिग्रहः। चतुर्दशोऽनगारगुणः। आव. | राहोः। चतुर्थनाम। भग० ५७५ राहो तृतीयनाम। सूर्य ६६०
२८७। दासदासीरूपं द्व्यरक्षकम्। बृह० १६४ आ। खमसि-क्षमसे क्षोभाभावेन। ज्ञाता०७१।
खरओ-यक्षरो वा कर्मकरः। ओघ० १५६। दासः बृह. खमा-क्षमा-अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपस्य
२२५ अ। द्वेषसज्ञितस्या-प्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा खरकंट- खरा-निरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टाः-कण्टकाः क्रोधमानयोरुदयनिरोधः। सम०४६। सङ्गतत्वम्। औप० | यस्मिं-स्तत् खरकण्टं बब्बूलादिडालम्। स्था० २४४। ५९। रोसावगमो। निशी० २१६अ। क्षमत्वम्। भग०४५९| | खरकंटयसमाणे-यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न खमामि-आत्मनि परे वाऽविकोपतया क्षमे। स्था० २४७। चलति अपितु प्रज्ञापकं दुर्वचनकण्टकैर्विध्यति स खमावणय-परस्यासन्तोषवतः क्षमोत्पादनम्। भग. खरकण्ट-कसमानः। स्था० २४३| ७२७
खरकंडे- खरकाण्डम्। कठिनो विशिष्टो भूभागः। जीवा. खमाह-क्षमस्व, सहस्व। उत्त० ३६७।
८९ खमिय-क्षपिकः। बृह० २०५ अ।
खरकम्मिअ-दण्डपासगः। ओघ० ८९। खय-क्षयः राजयक्ष्मा। बृह. १७०अ। सर्वविनाशः। भग. खरकम्मिए-खरकर्मिकः-आरोग्याभिरतौ ५३९।
बीजपुरवनदृष्टान्ते कुम्भकाराद्यन्यतमः। आव०४५३। खयक्का-कीलकः। उत्त०८५
खरकम्मिओ-खरकर्मिकः-आरक्षकः। ब्रह. १०२ आ। खरं- कठिनम्। जीवा० ८९। उच्चेण महंतेण सरेण जं खरकम्मिय-खरकर्मिकः। आव०६२७) सरीसं उक्तं तं खरं। नि० २९९ । खरस्थानम्। अनुयो) | खरकम्मिया-सन्नद्धपरिकराः। बृह० १२९ । रायप्१३३। सरोसवयणमिव अकंतंखरं। निशी. २७८ अ। रिसा। निशी० २१० अ। राजपुरुषाः। बृह० २१३। खरंट- खरण्टयति-लेपवन्तं करोति यत् तत् खरण्टं खरकर- लक्ष्णपाषाणभृतचर्मकोशकविशेषः, अशुच्यादि। स्था० २४४१
स्फुटितवंशो वा। प्रश्न. ५९| खरंटणा-खिंसना। ओघ० ४५ णिप्पिवासा। निशी० १३१ | खरग-खरकः-वैदयविशेषः। आव. २२६। दासः। निशी. अ। प्रवचनोपदेशपूर्वकं परुषभणनम्। ओघ०४२
१०५ आ। खरंठनं-निर्भर्त्सनम्। व्यव० १२० आ।
खरणं- बब्बूलादिडालम्। स्था० २४४। खरंटना-निर्भर्त्सना। बृह. १५० आ।
खरदूषणः- रावणभगिनीपतिः। प्रश्न० ८७ खरंटि-खरण्टनम्, लेपविशेषः। पिण्ड० ८७।
खरपम्हं- खरा णिसड्ढा दासाओ जस्स तं खरपम्हं। खरंटिओ-तिरस्कृतः। उत्त० १३९।
निशी. २४५आ। खरंटिता-खउरिता रोसेणेत्यर्थः। रुष्टः। निशी. २०७४ खरपिंड-कठिनपिण्डः। आचा० ३६१। खरंटेउं-निर्भय॑। बृह. ३९ आ।
खरफरुस-खरपरुषः अतिकर्कशः। आव० ६१७। ज्ञाता० खरंटेति-भर्त्सयति। निशी. २११ आ।
७९। स्पर्शतोऽतीवकठोरः। भग० ३०८५ खरंटेहिंति-निर्भर्त्सयिष्यन्ति। दशवै. ३८
| खरबायरपुढवी-खरबादरपृथिवी-मण्यादिषट्त्रिंशद्
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [२]

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