Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 88
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-२) [Type text] भेदात्मिको पृथिवी। आचा० २८१ | खलं-कुथितादि विशिष्टम्, अल्पधान्यादि वा। सूत्र. खरबादरपुढविक्काइया-खरा नाम पृथिवी संघातविशेष । ३२४। खलं-धान्यमेलनपचनादिस्थण्डिलम्। जम्बू काठिन्यविशेष वाऽऽपन्ना तदात्मका जीवा अपि खराश्च १४९| धान्यमेलनादिस्थण्डिलम्। ज्ञाता० १०४। ते बादरपृथिवीकायिकाश्च, खरा चासौ बादरपृथिवी च स | खलखलंति-खटत्खटदिति भवन्ति, खलखलशब्दं कायाः-शरीरं येषां ते एव खरबादरपृथिवीकायिकाः। कुर्वन्ति। आव० ७१९। जीवा० २२ खलखलिति-खलखलशब्दं करोति। उत्त० ३०३। खरमुखी-काहला, तस्स मुहत्थाणां खरमुहाकार खलखिलं-निर्जीवमित्यर्थः। व्यव० १९६ आ। कट्टमयमुहं कज्जति। निशी० ६२ अ। खलगं-जत्थ मंसं सोसंति। निशी. २२ आ। खरमुहि-खरमुखी काहला। भग० ४४७, २१६। जम्बू. खलणा-स्खलना-प्रतिसेवणा, भङ्गो, विराधना, उपघातः १०१ अशोधिः, शबलीकरणं, मइलणा च। ओघ. २२५१ खरमुही- काहला। जीवा० २४५ तोहाडिका। आचा० ४१२। | खलपुरिसो-खलपुरुषः। राजपुरुषविशेषः। आव० ८२१। खरमुखी-काहला। औप०७३। जीवा० २६६। खरमुही- खलमत्स्य-मत्स्यविशेषः। प्रश्न. ९। काहला। जम्बू. १९२| राय०२५१ खलयं-खलकं-धान्यमेलनस्थण्डिलम्। ज्ञाता० ११६। खरवायं-खरवातम्। आव० २१७५ खलयारिओ-स्खलीकृतः। आव० २९४१ खरशानया- पाषाणप्रतिमावत्। स्था० २३२॥ खलाहि- (देशी) अपसर। उत्त० ३५९। खरस्सरे- यो वज्रकण्टकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य | खलिणं-कायोत्सर्गस्य एकोनविंशतौ दोषेयोदशमदोषः। खरस्वरं कुर्वन्तं कुवन् वा कर्षति स खरस्वरः। चतुर्दशः । आव० ७९८१ अस्सरस्सी। दशवै० १५४। खालिनंपर-माधार्मिकः। आव० ६५०| चतुर्दशः परमाधार्मिकः।। कविकम्। आव० २६१। खलिनः-कविकः। ज्ञाता० २२० उत्त०६१४। सूत्र० १२४ खलियं-स्खलितं-छलितम। ओघ. २२५ विनष्टम्। बृह. खरा-कठिनाः। उत्त०६८९। सङ्घातविशेष १०२ आ। काठिन्यविशेषं वाऽऽपन्ना पृथिवी। जीवा० २२। निरन्तरा | खलियाइ-स्खलितादि। भग० ८९११ निष्ठरा वा। स्था० २४३ खलीकओ- उपसर्गितः। दशवै० ३७५ खरावत्ते-खरो-निष्ठरोऽतिवेगितया पातकछेदको वा खलीकुर्वन्ति- । ओघ० ४५ आव-तनमावतः स च समद्रादेश्चक्रविशेषाणां वेति खलीण-विषमभूमिः। आव. १६। खलिनं-कविकम्। खरावतः। स्था० २८८१ दशवै० २८३ खरि-द्वक्खरिदा। निशी. २० अ। खलीणा-खलीना-आकाशस्था। विपा० ४४। खरिए- यक्षरिका। ओघ० २२३। खलुंक- गलिरविनीत इति। स्था० ३५०| दुःशिष्यः। उत्त. खरिका-कठोरकर्मा। उत्त. १०७ १४८, ५५३। खरिमुह-खरमुखी-नपुंसकी दासी वा। व्यव० १५० अ। | खलुंकिज्ज- खलुकीयं, उत्तराध्ययनेषु खरियत्ताए-नगरबहिर्वति वेश्यात्वेन। भग०६९४१ सप्तविंशतितममध्यय-नम्। उत्त० ९। सम० ६४। खरिया- यक्षरिका। दासी। बृह० ४७ आ। व्यक्षरिका खलूकीयं-उत्तराध्ययनस्य सप्तविंशतितममध्ययनम्। ओघ. ५६। व्यक्षरिका-कर्मकरी। ओघ. १५६। दासी। उत्त० ५४८१ निशी० ३९ आ। खल-विशेषणे विशेषेण-अत्यर्थम्। आचा० १०५। खनिखरोदी-लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। श्चतम्। सूर्य. १४। अपिशब्दार्थः। आव० ५३०| खर्जु-कण्डूम्। स्था० ५०५ खलुए- गले। निशी० १३८ । पादमणिबन्धः। विपा० ७२। खर्च-स ए उन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति। | खलुकाः-जानुकादिसंधयः, जानुकादिसन्धिषु वातः। बृह० स्था० १८२ १२३ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [88] "आगम-सागर-कोषः" [२]

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