Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-२)
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कागजंध-जहिं मणीपडितो तलागे तत्थ रत्ताणि | काण-काणः, भिन्नाक्षः, स्फुटितनेत्रः। दशवै० २१५। जाणिताणि कायाणि भण्णंति। निशी० २५४ आ।
आच० ३८९। कागणिमंसं-काकणीमांसं लक्ष्णमांसखण्डम्। औप० । काणओ- चक्षुर्विकलः। बृह. ११९ अ। ८७। काकणीमांसं-तबेहोत्कृत्त हस्वमांसखण्डम्। विपा० काणकक्रयी- बहुमूल्यमपि अल्पमूल्येन चौराहृतं काणकं ४७ लक्ष्णखण्डपिशितम्। प्रश्न ५९
हीनं कृत्वा क्रीणातीत्येवंशीलः। प्रश्न०५८ कागणिरयणं-काकणीरत्नम्। चक्रिणो रत्नविशेषः। काणगं- व्याधिविशेषात्सच्छिद्रम्। आचा० ३४९। जम्बू. २३६।
काणग-काणकः-चोरितमहिषः। व्यव० २३१ आ। कागणिलक्खण-वासप्ततौ कलायां
काणगमहिसो-जो चारिओ स काणगमहिसो। निशी० ४३ वाचत्वारिंशत्तमा। ज्ञाता० ३८
आ। कागणी-रज्जं। निशी० २४३ आ। काकणी, चक्रिणो काणच्छि-काणाक्षः। निशी. २५७ अ। काणाक्षः। आव. रत्नविशेषः। जम्बू. १३८। सपादा गुञ्जा। अनुयो० १५५। २१८ काणाक्षि। आव. २१८ रुप्पमयं। निशी० ३३० अ।
काणण-सामान्यवृक्षजातियक्तानि नगराभ्यर्णवर्तीनि। कागणीरयणे- काकणीरत्नम्-सुवर्णाष्टकनिष्पन्नम्। स्त्रीणां पुरुषाणां वा केवलानां परिभोग्यानि वा। येभ्यः अनुयो० १७१।
परतो भूधरोऽटवी वा तानि सर्वेभ्योऽपि वनेभ्यः कागभुत्तं-काकभुक्तं यथा काक उच्चित्योच्चित्य पर्यन्तवर्तीनि वा। शीर्णवृक्षकलितानि वा। अनुयो. विष्ठादे-मध्यावल्लादि भक्षयति, विकिरति वा १५९। स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु काकवत्सर्वं, काकवदेव कवलं प्रक्षिप्य मुखे दिशो वनविशेषेषु अथवा-यत्परतः पर्वतोऽटवी वा भवति तानि विप्रेक्षते। ओघ. १९२
काननानि। ज्ञाता०६७। नगराद् दूरवर्तिवनखण्डः। कागलि-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२|
भग० ४८३। काननं-बृहवृक्षाश्रयैर्वनम्। उत्त०४५१| कागवन्नो-काकवर्णः-शिल्पसिद्धदृष्टान्तः
सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नं काननम्। राज० ११२। जितशत्रोरपरनाम। आव०४१०
काननं सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नम्। जीवा० २५८१ कागस्सर-काकस्वरं लक्ष्णाश्रव्यस्वरम्। अनुयो० १३२ सामान्यवृक्षोपेतं नगरासन्नं च। प्रश्न. १२७। लक्ष्णस्वरेण काकस्वरम्। जीवा० १९४।
सामान्यवृक्षो-पेतनगरासन्नवनविशेषः। प्रश्न०७३। कागा- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९।
दूरवर्तिवनम्। आव० १६८। सामान्यवृक्षसंयुक्तं कागिणी-काकिणिः-विंशतिकपर्दकाः। उत्त. २७२। नगरासन्नं वनम्। भग० २३८५ चक्रवतिरत्नम्। उत्त०६५०, २७६।
सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्नानि काननानि। कागिणीमंसगं- काकिणीमांसकं लक्ष्णमांसखण्डम्। ज्ञाता०३६। सूत्र. १२५। लक्ष्णमासम्। आव०६५१।
काणयं-काणकं-हीनम्। प्रश्न. ५८ कागो-काकः-वायसः। आव० ८५९।
काणव-वनस्पतिविशेषः। भग०८०३। कारावान- गृद्धः-मूर्छितः। आव. ५८७
काणिट्ट- लोहमय्य इष्टकाः। व्यव. १०६ आ। काच-काचः-पाषाणविकारः। औप० ९३।
पाषाणमय्यः पक्वेष्टिका वा बलिका महत्यश्च कणिका, काचनं- बन्धनम्। स्था० २२२१
तन्मयगृहकारापकः। बृह० ५० आ। काजिक-आरनालं। बृह. २६७आ। सौवीरकम्। स्था० काणियं-काणितम्। आव. ३९६। अक्षिरोगः। आचा. १४८ अम्लम्। स्था०४९२ आरनालम्। ओघ०१५४१ २३३ काजिकपत्रं- काजिकेन बाष्पितम्। बह. २६७ आ। | काणो-काणः-दीपकाणः, फरलः। प्रश्न. २५ काञ्जिका-आरनालम्। ओघ० २१५)
काण्डं-धनुः। भग० ९३ काडिअं- कौट्यौ, उभयप्रान्तौ। जम्बू. २०११
| कातिता-कायिकी, कायचेष्टा। स्था० ३१७)
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [२]

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