Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दसवाँ चरमपद]
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८१५.[१] णेरइया णं भंते भासाचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१५-१ प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [८१५-१ उ.] गौतम ! (वे भाषाचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं एगिंदियवज्जा निरंतरं जाव वेमाणिया ।
[८१५-२] एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक देवों तक लगातार इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।)
८१६.[१] णेरइए णं भंते ! आणापाणुचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे ।
[८१६-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक आनापान (श्वासोच्छ्वास)-चरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम?
[८१६-१ उ.] गौतम ! (आनापानचरम की दृष्टि से एक) नैरयिक कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है।
[२] एवं णिरंतरं जाव तेमाणिए । [८१६-२] इसी प्रकार लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१७.[१] णेरड्या णं भंते ! आणापाणुचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१७-२ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आनपानचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम? [८१७-२ उ.] गौतम ! (आनपानचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८१७-२] इसी प्रकार अविच्छिन्नरूप से (अनेक) वैमानिक देवों तक (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१८.[१] णेरइए णं भंते ! आहारचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१८-१ प्र.] भगवन् ! आहारचरम की अपेक्षा से (एक) नैरयिक चरम है अथवा अचरम?